:-व्यासजी बोले- उस ब्राह्मणका वचन सुनकर सुन्दरी शशिकला प्रेमविभोर हो गयी और वह ब्राह्मण इतना कहकर शान्तभावसे उस स्थानसे चला गया ॥ १॥
उस श्रेष्ठ ब्राह्मणके चले जानेपर वह सुन्दरी पूर्व अनुरागसे तथा विप्रकी बातोंसे प्रेमातिरेकके कारण अत्यधिक अधीर हो उठी ॥ २॥
तदनन्तर उस शशिकलाने अपनी इच्छाके अनुसार चलनेवाली एक सखीसे कहा कि रससे अनभिज्ञ तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न उस राजकुमारके विषयमें सुनकर मेरे शरीरमें विकार उत्पन्न हो गया है। इस समय कामदेव मुझे अत्यधिक पीड़ा दे रहा है। अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? ॥ ३-४ ॥
जबसे मैंने स्वप्नमें दूसरे कामदेवके सदृश उस राजकुमारको देखा है, तभीसे विरहसे आकुल हुआ मेरा कोमल मन अत्यधिक सन्तप्त हो रहा है ॥ ५ ॥
हे भामिनि ! इस समय मेरे शरीरमें लगा हुआ चन्दन विषके समान, यह माला सर्पके तुल्य तथा चन्द्रमाकी किरणें अग्निसदृश प्रतीत हो रही हैं ॥ ६ ॥
इस समय महलमें, वनमें, बावलीमें तथा पर्वतपर-कहीं भी मेरे चित्तको शान्ति नहीं मिल पा रही है। नानाविध सुख-साधनोंसे दिनमें अथवा रातमें किसी भी समय सुखकी अनुभूति नहीं हो रही है ॥ ७ ॥
शय्या, ताम्बूल, गायन तथा वादन – इनमें कोई भी चीजें मेरे मनको प्रसन्न नहीं कर पा रही हैं और न तो मेरे नेत्रोंको कोई भी वस्तु तृप्त ही कर पा रही है ॥ ८॥
[जी करता है] उसी वनमें चली जाऊँ जहाँ वह निष्ठुर विद्यमान है, किंतु कुलकी लज्जाके कारण भयभीत हूँ, और फिर अपने पिताके अधीन भी हूँ ॥ ९ ॥
क्या करूँ, मेरे पिता अभी मेरा स्वयंवर भी नहीं आयोजित कर रहे हैं। [यदि स्वयंवर हुआ तो] मैं इच्छापूर्वक अपनेको सुदर्शनको समर्पित कर दूँगी ॥ १० ॥
यद्यपि दूसरे सैकड़ों समृद्धिशाली नरेश हैं, परंतु वे मुझे रमणीय नहीं लगते। राज्यहीन होते हुए भी इस सुदर्शनको मैं अधिक रमणीय मानती हूँ ॥ ११ ॥
व्यासजी बोले- अकेला, निर्धन, बलहीन, वनवासी तथा फलका आहार करनेवाला होते हुए भी सुदर्शन उस शशिकलाके हृदयमें पूर्णरूपसे बस गया था।
भगवतीके वाग्बीजमन्त्रके जपसे सुदर्शनको यह सिद्धि प्राप्त हो गयी थी। वह पूर्णरूपसे ध्यानमग्न होकर उस सर्वोत्तम मन्त्रका निरन्तर जप करता रहता | था ॥ १२-१३॥
एक बार स्वप्नमें सुदर्शनने उन अव्यक्त, पूर्ण ब्रह्मस्वरूपा, जगज्जननी, विष्णुमाया तथा सभी सम्पदा प्रदान करानेवाली भगवती अम्बिकाका दर्शन किया ॥ १४ ॥
उसी समय श्रृंगवेरपुरके अधिपति निषादने सुदर्शनके पास आकर उसे सब प्रकारकी सामग्रियोंसे परिपूर्ण उत्तम रथ प्रदान किया। उस रथमें चार घोड़े जुते हुए थे और वह सुन्दर पताकासे सुशोभित था।
निषादराजने राजकुमार सुदर्शनको विजयशाली समझकर उसे भेंटस्वरूप वह रथ दिया था। सुदर्शनने भी प्रेमपूर्वक उसे स्वीकार कर लिया और मित्ररूपमें आये हुए उस निषादका वन्य फल-मूलोंसे भलीभाँति सत्कार किया ॥ १५-१७॥
तब आतिथ्य स्वीकार करके उस निषादराजके चले जानेपर वहाँके तपस्वी मुनिगण अत्यन्त प्रसन्न होकर सुदर्शनसे कहने लगे – हे राजकुमार ! आप धैर्यवान् हैं; भगवतीकी कृपासे थोड़े ही दिनोंमें निश्चय ही अपना राज्य प्राप्त करेंगे; इसमें सन्देह नहीं है।
हे सुव्रत ! विश्वमोहिनी और वरदायिनी भगवती अम्बिका आपके ऊपर प्रसन्न हैं। अब आपको उत्तम सहायक भी मिल गया है, आप चिन्ता न करें ॥ १८-२० ॥
तत्पश्चात् उन व्रतधारी मुनियोंने मनोरमासे कहा- हे शुचिस्मिते ! अब आपका पुत्र सुदर्शन शीघ्र ही भूमण्डलका राजा होगा ॥ २१ ॥
तब उस कोमलांगी मनोरमाने उनसे कहा- आपलोगोंका वचन सफल हो। हे विप्रगण ! यह सुदर्शन आपलोगोंका सेवक है। सच्ची उपासनासे सब कुछ सम्भव हो जाता है, इसमें आश्चर्य ही क्या ?
[किंतु] उसके पास न सेना है, न मन्त्री हैं, न कोश है और न कोई सहायक ही है। [ऐसी दशामें] किस उपायसे मेरा पुत्र राज्य पानेके योग्य बन सकता है ? आपलोग मन्त्रके पूर्णवेत्ता हैं, अतः आपलोगोंके आशीर्वचनोंसे मेरा यह पुत्र निश्चय ही राजा होगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २२-२४॥
व्यासजी बोले- रथपर सवार होकर मेधावी सुदर्शन जहाँ भी जाता था, वहाँ वह अपने तेजसे एक अक्षौहिणी सेनासे आवृत प्रतीत होता था। हे भूप ! यह उस बीजमन्त्रका ही प्रभाव था, दूसरा कोई कारण नहीं; क्योंकि वह सुदर्शन सर्वदा प्रसन्नतापूर्वक उसी मन्त्रका जप किया करता था ॥ २५-२६ ॥
जो मनुष्य किसी सद्गुरुसे कामराज नामक अद्भुत बीजमन्त्र ग्रहण करके शान्त होकर पवित्रतापूर्वक उसका जप करता है, वह अपनी सभी कामनाएँ पूर्ण कर लेता है ॥ २७ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! भूतलपर अथवा स्वर्गमें भी कोई ऐसा अत्यन्त दुर्लभ पदार्थ नहीं है, जो कल्याणकारिणी भगवतीके प्रसन्न होनेपर न मिल सके ॥ २८ ॥
वे महान् मूर्ख, भाग्यहीन तथा रोगोंसे व्यथित होते हैं, जिनके मनमें जगदम्बाके अर्चन आदिमें विश्वास नहीं होता ॥ २९ ॥
हे कुरुनन्दन ! जो भगवती युगके आदिमें सब देवताओंकी माता कही गयी थीं, इसी कारण आदिमाता- इस नामसे विख्यात हैं; वे ही बुद्धि, कीर्ति, धृति, लक्ष्मी, शक्ति, श्रद्धा, मति और स्मृति आदि रूपोंसे समस्त प्राणियोंमें प्रत्यक्ष दिखायी देती हैं ॥ ३०-३१ ॥
जो लोग मायासे मोहित हैं, वे उन्हें नहीं जान पाते। कुतर्क करनेवाले मनुष्य उन भुवनेश्वरी भगवती शिवाका भजन नहीं करते ॥ ३२ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, वरुण, यम, वायु, अग्नि, कुबेर, त्वष्टा, पूषा, दोनों अश्विनीकुमार, भग, आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव एवं मरुद्गण – ये सभी देवता सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाली उन भगवतीका ध्यान करते हैं ॥ ३३-३४ ॥
कौन ऐसा विद्वान् है, जो उन परमात्मिका शक्तिकी आराधना न करता हो ? सुदर्शनने सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली उन्हीं कल्याणकारिणी भगवतीको जान लिया था ॥ ३५ ॥
वे विद्या तथा अविद्यास्वरूपा भगवती ही ब्रह्म हैं और अत्यन्त दुष्प्राप्य हैं। वे पराशक्ति योगद्वारा ही अनुभवगम्य हैं और मोक्ष चाहनेवाले लोगोंको विशेष प्रिय हैं ॥ ३६ ॥
उन भगवतीके बिना परमात्माका स्वरूप जाननेमें कौन समर्थ है? जो तीन प्रकारकी सृष्टि करके सर्वात्मा भगवान्को दिखलाती हैं, उन्हीं भगवतीका मनसे सम्यक् चिन्तन करता हुआ राजकुमार सुदर्शन राज्य-प्राप्तिसे भी अधिक सुखका अनुभव करके वनमें रहता था ॥ ३७-३८ ॥
उधर, वह शशिकला भी कामसे निरन्तर अत्यधिक पीड़ित रहती हुई नानाविध उपचारोंसे किसी प्रकार अपना दुःखित शरीर धारण किये हुए थी ॥ ३९ ॥
इसी बीच उसके पिता सुबाहुने कन्या शशिकलाको वरकी अभिलाषिणी जानकर बड़ी सावधानीके साथ स्वयंवर आयोजित कराया ॥ ४० ॥
विद्वानोंने स्वयंवरके तीन प्रकार बताये हैं। वह क्षत्रिय राजाओंके विवाहहेतु उचित कहा गया है, अन्यके लिये नहीं। उनमें प्रथम इच्छास्वयंवर है, जिसमें कन्या अपने इच्छानुसार पति स्वीकार करती है।
दूसरा पणस्वयंवर है, जिसमें किसी प्रकारका पण (शर्त) रखा जाता है। जैसे भगवान् श्रीरामने [जानकीके स्वयंवरमें] शिवधनुष तोड़ा था। तीसरा स्वयंवर शौर्यशुल्क है, जो शूरवीरोंके लिये कहा गया है। नृपश्रेष्ठ सुबाहुने उनमें इच्छास्वयंवरका आयोजन किया ॥ ४१-४३ ॥
शिल्पियोंद्वारा बहुत-से मंच बनवाये गये और उनपर सुन्दर आसन बिछाये गये। तत्पश्चात् राजाओंके बैठनेयोग्य विविध आकार-प्रकारके सभा- मण्डप बनवाये गये ॥ ४४ ॥
इस प्रकार विवाहके लिये सम्पूर्ण सामग्री जुट जानेपर सुन्दर नेत्रोंवाली शशिकलाने दुःखित होकर अपनी सखीसे कहा- एकान्तमें जाकर तुम मेरी मातासे मेरा यह वचन कह दो कि मैंने अपने मनमें ध्रुवसन्धिके सुन्दर पुत्रका पतिरूपमें वरण कर लिया है।
उन सुदर्शनके अतिरिक्त मैं किसी दूसरेको पति नहीं बनाऊँगी; क्योंकि स्वयं भगवतीने राजकुमार सुदर्शनको मेरा पति निश्चित कर दिया है ॥ ४५-४७ ॥
व्यासजी बोले- उसके ऐसा कहनेपर उस मृदुभाषिणी सखीने शशिकलाकी माता विदर्भसुताके | पास शीघ्र जाकर एकान्तमें उनसे मधुर वाणीमें कहा-‘हे साध्वि ! आपकी पुत्रीने अत्यन्त दुःखित होकर मेरे मुखसे आपको जो कहलाया है, उसे आप सुन लें और हे कल्याणि !
इस समय शीघ्र ही उसका हित-साधन करें’। [उसका कथन है कि] भारद्वाजमुनिके आश्रममें जो ध्रुवसन्धिके पुत्र सुदर्शन रहते हैं, उनका मैं अपने मनमें पतिरूपमें वरण कर चुकी हूँ। अतः मैं किसी दूसरे राजाका वरण नहीं करूँगी ॥ ४८-५० ॥
व्यासजी बोले- वह वचन सुनकर रानीने राजाके आनेपर पुत्रीकी सारी बातें ज्यों-की-त्यों उनको बतायीं ॥ ५१ ॥
उसे सुनकर राजा सुबाहु आश्चर्यमें पड़ गये और बार-बार मुसकराते हुए वे अपनी भार्या विदर्भराजकुमारीसे यथार्थ बात कहने लगे – ॥ ५२ ॥
हे सुध्रु ! तुम तो यह जानती ही हो कि वह बालक राज्यसे निकाल दिया गया है और निर्जन वनमें अकेले ही अपनी माताके साथ रहता है। उसीके लिये राजा वीरसेन युधाजित्के द्वारा मार डाले गये। हे सुनयने ! वह निर्धन योग्य पति कैसे हो सकता है ? ॥ ५३-५४॥
तुम यह बात पुत्री शशिकलासे कह दो कि बड़े-से-बड़े प्रतिष्ठित राजा इस स्वयंवरमें आनेवाले हैं। अतः उनके प्रति ऐसी अप्रिय बात वह कभी भी न बोले ॥ ५५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां तृतीयस्कन्धे शशिकलया मातरं प्रति संदेशप्रेषणं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥