Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 19(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कंध:अथैकोनविंशोऽध्यायःशुकदेवजीका व्यासजीके आश्रममें वापस आना, विवाह करके सन्तानोत्पत्ति करना तथा परम सिद्धिकी प्राप्ति करना
[अथैकोनविंशोऽध्यायः]
-शुकदेवजी बोले- हे महाराज ! मेरे हृदयमें यह शंका हो रही है कि मायामें लिप्त रहते हुए कोई मनुष्य निःस्पृह कैसे हो सकता है? शास्त्रका ज्ञान प्राप्त करके नित्यानित्यका विचार करनेपर भी चित्तसे मोह नहीं दूर होता। तब भला वह मनुष्य मुक्त कैसे हो सकेगा ? ॥ १-२ ॥
मनुष्यके मनमें स्थित मोहको दूर करनेके लिये केवल शास्त्रबोध ही समर्थ नहीं हो सकता, जैसे केवल दीप जलानेकी बात करनेसे अन्धकार दूर नहीं होता। अतः बुद्धिमान् मनुष्योंको चाहिये कि वे कभी किसीसे द्वेष-भाव न रखें, परंतु हे नृपश्रेष्ठ ! गृहस्थसे वह कैसे सम्भव है ? ॥ ३-४ ॥
अभी भी आपकी धनप्राप्तिकी कामना, राज्यसुख तथा युद्धमें विजय प्राप्त करनेकी अभिलाषा शान्त नहीं हुई है, तब आप जीवन्मुक्त कैसे हो सकते हैं ? ॥ ५ ॥
अभी भी चोरोंके प्रति चौरबुद्धि तथा तपस्वीके प्रति साधुबुद्धि आपकी है ही। अपने परायेका भेदभाव भी अभी आपमें है, तो फिर हे राजन् ! आप विदेह कैसे ? ॥६॥
अभी आप कटु, तिक्त, कसैले एवं खट्टे रसोंका तथा भले-बुरेका ज्ञान रखते ही हैं। हे राजन् ! आपका चित्त शुभ कर्मोंमें रमता है, अशुभ कर्मोंमें नहीं। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति- ये अवस्थाएँ अभी आपको समयानुसार होती ही हैं; तब भला आपको तुरीयावस्था कैसे प्राप्त होती होगी ? ॥ ७-८ ॥
हे राजन् ! घोड़े, रथ, हाथी तथा पैदल सैनिक – ये सब मेरे अधीन हैं और मैं इन सबका स्वामी हूँ- ऐसा आप अपनेको मानते हैं या नहीं? आप मधुर भोजनको प्रसन्नतापूर्वक अथवा बेमनसे खाते ही होंगे। हे नृपश्रेष्ठ ! आप माला और सर्पमें क्या समान दृष्टिवाले हैं? ॥ ९-१०॥
हे राजन् ! विमुक्त पुरुष तो वह कहलाता है, जो मिट्टीके ढेले और स्वर्णको समान समझता हो, सब जीवोंमें एकात्मबुद्धि रखता हो तथा जीवमात्रका उपकार करता हो ॥ ११ ॥
मेरा मन घर-स्त्री आदिमें कभी नहीं लगता। इसलिये अकेले ही निःस्पृह भावसे मैं सदा विचरण करता रहूँ- यही मेरा विचार है ॥ १२ ॥
निःसंग, ममतारहित और शान्त होकर केवल पत्र, मूल, फल इत्यादि ग्रहण करता हुआ मैं निर्द्वन्द्व एवं अपरिग्रही होकर मृगकी भाँति स्वच्छन्द विचरण करूँगा ॥ १३ ॥
हे पार्थिव ! गृह, धन तथा रूपवती स्त्रीसे मुझ विरक्तचित्त और गुणातीतका क्या प्रयोजन है ? ॥ १४॥
आप अनेक प्रकारकी राग-द्वेषयुक्त बातें सोचते हैं, फिर भी ‘मैं विमुक्त हूँ’- ऐसा आप कहते हैं। यह सब मुझे तो केवल आपका दम्भ ही जान पड़ता है।
आपको कभी शत्रुकी, कभी धनकी तथा कभी सेनाकी चिन्ता रहती ही है, तब हे राजन् ! आप निश्चिन्त कहाँ ? ॥ १५-१६ ॥
स्वल्पाहारी, अटल व्रतवाले जो वैखानस मुनि हैं, वे इस संसारकी अनित्यताको जानते हुए भी इसमें आसक्त हो जाते हैं ॥ १७ ॥
हे राजन् ! आपके वंशमें उत्पन्न सभी राजाओंका नाम विदेह-यह हो जाता है, इसमें भी आप धोखा समझिये, दूसरा कुछ नहीं ॥ १८ ॥
जिस प्रकार किसी मूर्खका नाम विद्याधर, जन्मान्धका नाम दिवाकर तथा सतत दरिद्री मनुष्यका नाम लक्ष्मीधर रखना निरर्थक है, उसी प्रकार पूर्वकालमें आपके वंशमें उत्पन्न जिन-जिन राजाओंको मैंने सुना है, वे नामसे ही विदेह प्रसिद्ध हुए हैं कर्मसे नहीं ॥ १९-२० ॥
हे नृप ! आपके कुलमें पहले निमि नामके राजा हो चुके हैं। उन राजर्षिने एक बार अपने गुरु वसिष्ठमुनिको यज्ञके लिये निमन्त्रित किया।
उस समय वसिष्ठजीने उनसे कहा कि आपसे पहले इन्द्रने मुझे यज्ञके लिये आमन्त्रित कर रखा है। इन्द्रका यज्ञ सम्पन्न कराकर मैं आपका भी यज्ञ पूर्ण करूँगा। अतः हे राजेन्द्र ! तब तक आप धीरे-धीरे यज्ञ-सामग्री एकत्र कराइये ॥ २१-२३॥
ऐसा कहकर वसिष्ठमुनि इन्द्रका यज्ञ करानेके लिये चले गये और महाराज निमिने किसी दूसरेको आचार्य बनाकर अपना उत्तम यज्ञ सम्पन्न कर लिया ॥ २४ ॥
यह सुनकर वसिष्ठजी राजापर अत्यन्त क्रोधित हुए और उन्हें शाप देते हुए बोले- ‘हे गुरुका परित्याग करनेवाले ! तुम्हारा शरीर नष्ट हो जाय ‘ ॥ २५ ॥
यह सुनकर महाराज निमिने भी शाप दिया कि आपका भी शरीर नष्ट हो जाय। इस प्रकार वे दोनों एक-दूसरेके शापसे नष्ट हो गये-ऐसा मैंने
सुना है ॥ २६ ॥ हे राजेन्द्र ! विदेह होकर भी राजाने अपने गुरुको स्वयं शाप क्यों दे डाला! हे नृपश्रेष्ठ ! यह तो मेरे मनमें परिहास-जैसा प्रतीत हो रहा है ॥ २७ ॥
जनकजी बोले- हे विप्रवर ! आपने ठीक ही कहा है; इसमें मिथ्या कुछ भी नहीं है-ऐसा मैं | मानता हूँ। फिर भी आप मेरी बात सुनें। हे विप्रेन्द्र !
गुरु व्यासजी मेरे परम पूज्य हैं। उन अपने पिताका साथ त्याग करके आप वनमें जाना चाहते हैं। वहाँ भी तो मृग आदि पशुओंके साथ आपका स्नेह- सम्बन्ध रहेगा ही; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २८-२९ ॥
पृथ्वी, जल आदि महाभूत तो सर्वत्र ही विद्यमान हैं। तब आप निःसंग कैसे हो पायेंगे? और फिर हे मुने ! भोजन आदिकी भी चिन्ता रहेगी ही, तो आप निश्चिन्त कैसे रहेंगे ? ॥ ३० ॥
जिस प्रकार आपको वनमें दण्ड और मृगचर्मकी चिन्ता बनी रहेगी, उसी प्रकार मुझ विचारशील राजाको भी राज्यसम्बन्धी चिन्ता तो होगी ही ॥ ३१ ॥
आप ही भ्रममें पड़कर यहाँतक दूर देशमें आये हैं। मुझे किसी प्रकारका विकल्परूपी सन्देह नहीं है; क्योंकि मैं तो सर्वथा निर्विकल्प हूँ ॥ ३२ ॥
हे विप्र ! मैं सुखसे भोजन करता हूँ और सुखपूर्वक शयन करता हूँ। हे मुने ! ‘मैं बद्ध नहीं हूँ’ इस भावनासे मैं सर्वदा सुखी रहता हूँ। [इसके विपरीत] ‘मैं बद्ध हूँ’ – इस शंकासे आप सर्वदा दुःखी ही रहते हैं, अतः आप इस शंकाको छोड़कर सदा सुखी एवं स्वस्थ हो जाइये ॥ ३३-३४॥
यह शरीर मेरा है- यही बन्धनका कारण है; यह मेरा नहीं है-ऐसा निश्चय ही मुक्ति है। यह गृह, सम्पत्ति, राज्य मेरा नहीं है-ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है ॥ ३५ ॥
सूतजी बोले – महाराज जनककी बात सुनकर शुकदेवजी हर्षित हुए और उनसे आज्ञा लेकर व्यासजीके उत्तम आश्रमके लिये चल पड़े ॥ ३६ ॥
व्यासजीने अपने ज्ञानी पुत्रको आते देखकर सुख प्राप्त किया। उन्होंने शुकदेवजीको हृदयसे लगाकर तथा उनका सिर सूंघकर उनकी कुशलता पूछी ॥ ३७ ॥
सब शास्त्रोंमें कुशल एवं वेदाध्ययनमें तत्पर श्रीशुक-देवजी अपने पिताके साथ उस रमणीय आश्रममें सावधान होकर रहने लगे।
राज्य करते हुए महात्मा जनककी वह विदेहावस्था देखकर शुकदेवजी परम शान्तिको प्राप्तकर अपने पिताके आश्रममें ही स्थित हो गये ॥ ३८-३९ ॥
योगमार्गमें स्थित रहते हुए भी शुकदेवजीने पितरोंकी पीवरी नामकी सौभाग्यवती सुन्दर कन्याको पत्नीरूपमें स्वीकार कर लिया। उन्होंने उससे कृष्ण, गौरप्रभ, भूरि और देवश्रुत नामक चार पुत्र उत्पन्न किये।
साथ ही उन प्रतापी व्याससुत शुकदेवजीने कीर्ति नामकी एक कन्या उत्पन्न करके उस कन्याका विवाह विभ्राजके पुत्र महात्मा अणुहके साथ कर दिया ॥ ४०-४२ ॥
शुकदेवजीकी कन्यासे उत्पन्न अणुहके पुत्र श्रीमान् ब्रह्मदत्त हुए जो बड़े प्रतापी, ब्रह्मज्ञानी एवं पृथ्वीके रक्षक थे।
वे कुछ समयके बाद देवर्षि नारदके उपदेशसे और परमश्रेष्ठ ब्रह्मतत्त्वका ज्ञान पाकर योगमार्गका आश्रय लेकर राज्यका भार अपने पुत्रको सौंपकर बदरिकाश्रम चले गये।
वहाँ नारदजीके कृपाप्रसादसे प्राप्त मायाबीजके उपदेशसे उन्हें निर्बाध तथा तत्क्षण मुक्तिदायक ज्ञान उत्पन्न हुआ ॥ ४३-४५३ ॥
उधर शुकदेवजी भी अपने पिताका साथ त्यागकर कैलासके सुरम्य शिखरपर चले गये और निःसंग भावसे अविचल ध्यान लगाकर स्थित हो गये।
कुछ ही दिनोंमें उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो गयी और वे पर्वतके शिखरसे उड़ गये तथा महातेजस्वी वे शुकदेवजी आकाशमें जाकर सूर्यके समान सुशोभित होने लगे।
तब शुकदेवजीके उड़ते ही पर्वत-शिखर दो भागोंमें विभाजित हो गया। शुकदेवजीके आकाशमें जाते ही अनेक प्रकारके उत्पात होने लगे। ऋषियोंके द्वारा स्तुति किये जाते हुए वे शुकदेवजी अन्तरिक्षमें वायुकी भाँति स्थित हो गये। वे अपने तेजसे दूसरे सूर्यकी भाँति देदीप्यमान हो रहे थे ॥ ४६-४९३ ॥
इसी बीच पुत्रके वियोगसे व्यग्र होकर व्यासजी बार-बार ‘हा पुत्र ! हा पुत्र !’ कहते हुए उस पर्वतकी चोटीपर पहुँचे, जहाँ शुकदेवजी रहते थे।
थके हुए व्यासजीको दीन भावसे करुण क्रन्दन करते हुए देखकर सभी जीवोंमें साक्षीरूपसे विद्यमान परमात्माने प्रतिध्वनिके रूपमें उत्तर दिया। आज भी उस पर्वतके श्रृंगपर वैसी ही प्रतिध्वनि स्पष्ट | सुनायी देती है ॥ ५०-५२॥
अपने प्रिय पुत्र शुकदेवके विरहमें ‘हा पुत्र ! हा पुत्र !’ कहकर विलाप करते हुए व्यासजीको शोक-सन्तप्त देखकर साक्षात् शंकरजी वहाँ आकर उन्हें सान्त्वना देने लगे- ‘हे व्यासजी !
आप शोक मत कीजिये; आपके पुत्र श्रेष्ठ योगवेत्ता हैं। उन्होंने अकृतात्माओंके लिये भी दुर्लभ परमगति प्राप्त कर ली है। अतः ब्रह्मज्ञान रखनेवाले आपको उन [ब्रह्मज्ञानी] शुकदेवके लिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये; हे पवित्रात्मन् ! शुकदेवके समान पुत्रके द्वारा आपकी महान् कीर्ति हुई है’ ॥ ५३-५५३ ॥
व्यासजी बोले- ‘हे देवेश ! हे जगत्पते ! मैं क्या करूँ, शोक दूर नहीं हो रहा है; पुत्र-दर्शनकी लालसावाले मेरे नेत्र अतृप्त हैं’ ॥ ५६३ ॥
महादेवजी बोले- ‘अब आप अपने पुत्रकी रमणीय छाया अपने पास सर्वदा विद्यमान देखेंगे। हे मुनिवर ! हे परन्तप ! उस छायाको देखकर आप अपना शोक दूर कीजिये ‘ ॥ ५७३ ॥
सूतजी बोले- तदनन्तर व्यासजीने अपने पुत्र शुकदेवकी ओजस्विनी छाया देखी। उन्हें वरदान देकर शंकरजी वहीं अन्तर्धान हो गये। महादेवजीके अन्तर्हित हो जानेपर व्यासजी भी अपने आश्रमको लौट आये। शुकदेवजीके वियोगसे सन्तप्त होकर वे अत्यन्त दुःखी रहने लगे ॥ ५८-६० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां प्रथमस्कन्धे शुकस्य विवाहादिकार्यवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥