Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 4(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:चतुर्थोऽध्यायःनारदजीद्वारा व्यासजीको देवीकी महिमा बताना)
[अथ चतुर्थोऽध्यायः]
:-नारदजीद्वारा व्यासजीको देवीकी महिमा बताना ऋषिगण बोले- हे सौम्य ! महर्षि व्यासकी किस पत्नीसे शुकदेवजी उत्पन्न हुए ? उनका जन्म किस प्रकार हुआ और किस प्रकारसे उन्होंने इस संहिताका सम्यक् अध्ययन कर लिया ? ॥ १॥
आपके द्वारा ही वे अयोनिज कहे गये हैं तो फिर अरणीसे उनकी उत्पत्ति कैसे हुई? हे महामते ! इसमें हमें महान् संशय हो रहा है, आप उसका समाधान करें ॥ २ ॥
हमलोगोंने पहले ही सुना है कि महातपस्वी शुकदेवजी गर्भयोगी थे। ऐसी स्थितिमें उन्होंने इतने विस्तृत पुराण (श्रीमद्देवीभागवत) का अध्ययन कैसे कर लिया ? ॥ ३ ॥
सूतजी बोले – प्राचीन कालमें एक समय सत्यवतीके पुत्र व्यासजी सरस्वतीनदीके किनारे अपने आश्रममें गौरैया पक्षीका जोड़ा देखकर आश्चर्यचकित | हो गये ॥ ४ ॥
अण्डेसे तत्काल पैदा हुए लाल मुखवाले, सुन्दर अंगोंवाले एवं पंखरहित शिशुको घोंसलेमें ही छोड़कर वे दोनों उड़ गये और अत्यन्त परिश्रमसे चारा लाकर उस शिशुके चोंचमें डालते हुए दोनों पक्षी अत्यन्त आह्लादयुक्त होकर उस शिशुके अंगोंको अपने अंगोंसे रगड़ते हुए प्रेमपूर्वक उसके सुन्दर मुखको चूम रहे थे ॥ ५-७ ॥
व्यासजी उस शिशुमें उन दोनों पक्षियोंका ऐसा अद्भुत प्रेम देखकर चिन्तामें पड़ गये और मन-ही- मन सोचने लगे। यदि अपने पुत्रके प्रति पक्षियोंमें ऐसा प्रेम दिखायी दे रहा है तो अपनी सेवाका फल चाहनेवाले मनुष्योंमें ऐसा प्रेम-व्यवहार होनेमें आश्चर्य ही क्या!
क्या ये दोनों पक्षी इसका सुख-साधनस्वरूप विवाह करके स्वयं सुखी रहते हुए इसकी वधूका सुन्दर मुख देख पायेंगे ? क्या इनकी वृद्धावस्थामें यह धर्मनिष्ठ पुत्र पुण्य-प्राप्तिके लिये इन दोनोंकी सेवा करेगा ?
धन आदि अर्जित करके क्या यह अपने माता-पिताको सन्तुष्ट रखेगा और इनकी मृत्युके उपरान्त क्या इनका विधि-पूर्वक प्रेतकर्म करेगा ?
अथवा क्या गयातीर्थ जाकर यह बालक उनके श्राद्ध आदि कर्म करके उनका उद्धार करेगा तथा उनके परलोकसाधनहेतु क्या यह विधिपूर्वक नीलोत्सर्ग(नील वृषभ छोड़नेका कर्म) करेगा ? ॥ ८-१३॥
पुत्रके शरीरका आलिंगन और विशेषरूपसे उसका लालन-पालन इस संसारमें सभी सुखोंमें उत्तम सुख कहा गया है ॥ १४ ॥
पुत्ररहित मनुष्यकी न तो सद्गति होती है और न तो उसे स्वर्गकी ही प्राप्ति होती है। अतः परलोकसाधनके लिये पुत्रसे बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं है ॥ १५ ॥
मनु आदि ऋषियोंने भी धर्मशास्त्रोंमें कहा है कि पुत्रवान् मनुष्य स्वर्ग प्राप्त करता है और पुत्रहीन व्यक्तिको स्वर्ग-प्राप्ति कभी भी नहीं होती है ॥ १६ ॥
इस बातमें अनुमानकी कोई आवश्यकता ही नहीं है अपितु यह प्रत्यक्षरूपमें भी देखा जाता है; साथ ही यह वेद, स्मृति आदिका भी सनातन वचन | है कि पुत्रवान् मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ १७ ॥
रोगावस्थामें तथा मरणकालमें भूमि-शय्यापर पड़ा हुआ सन्तानहीन प्राणी दुःखित होकर अपने मनमें विचार करता है कि मेरे घरमें पर्याप्त धन है, अनेक प्रकारके पात्र हैं तथा मेरा यह भवन भी अत्यन्त सुन्दर है; किंतु अब इन सबका स्वामी कौन होगा ? ॥ १८-१९ ॥
चूँकि मृत्युकालमें उस प्राणीका मन अति दुःखी होकर भ्रमित होता रहता है, इसलिये उस भ्रान्त मनवाले प्राणीकी दुर्गति अवश्य ही होती है ॥ २० ॥
इस प्रकार अनेकानेक चिन्तन करके और बार- बार लम्बी तथा गर्म साँसें लेकर सत्यवतीपुत्र व्यासजीका मन अत्यन्त खिन्न हो गया ॥ २१ ॥
इसके बाद मनमें बहुत सोच-विचार करके अन्ततः दृढ निश्चय करके वे तपश्चर्याके लिये मेरुपर्वतपर चले गये ॥ २२ ॥
उन्होंने मनमें विचार किया कि मैं विष्णु, रुद्र, इन्द्र, ब्रह्मा, सूर्य, गणेश, कार्तिकेय, अग्नि एवं वरुण-इन देवताओंमें किस देवताकी आराधना करूँ, जो वरप्रदान करनेमें उदार तथा अभीष्ट फलोंको देनेवाला हो ॥ २३-२४॥
इस प्रकार व्यासजी विचार कर ही रहे थे कि उसी समय संयोगवश मुनिश्रेष्ठ नारदजी हाथोंमें वीणा धारण किये हुए वहाँ आ गये ॥ २५ ॥
उन्हें देखकर सत्यवतीपुत्र व्यासजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने अर्घ्य तथा आसन प्रदान करके उन मुनिसे कुशल-क्षेम पूछा ॥ २६ ॥
कुशल-प्रश्न सुन लेनेके पश्चात् मुनिवर नारदजीने पूछा- हे द्वैपायन! आप किस कारणसे चिन्ताग्रस्त हैं ? मुझे बतायें ॥ २७ ॥
व्यासजी बोले – सन्तानहीन व्यक्तिकी सद्गति नहीं होती और कभी भी उसके मनमें सुखानुभूति नहीं होती है। इसी बातको लेकर मैं अत्यन्त दुःखित हूँ और बार-बार यही सोचता रहता हूँ ॥ २८ ॥
मैं अभिलषित फल देनेवाले किस देवताको अपनी तपः साधनासे प्रसन्न करूँ, इसी चिन्तामें पड़ा हुआ मैं [अब इसके समाधानहेतु] आपकी | शरणमें हूँ ॥ २९ ॥
हे महर्षे! आप सब कुछ जाननेवाले हैं। हे कृपासिन्धु ! आप मुझे शीघ्र ही बतायें कि मैं किस देवताकी शरणमें जाऊँ, जो प्रसन्न होकर मुझे पुत्र प्रदान कर दे ॥ ३० ॥
सूतजी बोले – व्यासजीके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर वेदवेत्ता तथा महामना महर्षि नारद अत्यन्त प्रेमपूर्वक कृष्णद्वैपायनसे कहने लगे ॥ ३१ ॥
नारदजी बोले- हे पराशरतनय ! हे महाभाग ! आपके द्वारा जो प्रश्न यहाँ मुझसे पूछा गया है, वैसा ही प्रश्न पूर्वकालमें मेरे पिता ब्रह्माजीने मधुसूदन भगवान् विष्णुसे किया था ॥ ३२ ॥
मेरे पिता ब्रह्माजी कौस्तुभमणिकी प्रभासे दीप्तिमान्, शंख-चक्र-गदा और पद्म धारण करनेवाले, पीत वस्त्र धारण करनेवाले, चार भुजाओंवाले, श्रीवत्सचिह्नसे विभूषित वक्षःस्थलवाले, सभी लोकोंके कारणस्वरूप, देवाधिदेव, जगद्गुरु, जगदीश्वर, वासुदेव, देवेश, जगत्पति, श्रीनाथ विष्णुको ध्यानमें अवस्थित होकर कठोर तप करते हुए देखकर अत्यन्त विस्मयमें पड़ गये और उन्होंने पूछा ॥ ३३-३५ ॥
ब्रह्माजी बोले- हे देवाधिदेव ! हे जगन्नाथ ! हे भूत-भविष्य-वर्तमानके स्वामी! आप किसलिये यह कठोर तपस्या कर रहे हैं? हे जनार्दन ! आप किसके ध्यानमें लीन हैं ? ॥ ३६ ॥
हे देवेश ! [यह देखकर] मैं परम विस्मयमें पड़ गया हूँ कि समस्त विश्वका स्वामी होते हुए भी आप ऐसा ध्यान कर रहे हैं; भला इससे बढ़कर अन्य कौन-सी विचित्र बात होगी ! ॥ ३७ ॥
आपके नाभिकमलसे प्रादुर्भूत होकर मैं सम्पूर्ण लोकोंके कर्ताके रूपमें अधिष्ठित हूँ। हे लक्ष्मीपते ! आपसे भी श्रेष्ठतर कौन देवता है ? उस देवताको मुझे बताइये ॥ ३८ ॥
हे जगन्नाथ ! मैं तो यही जानता हूँ कि आप ही आदिस्वरूप, सबके कारण, निर्माता, पालनकर्ता, संहारक तथा सभी कार्योंको सम्पादित करनेवाले हैं ॥ ३९ ॥
हे महाराज ! आपकी इच्छासे ही मैं इस जगत्के रचनाकार्यमें प्रवृत्त होता हूँ और सदा आपके ही आदेशसे | शंकरजी प्रलयावस्थामें जगत्का संहार करते हैं ॥ ४० ॥
हे ईश ! आपकी आज्ञासे ही सूर्य आकाशमें [नियमित रूपसे] भ्रमण करता है, शुभ तथा अशुभ हवा चलती है, अग्नि ताप धारण करती है और मेघ वृष्टि करता है ॥ ४१ ॥
आप किस देवताका ध्यान कर रहे हैं? यह मेरी महती शंका है। मैं तो तीनों लोकोंमें आपसे बढ़कर अन्य किसी देवताको नहीं जानता हूँ ॥ ४२ ॥
हे सुव्रत ! मैं आपका भक्त हूँ, अतः कृपा करके [अपनी तपस्याका रहस्य बताइये; क्योंकि यह सर्वविदित है कि महान् लोग अपने भक्तोंसे कुछ भी गोपनीय नहीं रखते हैं ॥ ४३ ॥
ब्रह्माजीका वचन सुनकर भगवान् विष्णु उनसे बोले- हे ब्रह्मन् ! आपको अपने मनकी बात बताता हूँ, आप उसे एकाग्रचित्त होकर सुनें ॥ ४४ ॥
यद्यपि सभी देव, दानव और मानव यही जानते हैं कि आप जगत्की रचना, मैं जगत्के पालन और शिवजी जगत्के संहारके परम कारण हैं तथापि वेद- तत्त्वज्ञ विद्वान् यह तर्कना करते हैं कि किसी शक्तिके द्वारा ही आप सृष्टिके कर्ता हैं, मैं भर्ता हूँ और शंकरजी हर्ता हैं ॥ ४५-४६ ॥
जगत्की रचनाके लिये आपमें राजसी शक्ति विद्यमान है, मुझमें सात्त्विकी शक्ति स्थित है तथा शिवजीमें तामसी शक्ति बतायी गयी है ॥ ४७ ॥
उस शक्तिके न रहनेपर आप न तो सृष्टि-रचना कर सकते हैं, न मैं पालन-कार्य करनेमें समर्थ हो सकता हूँ और न तो शंकर संहार कर सकते हैं ॥ ४८ ॥
हे विभो ! हम सभी निरन्तर उसी शक्तिके अधीन रहते हैं। हे सुव्रत ! अब प्रत्यक्ष तथा परोक्षसे सम्बन्धित दृष्टान्त भी आप सुनिये ॥ ४९ ॥
इसमें कोई संशय नहीं कि मैं परतन्त्र होकर शेष-शय्यापर शयन करता हूँ और उसी शक्तिके अधीन होकर समयपर कालका वशवर्ती होकर मैं शयनसे उठता हूँ ॥ ५० ॥
उसी शक्तिका अवलम्बन प्राप्तकर मैं सदा तपश्चरण करता रहता हूँ। मैं कभी लक्ष्मीके साथ सुखपूर्वक विहार करता हूँ और कभी दानवोंके साथ अत्यन्त भीषण, शरीरको चूर्ण कर देनेवाला तथा लोगोंको भयभीत कर देनेवाला युद्ध भी करता हूँ ॥ ५१-५२ ॥
हे धर्मज्ञ ! आप यह तो प्रत्यक्ष जानते हैं कि पूर्व समयमें मेरे द्वारा उस महासिन्धुमें पाँच हजार वर्षोंतक भीषण बाहुयुद्ध किया गया था ॥ ५३॥
हे देव! कानकी मैलसे उत्पन्न अत्यन्त दुष्ट, मदोन्मत्त तथा अहंकारी मधु-कैटभ नामक दोनों दानवोंका मैंने देवीकी कृपासे ही संहार किया था। हे महाभाग ! क्या आप उस समय परात्पर कारणस्वरूपा महाशक्तिको नहीं जान पाये थे ? अतः बार-बार क्यों पूछ रहे हैं? ॥ ५४-५५ ॥
उसी शक्तिकी इच्छासे मैं परमपुरुषके रूपमें महासागरमें विचरण करता हूँ और विभिन्न युगोंमें कच्छप, वराह, नृसिंह तथा वामनके रूपमें अवतरित होता रहता हूँ ॥ ५६ ॥
तिर्यग्योनिमें उत्पन्न होना किसीके लिये भी प्रिय नहीं होता। मैं अपनी इच्छासे वामन, वराह आदि योनियोंमें उत्पन्न नहीं होता हूँ। [अपितु इसमें उसी शक्तिकी प्रेरणा ही परम कारण है] ॥ ५७॥
भला ऐसा कौन होगा, जो लक्ष्मीके साथ सुख- दायक विहारका त्याग करके मत्स्यादि नीच योनियोंमें जन्म लेगा ? यदि मैं स्वतन्त्र होता तो [सुखदायिनी ] शय्याको छोड़कर गरुडरूपी आसनपर बैठकर महाभयंकर युद्ध क्यों करता ! ॥ ५८ ॥
हे अज ! प्राचीन कालमें एक बार आपके समक्ष ही धनुषकी प्रत्यंचा टूट जानेके कारण मेरा सिर छिन्न हो गया था। तब शिल्पकारोंमें श्रेष्ठ आपने फिरसे मेरे धड़पर घोड़ेका सिर जोड़ दिया था ॥ ५९ ॥
हे लोकनिर्माता ! उसी समयसे मैं ‘हयग्रीव’ नामसे लोकप्रसिद्ध हुआ, यह सब आपके सामने घटित हुआ था। यदि मैं स्वाधीन होता तो संसारमें यह विडम्बना कैसे होती ? ॥ ६० ॥
अतएव मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ, अपितु सर्वथा उसी शक्तिके अधीन हूँ। मैं निरन्तर उसी शक्तिका ध्यान करता रहता हूँ। हे कमलोद्भव ! मैं इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं जानता ॥ ६१३ ॥
नारदजी बोले- हे व्यासजी ! भगवान् विष्णुने | ब्रह्माजीसे इस प्रकार कहा था। हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरे पिता ब्रह्माजीने वे सब बातें मुझसे कही थीं।
अतः आप भी कल्याणकारी पुत्र-प्राप्तिके उद्देश्यसे सर्वथा संशयरहित होकर अपने हृदयकमलमें देवी भगवतीके चरणारविन्दका ध्यान कीजिये। वे देवी आपके समस्त अभिलषित फलोंको अवश्य प्रदान करेंगी ॥ ६२-६४॥
सूतजी बोले- नारदजीके ऐसा कहनेपर सत्यवतीपुत्र व्यासजी देवीके चरणारविन्दमें अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए तपश्चर्याहेतु पर्वतपर चले | गये ॥ ६५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां प्रथमस्कन्धे देवीसर्वोत्तमेतिकथनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥