Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 9(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयःस्कन्धःनवमोऽध्यायःगुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा)

Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 9(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयःस्कन्धःनवमोऽध्यायःगुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा)

[अथ नवमोऽध्यायः]

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:-नारदजी बोले- हे तात ! आपने गुणोंके लक्षणोंका वर्णन किया, किंतु आपके मुखसे निःसृत वाणीरूपी मधुर रसका पान करता हुआ मैं अभी भी तृप्त नहीं हुआ हूँ ॥ १ ॥
अतएव अब आप इन गुणोंके सूक्ष्म ज्ञानका यथावत् वर्णन कीजिये, जिससे मैं अपने हृदयमें परम शान्तिका अनुभव कर सकूँ ॥ २ ॥
व्यासजी बोले- अपने पुत्र महात्मा नारदके इस प्रकार पूछनेपर रजोगुणसे आविर्भूत सृष्टि- निर्माता ब्रह्माजीने कहा ॥ ३ ॥
ब्रह्माजी बोले- हे नारद ! सुनिये, अब मैं गुणोंका विस्तृत वर्णन करूँगा; यद्यपि मैं इस विषयमें सम्यक् ज्ञान नहीं रखता फिर भी अपनी बुद्धिके अनुसार आपसे वर्णन कर रहा हूँ ॥४॥
केवल सत्त्वगुण कहीं भी परिलक्षित नहीं होता है। गुणोंका परस्पर मिश्रीभाव होनेके कारण वह सत्त्वगुण भी मिश्रित दिखायी देता है ॥ ५ ॥
जिस प्रकार सब भूषणोंसे विभूषित तथा हाव- भावसे युक्त कोई सुन्दरी स्त्री अपने पतिको विशेष | प्रिय होती है तथा माता-पिता एवं बन्धु-बान्धवोंके

 

लिये भी प्रीतिकर होती है, किंतु वही स्त्री अपनी सौतोंके मनमें दुःख और मोह उत्पन्न करती है। इसी प्रकार सत्त्वगुणके स्त्रीभावापन्न होनेपर रजोगुण और तमोगुणसे मिलनेपर भिन्न वृत्ति उत्पन्न होती है।
ऐसे ही रजोगुण तथा तमोगुणके स्त्रीभावापन्न होनेपर एक-दूसरेके परस्पर संयोगके कारण विपरीत भावना प्रतीत होती है ॥ ६-९॥
हे नारद ! यदि ये तीनों गुण परस्पर मिश्रित न होते तो उनके स्वभावमें एक-सी ही प्रवृत्ति रहती, किंतु तीनों गुणोंमें मिश्रण होनेके कारण ही विभिन्नताएँ दिखायी देती हैं ॥ १० ॥
जैसे कोई रूपवती स्त्री यौवन, लज्जा, माधुर्य तथा विनयसे युक्त हो, साथ ही वह धर्मशास्त्रके अनुकूल हो तथा कामशास्त्रको जाननेवाली हो, तो वह अपने पतिके लिये प्रीतिकर होती है; किंतु सौतोंके लिये कष्ट देनेवाली होती है ॥ ११-१२॥
[सौतोंके लिये] मोह तथा दुःख देनेवाली होनेपर भी कुछ लोगोंके द्वारा वह सत्त्वगुणी कही जाती है और सत्त्वगुणके अनेक शुभ कार्य करनेपर भी वह सौतोंको विपरीत भाववाली प्रतीत होती है ॥ १३ ॥
जैसे राजाकी सेना चोरोंसे पीड़ित सज्जनोंके लिये सुख देनेवाली होती है, किंतु वही सेना चोरोंके लिये दुःखदायिनी, मूढ़ तथा गुणहीन होती है ॥ १४ ॥ इससे प्रकट होता है कि स्वाभाविक गुण भी
विपरीत लक्षणोंवाले दीख पड़ते हैं। जैसे किसी दिन जब चारों ओर काले काले मेघ घिर आये हों, बिजली चमक रही हो, मेघ गरज रहे हों, अन्धकारसे आच्छादित हो और घनघोर वर्षाके कारण सूखी भूमि सिंच रही हो,
तब भी लोग उसे तमोरूप गाढ़ान्धकारसे व्याप्त दुर्दिन नामसे ही पुकारते हैं। एक ओर वही दुर्दिन किसानोंको खेत जोतने तथा बीज बोनेकी सुविधा देनेके कारण सुखदायी प्रतीत होता है, किंतु दूसरी ओर वही दुर्दिन उन अभागे गृहस्थोंके लिये दुःखदायी हो जाता है,
जिनके घर अभी छाये नहीं जा सके हैं और जो तृण, काष्ठ आदिके संग्रहमें व्यस्त हैं। साथ ही वही दुर्दिन उन स्त्रियोंके हृदयमें शोक उत्पन्न करता है, जिनके पति परदेश गये हों।

 

उसी प्रकार ये सत्त्वादि गुण अपनी स्वाभाविक परिस्थितिमें रहते हुए भी अन्य गुणोंसे मिलनेपर विपरीत दृष्टिगोचर होते हैं ॥ १५-१९ ॥
हे पुत्र ! अब मैं उन गुणोंके लक्षण पुनः बता रहा हूँ; सुनो। सत्त्वगुण सूक्ष्म, प्रकाशक, स्वच्छ, निर्मल एवं व्यापक होता है। जब मानवके सम्पूर्ण अंग और नेत्र आदि इन्द्रियाँ हल्के हों,
मन निर्मल हो तथा वह उन राजस एवं तामस विषयोंको न ग्रहण करता हो, तब यह समझ लेना चाहिये कि शरीरमें अब सत्त्वगुण प्रधानरूपसे विद्यमान है।
जब जिस किसीकी देहमें रजोगुण प्रधानरूपसे विद्यमान रहता है तब यह बार-बार जम्हाई, स्तम्भन, तन्द्रा तथा चंचलता उत्पन्न करता है। इसी प्रकार जब अत्यन्त कलह करनेका मन चाहता हो, अन्यत्र जानेकी इच्छा हो, चित्त चंचल हो और वाद-विवादमें उलझनेकी प्रवृत्ति हो,
मनमें काम-भावनाका गहरा परदा पड़ जाय, तब यह समझ ले कि शरीरमें तमोगुणकी प्रधानता है। उस समय शरीरके अंग भारी हो जाते हैं, इन्द्रियाँ तामसिक भावोंके वशीभूत रहती हैं, चित्त विमूढ़ रहता है और वह निद्राकी इच्छा नहीं करता। हे नारद! इस प्रकार सभी गुणोंके लक्षण समझना चाहिये ॥ २०-२५३ ॥
नारदजी बोले- हे पितामह ! आपने तीनों गुणोंको भिन्न-भिन्न लक्षणोंवाला बताया, तो फिर ये एक स्थानमें होकर निरन्तर कार्य कैसे करते हैं ? विपरीत होते हुए भी शत्रुरूप ये गुण एकत्र होकर परस्पर मिल करके किस प्रकार कार्य करते हैं; यह मुझे बताइये ॥ २६-२७३ ॥
ब्रह्माजी बोले- हे पुत्र ! सुनो, मैं बताता हूँ।उन तीनों गुणोंका स्वभाव दीपकके समान है। जैसे दीपकमें तेल, बत्ती और अग्निशिखा तीनों परस्पर विरोधी धर्मवाले हैं, परंतु तीनोंके सहयोगसे ही दीपक वस्तुओं आदिका दर्शन कराता है।
यद्यपि आगके साथ मिला हुआ तेल आगका विरोधी है और तेल बत्ती तथा अग्निका विरोधी है तथापि वे एकत्र होकर | वस्तुओंका दर्शन कराते हैं ॥ २८-३० ३ ॥

 

नारदजी बोले- हे सत्यवतीसुत व्यासजी ! ये सत्त्वादि तीनों गुण भी प्रकृतिसे उत्पन्न कहे गये हैं और ये जगत्के कारण हैं, जैसा मैंने पहले भी सुना है ॥ ३१३ ॥
व्यासजी बोले- [हे राजन् !] इस प्रकार नारदजीने विस्तारपूर्वक गुणोंके लक्षण और उनके विभागोंके सहित कार्योंको भी मुझे बतलाया है।
सर्वदा उन्हीं परमशक्तिकी आराधना करनी चाहिये, जिनसे यह समस्त संसार व्याप्त है। वे भगवती कार्यभेदसे सगुणा और निर्गुणा दोनों हैं। वह परमपुरुष तो अकर्ता, पूर्ण, निःस्पृह तथा परम अविनाशी है; ये महामाया ही सत् और असद्रूप जगत्की रचना करती हैं।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, विश्वकर्मा, कुबेर, वरुण, अग्नि, वायु, पूषा, कुमार कार्तिकेय और गणपति – ये सभी देवता उन्हीं महामायाकी शक्तिसे युक्त होकर अपने-अपने कार्य करनेमें समर्थ होते हैं। हे मुनीश्वरो ! यदि ऐसा न हो तो वे हिलने-डुलनेमें भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ ३२-३७ ॥
हे राजन् ! वे परमेश्वरी ही इस जगत्की परम कारण हैं, अतः हे नरपते ! अब आप उन्हींकी आराधना करें, उन्हींका यज्ञ करें और परम भक्तिके साथ विधिवत् उन्हींका पूजन करें। वे ही महालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती हैं।
वे सब जीवोंकी अधीश्वरी, समस्त कारणोंकी एकमात्र कारण, सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली, शान्तस्वरूपिणी, सुखपूर्वक सेवनीय तथा दयासे परिपूर्ण हैं ॥ ३८-४० ॥
ये भगवती नामोच्चारणमात्रसे ही मनोवांछित फल देनेवाली हैं। पूर्वकालमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं तथा मोक्षकी कामना करनेवाले अनेक जितेन्द्रिय तपस्वियोंने उनकी आराधना की थी।
किसी प्रसंगवश अस्पष्टरूपसे ही उच्चारित किया गया उनका नाम सर्वथा दुर्लभ मनोरथोंको भी पूर्ण कर देता है ॥ ४१-४२३ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! इस सम्बन्धमें एक दृष्टान्त है- सत्यव्रत नामके एक मुनिने वनमें व्याघ्रादि हिंसक पशुओंको देखकर भयसे पीड़ित होकर ‘ऐ-ऐ’
शब्दका उच्चारण किया था। उस बिन्दुरहित बीज- मन्त्र (ऐं) का उच्चारण करनेके फलस्वरूप उसे भगवतीने मनोवांछित फल प्रदान कर दिया था। यह दृष्टान्त हम पुण्यात्मा मुनियोंके लिये प्रत्यक्ष ही है ॥ ४३-४४ ॥
हे राजन् ! ब्राह्मणोंकी सभामें विद्वानोंके द्वारा उदाहरणके रूपमें उस सत्यव्रतके कहे जाते हुए सम्पूर्ण आख्यानको मैंने विस्तारपूर्वक सुना था।
सत्यव्रत नामवाले उस निरक्षर तथा महामूर्ख ब्राह्मणने वह ‘ऐ-ऐ’ शब्द एक कोलके मुखसे सुनकर स्वयं भी उसका उच्चारण किया।
बिन्दुरहित ‘ऐं’ बीजका उच्चारण करनेसे भी वह श्रेष्ठ विद्वान् हो गया। ऐकारके उच्चारणमात्रसे भगवती प्रसन्न हो गयीं और दयार्द्र होकर उन परमेश्वरीने उसे कविराज बना दिया ॥ ४५-४८ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां तृतीयस्कन्धे गुणपरिज्ञानवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

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