Devi bhagwat puran skandh 2 chapter 5(देवी भागवत पुराण द्वितीयः स्कन्ध:पञ्चमोऽध्यायःमत्स्यगन्धा (सत्यवती) को देखकर राजा शन्तनुका मोहित होना, भीष्मद्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण करनेकी प्रतिज्ञा करना और शन्तनुका सत्यवतीसे विवाह)

Devi bhagwat puran skandh 2 chapter 5(देवी भागवत पुराण द्वितीयः स्कन्ध:पञ्चमोऽध्यायःमत्स्यगन्धा (सत्यवती) को देखकर राजा शन्तनुका मोहित होना, भीष्मद्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण करनेकी प्रतिज्ञा करना और शन्तनुका सत्यवतीसे विवाह)

[अथ पञ्चमोऽध्यायः]

:– ऋषिगण बोले- हे लोमहर्षणतनय सूतजी ! आपने शापवश अष्टवसुओंके जन्म तथा गंगाजीकी उत्पत्तिका वर्णन किया। हे धर्मज्ञ ! व्यासजीकी सत्यवती नामकी साध्वी माता जो पवित्र गन्धवाली थीं,

 

वे राजा शन्तनुको पत्नीरूपसे कैसे प्राप्त हुईं? यह हमें विस्तारके साथ बताइये। महान् धर्मनिष्ठ राजा शन्तनुने निषादपुत्रीके साथ विवाह क्यों किया ? हे सुव्रत ! यह बताकर आप हमारे सन्देहका निवारण कीजिये ॥ १-३ ॥

सूतजी बोले- राजर्षि शन्तनु सदा आखेट करनेमें तत्पर रहते थे। वे वनमें जाकर मृग, महिष तथा रुरुमृगोंका वध किया करते थे ॥४॥

राजा शन्तनु केवल चार वर्षतक भीष्मके साथ उसी प्रकार सुखसे रहे, जिस प्रकार भगवान् शंकर कार्तिकेयके साथ आनन्दपूर्वक रहते थे ॥ ५॥

एक बार वे महाराज शन्तनु वनमें बाण छोड़ते हुए बहुतसे गैंड़ों तथा सूकरोंका वध करते हुए किसी समय नदियोंमें श्रेष्ठ यमुनाके किनारे जा पहुँचे ॥ ६ ॥

राजाने वहाँपर कहींसे आती हुई उत्तम गन्धको सूँघा। तब उस सुगन्धिके उद्गमका पता लगानेके लिये वे वनमें विचरने लगे ॥ ७ ॥

वे बड़े असमंजसमें पड़ गये कि यह मनोहर सुगन्धि न मन्दारपुष्पकी है, न कस्तूरीकी है, न मालतीकी है, न चम्पाकी है और न तो केतकीकी ही है ! ॥ ८ ॥

मैंने ऐसी अनुपम सुगन्धिका पूर्वमें कभी नहीं अनुभव किया था। [इस दिव्य सुगन्धिको लेकर] सुन्दर वायु बह रही है। मेरी घ्राणेन्द्रियको मुग्ध कर देनेवाली यह वायु कहाँसे आ रही है ? ॥ ९॥

इस प्रकार सोचते-विचारते राजा शन्तनु गन्धके लोभसे मोहित सुगन्धित वायुका अनुसरण करते हुए वनप्रदेशमें विचरण करने लगे ॥ १० ॥

उन्होंने यमुनानदीके तटपर बैठी हुई एक दिव्यदर्शनवाली स्त्रीको देखा, जो मलिन वस्त्र धारण करने और श्रृंगार न करनेपर भी मनोहर दीख रही थी ॥ ११ ॥

उस श्याम नयनोंवाली स्त्रीको देखकर राजा आश्चर्यमें पड़ गये और उन्हें इस बातका विश्वास हो गया कि यह सुगन्धि इसी स्त्रीके शरीरकी है ॥ १२ ॥

उसका अद्भुत एवं अतिशय सुन्दर रूप, सब प्राणियोंका मन स्वाभाविक रूपसे अपनी ओर आकर्षित करनेवाली सुगन्धि, उसकी अवस्था तथा उसका वैसा शुभ नवयौवन देखकर राजा शन्तनुको महान् विस्मय हुआ ॥ १३ ॥

यह कौन है और इस समय यह कहाँसे आयी है ? यह कोई देवांगना है या मानवी स्त्री, यह कोई गन्धर्वकन्या अथवा नागकन्या है? मैं इस सुगन्धा कामिनीके विषयमें कैसे जानकारी प्राप्त करूँ ? ॥ १४ ॥

इस प्रकार विचार करके भी वे राजा जब कुछ निश्चय नहीं कर सके, तब तत्क्षण गंगाजीका स्मरण करते हुए वे कामके वशीभूत हो गये और तटपर बैठी हुई उस सुन्दरीसे उन्होंने पूछा- हे प्रिये!

 

तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? हे वरोरु ! तुम इस निर्जन वनमें क्यों बैठी हो ? हे सुनयने ! क्या तुम अकेली ही हो? तुम विवाहिता हो या कुमारी; यह बताओ ॥ १५-१६ ॥

हे अरालनेत्रे ! तुम जैसी मनोरमा स्त्रीको देखकर मैं कामातुर हो गया हूँ। हे प्रिये ! विस्तारपूर्वक मुझे यह बतलाओ कि तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो ? ॥ १७ ॥

महाराज शन्तनुके वचन सुनकर वह सुन्दर दाँतोंवाली तथा कमलके समान नयनोंवाली स्त्री मुसकराकर बोली- हे राजन् ! आप मुझे निषादकन्या और अपने पिताकी आज्ञामें रहनेवाली कन्या समझें ॥ १८ ॥

हे नृपेन्द्र ! मैं अपने धर्मका अनुसरण करती हुई जलमें यह नौका चलाती हूँ। हे अर्थपते ! पिताजी अभी ही घर गये हैं। आपके सम्मुख यह बातें मैंने सत्य कही हैं ॥ १९ ॥

यह कहकर वह निषादकन्या मौन हो गयी। तब कामसे पीड़ित महाराज शन्तनुने उससे कहा- मुझ कुरुवंशी वीरको तुम अपना पति बना लो, जिससे तुम्हारा यौवन व्यर्थ न जाय ॥ २० ॥

मेरी कोई दूसरी पत्नी नहीं है। अतः हे मृगनयनी ! तुम मेरी धर्मपत्नी बन जाओ। हे प्रिये ! मैं सर्वदाके लिये तुम्हारा वशवर्ती दास बन जाऊँगा। मुझे | कामदेव पीड़ित कर रहा है ॥ २१ ॥

 

मेरी प्रियतमा मुझे छोड़कर चली गयी है, तबसे मैंने अपना दूसरा विवाह नहीं किया। हे कान्ते ! मैं इस समय विधुर हूँ। तुम जैसी सर्वांगसुन्दरीको देखकर मेरा मन अपने वशमें नहीं रह गया है ॥ २२ ॥

राजाकी अमृतरसके समान मधुर तथा मनोहारी बात सुनकर वह दाशकन्या सुगन्धा सात्त्विक भावसे युक्त होकर धैर्य धारण करके राजासे बोली- हे राजन् !

 

आपने मुझसे जो कुछ कहा, वह यथार्थ है; किंतु आप अच्छी तरह जान लीजिये कि मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। मेरे पिताजी ही मुझे दे सकते हैं। अतएव आप उन्हींसे मेरे लिये याचना कीजिये ॥ २३-२४॥

मैं एक निषादकी कन्या होती हुई भी स्वेच्छाचारिणी नहीं हूँ। मैं सदा पिताके वशमें रहती हुई सब काम करती हूँ।

 

यदि मेरे पिताजी मुझे आपको देना स्वीकार कर लें तब आप मेरा पाणिग्रहण कर लीजिये और मैं सदाके लिये आपके अधीन हो जाऊँगी ॥ २५ ॥

 

हे राजन् ! परस्पर आसक्त होनेपर भी कुलकी मर्यादा तथा परम्पराके अनुसार धैर्य धारण करना चाहिये ॥ २६ ॥

 

सूतजी बोले – उस सुगन्धाकी यह बात सुनकर कामातुर राजा उसे माँगनेके लिये निषादराजके घर गये ॥ २७ ॥

इस प्रकार महाराज शन्तनुको अपने घर आया देखकर निषादराजको बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर वह बोला- ॥ २८ ॥

निषादने कहा- हे राजन् ! मैं आपका दास हूँ। आपके आगमनसे मैं कृतकृत्य हो गया। हे महाराज ! आप जिस कार्यके लिये आये हों, मुझे आज्ञा दीजिये ॥ २९ ॥

राजा बोले- हे अनघ ! यदि आप अपनी यह कन्या मुझे प्रदान कर दें तो मैं इसे अपनी धर्मपत्नी बना लूंगा; यह मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ ३० ॥

निषादने कहा- हे महाराज ! यदि आप मेरे इस कन्यारत्नके लिये प्रार्थना कर रहे हैं तो मैं अवश्य दूंगा; क्योंकि देनेयोग्य वस्तु तो कभी अदेय नहीं होती है; किंतु हे महाराज !

 

आपके बाद इस कन्याका पुत्र ही राजाके रूपमें अभिषिक्त होना चाहिये, आपका दूसरा पुत्र नहीं ॥ ३१-३२ ॥

 

सूतजी बोले – निषादकी बात सुनकर राजा शन्तनु चिन्तित हो उठे। उस समय मनमें भीष्मका स्मरण करके राजा कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ ३३ ॥

तब कामातुर तथा चिन्तित राजा राजमहलमें चले गये। उन्होंने घर जानेपर न स्नान किया, न भोजन किया और न शयन ही किया ॥ ३४॥

तब उन्हें चिन्तित देखकर पुत्र देवव्रत राजाके पास जाकर उनकी इस चिन्ताका कारण पूछने लगे-हे नृपश्रेष्ठ ! कौन-सा ऐसा शत्रु है जिसको आप जीत न सके; मैं उसे आपके अधीन कर दूँ।

 

हे नृपोत्तम! आपकी क्या चिन्ता है, मुझे सही-सही बताइये ॥ ३५-३६ ॥ हे राजन् ! भला उस उत्पन्न हुए पुत्रसे क्या लाभ ? जो पैदा होकर अपने पिताका दुःख न समझे तथा उसको दूर करनेका उपाय न कर सके।

 

ऐसा कुपुत्र तो पूर्वजन्मके किसी ऋणको वापस लेनेके लिये यहाँ आता है; इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है ॥ ३७ ॥

दशरथके पुत्र रामचन्द्रजी भी पिताकी आज्ञासे राज्य त्यागकर लक्ष्मण और सीताके साथ वनमें चले गये तथा चित्रकूटपर्वतपर निवास करने लगे ॥ ३८ ॥

इसी प्रकार हे राजन् ! राजा हरिश्चन्द्रका पुत्र जो रोहित नामसे प्रसिद्ध था, अपने पिताके इच्छानुसार बिकनेके लिये तत्पर हो गया और खरीदा हुआ वह बालक ब्राह्मणके घरमें सेवकका कार्य करने लगा ॥ ३९ ॥

‘अजीगर्त’ ब्राह्मणका एक श्रेष्ठ पुत्र था, जो शुनःशेप नामसे प्रसिद्ध था। खरीद लिये जानेपर वह पिताके द्वारा यूपमें बाँध दिया गया, जिसे बादमें विश्वामित्रने छुड़ाया था ॥ ४० ॥

पूर्वकालमें पिताकी आज्ञासे ही परशुरामने अपनी माताका सिर काट दिया था, ऐसा लोकमें प्रसिद्ध है। इस अनुचित कर्मको करके भी उन्होंने पिताकी आज्ञाका महत्त्व बढ़ाया था ॥ ४१ ॥

हे पृथ्वीपते ! यह मेरा शरीर आपका ही है। यद्यपि मैं समर्थ नहीं हूँ; फिर भी आप कहिये मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? मेरे रहते आपको किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं होनी चाहिये। मैं आपका असाध्य कार्य भी तत्काल पूरा करूँगा ॥ ४२ ॥

हे राजन् ! आप बताइये कि आपको किस बातकी चिन्ता है? मैं अभी धनुष लेकर उसका निवारण कर दूँगा। यदि मेरे इस शरीरसे भी आपका कार्य सिद्ध हो सके तो मैं आपकी अभिलाषा पूर्ण करनेको तत्पर हूँ।

 

उस पुत्रको धिक्कार है, जो समर्थ होकर भी अपने पिताकी इच्छाको पूर्ण नहीं करता। जिस पुत्रके द्वारा पिताकी चिन्ता दूर न हुई, उस पुत्रका जन्म लेनेका क्या प्रयोजन ? ॥ ४३-४४॥

सूतजी बोले- अपने पुत्र गांगेयका वचन सुनकर महाराज शन्तनु मनमें लज्जित होते हुए उससे शीघ्र ही कहने लगे ॥ ४५ ॥

राजा बोले- हे पुत्र ! मुझे यही महान् चिन्ता है कि तुम मेरे इकलौते पुत्र हो। यद्यपि तुम बलवान्, स्वाभिमानी, रणस्थलमें पीठ न दिखानेवाले साहसी पुत्र हो तथापि केवल एक पुत्र होनेके कारण मुझ पिताका जीवन व्यर्थ है;

 

क्योंकि यदि कहीं किसी समरमें तुम्हें अमरगति प्राप्त हो गयी तो मैं असहाय होकर क्या कर सकूँगा ? यही मुझे सबसे बड़ी चिन्ता लगी है; इसी कारण मैं आजकल दुःखित रहता हूँ। हे पुत्र ! इसके अतिरिक्त मुझे दूसरी कोई चिन्ता नहीं है, जिसे मैं तुम्हारे सामने कहूँ ॥ ४६-४८ ॥

सूतजी बोले- यह सुनकर गांगेयने वृद्ध मन्त्रियोंसे पूछा कि लज्जासे परिपूर्ण महाराज मुझे कुछ बता नहीं रहे हैं ॥ ४९ ॥

आपलोग राजाकी भावना जानकर सही एवं निश्चित कारण मुझे बताइये; मैं प्रसन्नतापूर्वक उसे सम्पन्न करूँगा ॥ ५० ॥

यह सुनकर मन्त्रिगण राजाके पास गये और सब कारण सही-सही जानकर उन्होंने युवराज गांगेयसे आकर कह दिया।

 

तब उनका अभिप्राय जानकर गांगेय विचार करने लगे। मन्त्रियोंके साथ गंगापुत्र देवव्रत उस निषादके घर शीघ्र गये और प्रेमके साथ विनम्र होकर यह कहने लगे ॥ ५१-५२ ॥

गांगेय बोले- हे परन्तप ! आप अपनी सुन्दरी कन्या मेरे पिताजीके लिये प्रदान कर दें- यही मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। आपकी ये कन्या मेरी माता हों और मैं इनका सेवक रहूँगा ॥ ५३ ॥

निषादने कहा- हे महाभाग ! हे नृपनन्दन !आप स्वयं ही इसे अपनी भार्या बनाइये; क्योंकि आपके रहते इसका पुत्र राजा नहीं हो सकेगा ॥ ५४ ॥

गांगेय बोले – आपकी यह कन्या मेरी माता है। मैं राज्य नहीं करूँगा। इसका पुत्र ही निश्चितरूपसे राज्य करेगा; इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है ॥ ५५ ॥

निषादने कहा- मैंने आपकी बात सही मान ली; परंतु यदि आपका पुत्र बलवान् हुआ तो वह बलपूर्वक राज्यको निश्चय ही ले लेगा ॥ ५६ ॥

गांगेय बोले- हे तात ! मैं कभी विवाह नहीं करूंगा; मेरा यह वचन सर्वथा सत्य है- यह मैंने भीष्म-प्रतिज्ञा कर ली ॥ ५७ ॥

सूतजी बोले – गांगेयद्वारा की गयी ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर निषादने उन राजा शन्तनुको अपनी सर्वांगसुन्दरी कन्या सत्यवती सौंप दी ॥ ५८ ॥

इस प्रकार राजा शन्तनुने प्रिया सत्यवतीसे विवाह कर लिया। वे नृपश्रेष्ठ शन्तनु पूर्वमें सत्यवतीसे व्यासजीका जन्म नहीं जानते थे ॥ ५९ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे देवव्रतप्रतिज्ञावर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

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