Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 13(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयःस्कन्धःत्रयोदशोऽध्यायःदेवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना, ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सृष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्या- शक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना)

Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 13(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयःस्कन्धः त्रयोदशोऽध्यायःदेवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना,

ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सृष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्या- शक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना)

[अथ त्रयोदशोऽध्यायः]

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:-राजा बोले – हे पितामह ! जगत्के कारणस्वरूप तथा परम शक्तिशाली भगवान् विष्णुने पूर्वकालमें वह | यज्ञ कैसे किया ? हे महामते ! उस यज्ञमें कौन-कौन ब्राह्मण सहायक थे और कौन-कौन वेदतत्त्वज्ञ विद्वान् ऋत्विज थे ?
हे परन्तप ! यह सब आप मुझे बतायें। भगवान् विष्णुके द्वारा किये गये अम्बायज्ञको सुनकर बादमें मैं भी सावधान होकर उसी विहित कर्मके अनुसार यज्ञ करूँगा ॥ १-३॥
व्यासजी बोले- हे महाभाग ! हे राजन् ! भगवान् विष्णुने जिस तरह विधिपूर्वक देवीयज्ञ किया था, उस परम अद्भुत प्रसंगको आप विस्तारसे सुनें ॥ ४॥
उस समय जब आदिशक्तिने उन्हें विभिन्न शक्तियाँ प्रदान करके विदा कर दिया, तब श्रेष्ठ विमानपर स्थित वे तीनों ब्रह्मा, विष्णु और महेश पुनः पुरुषके रूपमें हो गये।
[वहाँसे चलकर] वे तीनों श्रेष्ठ देवगण घोर महासागरमें पहुँच गये। वहाँ उन्होंने पृथ्वी उत्पन्न करके उसपर रहनेके लिये स्थान बनाया और वहीं रहने लगे ॥ ५-६ ॥
उसी समय देवीने अचल आधारशक्तिको मुक्त किया, जिसके आश्रयसे वह मेदयुक्त पृथ्वी टिक गयी ॥ ७ ॥
मधु-कैटभके मेदका संयोग होनेके कारण पृथ्वीको ‘मेदिनी’ कहा गया है। धारण करनेकी शक्ति होनेके कारण उसे ‘धरा’ तथा विस्तृत होनेके कारण उसे ‘पृथ्वी’ कहा गया है ॥ ८ ॥
यह पृथ्वी महनीय होनेके कारण ‘मही’ कही जाती है। यह शेषनागके मस्तकपर स्थित है। इसको यथास्थान स्थित रखनेके लिये सभी विशाल पर्वत रचे गये।
जिस प्रकार काठमें लौह कीलें जड़ दी जाती हैं, उसी प्रकार पृथ्वीको सुस्थिर रखनेके लिये विशाल पर्वत बनाये गये। इसी कारण विद्वान्लोग उन पर्वतोंको ‘महीधर’ कहते हैं ॥ ९-१० ॥
परम अद्भुत सुमेरुपर्वत सोनेका बना हुआ है, वह मणिमय चोटियोंसे सुशोभित है तथा अनेक योजन विस्तारवाला है ॥ ११ ॥
[उस समय सृष्टिका विकास इस प्रकार हुआ-] सर्वप्रथम ब्रह्माके विख्यात मानसिक पुत्र मरीचि, नारद, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष और वसिष्ठ आदि हुए।
तत्पश्चात् मरीचिके पुत्र कश्यप हुए। दक्षप्रजापतिको तेरह कन्याएँ हुईं। उन्हीं कन्याओंसे अनेक देवता एवं दैत्य उत्पन्न हुए ॥ १२-१३॥

 

उसके बाद काश्यपी सृष्टि संसारमें फैल गयी। उस सृष्टिमें मनुष्य, पशु और सर्प आदि योनिभेदोंसे अनेक जीव उत्पन्न हुए ॥ १४ ॥
ब्रह्माके दाहिने आधे शरीरसे स्वायम्भुव मनु उत्पन्न हुए तथा बायें भागसे स्त्रीके रूपमें शतरूपा उत्पन्न हुईं ॥ १५ ॥
उन्हीं शतरूपासे प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए तथा तीन अत्यन्त सुन्दर और उत्तम गुणोंवाली पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं ॥ १६ ॥
इस प्रकार सृष्टिरचना करके कमलसे उत्पन्न भगवान् ब्रह्माजीने सुमेरुपर्वतके शिखरपर एक सुन्दर ब्रह्मलोक बनाया ॥ १७ ॥
भगवान् विष्णुने भी लक्ष्मीजीके विहार करनेयोग्य वैकुण्ठलोक बनाया। वह अत्यन्त रमणीय तथा उत्तम क्रीडास्थान सभी लोकोंके ऊपर विराजमान है ॥ १८ ॥
शिवजीने भी कैलास नामक एक उत्तम स्थान बना लिया, जिसमें वे भूतगणोंको साथ लेकर इच्छानुसार विहार करने लगे ॥ १९ ॥
सुमेरुपर्वतके एक शिखरपर देवलोक स्वर्गकी रचना हुई। वह इन्द्रलोक अनेक प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित तथा इन्द्रका निवास था ॥ २० ॥
समुद्रमन्थनसे सर्वोत्तम वृक्ष पारिजात, चार दाँतोंवाला ऐरावत हाथी, कामना पूर्ण करनेवाली कामधेनु, उच्चैःश्रवा घोड़ा और रम्भा आदि अनेक अप्सराएँ निकलीं।
इन्द्रने स्वर्गको सुशोभित करनेवाले इन सबको अपने पास रख लिया। धन्वन्तरिवैद्य तथा चन्द्रमा भी समुद्रसे निकले; वे दोनों देव अनेक गुणोंसे युक्त होकर स्वर्गमें रहते हुए शोभा पाने लगे ॥ २१-२३ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! इस तरह तीन प्रकारकी सृष्टि हुई। देवता, पशु-पक्षी और मानव आदि अनेक भेदोंसे यह सृष्टि कल्पित है। अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज तथा जरायुज-इन चार भेदोंसे अनेक जीवोंकी सृष्टि हुई।
उन सभी जीवोंके साथ कर्मका बन्धन लगा हुआ है। इस प्रकार सृष्टि करके ब्रह्मा, विष्णु और महेश- ये सब अपने-अपने लोकोंमें इच्छापूर्वक विहार करने लगे ॥ २४-२६ ॥

 

इस प्रकार सृष्टिके विस्तृत हो जानेपर अच्युत भगवान् विष्णु अपने लोकमें लक्ष्मीके साथ विराजमान होकर आनन्द करने लगे ॥ २७ ॥
एक समयकी बात है- भगवान् विष्णु वैकुण्ठमें विराजमान थे। उन्हें एकाएक अमृतसागरमें विद्यमान तथा मणियोंसे सुशोभित उस द्वीपका स्मरण हो आया, जहाँ महामायाका दर्शन करके उन्होंने शुभ मन्त्र प्राप्त किया था।
तदनन्तर जिन भगवतीके द्वारा वे पुरुषसे स्त्री बना दिये गये थे, उन परमशक्तिका स्मरण करके लक्ष्मीकान्त भगवान् विष्णुने अम्बायज्ञ करनेका मनमें निश्चय कर लिया ॥ २८-२९३ ॥
इसके बाद अपने धामसे उतरकर उन्होंने शिव, ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, कुबेर, अग्नि, यम, वसिष्ठ, कश्यप, दक्ष, वामदेव तथा बृहस्पतिको आमन्त्रित करके अत्यन्त विस्तारके साथ यज्ञ सम्पन्न करनेके लिये अत्यधिक मूल्यवाली, सात्त्विक तथा मनोरम बहुत-सी सामग्रियाँ एकत्र कीं ॥ ३०-३२ ॥
उन्होंने शिल्पियोंद्वारा विशाल यज्ञमण्डप बनवाया और सत्ताईस महान् व्रती ऋत्विजोंका वरण किया। तत्पश्चात् अग्निस्थापनके लिये बड़ी-बड़ी वेदियाँ बनायी गयीं। ब्राह्मणगण बीजसहित देवीमन्त्रोंका जप करने लगे ॥ ३३-३४॥
विधिवत् प्रज्वलित की गयी अग्निमें वे ब्राह्मण यथेच्छ हव्य-पदार्थकी आहुति देने लगे। इस प्रकार विस्तृत होमकृत्य सम्पन्न होते ही भगवान् विष्णुको सम्बोधित करके मधुर अक्षरों तथा स्पष्ट स्वरोंसे युक्त आकाशवाणी हुई।
हे हरे ! हे विष्णो ! आप सदा देवताओंमें श्रेष्ठतम होंगे। सभी देवगणोंमें आप मान्य, पूज्य तथा समर्थ होंगे। संसारमें इन्द्रसहित ब्रह्मा आदि सभी देवता आपकी अर्चना करेंगे ॥ ३५-३७॥
हे विष्णो ! पृथ्वीपर सभी मानव आपकी भक्तिसे युक्त होकर रहेंगे और आप सभी मनुष्योंको वर देनेवाले होंगे ॥ ३८ ॥
आप सभी देवताओंको वांछित फल प्रदान करनेवाले महान् परमेश्वर होंगे। सभी यज्ञोंमें प्रधानरूपसे सभी याज्ञिकोंके द्वारा आप ही पूजे जायँगे ॥ ३९ ॥

 

लोग आपकी पूजा करेंगे और आप उनके लिये वरदाता होंगे। राक्षसोंके द्वारा अत्यधिक प्रताड़ित किये जानेपर देवगण आपका आश्रय ग्रहण करेंगे। हे पुरुषोत्तम ! आप सभीके शरणदाता होंगे। अत्यन्त विस्तारवाले वेदों तथा सभी पुराणोंमें आप ही पूज्यतम होंगे और आपकी महान् कीर्ति होगी ॥ ४०-४१३ ॥
इस पृथ्वीतलपर जब-जब धर्मका ह्रास होगा तब-तब आप शीघ्र अपने अंशसे अवतार लेकर धर्मकी रक्षा करेंगे। आपके अंशसे उत्पन्न वे समस्त अवतार पृथ्वीपर अत्यन्त प्रसिद्ध होंगे और महात्मागण आपके उन अवतारोंका सम्मान करेंगे।
हे माधव ! नानाविध योनियोंमें आपके द्वारा लिये गये अवतारोंमें आप सभी लोकोंमें विख्यात होंगे। हे मधुसूदन ! उन सभी अवतारोंमें मेरे अंशसे उत्पन्न शक्ति सदा आपकी सहचारिणी होगी और आपके समस्त कार्योंको सम्पन्न करेगी। वह शक्ति वाराही, नारसिंही आदि भेदोंसे अनेक प्रकारकी होगी ॥ ४२-४६ ॥
वे शक्तियाँ सभी प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत, भव्य स्वरूपवाली एवं नानाविध शस्त्रास्त्रोंसे सज्जित होंगी। हे विष्णो ! आप उन शक्तियोंसे सदैव युक्त रहेंगे।
हे माधव ! मेरे द्वारा प्रदत्त वरदानके प्रभावसे आप देवताओंके समस्त कार्य सिद्ध करेंगे। आप लेशमात्र भी अभिमान करके उन शक्तियोंका कभी अपमान न कीजियेगा, अपितु हर प्रकारसे प्रयत्नपूर्वक उन शक्तियोंका पूजन तथा सम्मान कीजियेगा ॥ ४७-४८३ ॥
समस्त कामनाओंको प्रदान करनेवाली वे शक्तियाँ भारतवर्षमें मनुष्योंद्वारा विविध प्रतिमाओंमें प्रतिष्ठित होकर पूजी जायँगी। हे देवेश ! उन शक्तियोंकी तथा आपकी कीर्ति पृथ्वीमण्डल तथा समस्त सातों द्वीपोंमें प्रसिद्ध होगी ॥ ४९-५० ३ ॥
हे महाभाग ! भूमण्डलपर सकाम मनुष्य अपने मनोरथोंको पूर्ण करनेके लिये आपकी तथा उन शक्तियोंकी निरन्तर उपासना करेंगे। हे हरे ! वे लोग अर्चनाओंमें अनेक भावोंसे युक्त होकर नानाविध उपहारों, वैदिक मन्त्रों तथा नामजपसे आपकी आराधना |  करेंगे।
हे मधुसूदन ! हे देवदेवेश ! मनुष्योंके द्वारा सुपूजित होनेके कारण आपकी महिमा पृथ्वीलोक तथा स्वर्गलोकमें वृद्धिको प्राप्त होगी ॥ ५१-५३३ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार भगवान् विष्णुको वरदान देकर वह आकाशवाणी चुप हो गयी। उसे सुनते ही भगवान् विष्णु भी प्रसन्नचित्त हो गये। तत्पश्चात् यज्ञका विधिपूर्वक समापन करके तथा उन देवताओं, ब्रह्मपुत्रों और मुनियोंको विदा करके सर्वसमर्थ गरुडध्वज भगवान् विष्णु अपने अनुचरोंके साथ वैकुण्ठलोकको चले गये ॥ ५४-५६ ॥
तदनन्तर विस्मयके साथ यज्ञविषयक वार्ता करते हुए वे समस्त देवता अपने-अपने लोकोंको तथा मुनिजन अपने-अपने पवित्र आश्रमोंको अति प्रसन्नता- पूर्वक चले गये ॥ ५७-५८ ॥
आकाशसे प्रादुर्भूत उस कर्णप्रिय तथा परम विशद वाणीको सुनकर सबके हृदयमें परा प्रकृतिके प्रति भक्तिभाव उत्पन्न हो गया। हे मुनीन्द्रो ! अतएव वे सभी ब्राह्मण तथा मुनिजन भक्तिपरायण होकर उन भगवतीका पूजन करने लगे, जो वेदशास्त्रोंमें वर्णित है तथा सम्पूर्ण वांछित फलोंको प्रदान करनेवाला है ॥ ५९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां तृतीयस्कन्धे अम्बिकामखस्य विष्णुनानुष्ठानवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

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