Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 1( श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयः स्कन्धःप्रथमोऽध्यायःराजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना)

॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ।॥ ॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥

Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 1(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयः स्कन्धः  प्रथमोऽध्यायःराजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना)

[ अथ प्रथमोऽध्यायः]

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:-जनमेजय बोले- हे भगवन् ! आपने महान् अम्बा-यज्ञके विषयमें कहा है। वे अम्बा कौन हैं, वे कैसे, कहाँ और किसलिये उत्पन्न हुई हैं और वे कौन-कौनसे गुणोंवाली हैं? ॥ १ ॥
उनका यह यज्ञ कैसा है और उसका क्या स्वरूप है ? हे दयानिधान ! आप सब कुछ जाननेवाले हैं; उस यज्ञका विधान सम्यक् रूपसे बताइये ॥ २ ॥
हे ब्रह्मन् ! आप विस्तारपूर्वक ब्रह्माण्डकी उत्पत्तिका भी वर्णन कीजिये। हे भूसुर ! इस विषयमें अन्य ज्ञानियोंने जैसा कहा है, वह सब कुछ भी आप भलीभाँति जानते हैं ॥ ३ ॥
मैंने ब्रह्मा, विष्णु और महेश- इन तीनों देवताओंके विषयमें सुना है कि ये सगुण रूपमें सम्पूर्ण जगत्का सृजन, पालन एवं संहार करते हैं ॥ ४ ॥
हे पराशरसुत व्यासजी ! वे तीनों देवश्रेष्ठ स्वाधीन हैं अथवा पराधीन; आप मुझे बताइये, मैं इस समय सुनना चाहता हूँ ॥ ५॥
वे सच्चिदानन्दस्वरूप देवगण मरणधर्मा हैं अथवा नहीं; और वे आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक-इन तीन प्रकारके दुःखोंसे युक्त हैं अथवा नहीं ? ॥६॥
वे तीनों महाबली देवेश कालके वशवर्ती हैं अथवा नहीं; और वे कैसे तथा किससे आविर्भूत हुए, मेरी यह भी एक शंका है ॥ ७॥
हे मुने ! क्या वे हर्ष, शोक आदि द्वन्द्वोंसे युक्त हैं, क्या वे निद्रा एवं प्रमाद आदिसे प्रभावित हैं तथा क्या उनके शरीर सप्त धातुओं (अन्नरस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य) से निर्मित हैं अथवा नहीं ? ॥८॥
वे किन द्रव्योंसे निर्मित हैं, वे किन-किन गुणोंको धारण करते हैं, उनमें कौन-कौन-सी इन्द्रियाँ अवस्थित हैं, उनका भोग कैसा होता है तथा उनकी आयुका परिमाण क्या है ? ॥ ९॥
इनके निवास-स्थान एवं विभूतियोंके भी विषयमें मुझको बतलाइये। हे ब्रह्मन् ! इस कथाको विस्तारपूर्वक सुननेकी मेरी अभिलाषा है ॥ १०॥
व्यासजी बोले- हे महामति राजन् ! ब्रह्मादि देवोंकी उत्पत्ति किससे हुई, इस समय आपने यह बड़ा दुर्गम प्रश्न किया है ॥ ११ ॥
हे राजन् ! पूर्वमें मैंने यही प्रश्न देवर्षि नारदजीसे पूछा था। तब विस्मित होकर वे उठ खड़े हुए और उन्होंने जो उत्तर दिया था, उसे आप सुनें ॥ १२ ॥
किसी समय मैंने शान्त, सर्ववेत्ता तथा वेद- विद्वानोंमें श्रेष्ठ नारदमुनिको गंगाके किनारे विद्यमान देखा ॥ १३ ॥
मुनिको देखकर तथा प्रसन्न होकर मैं उनके चरणोंपर गिर पड़ा। तदनन्तर उनके द्वारा आज्ञा देनेपर मैं उनके पासमें ही एक सुन्दर आसनपर बैठ गया ॥ १४ ॥
कुशल-क्षेमकी वार्ता सुन करके सूक्ष्म बालूवाले गंगा-तटके निर्जन स्थानपर बैठे हुए बह्मापुत्र देवर्षि नारदसे मैंने पूछा- ॥ १५ ॥
हे महामति मुनिदेव ! इस अति विस्तीर्ण ब्रह्माण्डका प्रधान कर्ता कौन कहा गया है ? उसे आप मुझे सम्यक् रूपसे बताइये ॥ १६ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इस ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति किससे हुई है ? हे विप्रवर! आप मुझे यह भी बताइये कि यह ब्रह्माण्ड नित्य है अथवा अनित्य ? ॥ १७ ॥
यह ब्रह्माण्ड किसी एकके द्वारा विरचित है अथवा अनेक कर्ताओंद्वारा मिलकर इसका निर्माण किया गया है ? किसी कर्ताके बिना कार्यकी सत्ता सम्भव नहीं है। | इस विषयमें मुझे अत्यन्त सन्देह हो रहा है ॥ १८ ॥

 

इस प्रकार इस विस्तृत ब्रह्माण्डके विषयमें विविध कल्पना करते हुए तथा सन्देहसागरमें डूबते हुए मुझ दुःखीका आप उद्धार कीजिये ॥ १९ ॥
कुछ लोग सदाशिव, महादेव, प्रलय तथा उत्पत्तिसे रहित, आत्माराम, देवेश, त्रिगुणात्मक, निर्मल, हर, संसारसे उद्धार करनेवाले, नित्य तथा सृष्टि- पालन-संहार करनेवाले भगवान् शंकरको ही मूल कारण मानकर उन्हें ही इस ब्रह्माण्डका रचयिता कहते हैं ॥ २०-२१ ॥
दूसरे लोग श्रीहरि विष्णुको सबका प्रभु, ईश्वर, परमात्मा, अव्यक्त, सर्वशक्तिसम्पन्न, भोग तथा मोक्षप्रदाता, शान्त, सबका आदि, सर्वतोमुख, व्यापक, समग्र संसारको शरण देनेवाला तथा आदि-अन्तसे रहित जानकर उन्हींका स्तवन करते हैं ॥ २२-२३।
अन्य लोग ब्रह्माजीको सृष्टिका कारण, सर्वज्ञ, सभी प्राणियोंका प्रवर्तक, चार मुखोंवाला, सुरपति, विष्णुके नाभिकमलसे प्रादुर्भूत, सर्वव्यापी, सभी लोकोंकी रचना करनेवाला तथा सत्यलोकमें निवास करनेवाला बताते हैं ॥ २४-२५ ॥
कुछ वेदवेत्ता विद्वान् सर्वेश्वर भगवान् सूर्यको ब्रह्माण्डकर्ता मानते हैं और सावधान होकर सायं- प्रातः उन्हींकी स्तुति करते हैं तथा उन्हींका यशोगान करते हैं ॥ २६ ॥
यज्ञमें निष्ठाभाव रखनेवाले लोग धनप्रदाता, शतक्रतु, सहस्राक्ष, देवाधिदेव, सबके स्वामी, बलशाली, यज्ञाधीश, सुरपति, त्रिलोकेश, यज्ञोंका भोग करनेवाले, सोमपान करनेवाले तथा सोमपायी लोगोंके प्रिय शचीपति इन्द्रको [सर्वश्रेष्ठ मानकर] यज्ञोंमें उन्हींका यजन करते हैं ॥ २७-२८ ॥
कुछ लोग वरुण, सोम, अग्नि, पवन, यमराज, धनपति कुबेरकी तथा कुछ लोग हेरम्ब, गजमुख, सर्वकार्यसाधक, स्मरणमात्रसे सिद्धि प्रदान करनेवाले, कामस्वरूप, कामनाओंको प्रदान करनेवाले, स्वेच्छ विचरण करनेवाले, परम देव गणाधीश गणेशकी | स्तुति करते हैं ॥ २९-३० ॥

 

कुछ आचार्य भवानीको ही सब कुछ देनेवाली,  आदिमाया, महाशक्ति तथा पुरुषानुगामिनी परा प्रकृति कहते हैं। वे उनको ब्रह्मस्वरूपा, सृजन-पालन-संहार करनेवाली, सभी प्राणियों एवं देवताओंकी जननी, २ आदि-अन्तरहित, पूर्णा, सभी जीवोंमें व्याप्त, सभी लोकोंकी स्वामिनी, निर्गुणा, सगुणा तथा कल्याणस्वरूपा मानते हैं ॥ ३१-३३ ॥
फलकी आकांक्षा रखनेवाले उन भवानीका वैष्णवी, शांकरी, ब्राह्मी, वासवी, वारुणी, वाराही, नारसिंही, महालक्ष्मी, विचित्ररूपा, वेदमाता, एकेश्वरी, = विद्यास्वरूपा, संसाररूपी
वृक्षकी स्थिरताकी कारणरूपा, सभी कष्टोंका नाश करनेवाली और स्मरण करते ही सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली, मुक्ति चाहने- वालोंके लिये मोक्षदायिनी, फलकी अभिलाषा रखनेवालोंके लिये कामप्रदायिनी, त्रिगुणातीतस्वरूपा, गुणोंका विस्तार करनेवाली, निर्गुणा-सगुणा-रूपमें ध्यान करते हैं ॥ ३४-३६३ ॥
कुछ मुनीश्वर निरंजन, निराकार, निर्लिप्त, गुणरहित, रूपरहित तथा सर्वव्यापक ब्रह्मको जगत्‌का कर्ता बतलाते हैं। वेदों तथा उपनिषदोंमें कहीं-कहीं उसे अनन्त सिर, नेत्र, हाथ, कान, मुख और चरणसे युक्त तेजोमय विराट् पुरुष कहा गया है ॥ ३७-३९ ॥
कुछ मनीषीगण आकाशको विष्णुके परम पादके रूपमें मानते हैं और उन्हें विराट्, निरंजन तथा शान्तस्वरूप कहते हैं ॥ ४० ॥
कुछ तत्त्वज्ञानी पुराणवेत्ता पुरुषोत्तमको सृष्टिका निर्माता कहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि इस अनन्त ब्रह्माण्डकी रचनामें केवल एक ईश्वर कदापि समर्थ नहीं हो सकता है ॥ ४१ ॥
कुछ लोग कहते हैं कि यह जगत् अचिन्त्य है, अतः यह ईश्वररचित कदापि नहीं हो सकता; उनके मतमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ईश्वररहित है।
‘यह जगत् सदासे ही ईश्वरीय सत्तासे रहित रहा है और यह स्वभावसे उत्पन्न होता है तथा सदासे ऐसा ही है। यह पुरुष तो कर्तृत्वभावसे रहित कहा गया है और वह प्रकृति ही सर्वसंचालिका है’- कपिल आदि सांख्यशास्त्रके आचार्य ऐसा ही कहते हैं ॥ ४२-४३३ ॥

 

हे मुनिनाथ! मेरे मनमें ये तथा अन्य प्रकारके और भी सन्देहपुंज उत्पन्न होते रहते हैं। नाना प्रकारकी कल्पनाओंसे उद्विग्न मनवाला मैं क्या करूँ ? धर्म तथा अधर्मके विषयमें मेरा मन स्थिर नहीं हो पाता है ॥ ४४-४५ ॥
क्या धर्म है और क्या अधर्म है; इसका कोई स्पष्ट लक्षण प्राप्त नहीं होता है। लोग कहते हैं कि देवता सत्त्वगुणसे उत्पन्न हुए हैं और वे सत्यधर्ममें स्थित रहते हैं फिर भी वे देवगण पापाचारी दानवोंद्वारा प्रताड़ित किये जाते हैं, तो फिर धर्मकी व्यवस्था कहाँ रह गयी ?
धर्मनिष्ठ और सदाचारी मेरे वंशज पाण्डव भी नाना प्रकारके कष्ट सहनेको विवश हुए, ऐसी स्थितिमें धर्मकी क्या मर्यादा रह गयी ? अतः हे तात ! इस संशयमें पड़ा हुआ मेरा मन अतीव चंचल रहता है ॥ ४६-४८ ॥
हे महामुने ! आप सर्वसमर्थ हैं, अतः मेरे हृदयको संशयमुक्त कीजिये। हे मुने ! संसार-सागरके मोहसे दूषित जलमें गिरे हुए तथा बार-बार डूबते- उतराते मुझ अज्ञानीकी अपने ज्ञानरूपी जहाजसे रक्षा कीजिये ॥ ४९-५० ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां तृतीयस्कन्धे भुवनेश्वरीवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

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