Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 21(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयःस्कन्ध:अथैकविंशोऽध्यायःराजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजित्‌का क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना)

Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 21(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयःस्कन्ध:अथैकविंशोऽध्यायःराजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजित्‌का क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना)

 

[अथैकविंशोऽध्यायः]

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:-व्यासजी बोले- [हे राजन् !] महाराज सुबाहु पुत्रीके द्वारा कही गयी युक्तिसंगत बातें सुनकर इस चिन्तामें पड़ गये कि अब आगे क्या किया जाय ? अपने-अपने सैनिकों तथा सेवकोंके साथ यहाँ आये हुए और युद्धकी इच्छावाले अनेक महाबली नरेश मंचोंपर बैठे हुए हैं ॥ १-२ ॥
इस समय यदि मैं उन सभीसे यह कहूँ कि कन्या नहीं आ रही है, तो दुष्ट बुद्धिवाले वे राजा क्रोधित होकर मुझे मार ही डालेंगे ॥ ३ ॥

 

मेरे पास न तो वैसा सैन्यबल है और न तो सुरक्षार्थ अद्भुत किला ही है, जिससे मैं इस समय उन सभीको पराजित कर सकूँ ॥ ४ ॥
यह बालक सुदर्शन भी निस्सहाय, निर्धन तथा अकेला है। मैं तो हर तरहसे दुःखसागरमें डूब चुका हूँ। अब मुझे इस समय क्या करना चाहिये ? ॥ ५॥

 

इस प्रकार चिन्ताकुल राजा सुबाहु राजाओंके पास गये और उन सबको प्रणाम करके अत्यन्त विनीतभावसे उन्होंने कहा- हे महाराजाओ ! अब मैं क्या करूँ ? मेरे तथा अपनी माताके द्वारा बहुत प्रेरित किये जानेपर भी मेरी पुत्री मण्डपमें नहीं आ रही है ॥ ६-७ ॥
मैं आपलोगोंका दास हूँ और सभी राजाओंके चरणोंपर अपना सिर रखकर निवेदन करता हूँ कि आपलोग पूजा-सत्कार ग्रहण करके इस समय अपने-अपने घर लौट जायँ ॥ ८ ॥
मैं आपलोगोंको बहुत-से रत्न, वस्त्र, हाथी तथा रथ देता हूँ। इन्हें स्वीकारकर कृपा करके आपलोग अपने-अपने भवन चले जायें ॥ ९ ॥
मेरी पुत्री मेरे वशमें नहीं है। यदि वह बेचारी खिन्न होकर मर गयी तो मुझे महान् दुःख होगा। इसीसे मैं अत्यन्त चिन्तित हूँ ॥ १० ॥
आपलोग बड़े दयालु, भाग्यवान् तथा महान् तेजस्वी हैं तो फिर मेरी इस मन्द बुद्धिवाली अविनीत कन्यासे आपलोगोंको क्या लाभ होगा ? ॥ ११ ॥
मैं आपलोगोंका हर तरहसे सेवक हूँ, अतएव आपलोग मुझपर कृपा करें। आप सभी लोग मेरी इस पुत्रीको अपनी ही पुत्री समझें ॥ १२ ॥
व्यासजी बोले- [हे राजन् !] सुबाहुका वचन सुनकर अन्य राजागण तो नहीं बोले, किंतु क्रोधसे आँखें लाल करके युधाजित्ने उनसे रोषपूर्वक कहा- हे राजन् !
आप तो बड़े मूर्ख हैं। ऐसा निन्दनीय कृत्य करनेके बाद भी आप कैसे इस प्रकारकी बात बोल रहे हैं ? यदि संशयकी स्थिति थी तो आपने अज्ञानतावश | स्वयंवरका आयोजन ही क्यों किया ? ॥ १३-१४॥

 

आपके बुलानेपर ही सभी राजा स्वयंवरमें पधारे हुए हैं तो फिर वे सुयोग्य राजागण यों ही अपने- अपने घर कैसे चले जायँ ? ॥ १५ ॥
क्या आप सभी राजाओंका अपमान करके सुदर्शनको अपनी कन्या देना चाहते हैं? इससे बढ़कर नीचताकी और क्या बात होगी ? ॥ १६ ॥
अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्यको पहले ही सोच-समझकर कोई कार्य प्रारम्भ करना चाहिये। किंतु हे राजन् ! आपने तो बिना सोचे-समझे ही यह आयोजन कर डाला ॥ १७ ॥
सेना तथा वाहनोंसे सम्पन्न इन राजाओंको छोड़कर इस समय आप सुदर्शनको अपना जामाता क्यों बनाना चाहते हैं? ॥ १८ ॥
[उसने क्रोधपूर्वक आगे कहा- मैं तुझ पापीको अभी मार डालूँगा और बादमें सुदर्शनका भी वध कर दूँगा। तत्पश्चात् तुम्हारी कन्याका विवाह अपने नाती शत्रुजित्से कर दूंगा; इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ १९ ॥
ऐसा दूसरा कौन व्यक्ति है जो मेरे रहते कन्याके हरणकी इच्छातक कर ले और सुदर्शन तो अत्यन्त निर्धन, बलहीन तथा बच्चा है ॥ २० ॥
यह सुदर्शन पूर्वमें जब भारद्वाजमुनिके आश्रममें था तभी मैं उसे मार डालता, किंतु मुनिके कहनेसे मैंने उसे छोड़ दिया था। किंतु आज किसी भी तरह इस बालकके प्राण नहीं छोड़ेंगा ॥ २१ ॥
अब तुम अपनी स्त्री और पुत्रीके साथ भलीभाँति विचार-विमर्श करके सुन्दर भौंहोंवाली अपनी कन्या मेरे दौहित्र शत्रुजित्‌को प्रदान कर दो।
इस प्रकार अपनी इस सुन्दर पुत्रीको देकर तुम मेरे सम्बन्धी हो जाओ; क्योंकि अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको सर्वदा बड़ोंसे ही सम्बन्ध स्थापित करना चाहिये ॥ २२-२३ ॥
तुम अकेले और राज्यहीन सुदर्शनको अपनी प्राणप्रिय, सुन्दर कन्या देकर क्या सुख चाहते हो ? (वरके कुल, धन, बल, रूप, राज्य, दुर्ग और सगे-सम्बन्धियोंको देखनेके बाद ही उसे अपनी कन्या देनी चाहिये, अन्यथा सुख नहीं मिलता है)

 

तुम धर्म तथा शाश्वत राजनीतिपर सम्यक् विचार कर लो, तत्पश्चात् यथोचित कार्य करो; इसके विपरीत कोई दूसरा विचार मत करो ॥ २४-२५ ॥

 

तुम मेरे परम मित्र हो, इसलिये तुम्हारे हितकी बात बता देता हूँ। अब तुम अपनी कन्याको उसकी सखियोंसहित स्वयंवर-मण्डपमें ले आओ ॥ २६ ॥
यदि वह सुदर्शनको छोड़कर किसी दूसरेका वरण कर लेगी तो इसमें मुझे विरोध नहीं होगा। आप अपने इच्छानुसार उसके साथ विवाह कर दीजियेगा। हे राजेन्द्र ! अन्य सभी नरेश कुलीन, शक्तिशाली एवं हर तरहसे समान हैं।
अतः यदि इनमेंसे किसीको भी वह कन्या चुन लेती है तो विरोध ही क्या है? अन्यथा मैं बलपूर्वक आज ही इस सुन्दर कन्याका हरण कर लूँगा। हे नृपश्रेष्ठ ! जाओ, इस कार्यको सुसम्पन्न करो और इस असाध्य कलहमें मत पड़ो ॥ २७-२९ ॥
व्यासजी बोले- उस समय युधाजित्का यह आदेश पाकर सुबाहु शोकाकुल हो उठे और दीर्घ श्वास लेते हुए महलमें जाकर दुःखित हो अपनी पत्नीसे कहने लगे- हे सुधर्मज्ञे! हे सुनयने !
अब पुत्रीसे कहो- ‘स्वयंवर सभामें इस समय घोर कलह उपस्थित हो जानेपर मुझे क्या करना चाहिये ? मैं स्वयं कुछ नहीं कर सकता; क्योंकि मैं तो तुम्हारे वशमें हूँ’ ॥ ३०-३१ ॥
व्यासजी बोले – पतिकी यह बात सुनकर रानी अपनी पुत्रीके पास जाकर बोली- पुत्रि ! तुम्हारे पिता राजा सुबाहु इस समय अत्यन्त दुःखी हैं। तुम्हारे लिये आये हुए नरेशोंमें भयंकर कलह उत्पन्न हो गया है, इसलिये हे सुश्रोणि! तुम सुदर्शनको छोड़कर अन्य किसी राजकुमारका वरण कर लो ॥ ३२-३३ ॥
हे वत्से ! यदि तुम हठ करके सुदर्शनका ही वरण करोगी तो सैन्यबलयुक्त, प्रतापी तथा बलशाली वह युधाजित् तुमको, सुदर्शनको और हमलोगोंको मार डालेगा।
तत्पश्चात् कलह हो जानेपर कोई दूसरा ही तुम्हारा पति होगा। अतः हे मृगलोचने ! यदि तुम मेरा और अपना हित चाहती हो तो सुदर्शनको छोड़कर किसी अन्य श्रेष्ठ राजाका वरण कर लो ॥ ३४-३५३ ॥

 

इस प्रकार माताके समझानेके बाद पिताने भी उसे समझाया। उन दोनोंकी बातें सुनकर कन्या शशिकला निर्भय होकर कहने लगी ॥ ३६३ ॥
कन्या बोली- हे नृपश्रेष्ठ ! आप ठीक कह रहे हैं किंतु आप मेरे प्रणको तो जानते ही हैं। हे राजन् ! मैं सुदर्शनको छोड़कर और किसीका भी वरण नहीं कर सकती। हे राजेन्द्र !
यदि आप राजाओंसे डरते हैं और बहुत घबड़ाये हुए हैं तो मुझे सुदर्शनको सौंपकर नगरसे बाहर कर दीजिये। वे मुझे रथपर बैठाकर आपके नगरसे बाहर निकल जायँगे।
हे नृपश्रेष्ठ ! जो होना है वह तो बादमें अवश्य होगा; इसके विपरीत नहीं होगा। अब आप होनीके विषयमें चिन्ता न करें; क्योंकि जो होना है वह तो निश्चितरूपसे होता ही है; इसमें संशय नहीं है ॥ ३७-४० ३ ॥
राजा बोले- हे पुत्रि ! बुद्धिमानोंको कभी ऐसा साहस नहीं करना चाहिये। वेदज्ञोंने कहा है कि बहुतोंसे विरोध नहीं करना चाहिये। पुत्रीको उस राजकुमारको सौंपकर कैसे विदा कर दूँ? मुझसे वैर साधे हुए ये राजागण न जाने कौन-सा अनिष्ट कर डालेंगे।
इसलिये हे पुत्रि ! यदि तुम पसन्द करो तो मैं कोई शर्त रख दूँ, जैसा कि पूर्वकालमें राजा जनकने सीतास्वयंवरमें किया था। हे तन्वंगि ! जैसे उन्होंने शिव-धनुष तोड़नेकी शर्त रख दी थी, वैसे ही मैं भी कोई ऐसी कठोर शर्त रख दूँ जिससे ऐसा कर देनेपर राजाओंका विवाद ही समाप्त हो जाय।
जो उस प्रतिज्ञाको पूरा करेगा, वही तुम्हारा पति होगा। सुदर्शन हो अथवा कोई दूसरा- जो भी अधिक बलशाली होगा, वह मेरी प्रतिज्ञा पूरी करके तुम्हारा वरण कर लेगा। ऐसा करनेसे राजाओंमें उत्पन्न कलह निश्चितरूपसे शान्त हो जायगा और उसके बाद मैं आनन्दपूर्वक तुम्हारा विवाह कर दूँगा ॥ ४१-४७३ ॥
कन्या बोली- मैं इस सन्दिग्ध कार्यमें नहीं पड़ेंगी; क्योंकि यह मूर्खेका काम है। मैंने अपने मनमें सुदर्शनका पहलेसे ही वरण कर लिया है, अब दूसरेको स्वीकार नहीं कर सकती। हे महाराज! पुण्य तथा पापका कारण तो मन ही है। इसलिये हे  पिताजी !
मनसे वरण किये गये सुदर्शनको छोड़कर मैं दूसरेका वरण कैसे करूँ ? हे महाराज ! दूसरी बात यह भी है कि पणस्वयंवर करनेमें मुझे सबके अधीन रहना पड़ेगा। हे तात! यदि इनमेंसे एक, दो या अनेकने आपका प्रण पूरा कर दिया तब उस समय विवादकी स्थिति उत्पन्न हो जानेपर आप क्या करेंगे ?
अतः मैं किसी संशयात्मक कार्यमें पड़ना नहीं चाहती। हे राजेन्द्र ! आप चिन्ता न करें और विधिपूर्वक मेरा विवाह करके मुझे सुदर्शनको सौंप दीजिये। जिनके नामका संकीर्तन करनेसे समस्त दुःखराशि विलीन हो जाती है, वे भगवती चण्डिका अवश्य कल्याण करेंगी। अब आप उन्हीं महाशक्तिका स्मरण करके पूरी तत्परताके साथ यह कार्य कीजिये ॥ ४८-५३३॥
अभी जा करके दोनों हाथ जोड़कर आप उन राजाओंसे कहिये कि आप सभी राजागण इस स्वयंवरमें कल पधारें। ऐसा कहकर सम्पूर्ण राजसमुदायको शीघ्र ही विसर्जित करके वैदिक रीतिसे सुदर्शनके साथ रातमें मेरा विवाह कर दीजिये। हे राजन् ! तत्पश्चात् उन्हें यथोचित उपहार देकर विदा कर दीजिये ॥ ५४-५६ ॥
तदनन्तर महाराज ध्रुवसन्धिके पुत्र सुदर्शन मुझे साथ लेकर चले जायँगे। इससे कुपित हुए राजा यदि युद्ध करनेको उद्यत होंगे तो उस समय भगवती हमारी सहायता करेंगी, जिससे वे राजकुमार सुदर्शन भी उन लोगोंके साथ संग्राम करनेमें अवश्य समर्थ होंगे।
दैवयोगसे यदि वे युद्धमें मारे गये तो मैं प्राण त्याग दूँगी। आपका कल्याण हो। आप मुझे सुदर्शनको सौंपकर अपनी सेनाके साथ महलमें सुखपूर्वक रहें। मैं भी विहार करनेकी कामनासे उनके साथ अकेली ही चली जाऊँगी ॥ ५७-५९३ ॥
व्यासजी बोले – [ हे राजन् !] उस शशिकलाका वचन सुनकर दृढ़प्रतिज्ञ राजा सुबाहुने उसे पूर्णरूपसे विश्वस्त करके ठीक वैसा ही करनेका निश्चय कर लिया ॥ ६० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कन्यया स्वपितरं प्रति सुदर्शनेन सह विवाहार्थकथनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

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