:-व्यासजी बोले- पतिके ऐसा कहनेपर रानीने सुन्दर मुसकानवाली उस कन्याको अपनी गोदमें बैठाकर उसे आश्वासन दे करके यह मधुर वचन कहा-हे सुदति ! तुम मुझसे ऐसी अप्रिय एवं निष्प्रयोजन बात क्यों कह रही हो ? हे सुव्रते ! इस कथनसे तुम्हारे पिता बहुत दुःखित हो रहे हैं ॥ १-२ ॥
वह सुदर्शन बड़ा ही अभागा, राजच्युत, आश्रयहीन और सेना तथा कोशसे विहीन है; बन्धु-बान्धवोंने उसका परित्याग कर दिया है। वह अपनी माताके साथ वनमें रहकर फल-मूल खाता है और अत्यन्त दुर्बल है। इसलिये वह मन्दभाग्य एवं वनवासी बालक सर्वथा तुम्हारे योग्य वर नहीं है ॥ ३-४॥
हे पुत्रि ! तुम्हारे योग्य अनेक राजकुमार यहाँ उपस्थित हैं; जो बुद्धिमान्, रूपवान्, सम्माननीय और राजचिह्नोंसे अलंकृत हैं। इसी सुदर्शनका एक कान्तिमान्, रूपसम्पन्न तथा सभी शुभ लक्षणोंसे युक्त भाई भी है, जो इस समय कोसलदेशमें राज्य करता है ॥ ५-६ ॥
हे सुभ्रु ! इसके अतिरिक्त मैंने एक और जो बात सुनी है, तुम उसे सुनो – राजा युधाजित् उस सुदर्शनका वध करनेके लिये सतत प्रयत्नशील रहता है ॥ ७ ॥
उसने घोर संग्राम करके [इसके नाना] राजा वीरसेनको मारकर पुनः मन्त्रियोंके साथ मन्त्रणा करके अपने दौहित्र शत्रुजित्को राज्यपर अभिषिक्त कर दिया है। इसके बाद भारद्वाजमुनिके आश्रममें शरणलिये उस सुदर्शनको मारनेकी इच्छासे वह वहाँ भी पहुँचा, किंतु मुनिके मना करनेपर अपने घर लौट गया ॥ ८-९ ॥
शशिकला बोली- हे माता ! मुझे तो वह वनवासी राजकुमार ही अत्यन्त अभीष्ट है। [पूर्व- कालमें] शर्यातिकी आज्ञासे ही उनकी पतिव्रता पुत्री सुकन्या च्यवनमुनिके पास जाकर उनकी सेवामें तत्पर हो गयी थी। उसी प्रकार मैं पतिसेवा करूँगी; पतिकी सेवा-शुश्रूषा स्त्रियोंके लिये स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली होती है। अपने पतिके लिये कपटरहित व्यवहार स्त्रियोंके लिये निश्चित रूपसे सुखदायक होता है ॥ १०-११३ ॥
स्वयं भगवती उस सर्वश्रेष्ठ वरका वरण करनेके लिये मुझे स्वप्नमें आज्ञा दे चुकी हैं। अतः उनको छोड़कर मैं किसी अन्य राजकुमारका वरण कैसे करूँ ? स्वयं भगवतीने मेरे चित्तकी भित्तिपर सुदर्शनको ही अंकित कर दिया है। अतः उस प्रिय सुदर्शनको छोड़कर मैं किसी अन्य राजकुमारको पति नहीं बनाऊँगी ॥ १२-१३३ ॥
व्यासजी बोले- [हे राजन् !] उस समय उस शशिकलाने अनेक प्रमाणोंके द्वारा विदर्भराजकुमारी अपनी माताको समझा दिया। तत्पश्चात् पुत्रीके द्वारा कही गयी सभी बातोंको महारानीने अपने पतिसे बताया ॥ १४३ ॥
उधर शशिकलाने विवाहके कुछ दिनों पूर्व ही एक विश्वस्त तथा वेदनिष्ठ ब्राह्मणको शीघ्र ही वहाँ भेज दिया। [जाते समय उसने ब्राह्मणसे कहा कि] आप सुदर्शनके पास इस प्रकार जायें, जिसे मेरे पिता न जान पायें ॥ १५-१६ ॥
हे विभो ! आप बहुत शीघ्र ही भारद्वाजके आश्रम पहुँचकर सुदर्शनको मेरी ओरसे कहिये कि मेरे पिताने मेरे विवाहार्थ एक स्वयंवर आयोजित किया है; उसमें अनेक बलवान् राजा आयेंगे, किंतु मैं तो मनसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक हर तरहसे आपका वरण कर चुकी हूँ।
हे देवोपम राजकुमार ! मुझे भगवतीने स्वप्नमें आपको वरण करनेका आदेश दिया है। मैं विष खा लूँगी अथवा जलती हुई अग्निमें कूद पड़ेंगी, किंतु माता-पिताके द्वारा बहुत प्रेरित किये जानेपर भी मैं आपके अतिरिक्त किसी अन्यका वरण नहीं करूँगी; क्योंकि मैं मन, वचन तथा कर्मसे आपको अपना पति मान चुकी हूँ।
भगवतीकी कृपासे हम दोनोंका कल्याण होगा। प्रारब्धको प्रबल मानकर आप इस स्वयंवरमें अवश्य आयें। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् जिनके अधीन है तथा शंकर आदि सभी देवगण जिनके वशमें रहते हैं, उन भगवतीने जो आदेश दिया है, वह कभी भी असत्य नहीं होगा। हे ब्रह्मन् ! आप उस राजकुमारसे यह सब एकान्तमें बताइयेगा। हे निष्पाप ! आप वही कीजियेगा, जिससे मेरा काम बन जाय ॥ १७-२३३ ॥
ऐसा कहकर और दक्षिणा देकर शशिकलाने उस ब्राह्मणको भेज दिया। वह ब्राह्मण सुदर्शनसे सारी बातें कहकर शीघ्र ही वापस आ गया। उन बातोंको जानकर राजकुमार सुदर्शनने स्वयंवरमें जानेका निश्चय कर लिया; उन भारद्वाजमुनिने भी उसे आदरपूर्वक | भेज दिया ॥ २४-२५३ ॥
व्यासजी बोले- तब अत्यधिक दुःखसे व्याकुल,काँपती हुई तथा भयभीत मनोरमा गमनके लिये तत्पर अपने पुत्र सुदर्शनसे आँखोंमें आँसू भरकर बोली- पुत्र ! तुम इस समय राजाओंके उस समाजमें कहाँ जा रहे हो ?
तुम अकेले हो और तुमसे शत्रुता रखनेवाला राजा युधाजित् तुम्हें मारनेकी इच्छासे उस स्वयंवरमें अवश्य आयेगा, फिर तुम क्या सोचकर वहाँ जा रहे हो ? तुम्हारा कोई सहायक भी नहीं है।
इसलिये हे पुत्र ! वहाँ मत जाओ। तुम ही मेरे एकमात्र पुत्र हो और मैं अति दीन हूँ तथा मुझ आश्रयहीनके लिये तुम्हीं एकमात्र आधार हो।
हे महाभाग ! इस समय तुम मुझे निराश मत करो। जिसने मेरे पिताका वध कर दिया है, वह राजा युधाजित् भी वहाँ आयेगा और वहाँ तुझ अकेले गये हुएको मार डालेगा ॥ २६-३०३ ॥
सुदर्शन बोला- होनी तो होकर रहती है, इस विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये। हे कल्याणि ! जगज्जननीके आदेशसे मैं आज स्वयंवरमें जा रहा हूँ। हे वरानने ! तुम क्षत्राणी हो, अतः इस विषयमें चिन्ता मत करो। भगवतीकी सदा अपने ऊपर कृपा रहनेके कारण मैं किसीसे भी भयभीत नहीं होता ॥ ३१-३२३ ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर रथपर आरूढ़ होकर स्वयंवरमें जानेके लिये उद्यत पुत्र सुदर्शनको देखकर मनोरमाने इन आशीर्वादोंसे उसका अनुमोदन किया – भगवती अम्बिका आगेसे, पार्वती पीछेसे, (पार्वती दोनों पार्श्वभागमें तथा शिवा सर्वत्र तुम्हारी रक्षा करें।)
विषम मार्गमें वाराही, किसी भी प्रकारके दुर्गम स्थानोंमें दुर्गा और भयानक संग्राममें परमेश्वरी कालिका तुम्हारी रक्षा करें। उस मण्डपमें देवी मातंगी, स्वयंवरमें भगवती सौम्या तथा भव-बन्धनसे मुक्त करनेवाली भवानी राजाओंके बीचमें तुम्हारी रक्षा करें।
इसी प्रकार पर्वतीय दुर्गम स्थानोंमें गिरिजा, चौराहोंपर देवी चामुण्डा तथा वनोंमें सनातनी कामगादेवी तुम्हारी रक्षा करें। हे रघूद्वह! विवादमें भगवती वैष्णवी तुम्हारी रक्षा करें। हे सौम्य ! शत्रुओंके साथ युद्धमें भैरवी तुम्हारी रक्षा करें।
जगत्को धारण करनेवाली सच्चिदानन्दस्वरूपिणी महामाया भुवनेश्वरी | सभी स्थानोंपर सर्वदा तुम्हारी रक्षा करें ॥ ३३-३९ ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर भयसे व्याकुल तथा काँपती हुई उसकी माता मनोरमाने उससे कहा- मैं भी तुम्हारे साथ अवश्य चलूँगी। हे पुत्र ! मैं तुम्हारे बिना आधे क्षण भी यहाँ नहीं रह सकती, अतएव तुम्हारी जहाँ जानेकी इच्छा है, वहीं मुझे भी अपने साथ ले चलो ॥ ४०-४१ ॥
तब ऐसा कहकर अपनी दासीको साथ लेकर माता मनोरमा चल पड़ीं। ब्राह्मणोंसे आशीर्वाद प्राप्त करके वे सभी प्रसन्नतापूर्वक चल पड़े ॥ ४२ ॥
इसके बाद वह रघुवंशी सुदर्शन एक रथपर आरूढ़ होकर वाराणसी पहुँचा। राजा सुबाहुको उसके आनेकी जानकारी होनेपर उन्होंने आदर- सम्मान आदिके द्वारा उसका सत्कार किया। उन लोगोंके निवासके लिये भवन तथा अन्न-जल आदिकी व्यवस्था कर दी तथा उनकी सेवा-शुश्रूषाहेतु सेवकको भी नियुक्त कर दिया ॥ ४३-४४ ॥
इसके बाद वहाँ अनेक देशोंके राजा-महाराजा एकत्र हुए। वहाँ अपने नातीको साथ लेकर युधाजित् भी आया ॥ ४५ ॥
करूषाधिपति, मद्रदेशके महाराज, वीर सिन्धुराज, युद्धकुशल माहिष्मतीनरेश, पंचालपति, पर्वतीय राजा, कामरूपदेशके अति पराक्रमी महाराज, कर्णाटकनरेश, चोलराज और महाबली विदर्भनरेश वहाँ आये थे ॥ ४६-४७ ॥
उन राजाओंकी कुल मिलाकर तिरसठ अक्षौहिणी सेना थी। वहाँ सर्वत्र स्थित उन सैनिकोंसे वह वाराणसी नगरी पूरी तरहसे घिर गयी ॥ ४८ ॥
इनके अतिरिक्त अन्य बहुत-से राजा भी स्वयंवर देखनेकी इच्छासे बड़े-बड़े हाथियोंपर आरूढ़ होकर उस स्वयंवरमें सम्मिलित हुए ॥ ४९ ॥
उस समय सभी राजकुमार आपसमें मिलकर कहने लगे कि राजकुमार सुदर्शन भी निश्चिन्त होकर यहाँ आया है। वह महाबुद्धिमान् सूर्यवंशी सुदर्शन अपनी माताके साथ इस समय अकेला ही रथपर चढ़कर विवाहके लिये यहाँ आ पहुँचा है।
सैन्यशक्तिसे सम्पन्न तथा शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित इन राजकुमारोंको छोड़कर क्या वह राजकुमारी बड़ी भुजाओंवाले इस सुदर्शनका वरण करेगी ? ॥ ५०-५२ ॥
इसके बाद राजा युधाजित्ने उन नरेशोंसे कहा-राजकुमारीको प्राप्त करनेके लिये मैं इसे मार डालूँगा, इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ५३ ॥
तब महान् नीतिज्ञ केरलनरेशने उस युधाजित्से कहा- हे राजन् ! इच्छास्वयंवरमें युद्ध नहीं करना चाहिये। यह शुल्कस्वयंवर भी नहीं है, अतः कन्याका बलपूर्वक हरण भी नहीं किया जाना चाहिये। इसमें तो कन्याकी इच्छासे पति चुनना निर्धारित है; तो फिर इसमें विवाद कैसा ? ॥ ५४-५५ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! आपने पहले तो इस सुदर्शनको अन्यायपूर्वक राज्यसे निकाल दिया और अपने दौहित्रको बलपूर्वक उस राज्यका स्वामी बना दिया ॥ ५६ ॥
हे महाभाग ! यह सूर्यवंशी राजकुमार कोसल- नरेशका सुपुत्र है। इस निरपराध राजकुमारका वध आप क्यों करेंगे ? ॥ ५७ ॥
हे नृपोत्तम ! आपको अन्यायका फल अवश्य ही मिलेगा। हे आयुष्मन् ! इस संसारपर शासन करनेवाला कोई और ही जगत्पति परमेश्वर है ॥ ५८ ॥
धर्मकी जय होती है, अधर्मकी नहीं। सत्यकी जय होती है, असत्यकी नहीं। अतएव हे राजेन्द्र ! आप अन्याय न कीजिये और इस प्रकारके पापमय विचारका सर्वथा परित्याग कर दीजिये ॥ ५९ ॥
आपका दौहित्र यहाँ आया ही है। वह भी अत्यन्त रूपवान् और राज्य तथा लक्ष्मीसे सम्पन्न है; तब भला कन्या उसका वरण क्यों नहीं करेगी ? ॥ ६० ॥
अन्य एकसे बढ़कर एक बलवान् राजकुमार आये हैं। इस स्वयंवरमें कन्या शशिकला किसी भी राजकुमारको अपनी इच्छासे चुन लेगी ॥ ६१ ॥
हे राजागण ! अब आप ही लोग बतायें कि इस प्रकारके विवाहमें विवाद ही क्या ? विवेकवान् पुरुषको इस विषयमें परस्पर विरोधभाव नहीं रखना चाहिये ॥ ६२ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे राजसंवादवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥