Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 2(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:द्वितीयोऽध्यायः -सूतजीद्वारा श्रीमद्देवीभागवतके स्कन्ध, अध्याय तथा श्लोकसंख्याका निरूपण और उसमें प्रतिपादित विषयोंका वर्णन)

Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 2(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:द्वितीयोऽध्यायः -सूतजीद्वारा श्रीमद्देवीभागवतके स्कन्ध, अध्याय तथा श्लोकसंख्याका निरूपण और उसमें प्रतिपादित विषयोंका वर्णन)

(अथ द्वितीयोऽध्यायः)

सूतजी बोले- [हे मुनिजनो !] मैं धन्य और महान् भाग्यशाली हूँ, जो कि आप महात्माओंने वेदविश्रुत तथा अत्यन्त पुण्यप्रद श्रीमद्देवीभागवत महापुराणके सम्बन्धमें प्रश्न करके मुझे पवित्र बना दिया ॥ १ ॥

इसलिये मैं सभी वेदोंके तात्पर्यसे युक्त, सभी शास्त्रों और आगमोंके रहस्यरूप सर्वोत्तम श्रीमद्देवी- भागवतपुराणको आपलोगोंसे कहता हूँ ॥ २ ॥

हे द्विजगण ! ब्रह्मा-विष्णु-महेशसे सेवित, स्तुतिपरायण मुनिजनोंके सतत ध्यान करनेयोग्य तथा योगियोंको मुक्ति देनेवाले भगवतीके सुन्दर एवं कोमल चरणकमलोंमें प्रणाम करके मैं अब उस उत्तम पुराणका भक्तिपूर्वक विस्तारसे वर्णन करूँगा; जो सभी रसोंसे युक्त, शोभासम्पन्न, सभी रसोंका निधान एवं श्रीमद्देवीभागवतके नामसे प्रसिद्ध है ॥ ३ ॥

वैदिक मार्गानुसार जिसे ‘विद्या’ कहते हैं, जो सर्वदा ‘आदिशक्ति’ कही जाती हैं, जिन्हें योगीलोग ‘पराशक्ति’ भी कहते हैं; जो सर्वज्ञ, भवबन्धन काटनेमें निपुण हैं तथा जो सबके हृदयदेशमें विराजती रहती हैं और दुरात्मा प्राणी जिन्हें नहीं जान सकते, मुनियोंके ध्यान करनेपर जो शीघ्र प्रत्यक्ष दर्शन देती हैं, वे भगवती सर्वदा सिद्धिदायिनी बनी रहें ॥ ४ ॥

जो सत्-असत्रूप उस जगत्की सृष्टि करके अपनी त्रिगुणात्मिका (सत्त्व, रज, तम) शक्तिद्वारा उसका पालन करती तथा प्रलयान्तमें उसका संहार करके अकेली स्वयं लीलारमण करती हैं, उन समस्त विश्वकी जननी भगवतीका मैं मन-ही-मन स्मरण करता हूँ ॥ ५ ॥

यह संसारमें प्रसिद्ध है कि ब्रह्मा ही इस सम्पूर्ण जगत्के स्रष्टा हैं, साथ ही सभी वेदज्ञ तथा पुराणवेत्ता भी यही कहते हैं।

उनका यह भी कथन है कि भगवान् विष्णुके नाभिकमलसे ही उन ब्रह्माकी उत्पत्ति हुई है, जो स्वतन्त्र नहीं हैं, अपितु विष्णुकी प्रेरणासे ही वे संसारकी सृष्टि करते हैं ॥ ६ ॥

जब कल्पान्तमें सर्वत्र जलमय हो जाता है, तब केवल शेषशय्यापर भगवान् विष्णु शयन करते हैं और उन्हींके नाभिकमलसे ब्रह्माका आविर्भाव होता है।

इस प्रकार जब सहस्त्र फणवाले शेष ही विष्णुके आधार हैं, तो फिर उन मुरारिको भी सर्वाधार भगवान् कैसे कहा जाय ? ॥ ७ ॥

प्रलयकालीन समुद्रका जल भी तो रसरूप ही है और बिना पात्र रस कहीं ठहर नहीं सकता।

अतएव जो सब प्राणियोंमें शक्तिरूपसे विराजती रहती हैं, मैं उन सम्पूर्ण संसारकी जननी आदिशक्ति भगवतीकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥८॥

योगनिद्रामें लीन भगवान् विष्णुको देखकर उनके नाभिकमलपर विराजमान ब्रह्माने जिन देवीकी स्तुति की थी, मैं उन्हीं पराशक्ति भगवतीके शरणागत हूँ ॥ ९ ॥

हे मुनिजनो ! उन्हीं निर्गुण तथा सगुण रूपवाली तथा मुक्तिदायिनी योगमायाका ध्यान करके मैं यहाँ सम्पूर्ण देवीभागवतपुराण कह रहा हूँ; आपलोग सुनिये ॥ १० ॥

यह श्रीमद्देवीभागवत नामक पुराण अत्यन्त पवित्र एवं उत्तम है। इसमें अठारह हजार सुन्दर श्लोक हैं। कृष्णद्वैपायनद्वारा विरचित इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणमें कल्याणकारी बारह स्कन्ध तथा कुल तीन सौ अठारह अध्याय बताये गये हैं।

उनमें प्रथम स्कन्धमें बीस अध्याय, द्वितीयमें बारह, तृतीयमें तीस और चतुर्थमें पच्चीस अध्याय हैं।

पंचम स्कन्धमें पैंतीस अध्याय, षष्ठमें एकतीस, सप्तममें चालीस, अष्टममें तत्त्व-संख्या *के बराबर अर्थात् चौबीस, नवममें पचास और दशम स्कन्धमें तेरह अध्याय मुनि व्यासजीने कहे हैं। इसी प्रकार हे मुनिगण ! एकादश स्कन्धमें चौबीस और द्वादश स्कन्धमें चौदह अध्याय बताये गये हैं । ११-१६ ॥

इस प्रकार महात्मा व्यासजीने इस महापुराणमें अध्यायोंकी संख्या बतायी है। इसमें श्लोकोंकी संख्या अठारह हजार कही गयी है ॥ १७ ॥

सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश-वर्णन, मन्वन्तर तथा वंशा- नुचरित – इस प्रकार पुराणोंके ये पाँच लक्षण हैं ॥ १८ ॥

जो कल्याणमयी भगवती नित्या, निर्गुणा, व्यापकरूपसे सृष्टिमें स्थित रहनेवाली, विकाररहित, योगगम्या, सबकी आधाररूपा तथा तुरीयावस्थामें प्रतिष्ठित हैं; उन्हींकी सात्त्विकी, राजसी और तामसी शक्तियाँ महासरस्वती, महालक्ष्मी तथा महाकाली नामक देवियोंके रूपमें प्रकट होती हैं ॥ १९-२० ॥

उन्हीं तीनों शक्तियोंका सृष्टिके लिये शरीर धारण करना ही शास्त्रके विद्वानोंके द्वारा ‘सर्ग’ कहा गया है ॥ २१ ॥

तदनन्तर जगत्के सृजन, पालन तथा संहारके लिये ब्रह्मा, विष्णु और महेशकी उत्पत्ति कही गयी है; और उसे ही प्रतिसर्ग बताया गया है ॥ २२ ॥

चन्द्रवंशी, सूर्यवंशी राजाओंके वंशवर्णन तथा हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंके वंशकथनको ‘वंश’ कहा गया है; इसी प्रकार स्वायम्भुव आदि चौदह मनुओंका वर्णन एवं उनके समय-विभाग मन्वन्तर कहलाते हैं।

उन मनुओंके वंशका क्रमशः वर्णन करना ही ‘वंशानुचरित’ कहा गया है। हे मुनिवरो ! इस प्रकार सभी पुराण उपर्युक्त पाँचों लक्षणोंसे युक्त होते हैं ॥ २३-२५ ॥

सवा लाख श्लोकोंका महाभारत नामक ग्रन्थ भी व्यासजीने ही रचा है; यह ‘इतिहास’ कहलाता है-जो वेदसम्मत होनेके कारण पाँचवाँ वेद कहा गया है ॥ २६ ॥

शौनकजी बोले- हे सूतजी ! वे पुराण कौन- कौनसे हैं और कितने हैं? हमलोगोंको सुननेकी उत्कट इच्छा है और आप सर्वज्ञ हैं, अतः विस्तारसे बताइये ॥ २७ ॥

कलिकालसे भयभीत हम ब्राह्मण नैमिषारण्यमें ही रहते हैं। ब्रह्माजीने मनोमय चक्र हमें देकर यह आदेश दिया था कि इसी चक्रके पीछे-पीछे आपलोग जायें।

जहाँ इस चक्रकी नेमि शीर्ण हो जाय, वह देश परम पवित्र कहा गया है। वहाँ कभी कलियुगका प्रवेश नहीं होगा। आपलोग वहाँ तबतक रहें, जबतक पुनः ‘सत्ययुग’ न आ जाय ॥ २८-३०॥

उनका वह वचन सुनकर तथा उनकी बातोंको हृदयमें रखकर हमलोग सब देशोंके दर्शनार्थ उस मनोमय चक्रके पीछे-पीछे तत्काल चल दिये ॥ ३१ ॥

चलते-चलते इसी स्थानपर पहुँचकर उस चक्रकी नेमि हमलोगोंके देखते-देखते शीर्ण हो गयी। तभीसे यह स्थान परम पवित्र ‘नैमिषक्षेत्र’ के नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ ३२ ॥

यहाँ कभी कलिका प्रवेश नहीं होता। इसीलिये मैंने अनेक ऋषि-मुनियों, सिद्धगणों एवं कलिसे भयभीत महात्माओंके साथ यहाँ अपना निवास बना लिया है ॥ ३३ ॥

हमलोगोंने यहाँपर चरु-पुरोडाश आदिद्वारा अनेक पशुवध-विहीन यज्ञ किये हैं। जबतक सत्ययुग न आ जाय तबतक हमलोगोंका यहीं रहनेका दृढ़ निश्चय है ॥ ३४ ॥

हे सूतजी ! आप निश्चितरूपसे हमलोगोंके सौभाग्यसे ही यहाँ आ पहुँचे हैं। इसलिये आप इस ब्रह्मसम्मित पावन पुराणकी कथा कहिये ॥ ३५ ॥

हे सूतजी ! हमलोगोंको सुननेकी उत्कट इच्छा है और आप-जैसे बुद्धिमान् वक्ता भी प्राप्त हैं। हमलोग भी अपना सभी कार्य त्यागकर चित्त एकाग्र | करके यहाँ स्थित हैं ॥ ३६ ॥

अतः हे सूतजी ! आप चिरंजीवी हों तथा तीनों प्रकारके तापों (दैहिक, दैविक, भौतिक) से मुक्त रहकर अब हमलोगोंको परम पवित्र तथा कल्याणकारी श्रीमद्देवी-भागवतपुराण सुनाइये; जिसमें धर्म, अर्थ और कामका विधिवत् वर्णन किया गया है।

महर्षि व्यासने भी बताया है कि इसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करके पुनः उससे मुक्ति मिलती है ॥ ३७-३८ ॥

हे सूतजी ! महर्षि वेदव्यासने जिस पवित्र पुराणको कहा है, उसके मनोहर कथा-चरित्रोंको सुननेसे हमारी कभी तृप्ति नहीं होती है ॥ ३९ ॥

सभी गुणोंका एकमात्र स्थान, परम पवित्र, समस्त संसारकी जननी भगवतीके लीलानाट्यके समान विचित्र, सभी पापसमूहोंका नाश करनेवाले तथा सब प्रकारकी अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले तथा भगवतीके नामसे समन्वित श्रीमद्देवीभागवत- महापुराणको प्रकट कीजिये ॥ ४० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां प्रथमस्कन्धे ग्रन्थसंख्याविषयवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥



[देवी भागवत पुराण संस्कृत]

Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 2(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:द्वितीयोऽध्यायः -सूतजीद्वारा श्रीमद्देवीभागवतके स्कन्ध, अध्याय तथा श्लोकसंख्याका निरूपण और उसमें प्रतिपादित विषयोंका वर्णन)



(अथ द्वितीयोऽध्यायः)

सूत उवाच धन्योऽहमतिभाग्योऽहं पावितोऽहं महात्मभिः । यत्पृष्टं सुमहत्पुण्यं पुराणं वेदविश्रुतम् ॥ १

तदहं सम्प्रवक्ष्यामि सर्वश्रुत्यर्थसम्मतम् । रहस्यं सर्वशास्त्राणामागमानामनुत्तमम् ॥ २

नत्वा तत्पदपङ्कजं सुललितं मुक्तिप्रदं योगिनां ब्रह्माद्यैरपि सेवितं स्तुतिपरैर्येयं मुनीन्द्रैः सदा । वक्ष्याम्यद्य सविस्तरं बहुरसं श्रीमत्पुराणोत्तमं भक्त्या सर्वरसालयं भगवतीनाम्ना प्रसिद्धं द्विजाः ॥ ३

या विद्येत्यभिधीयते श्रुतिपथे शक्तिः सदाद्या परा सर्वज्ञा भवबन्धछित्तिनिपुणा सर्वाशये संस्थिता । दुर्जेया सुदुरात्मभिश्च मुनिभिर्ध्यानास्पदं प्रापिता प्रत्यक्षा भवतीह सा भगवती सिद्धिप्रदा स्यात्सदा ॥ ४

सृष्ट्वाखिलं जगदिदं सदसत्स्वरूपं शक्त्या स्वया त्रिगुणया परिपाति विश्वम् ।

संहृत्य कल्पसमये रमते तथैका तां सर्वविश्वजननीं मनसा स्मरामि ॥ ५

ब्रह्मा सृजत्यखिलमेतदिति प्रसिद्धं पौराणिकैश्च कथितं खलु वेदविद्भिः ।

विष्णोस्तु नाभिकमले किल तस्य जन्म तैरुक्तमेव सृजते न हि स स्वतन्त्रः ॥ ६

विष्णुस्तु शेषशयने स्वपितीति काले तन्नाभिपद्ममुकुले खलु तस्य जन्म।

आधारतां किल गतोऽत्र सहस्त्रमौलिः सम्बोध्यतां स भगवान् हि कथं मुरारिः ॥ ७

एकार्णवस्य सलिलं रसरूपमेव पात्रं विना न हि रसस्थितिरस्ति कच्चित् ।

या सर्वभूतविषये किल शक्तिरूपा तां सर्वभूतजननीं शरणं गतोऽस्मि ॥ ८

योगनिद्रामीलिताक्षं विष्णुं दृष्ट्वाम्बुजे स्थितः । अजस्तुष्टाव यां देवीं तामहं शरणं गतः ॥ ९

तां ध्यात्वा सगुणां मायां मुक्तिदां निर्गुणां तथा। वक्ष्ये पुराणमखिलं शृण्वन्तु मुनयस्त्विह ॥ १०

पुराणमुत्तमं पुण्यं श्रीमद्भागवताभिधम् । अष्टादश सहस्त्राणि श्लोकास्तत्र तु संस्कृताः ॥ ११

स्कन्धा द्वादश चैवात्र कृष्णेन विहिताः शुभाः । त्रिशतं पूर्णमध्याया अष्टादशयुताः स्मृताः ॥ १२

विंशतिः प्रथमे तत्र द्वितीये द्वादशैव तु । त्रिंशच्चैव तृतीये तु चतुर्थे पञ्चविंशतिः ॥ १३

पञ्चत्रिंशत्तथाध्यायाः पञ्चमे परिकीर्तिताः । एकत्रिंशत्तथा षष्ठे चत्वारिंशच्च सप्तमे ॥ १४

अष्टमे तत्त्वसङ्ख्याश्च पञ्चाशन्नवमे तथा।त्रयोदश तु सम्प्रोक्ता दशमे मुनिना किल ॥ १५

तथा चैकादशस्कन्धे चतुर्विंशतिरीरिताः ।चतुर्दशैव चाध्याया द्वादशे मुनिसत्तमाः ॥ १६

एवं सङ्ख्या समाख्याता पुराणेऽस्मिन्महात्मना । अष्टादशसहस्त्रीया सङ्ख्या च परिकीर्तिता ॥ १७

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ १८

निर्गुणा या सदा नित्या व्यापिका विकृता शिवा।योगगम्याखिलाधारा तुरीया या च संस्थिता ॥ १९

तस्यास्तु सात्त्विकी शक्ती राजसी तामसी तथा। महालक्ष्मीः सरस्वती महाकालीति ताः स्त्रियः ॥ २०

तासां तिसृणां शक्तीनां देहाङ्गीकारलक्षणः ।सृष्ट्यर्थं च समाख्यातः सर्गः शास्त्रविशारदैः ॥ २१

हरिद्रुहिणरुद्राणां समुत्पत्तिस्ततः स्मृता । पालनोत्पत्तिनाशार्थं प्रतिसर्गः स्मृतो हि सः ॥ २२

सोमसूर्योद्भवानां च राज्ञां वंशप्रकीर्तनम् । हिरण्यकशिप्वादीनां वंशास्ते परिकीर्तिताः ॥ २३ स्वायम्भुवमुखानां च मनूनां परिवर्णनम् ।

कालसङ्ख्या तथा तेषां तत्तन्मन्वन्तराणि च ॥ २४ तेषां वंशानुकथनं वंशानुचरितं स्मृतम् । पञ्चलक्षणयुक्तानि भवन्ति मुनिसत्तमाः ॥ २५

सपादलक्षं च तथा भारतं मुनिना कृतम्। इतिहास इति प्रोक्तं पञ्चमं वेदसम्मतम् ॥ २६

शौनक उवाच

कानि तानि पुराणानि ब्रूहि सूत सविस्तरम् । कतिसङ्ख्यानि सर्वज्ञ श्रोतुकामा वयं त्विह ॥ २७

कलिकालविभीताः स्मो नैमिषारण्यवासिनः । ब्रह्मणात्र समादिष्टाश्चक्रं दत्त्वा मनोमयम् ॥ २८

कथितं तेन नः सर्वान्गच्छन्त्वेतस्य पृष्ठतः । नेमिः संशीर्यते यत्र स देशः पावनः स्मृतः ॥ २९

कलेस्तत्र प्रवेशो न कदाचित् सम्भविष्यति । तावत्तिष्ठन्तु तत्रैव यावत्सत्ययुगं पुनः ॥ ३०

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य गृहीत्वा तत्कथानकम् । चालयन्निर्गतस्तूर्णं सर्वदेशदिदृक्षया ॥ ३१

प्रेत्यात्र चालयंश्चक्रं नेमिः शीर्णोऽत्र पश्यतः । तेनेदं नैमिषं प्रोक्तं क्षेत्रं परमपावनम् ॥ ३२

कलिप्रवेशो नैवात्र तस्मात्स्थानं कृतं मया। मुनिभिः सिद्धसङ्गैश्च कलिभीतैर्महात्मभिः ॥ ३३

पशुहीनाः कृता यज्ञाः पुरोडाशादिभिः किल । कालातिवाहनं कार्यं यावत्सत्ययुगागमः ॥ ३४

भाग्ययोगेन सम्प्राप्तः सूत त्वं चात्र सर्वथा। कथयाद्य पुराणं हि पावनं ब्रह्मसम्मतम् ॥ ३५

सूत शुश्रूषवः सर्वे वक्ता त्वं मतिमानथ । निर्व्यापारा वयं नूनमेकचित्तास्तथैव च ॥ ३६

त्वं सूत भव दीर्घायुस्तापत्रयविवर्जितः । कथयाद्य पुराणं हि पुण्यं भागवतं शिवम् ॥ ३७

यत्र धर्मार्थकामानां वर्णनं विधिपूर्वकम् । विद्यां प्राप्य तया मोक्षः कथितो मुनिना किल ॥ ३८

द्वैपायनेन मुनिना कथितं यच्च पावनम् । न तृप्यामो वयं सूत कथां श्रुत्वा मनोरमाम् ॥ ३९

सकलगुणगणानामेकपात्रं पवित्र-

मखिलभुवनमातुर्नाट्यवद्यद्विचित्रम् निखिलमलगणानां नाशकृत्कामकन्दं प्रकटय भगवत्या नामयुक्तं पुराणम् ॥ ४०

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां प्रथमस्कन्धे ग्रन्थसंख्याविषयवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

Leave a Comment

error: Content is protected !!