Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 26(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयःस्कन्ध:षड्विंशोऽध्यायःनवरात्रव्रत-विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन)

Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 26(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयःस्कन्ध:षड्विंशोऽध्यायःनवरात्रव्रत-विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन)

[अथ षड्विंशोऽध्यायः]

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:-जनमेजय बोले- हे द्विजश्रेष्ठ ! नवरात्रके आनेपर और विशेष करके शारदीय नवरात्रमें क्या करना चाहिये ? उसका विधान आप मुझे भलीभाँति बताइये ॥ १ ॥
हे महामते ! उस पूजनका क्या फल है और उसमें किस विधिका पालन करना चाहिये। हे द्विजवर ! कृपया विस्तारके साथ मुझे यह सब बताइये ॥ २ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! अब मैं पवित्र नवरात्रव्रतके विषयमें बता रहा हूँ, सुनिये। शरत्कालके नवरात्रमें विशेष करके यह व्रत करना चाहिये ॥ ३ ॥
उसी प्रकार प्रेमपूर्वक वसन्त ऋतुके नवरात्रमें भी इस व्रतको करे। ये दोनों ऋतुएँ सब प्राणियोंके लिये यमदंष्ट्रा कही गयी हैं ॥ ४॥

 

शरत् तथा वसन्त नामक ये दोनों ऋतुएँ संसारमें प्राणियोंके लिये दुर्गम हैं। अतएव आत्मकल्याणके इच्छुक व्यक्तिको बड़े यत्नके साथ यह नवरात्रव्रत करना चाहिये ॥ ५ ॥
ये वसन्त तथा शरद् – दोनों ही ऋतुएँ बड़ी भयानक हैं और मनुष्योंके लिये रोग उत्पन्न करनेवाली हैं। ये सबका विनाश कर देनेवाली हैं। अतएव हे राजन् ! बुद्धिमान् लोगोंको शुभ चैत्र तथा आश्विनमासमें भक्तिपूर्वक चण्डिकादेवीका पूजन करना चाहिये ॥ ६-७ ॥
अमावस्या आनेपर व्रतकी सभी शुभ सामग्री एकत्रित कर ले और उस दिन एकभुक्त व्रत करे और हविष्य ग्रहण करे ॥ ८ ॥
किसी समतल तथा पवित्र स्थानमें सोलह हाथ लम्बे-चौड़े और स्तम्भ तथा ध्वजाओंसे सुसज्जित मण्डपका निर्माण करना चाहिये ॥ ९ ॥
उसको सफेद मिट्टी और गोबरसे लिपवा दे। तत्पश्चात् उस मण्डपके बीचमें सुन्दर, चौरस और स्थिर वेदी बनाये ॥ १० ॥
वह वेदी चार हाथ लम्बी-चौड़ी और हाथभर ऊँची होनी चाहिये। पीठके लिये उत्तम स्थानका निर्माण करे तथा विविध रंगोंके तोरण लटकाये और ऊपर चाँदनी लगा दे ॥ ११ ॥
रात्रिमें देवीका तत्त्व जाननेवाले, सदाचारी, संयमी और वेद-वेदांगके पारंगत विद्वान् ब्राह्मणोंको आमन्त्रित करके प्रतिपदाके दिन प्रातःकाल नदी, नद, तड़ाग, बावली, कुआँ अथवा घरपर ही विधिवत् स्नान करे ॥ १२-१३ ॥
प्रातःकालके समय नित्यकर्म करके ब्राह्मणोंका वरण-कर उन्हें मधुपर्क तथा अर्घ्य-पाद्य आदि अर्पण करे ॥ १४ ॥
अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें वस्त्र, अलंकार आदि प्रदान करे। धन रहते हुए इस काममें कभी कृपणता न करे ॥ १५ ॥
सन्तुष्ट ब्राह्मणोंके द्वारा किया हुआ कर्म सम्यक् प्रकारसे परिपूर्ण होता है। देवीका पाठ करनेके लिये नौ, पाँच, तीन अथवा एक ब्राह्मण बताये गये हैं ॥ १६ ॥

 

देवीभागवतका पारायण करनेके कार्यमें किसी शान्त ब्राह्मणका वरण करे और वैदिक मन्त्रोंसे स्वस्तिवाचन कराये ॥ १७ ॥
वेदीपर रेशमी वस्त्रसे आच्छादित सिंहासन स्थापित करे। उसके ऊपर चार भुजाओं तथा उनमें आयुधोंसे युक्त देवीकी प्रतिमा स्थापित करे। भगवतीकी प्रतिमा रत्नमय भूषणोंसे युक्त, मोतियोंके हारसे अलंकृत, दिव्य वस्त्रोंसे सुसज्जित, शुभलक्षणसम्पन्न और सौम्य आकृतिकी हो।
वे कल्याणमयी भगवती शंख-चक्र- गदा-पद्म धारण किये हुए हों और सिंहपर सवार हों; अथवा अठारह भुजाओंसे सुशोभित सनातनी देवीको प्रतिष्ठित करे ॥ १८-२०॥
भगवतीकी प्रतिमाके अभावमें नवार्णमन्त्रयुक्त यन्त्रको पीठपर स्थापित करे और पीठपूजाके लिये पासमें कलश भी स्थापित कर ले ॥ २१ ॥
वह कलश पंचपल्लवयुक्त, वैदिक मन्त्रोंसे भलीभाँति संस्कृत, उत्तम तीर्थके जलसे पूर्ण और सुवर्ण तथा पंचरत्नमय होना चाहिये ॥ २२ ॥
पासमें पूजाकी सब सामग्रियाँ रखकर उत्सवके निमित्त गीत तथा वाद्योंकी ध्वनि भी करानी चाहिये ॥ २३ ॥
हस्तनक्षत्रयुक्त नन्दा (प्रतिपदा) तिथिमें पूजन श्रेष्ठ माना जाता है। हे राजन् ! पहले दिन विधिवत् किया हुआ पूजन मनुष्योंका मनोरथ पूर्ण करनेवाला होता है ॥ २४ ॥
सबसे पहले उपवासव्रत, एकभुक्तव्रत अथवा नक्तव्रत-इनमेंसे किसी एक व्रतके द्वारा नियम करनेके पश्चात् ही पूजा करनी चाहिये ॥ २५ ॥
[पूजनके पहले प्रार्थना करते हुए कहे-] हे माता ! मैं सर्वश्रेष्ठ नवरात्रव्रत करूँगा। हे देवि ! हे जगदम्बे ! [इस पवित्र कार्यमें] आप मेरी सम्पूर्ण सहायता करें ॥ २६ ॥
इस व्रतके लिये यथाशक्ति नियम रखे। उसके बाद मन्त्रोच्चारणपूर्वक विधिवत् भगवतीका पूजन करे ॥ २७ ॥
चन्दन, अगरु, कपूर तथा मन्दार, करंज, अशोक, चम्पा, कनैल, मालती, ब्राह्मी आदि सुगन्धित पुष्पों, सुन्दर बिल्वपत्रों और धूप-दीपसे विधिवत् भगवती | जगदम्बाका पूजन करना चाहिये ॥ २८-२९ ॥

 

उस अवसरपर अर्घ्य भी प्रदान करे। हे राजन् ! नारियल, बिजौरा नीबू, दाडिम, केला, नारंगी, कटहल तथा बिल्वफल आदि अनेक प्रकारके सुन्दर फलोंके साथ भक्तिपूर्वक अन्नका नैवेद्य एवं पवित्र बलि अर्पित करे ॥ ३०-३४॥
होमके लिये त्रिकोण कुण्ड बनाना चाहिये अथवा त्रिकोणके मानके अनुरूप उत्तम वेदी बनानी चाहिये ॥ ३५ ॥
विविध प्रकारके सुन्दर द्रव्योंसे प्रतिदिन भगवतीका त्रिकाल (प्रातः सायं-मध्याह्न) पूजन करना चाहिये और गायन, वादन तथा नृत्यके द्वारा महान् उत्सव मनाना चाहिये ॥ ३६ ॥
[व्रती] नित्य भूमिपर सोये और वस्त्र, आभूषण तथा अमृतके सदृश दिव्य भोजन आदिसे कुमारी कन्याओंका पूजन करे ॥ ३७ ॥
नित्य एक ही कुमारीका पूजन करे अथवा प्रतिदिन एक-एक कुमारीकी संख्याके वृद्धिक्रमसे पूजन करे अथवा प्रतिदिन दुगुने-तिगुनेके वृद्धिक्रमसे और या तो प्रत्येक दिन नौ कुमारी कन्याओंका पूजन करे ॥ ३८ ॥
अपने धन-सामर्थ्यके अनुसार भगवतीकी पूजा करे, किंतु हे राजन् ! देवीके यज्ञमें धनकी कृपणता न करे ॥ ३९ ॥
हे राजन् ! पूजाविधिमें एक वर्षकी अवस्थावाली कन्या नहीं लेनी चाहिये; क्योंकि वह कन्या गन्ध और भोग आदि पदार्थोंके स्वादसे बिलकुल अनभिज्ञ रहती है। कुमारी कन्या वह कही गयी है, जो दो वर्षकी हो चुकी हो।
तीन वर्षकी कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्षकी कन्या कल्याणी, पाँच वर्षकी रोहिणी, छः वर्षकी कालिका, सात वर्षकी चण्डिका, आठ वर्षकी शाम्भवी, नौ वर्षकी दुर्गा और दस वर्षकी कन्या सुभद्रा कहलाती है।
इससे ऊपरकी अवस्थावाली कन्याका पूजन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह सभी कार्योंमें निन्द्य मानी जाती है। इन नामोंसे कुमारीका विधिवत् पूजन सदा करना चाहिये। अब मैं इन नौ कन्याओंके पूजनसे प्राप्त होनेवाले | फलोंको कहूँगा ॥ ४०-४४॥

 

‘कुमारी’ नामकी कन्या पूजित होकर दुःख तथा दरिद्रताका नाश करती है; वह शत्रुओंका क्षय और धन, आयु तथा बलकी वृद्धि करती है ॥ ४५ ॥
‘त्रिमूर्ति’ नामकी कन्याका पूजन करनेसे धर्म- अर्थ-कामकी पूर्ति होती है, धन-धान्यका आगम होता है और पुत्र-पौत्र आदिकी वृद्धि होती है ॥ ४६ ॥
जो राजा विद्या, विजय, राज्य तथा सुखकी कामना करता हो, उसे सभी कामनाएँ प्रदान करने- वाली ‘कल्याणी’ नामक कन्याका नित्य पूजन करना चाहिये ॥ ४७ ॥
शत्रुओंका नाश करनेके लिये भक्तिपूर्वक ‘कालिका’ कन्याका पूजन करना चाहिये। धन तथा ऐश्वर्यकी अभिलाषा रखनेवालेको ‘चण्डिका’ कन्याकी सम्यक् अर्चना करनी चाहिये ॥ ४८ ॥
हे राजन् ! सम्मोहन, दुःख-दारिद्र्यके नाश तथा संग्राममें विजयके लिये ‘शाम्भवी’ कन्याकी नित्य पूजा करनी चाहिये ॥ ४९ ॥
क्रूर शत्रुके विनाश एवं उग्र कर्मकी साधनाके निमित्त और परलोकमें सुख पानेके लिये ‘दुर्गा’ नामक कन्याकी भक्तिपूर्वक आराधना करनी चाहिये ॥ ५० ॥
मनुष्य अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये ‘सुभद्रा’ की सदा पूजा करे और रोगनाशके निमित्त ‘रोहिणी’ की विधिवत् आराधना करे ॥ ५१ ॥
‘श्रीरस्तु’ इस मन्त्रसे अथवा किन्हीं भी श्रीयुक्त देवीमन्त्रसे अथवा बीजमन्त्रसे भक्तिपूर्वक भगवतीकी पूजा करनी चाहिये ॥ ५२ ॥
जो भगवती कुमारके रहस्यमय तत्त्वों और ब्रह्मादि देवताओंकी भी लीलापूर्वक रचना करती हैं, उन ‘कुमारी’ का मैं पूजन करता हूँ ॥ ५३ ॥
जो सत्त्व आदि तीनों गुणोंसे तीन रूप धारण करती हैं, जिनके अनेक रूप हैं तथा जो तीनों कालोंमें सर्वत्र व्याप्त रहती हैं, उन भगवती ‘त्रिमूर्ति’ की मैं पूजा करता हूँ ॥ ५४ ॥
निरन्तर पूजित होनेपर जो भक्तोंका नित्य कल्याण करती हैं, सब प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली उन भगवती ‘कल्याणी’ का मैं भक्तिपूर्वक पूजन | करता हूँ ॥ ५५ ॥

 

जो देवी सम्पूर्ण जीवोंके पूर्वजन्मके संचित कर्मरूपी बीजोंका रोपण करती हैं, उन भगवती रोहिणीकी मैं उपासना करता हूँ ॥ ५६ ॥
जो देवी काली कल्पान्तमें चराचरसहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको अपनेमें विलीन कर लेती हैं, उन भगवती ‘कालिका’ की मैं पूजा करता हूँ ॥ ५७ ॥
अत्यन्त उग्र स्वभाववाली, उग्ररूप धारण करनेवाली, चण्ड-मुण्डका संहार करनेवाली तथा घोर पापोंका नाश करनेवाली उन भगवती ‘चण्डिका’ की मैं पूजा करता हूँ ॥ ५८ ॥
वेद जिनके स्वरूप हैं, उन्हीं वेदोंके द्वारा जिनकी उत्पत्ति अकारण बतायी गयी है, उन सुखदायिनी भगवती ‘शाम्भवी’ का मैं पूजन करता हूँ ॥ ५९ ॥
जो अपने भक्तको सर्वदा संकटसे बचाती हैं, बड़े-बड़े विघ्नों तथा दुःखोंका नाश करती हैं और सभी देवताओंके लिये दुर्जेय हैं, उन भगवती ‘दुर्गा’ की मैं पूजा करता हूँ ॥ ६० ॥
जो पूजित होनेपर भक्तोंका सदा कल्याण करती हैं, उन अमंगलनाशिनी भगवती ‘सुभद्रा’ की मैं पूजा करता हूँ ॥ ६१ ॥
विद्वानोंको चाहिये कि वस्त्र, भूषण, माला, गन्ध आदि श्रेष्ठ उपचारोंसे इन मन्त्रोंके द्वारा सर्वदा २ कन्याओंका पूजन करें ॥ ६२ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कुमारीपूजावर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥

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