Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 30(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयःस्कन्ध:त्रिंशोऽध्यायःश्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रव्रतकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना)

Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 30(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयःस्कन्ध:त्रिंशोऽध्यायःश्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रव्रतकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना)

 

[अथ त्रिंशोऽध्यायः]

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:-व्यासजी बोले- इस प्रकार राम और लक्ष्मण परस्परमें परामर्श करके ज्यों ही चुप हुए, त्यों ही आकाशमार्गसे देवर्षि नारद वहाँ आ गये ॥ १ ॥
उस समय वे स्वर तथा ग्रामसे विभूषित अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए तथा बृहद्रथन्तर सामका गायन करते हुए उनके समीप पहुँचे ॥ २ ॥
उन्हें देखते ही अमित तेजवाले श्रीरामने उठकर उन्हें श्रेष्ठ पवित्र आसन प्रदान किया और तत्पश्चात् अर्घ्य तथा पाद्यसे उनकी पूजा की ॥ ३ ॥
भलीभाँति पूजा करनेके बाद भगवान् श्रीराम हाथ जोड़कर खड़े हो गये और फिर मुनिके आज्ञा देनेपर उनके पास ही बैठ गये ॥ ४ ॥
तब अपने अनुज लक्ष्मणके साथ बैठे हुए खिन्न-मनस्क रामसे मुनीन्द्र नारदजी प्रेमपूर्वक कुशलक्षेम पूछने लगे ॥ ५ ॥
नारदजी बोले- हे राघव ! आप इस समय साधारण मनुष्यके समान शोकाकुल क्यों हैं? मैं यह जानता हूँ कि दुष्ट रावण सीताको हर ले गया है।
जब मैं देवलोकमें गया था, तभी मैंने वहाँ सुना कि अपनी मृत्युको न जाननेसे ही मोहके वशीभूत होकर रावणने जनकनन्दिनीका हरण कर लिया है ॥ ६-७ ॥
हे काकुत्स्थ ! आपका जन्म ही रावणके निधनके लिये हुआ है। हे नराधिप ! इसी कार्यसिद्धिके लिये सीताका हरण हुआ है ॥ ८ ॥
पूर्वजन्ममें ये वैदेही एक मुनिकी तपस्विनी कन्या थीं। उस पवित्र मुसकानवाली कन्याको रावणने वनमें तप करते हुए देखा। हे राघव ! तब रावणने उससे प्रार्थना की कि तुम मेरी पत्नी बन जाओ। इसपर उसके द्वारा तिरस्कृत किये गये रावणने बलपूर्वक उसके केश पकड़ लिये ॥ ९-१० ॥
हे राम ! रावणके स्पर्शसे दूषित अपनी देहको त्यागनेकी आकांक्षा रखती हुई उस तापसी मुनिकन्याने अत्यन्त कुपित होकर उसे तत्काल यह घोर शाप दे दिया कि हे दुरात्मन् ! तुम्हारे विनाशके लिये मैं भूतलपर गर्भसे जन्म न लेकर एक श्रेष्ठ स्त्रीके रूपमें प्रकट होऊँगी-ऐसा कहकर उस तापसीने अपना शरीर त्याग दिया ॥ ११-१२ ॥
लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न यह सीता वही है; जिसे भ्रमवश माला समझकर नागिनको धारण करनेवाले व्यक्तिकी भाँति रावणने अपने ही वंशका नाश करनेके लिये हर लिया है ॥ १३ ॥
हे काकुत्स्थ ! आपका भी जन्म उसी रावणके नाशके लिये देवताओंके प्रार्थना करनेपर अनादि भगवान् विष्णुके अंशसे अजवंशमें हुआ है ॥ १४॥
हे महाबाहो ! आप धैर्य धारण करें; वे किसी दूसरेके वशमें नहीं हो सकतीं ! वे सतीधर्मपरायण सीता लंकामें दिन-रात आपका ध्यान करती हुई रह रही हैं ॥ १५ ॥
स्वयं इन्द्रने एक पात्रमें कामधेनुका दूध सीताको पीनेके लिये भेजा था, उस अमृततुल्य दूधको उन्होंने पी लिया है। वे कामधेनुके दुग्धपानसे भूख-प्यासके दुःखसे रहित हो गयी हैं। मैंने उन कमलनयनीको स्वयं देखा है ॥ १६-१७ ॥
हे राघवेन्द्र ! मैं उस रावणके नाशका उपाय बताता हूँ। अब आप इसी आश्विनमासमें श्रद्धापूर्वक नवरात्रव्रत कीजिये ॥ १८ ॥
हे राम ! नवरात्रमें उपवास तथा जप-होमके विधानसे किया गया भगवती-पूजन समस्त सिद्धियोंको प्रदान करनेवाला है। देवीको पवित्र बलि देकर तथा दशांश हवन करके आप पूर्ण शक्तिशाली बन जायँगे ॥ १९-२० ॥
पूर्वकालमें भगवान् विष्णु, शिव, ब्रह्मा तथा स्वर्ग-लोकमें विराजमान इन्द्रने भी इसका अनुष्ठान किया था ॥ २१ ॥
हे राम ! सुखी मनुष्यको इस व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये और कष्टमें पड़े हुए मनुष्यको तो यह व्रत विशेषरूपसे करना चाहिये ॥ २२ ॥
हे काकुत्स्थ ! विश्वामित्र, भृगु, वसिष्ठ और कश्यप भी इस व्रतको कर चुके हैं; इसमें सन्देह नहीं है। इसी प्रकार हरण की गयी पत्नीवाले गुरु बृहस्पतिने भी इस व्रतको किया था। इसलिये हे राजेन्द्र !
रावणके वध तथा सीताकी प्राप्तिके लिये आप इस व्रतको कीजिये। पूर्वकालमें इन्द्रने वृत्रासुरके वधके लिये तथा शिवने त्रिपुरदैत्यके वधके लिये यह सर्वश्रेष्ठ व्रत किया था। हे महामते !
इसी प्रकार भगवान् विष्णुने भी मधुदैत्यके वधके लिये सुमेरुपर्वतपर यह व्रत किया था, अतः हे काकुत्स्थ ! आप भी आलस्यरहित होकर विधिपूर्वक यह व्रत कीजिये ॥ २३-२६ ॥
श्रीराम बोले- हे दयानिधे! आप सर्वज्ञ हैं, अतः मुझे विधिपूर्वक बताइये कि वे कौन देवी हैं, उनका प्रभाव क्या है, वे कहाँसे उत्पन्न हुई हैं, उनका नाम क्या है तथा वह व्रत कौन-सा है ? ॥ २७ ॥
नारदजी बोले- हे राम ! सुनिये – वे देवी नित्य, सनातनी और आद्याशक्ति हैं, वे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण कर देती हैं और अपनी आराधनासे सभी प्रकारके कष्ट दूर कर देती हैं ॥ २८ ॥
हे रघुनन्दन ! वे ब्रह्मा आदि देवताओं तथा समस्त जीवोंकी कारणस्वरूपा हैं। उनसे शक्ति पाये बिना कोई हिल-डुल सकनेमें भी समर्थ नहीं है ॥ २९ ॥
वे ही मेरे पिता ब्रह्माकी सृष्टि-शक्ति हैं, विष्णुकी पालन-शक्ति हैं तथा शंकरकी संहार- शक्ति हैं। वे कल्याणमयी पराम्बा अन्य शक्तिरूपा भी हैं ॥ ३० ॥
इन तीनों लोकोंमें जो कुछ भी कहीं भी सत् या असत् पदार्थ है, उसकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण इस देवीके अतिरिक्त और कौन हो सकता है ? ॥ ३१ ॥
इस सृष्टिके आरम्भमें जब ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, इन्द्रादि देवता, पृथ्वी और पर्वत आदि कुछ भी नहीं रहता, तब उस समय वे निर्गुणा, कल्याणमयी, परा प्रकृति ही परमपुरुषके साथ विहार करती हैं ॥ ३२-३३ ॥
वे ही बादमें सगुणा शक्ति बनकर सर्वप्रथम ब्रह्मा आदिका सृजन करके और उन्हें शक्तियाँ प्रदानकर तीनों भुवनोंकी सम्यक् रचना करती हैं ॥ ३४ ॥
उन आदिशक्तिको जानकर प्राणी संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है। विद्यास्वरूपा, वेदोंकी आदिकारण, वेदोंको प्रकट करनेवाली तथा परमा उन भगवतीको अवश्य जानना चाहिये ॥ ३५ ॥
ब्रह्मादि देवताओंने गुण-कर्मके विधानानुसार उनके असंख्य नाम कल्पित किये हैं, मैं कहाँतक बताऊँ ? हे रघुनन्दन ! ‘अ’ कारसे लेकर ‘क्ष’ पर्यन्त सभी स्वरों तथा वर्णोंके संयोगसे उनके असंख्य नाम बनते हैं ॥ ३६-३७ ॥
श्रीराम बोले- हे देवर्षे ! इस नवरात्रव्रतका विधान मुझे संक्षेपमें बताइये; मैं आज ही श्रद्धापूर्वक श्रीदेवीका विधिवत् पूजन करूँगा ॥ ३८ ॥
नारदजी बोले- हे राम ! किसी समतल भूमिपर पीठासन बनाकर उसपर भगवती जगदम्बिकाकी स्थापना करके विधानपूर्वक नौ दिन उपवास कीजिये। हे राजन् ! इस कार्यमें मैं आचार्य बनूंगा; क्योंकि देवताओंके कार्य करनेमें मैं अधिक उत्साह रखता हूँ ॥ ३९-४० ॥
व्यासजी बोले – नारदजीका वचन सुनकर प्रतापी श्रीरामने उसे सत्य मानकर तदनुसार एक सुन्दर पीठासन बनवाकर उसपर अम्बिकाकी स्थापना की।
व्रतधारी भगवान् श्रीरामने आश्विनमास लगनेपर उस श्रेष्ठ पर्वतपर उन भगवतीका पूजन किया। उपवासपरायण श्रीरामने यह श्रेष्ठ व्रत करते हुए विधिवत् होम, बलिदान और पूजन किया।
इस प्रकार दोनों भाइयोंने नारदजीके द्वारा बताये गये इस व्रतको प्रेमपूर्वक सम्पन्न किया। उनसे सम्यक् पूजित होकर अष्टमीकी मध्यरात्रिकी वेलामें भगवती दुर्गाने सिंहपर सवार होकर उन्हें साक्षात् दर्शन दिया।
तदनन्तर भक्तिभावसे प्रसन्न उन भगवतीने पर्वतके शिखरपर स्थित होकर लक्ष्मणसहित रामसे मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा ॥ ४१-४५ ३ ॥
देवी बोलीं- हे राम ! हे महाबाहो ! इस समय मैं आपके व्रतसे सन्तुष्ट हूँ। आपके मनमें जो भी हो, उस अभिलषित वरको माँग लीजिये। आप पवित्र मनुवंशमें नारायणके अंशसे उत्पन्न हुए हैं।
हे राम ! देवताओंके प्रार्थना करनेपर रावणके वधके लिये आप अवतरित हुए हैं। पूर्वकालमें मत्स्यरूप धारणकर भयानक राक्षसका वध करके देवताओंके हितकी इच्छावाले आपने ही वेदोंकी रक्षा की थी।
पुनः कच्छपके रूपमें अवतार लेकर मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया, जिससे समुद्रका मन्थन करके [अमृतपान कराकर] देवताओंका पोषण किया था। हे राम ! आपने वराहका रूप धारणकर अपने दाँतोंकी नोंकपर पृथ्वीको रख लिया और हिरण्याक्षका वध किया था।
हे राघव ! हे राम ! पूर्वकालमें नरसिंहका रूप धारणकर प्रह्लादकी रक्षा करके आपने हिरण्यकशिपुका वध किया था। इसी प्रकार पूर्वकालमें वामनका रूप धारण करके आपने बलिको छला था। उस समय इन्द्रका लघु भ्राता बनकर आपने देवताओंका महान् कार्य सिद्ध | किया था। पुनः भगवान् विष्णुके अंशसे जमदग्निके
पुत्र परशुरामके रूपमें अवतरित होकर क्षत्रियोंका अन्त करके आपने सारी पृथ्वी ब्राह्मणोंको दे दी थी। उसी प्रकार हे काकुत्स्थ ! रावणके द्वारा अत्यधिक सताये गये सभी देवताओंके प्रार्थना करनेपर इस समय आप ही दशरथपुत्र श्रीरामके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं॥ ४६-५४३ ॥
हे नरोत्तम ! देवताओंके अंशसे उत्पन्न ये परम बलशाली वानर मेरी शक्तिसे सम्पन्न होकर आपके सहायक होंगे। शेषनागके अंशस्वरूप आपके ये अनुज लक्ष्मण रावणके पुत्र मेघनादका वध करनेवाले होंगे। हे अनघ ! इस विषयमें आपको सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ५५-५६३ ॥
वसन्त ऋतुके नवरात्रमें आप परम श्रद्धाके साथ [पुनः] मेरी पूजा कीजिये। तत्पश्चात् पापी रावणका वध करके आप सुखपूर्वक राज्य कीजिये। हे रघुश्रेष्ठ ! इस प्रकार ग्यारह हजार वर्षांतक भूतलपर राज्य करके पुनः आप देवलोकके लिये प्रस्थान करेंगे ॥ ५७-५८३ ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर भगवती दुर्गा वहीं अन्तर्धान हो गयीं और श्रीरामचन्द्रजीने प्रसन्न मनसे उस व्रतका समापन करके दशमी तिथिको विजयापूजन करके तथा अनेकविध दान देकर वहाँसे प्रस्थान कर दिया ॥ ५९-६० ॥
वानरराज सुग्रीवकी सेनाके साथ अपने अनुज- सहित विख्यात यशवाले तथा पूर्णकाम लक्ष्मीपति श्रीराम साक्षात् परमा शक्तिकी प्रेरणासे समुद्रतटपर पहुँचे। वहाँ सेतु-बन्धन करके उन्होंने देवशत्रु रावणका संहार किया ॥ ६१ ॥
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक देवीके उत्तम चरित्रका श्रवण करता है, वह अनेक सुखोंका उपभोग करके परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ६२ ॥
यद्यपि अन्य बहुतसे विस्तृत पुराण हैं, किंतु वे इस श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणके तुल्य नहीं हैं, ऐसी मेरी धारणा है ॥ ६३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां तृतीयस्कन्धे रामाय देवीवरदानं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
॥ तृतीयः स्कन्धः समाप्तः ॥

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