Devi bhagwat puran skandh 2 chapter 1(देवी भागवत पुराण द्वितीयः स्कन्धःप्रथमोऽध्यायःब्राह्मणके शापसे अद्रिका अप्सराका मछली होना और उससे राजा मत्स्य तथा मत्स्यगन्धाकी उत्पत्ति):

॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥

॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥

Devi bhagwat puran skandh 2 chapter 1(देवी भागवत पुराण द्वितीयः स्कन्धःप्रथमोऽध्यायःब्राह्मणके शापसे अद्रिका अप्सराका मछली होना और उससे राजा मत्स्य तथा मत्स्यगन्धाकी उत्पत्ति)

[अथ प्रथमोऽध्यायः]

ऋषिगण बोले- [हे सूतजी!] आपकी यह बात आश्चर्यजनक एवं रहस्यपूर्ण है। इस सम्बन्धमें हम सब तपस्वियोंको महान् सन्देह उत्पन्न हो गया है ॥ १ ॥

 

हे मेधाविन् ! पूर्वकालमें सत्यवती नामसे विख्यात व्यासजीकी माताका राजा शन्तनुके साथ जिस प्रकार विवाह हुआ, उन सतीके अपने घरमें रहते हुए भी उनसे पुत्ररूपमें व्यास कैसे उत्पन्न हुए, ऐसी सत्यवतीका शन्तनुने पुनः वरण कैसे किया और उनसे दो पुत्रोंकी उत्पत्ति कैसे हुई ?

 

हे सुव्रत! हे महाभाग ! आप इस परम पावन कथाको विस्तारपूर्वक कहिये। आप व्यासजी तथा सत्यवतीकी उत्पत्तिका वर्णन कीजिये; हम सभी व्रतधारी ऋषि इस विषयमें सुननेके लिये उत्सुक हैं ॥ २-५ ॥

 

सूतजी बोले- मैं चतुर्वर्ग [धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष] प्रदान करनेवाली परमा आदिशक्तिको प्रणाम करके यह शुभ पौराणिक कथा कहूँगा ॥ ६ ॥

 

जिनके विशिष्ट वाग्भव बीजमन्त्र (ऐं)-का किसी भी बहानेसे उच्चारण करते ही शाश्वती सिद्धि प्राप्त हो जाती है, उन इच्छित फल देनेवाली भगवतीका सभी लोगोंको अपनी समस्त कामनाएँ पूर्ण करनेके लिये समर्पण भावसे सम्यक् स्मरण करना चाहिये ॥ ७-८ ॥

 

उपरिचर नामके एक सत्यवादी, धर्मात्मा, ब्राह्मणपूजक तथा श्रीमान् राजा हुए, जो चेदि देशके शासक थे। उनकी तपस्यासे सन्तुष्ट होकर देवराज इन्द्रने उन्हें प्रसन्न करनेके लिये स्फटिक मणिका बना हुआ एक सुन्दर तथा दिव्य विमान दिया ॥ ९-१० ॥

 

उस दिव्य विमानपर चढ़कर चेदिराज सर्वत्र विचरण करते थे। वे कभी भूमिपर न उतरने तथा पृथ्वीसे ऊपर-ही-ऊपर चलनेके कारण सभी लोकोंमें ‘उपरिचर’ वसुके नामसे प्रसिद्ध हुए। वे राजा अत्यन्त धर्मपरायण थे। उनकी धर्मपत्नीका नाम गिरिका था, जो रूपवती तथा सुन्दरी थी ॥ ११-१२ ॥

 

महाराज उपरिचरके पाँच पुत्र हुए जो बड़े महान् वीर एवं परम प्रतापी थे। [यथासमय] उन्होंने अपने राजकुमारोंको अलग-अलग देशोंका राजा बना दिया ॥ १३ ॥

 

एक बार राजा वसुकी पत्नी गिरिकाने ऋतुकालके स्नानसे पवित्र होकर राजासे पुत्रप्राप्तिकी कामना की। जिस समय वह प्रार्थना करने लगी, उसी समय उनके पितरोंने उन राजासे कहा- हे राजन् !

 

मृगोंको मार लाओ-इस आदेशको सुनकर राजाको अपनी ऋतुमती पत्नीका भी स्मरण हो आया, किंतु पितरोंकी आज्ञा श्रेष्ठ मानकर तथा अपने कर्तव्यका निश्चयकर राजा मन- ही-मन गिरिकाका स्मरण करते हुए आखेटके लिये चल पड़े ॥ १४-१६ ॥

 

वनमें रहते हुए राजा वसु साक्षात् दूसरी लक्ष्मीके समान रूपवती अपनी पत्नीका स्मरण करने लगे। इस प्रकार उस कामिनीके ध्यानसे एकाएक उनका वीर्य स्खलित हो गया और राजाने शीघ्र ही उस स्खलित वीर्यको बरगदके पत्तेपर रख लिया ॥ १७-१८ ॥

 

यह स्खलित तेज व्यर्थ न हो- [यह सोचकर] तथा स्त्रीका ऋतुकाल जानकर उन्होंने ऐसा निश्चय कर लिया कि मेरा तेज सर्वथा अमोघ है, इसमें सन्देह नहीं है अतः अवश्य ही इसे मैं रानीके पास भेज दूँ ॥ १९-२० ॥

 

राजा जब उस वीर्यको बरगदके दोनेमें रखकर अपनी रानीके पास भेजने लगे तब उन्होंने रानीका | ऋतुकाल जानकर उस वीर्यको अभिमन्त्रित किया।

 

राजाने पास ही बैठे हुए बाज पक्षीको बुलाकर उससे कहा- ‘हे महाभाग ! तुम इसे ग्रहण करो और शीघ्र ही मेरे घर चले जाओ। हे सौम्य ! मेरा हित करनेके लिये इसे लेकर तुम मेरे घर जाओ और इसे शीघ्र ही गिरिकाको दे देना; क्योंकि आज ही उसका ऋतुकाल है’ ॥ २१-२३॥

 

सूतजी बोले – ऐसा कहकर नृपश्रेष्ठने बाजको वह दोना दे दिया और वह द्रुतगामी बाज भी उसे लेकर शीघ्र ही आकाशमें उड़ने लगा ॥ २४ ॥

 

चोंचमें पत्तेका दोना लेकर आकाशमें उड़ते हुए उस बाजको एक दूसरे बाजपक्षीने अपनी ओर आते हुए देखा ॥ २५ ॥

 

बाजकी चोंचमें मांसका टुकड़ा समझकर तत्काल उसने उस बाजपर आक्रमण कर दिया। दोनों बाजोंके बीच आकाशमें चोंचोंसे घोर युद्ध होने लगा।

 

उन दोनोंके युद्ध करते समय वीर्यवाला वह दोना यमुनाजीके जलमें जा गिरा। दोनेके गिर जानेपर दोनों पक्षी वहाँसे यथेच्छ दिशामें चले गये ॥ २६-२७ ॥

 

उसी समय अद्रिका नामकी एक अप्सरा जलमें निमग्न होकर जलक्रीडा कर रही थी। उस सुन्दरी स्त्रीने वहाँपर उपस्थित सन्ध्यावन्दन करनेमें तत्पर एक ब्राह्मणको देखा और उन ब्राह्मणका पैर पकड़ लिया ॥ २८-२९ ॥

 

प्राणायाम करते हुए ब्राह्मणने उस स्वेच्छाचारिणीको देखकर उसे यह शाप दे दिया कि ‘तुमने मेरे ध्यानमें विघ्न डाला है, अतएव तुम मछली हो जाओ।’ इस प्रकार ब्राह्मणश्रेष्ठसे शाप पाकर वह अद्रिका नामकी रूपवती श्रेष्ठ अप्सरा मछली बनकर यमुनाके जलमें विचरने लगी ॥ ३०-३१ ॥

 

बाजके पादाघातसे गिरे हुए उस वीर्यके पास जाकर मत्स्यरूपधारिणी अद्रिका अप्सराने उसे शीघ्रतापूर्वक निगल लिया ॥ ३२ ॥

 

कुछ समय बाद दस महीने बीतनेपर एक मछुआरेने उस सुन्दर मछलीको अपने जालमें फँसा लिया ॥ ३३ ॥

 

उस मछुआरेने शीघ्र ही उस मछलीका पेट चीर दिया। उसके उदरसे मनुष्यके आकारवाली जुड़वाँ सन्तति निकली ॥ ३४ ॥

 

उन दोनोंमें एक रूपवान् बालक तथा एक सुन्दर मुखवाली बालिका थी। इस अद्भुत घटनाको देखकर वह भी अत्यन्त विस्मित हुआ ॥ ३५ ॥

 

उसने मछलीके पेटसे निकले उन दोनों बच्चोंको राजा उपरिचरको सौंप दिया। राजा भी आश्चर्यचकित हुआ और उसने उस सुन्दर पुत्रको ले लिया ॥ ३६ ॥

 

वह वसुपुत्र मत्स्य नामक राजा हुआ, जो अपने पिताके समान ही धर्मात्मा, सत्यप्रतिज्ञ, महातेजस्वी तथा पराक्रमी था ॥ ३७ ॥

 

राजा उपरिचर वसुने वह कन्या उस मछुआरेको ही दे दी, जो आगे चलकर काली तथा मत्स्योदरी नामसे प्रसिद्ध हुई। अपने गुणविशेषके कारण वह मत्स्यगन्धा नामसे कही जाने लगी। उस मछुआरे दाशके घर वह सुन्दरी वासवी धीरे-धीरे बढ़ने लगी ॥ ३८-३९ ॥

 

ऋषिगण बोले- हे सूतजी ! मुनिके द्वारा शापित वह अद्रिका नामकी श्रेष्ठ अप्सरा जब मछली हो गयी और मछुआरेने उसे चीर डाला, तब वह मर गयी अथवा उसने उसे खा लिया। उस अप्सराका फिर क्या हुआ ? उसके शापकी समाप्ति कैसे हुई और उसे पुनः स्वर्ग कैसे मिला ? यह बताइये ॥ ४०-४१ ॥

 

सूतजी बोले- जब मुनिने उसे शाप दिया, तब वह विस्मित हो गयी और दीनतापूर्वक रोती हुई उस ब्राह्मणकी स्तुति करने लगी ॥ ४२ ॥

 

दयालु ब्राह्मणने उस रोती हुई स्त्रीसे कहा- हे कल्याणि! तुम शोक न करो, मैं तुम्हारे शापके अन्तका उपाय बताता हूँ। हे शुभे! मैंने क्रुद्ध होकर जो शाप दिया है, उससे तुम मत्स्ययोनिको प्राप्त होओगी; किंतु तुम अपने उदरसे एक युग्म मानव-सन्तान उत्पन्नकर इस शापसे मुक्त हो जाओगी ॥ ४३-४४ ॥

 

उनके ऐसा कहनेपर वह यमुनाजलमें मछलीका शरीर पाकर तथा दो सन्तानोंको उत्पन्न करके मर गयी और शापसे मुक्त हो गयी ॥ ४५ ॥

 

इस प्रकार शापोद्धार होनेपर वह सुन्दरी मछलीका शरीर त्यागकर दिव्य रूप धारण करके स्वर्गको चली गयी ॥ ४६ ॥

 

इस प्रकार सुन्दर मुखवाली उस कन्या मत्स्य- गन्धाका जन्म हुआ। दाशके घरमें पुत्रीकी भाँति पालन- पोषणकी जाती हुई वह कन्या बढ़ने लगी ॥ ४७ ॥

 

जब वह मत्स्यगन्धा किशोरावस्थाको प्राप्त हुई, तब उसका सौन्दर्य और भी बढ़ गया। वह परम सुन्दरी वसुकन्या निषादराजके कार्योंको करती हुई रहने लगी ॥ ४८ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां द्वितीयस्कन्धे मत्स्यगन्धोत्पत्तिवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

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