Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 18(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कंध:अथाष्टादशोऽध्यायः शुकदेवजीके प्रति राजा जनकका उपदेश)
[अथाष्टादशोऽध्यायः]
-सूतजी बोले – शुकदेवजीको आया हुआ सुनकर पवित्रात्मा राजा जनक अपने पुरोहितको आगे करके मन्त्रियोंसहित उन गुरुपुत्रके पास गये ॥ १ ॥
महाराज जनकने उन्हें बड़े आदरसे उत्तम आसन देकर विधिवत् सत्कार करनेके पश्चात् एक दूध देनेवाली गौ प्रदान करके उनसे कुशल पूछा ॥ २ ॥
शुकदेवजीने भी राजाकी पूजाको यथाविधि स्वीकार किया और अपना कुशल बताकर राजासे भी कुशल-मंगल पूछा ॥ ३ ॥
इस प्रकार कुशल-प्रश्न करके सुखदायी आसनपर बैठे हुए शान्तचित्तवाले व्यासपुत्र शुकदेवजीसे महाराज जनकने पूछा- हे महाभाग ! मेरे यहाँ आप निःस्पृहका आगमन किस कारण हुआ ? हे मुनिश्रष्ठ ! उस प्रयोजन को बताइये ? ॥ ४-५ ॥
शुकदेवजी बोले – महाराज ! मेरे पिता व्यासजीने मुझसे कहा कि विवाह कर लो; क्योंकि सब आश्रमोंमें गृहस्थ-आश्रम ही श्रेष्ठ है।
गुरुरूप पिताकी आज्ञाको बन्धनकारक मानकर मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने समझाया कि गृहस्थाश्रम बन्धन नहीं है, फिर भी मैंने उसे स्वीकार नहीं किया ॥ ६-७ ॥
इस प्रकार मुझे संशययुक्त चित्तवाला समझकर मुनिश्रेष्ठ व्यासने तथ्ययुक्त वचन कहा- तुम मिथिला चले जाओ, खेद न करो। वहाँ राजर्षि जनक रहते हैं, वे याज्ञिक एवं जीवन्मुक्त राजा हैं। संसारमें विदेह नामसे विख्यात वे वहाँ निष्कण्टक राज्य कर रहे हैं ॥ ८-९ ॥
हे पुत्र ! महाराज जनक राज्य करते हुए भी मायाके जालमें नहीं बँधते, तब हे परन्तप ! तुम वनवासी होते हुए भी क्यों भयभीत हो रहे हो ? ॥ १० ॥
उन नृपश्रेष्ठ विदेहको देखो और अपने मनमें उठते हुए मोहका त्याग करो। हे महाभाग ! विवाह करो, अन्यथा जाकर उन राजासे ही पूछो।
वे राजा तुम्हारे मनमें उत्पन्न सन्देहका समाधान कर देंगे। तत्पश्चात् हे पुत्र ! उनकी बात सुनकर तुम शीघ्र ही मेरे पास चले आना ॥ ११-१२ ॥
हे महाराज ! मैं उन्हींके आदेशसे आपकी पुरीमें आया हूँ। हे राजेन्द्र ! हे अनघ ! मैं मोक्षका अभिलाषी हूँ, अतः जो कार्य मेरे लिये उचित हो, वह बताइये ॥ १३ ॥
हे राजेन्द्र ! तप, तीर्थ, व्रत, यज्ञ, स्वाध्याय, तीर्थसेवन और ज्ञान- इनमेंसे जो मोक्षका साक्षात् साधन हो, वह मुझे बताइये ॥ १४ ॥
जनकजी बोले – मोक्षमार्गावलम्बी विप्रको जो करना चाहिये, उसे सुनिये। उपनयनसंस्कारके बाद सर्वप्रथम वेदशास्त्रका अध्ययन करनेहेतु गुरुके सांनिध्यमें रहना चाहिये।
वहाँ वेद वेदान्तोंका अध्ययन करके दीक्षान्त गुरुदक्षिणा देकर वापस लौटे मुनिको विवाह करके पत्नीके साथ गृहस्थीमें रहना चाहिये। [गृहस्थाश्रममें रहते हुए] न्यायोपार्जित धनका अर्जन करे, सर्वदा सन्तुष्ट रहे और किसीसे कोई आशा न रखे। पापोंसे मुक्त होकर अग्निहोत्र आदि कर्म करते हुए सत्यवचन बोले और [मन, वचन, कर्मसे सदा] पवित्र रहे।
पुत्र-पौत्र हो जानेपर [समयानुसार] वानप्रस्थ-आश्रममें रहे। वहाँ तपश्चर्याद्वारा [काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य-इन] छहों शत्रुओंपर विजय प्राप्त करके अपनी स्त्रीरक्षाका भार पुत्रको सौंप देनेके पश्चात् वह धर्मात्मा सब अग्नियोंका अपनेमें न्यायपूर्वक आधान कर ले और सांसारिक विषयोंके भोगसे शान्ति मिल जानेके बाद हृदयमें विशुद्ध वैराग्य उत्पन्न होनेपर चौथे आश्रमका आश्रय ले ले। विरक्तको ही संन्यास लेनेका अधिकार है, अन्य किसीको नहीं – यह वेदवाक्य सर्वथा सत्य है, असत्य नहीं- ऐसा मेरा मानना है ॥ १५-२० ॥
हे शुकदेवजी ! वेदोंमें कुल अड़तालीस संस्कार कहे गये हैं। उनमें गृहस्थके लिये चालीस संस्कार महात्माओंने बताये हैं। मुमुक्षुके लिये शम, दम आदि आठ संस्कार कहे गये हैं। एक आश्रमसे ही [क्रमशः ] दूसरे आश्रममें जाना चाहिये, ऐसा शिष्टजनोंका आदेश है ॥ २१-२२ ॥
शुकदेवजी बोले- चित्तमें वैराग्य और ज्ञान- विज्ञान उत्पन्न हो जानेपर अवश्य ही गृहस्थादि | आश्रमोंमें रहना चाहिये अथवा वनोंमें ॥ २३ ॥
जनकजी बोले- हे मानद ! इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् होती हैं, वे वशमें नहीं रहतीं। वे अपरिपक्व बुद्धिवाले मनुष्यके मनमें नाना प्रकारके विकार उत्पन्न कर देती हैं ॥ २४ ॥
यदि मनुष्यके मनमें भोजनकी, शयनकी, सुखकी और पुत्रकी इच्छा बनी रहे तो वह संन्यासी होकर भी इन विकारोंके उपस्थित होनेपर क्या कर पायेगा ? ॥ २५ ॥
वासनाओंका जाल बड़ा ही कठिन होता है, वह शीघ्र नहीं मिटता। इसलिये उसकी शान्तिके लिये मनुष्यको क्रमसे उसका त्याग करना चाहिये ॥ २६ ॥
ऊँचे स्थानपर सोनेवाला मनुष्य ही नीचे गिरता है, नीचे सोनेवाला कभी नहीं गिरता। यदि संन्यास- ग्रहण कर लेनेपर भ्रष्ट हो जाय तो पुनः वह कोई दूसरा मार्ग नहीं प्राप्त कर सकता ॥ २७ ॥
जिस प्रकार चींटी वृक्षकी जड़से चढ़कर शाखापर चढ़ जाती है और वहाँसे फिर धीरे-धीरे सुखपूर्वक पैरोंसे चलकर फलतक पहुँच जाती है।
विघ्न- शंकाके भयसे कोई पक्षी बड़ी तीव्र गतिसे आसमानमें उड़ता है और [परिणामतः] थक जाता है, किंतु चींटी सुखपूर्वक विश्राम ले-लेकर [अपने अभीष्ट स्थानपर] पहुँच जाती है ॥ २८-२९ ॥
मन अत्यन्त प्रबल है; यह अजितेन्द्रिय पुरुषोंके द्वारा सर्वथा अजेय है। इसलिये आश्रमोंके अनुक्रमसे ही इसे क्रमशः जीतनेका प्रयत्न करना चाहिये ॥ ३० ॥
गृहस्थ-आश्रममें रहते हुए भी जो शान्त, बुद्धिमान् एवं आत्मज्ञानी होता है, वह न तो प्रसन्न होता है और न खेद करता है। वह हानि-लाभमें समान भाव रखता है ॥ ३१ ॥
जो पुरुष शास्त्रप्रतिपादित कर्म करता हुआ, सभी प्रकारकी चिन्ताओंसे मुक्त रहता हुआ आत्मचिन्तनसे सन्तुष्ट रहता है; वह निःसन्देह मुक्त हो जाता है ॥ ३२ ॥
हे अनघ ! देखिये, मैं राजकार्य करता हुआ भी जीवन्मुक्त हूँ; मैं अपने इच्छानुसार सब काम करता हूँ, किंतु मुझे शोक या हर्ष कुछ भी नहीं होता ॥ ३३ ॥
जिस प्रकार मैं अनेक भोगोंको भोगता हुआ तथा अनेक कार्योंको करता हुआ भी अनासक्त हूँ, उसी प्रकार हे अनघ ! आप भी मुक्त हो जाइये ॥ ३४ ॥
ऐसा कहा भी जाता है कि जो यह दृश्य जगत् दिखायी देता है, उसके द्वारा अदृश्य आत्मा कैसे बन्धनमें आ सकता है? पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश- ये पंचमहाभूत और गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द-ये उनके गुण दृश्य कहलाते हैं ॥ ३५ ॥
आत्मा अनुमानगम्य है और कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होता। ऐसी स्थितिमें हे ब्रह्मन् ! वह निरंजन एवं निर्विकार आत्मा भला बन्धनमें कैसे पड़ सकता है ? हे द्विज ! मन ही महान् सुख-दुःखका कारण है, इसीके निर्मल होनेपर सब कुछ निर्मल हो जाता है ॥ ३६-३७ ॥
सभी तीर्थोंमें घूमते हुए वहाँ बार-बार स्नान करके भी यदि मन निर्मल नहीं हुआ तो वह सब व्यर्थ हो जाता है। हे परन्तप ! बन्धन तथा मोक्षका कारण न यह देह है, न जीवात्मा है और न ये इन्द्रियाँ ही हैं, अपितु मन ही मनुष्योंके बन्धन एवं मुक्तिका कारण है ॥ ३८-३९ ॥
आत्मा तो सदा ही शुद्ध तथा मुक्त है, वह कभी बँधता नहीं है। अतः बन्धन और मोक्ष तो मनके भीतर हैं, मनकी शान्तिसे ही शान्ति है ॥ ४० ॥
शत्रुता, मित्रता या उदासीनताके सभी भेदभाव भी मनमें ही रहते हैं। इसलिये एकात्मभाव होनेपर यह भेदभाव नहीं रहता; यह तो द्वैतभावसे ही उत्पन्न होता है ॥ ४१ ॥
‘मैं जीव सदा ही ब्रह्म हूँ’ – इस विषयमें और विचार करनेकी आवश्यकता ही नहीं है। भेदबुद्धि तो संसारमें आसक्त रहनेपर ही होती है ॥ ४२ ॥
हे महाभाग ! बन्धनका मुख्य कारण अविद्या ही है। इस अविद्याको दूर करनेवाली विद्या है। इसलिये ज्ञानी पुरुषोंको चाहिये कि वे सदा विद्या तथा अविद्याका अनुसन्धानपूर्वक अनुशीलन किया करें ॥ ४३ ॥
धूपके बिना छायाके सुखका ज्ञान कैसे हो सकता है, उसी प्रकार अविद्याके बिना विद्याका ज्ञान कैसे किया जा सकता है ॥ ४४ ॥
गुणोंमें गुण, पंचभूतोंमें पंचभूत तथा इन्द्रियोंके विषयोंमें इन्द्रियाँ स्वयं रमण करती हैं; इसमें आत्माका क्या दोष है ? ॥ ४५ ॥
हे पवित्रात्मन् ! सबकी सुरक्षाके लिये वेदोंमें सब प्रकारसे मर्यादाकी व्यवस्था की गयी है। यदि ऐसा न होता तो नास्तिकोंकी भाँति सब धर्मोंका नाश हो जाता।
धर्मके नष्ट हो जानेपर सब कुछ नष्ट हो जायगा और सब वर्णोंकी आचार-परम्पराका उल्लंघन हो जायगा। इसलिये वेदोपदिष्ट मार्गपर चलनेवालोंका कल्याण होता है ॥ ४६-४७ ॥
शुकदेवजी बोले- हे राजन् ! आपने जो बात कही उसे सुनकर भी मेरा सन्देह बना हुआ है; वह किसी प्रकार भी दूर नहीं होता ॥ ४८ ॥
हे भूपते ! वेदधर्मोंमें हिंसाका बाहुल्य है, उस हिंसामें अनेक प्रकारके अधर्म होते हैं। [ऐसी दशामें] वेदोक्त धर्म मुक्तिप्रद कैसे हो सकता है ?
हे राजन् ! सोमरस-पान, पशुहिंसा और मांस-भक्षण तो स्पष्ट ही अनाचार है। सौत्रामणियज्ञमें तो प्रत्यक्षरूपसे सुराग्रहणका वर्णन किया गया है। इसी प्रकार द्यूतक्रीड़ा एवं अन्य अनेक प्रकारके व्रत बताये गये हैं ॥ ४९-५१ ॥
सुना जाता है कि प्राचीन कालमें शशबिन्दु नामके एक श्रेष्ठ राजा थे। वे बड़े धर्मात्मा, यज्ञपरायण, उदार एवं सत्यवादी थे। वे धर्मरूपी सेतुके रक्षक तथा कुमार्गगामी जनोंके नियन्ता थे। उन्होंने पुष्कल दक्षिणावाले अनेक यज्ञ सम्पादित किये थे ॥ ५२-५३॥
[उन यज्ञोंमें] पशुओंके चर्मसे विन्ध्यपर्वतके समान ऊँचा पर्वत-सा बन गया। मेघोंके जल बरसानेसे चर्मण्वती नामकी शुभ नदी बह चली ॥ ५४ ॥
वे राजा भी दिवंगत हो गये, किंतु उनकी कीर्ति भूमण्डलपर अचल हो गयी। जब इस प्रकारके धर्मोंका वर्णन वेदमें है, तब हे राजन् ! मेरी श्रद्धाबुद्धि उनमें नहीं है ॥ ५५ ॥
स्त्रीके साथ भोगमें पुरुष सुख प्राप्त करता है और उसके न मिलनेपर वह बहुत दुःखी होता है तो ऐसी दशामें भला वह जीवन्मुक्त कैसे हो सकेगा ? ॥ ५६ ॥
जनकजी बोले- यज्ञोंमें जो हिंसा दिखायी देती है, वह वास्तवमें अहिंसा ही कही गयी है; क्योंकि जो हिंसा उपाधियोगसे होती है वही हिंसा कहलाती है, अन्यथा नहीं-ऐसा शास्त्रोंका निर्णय है ॥ ५७ ॥
जिस प्रकार [गीली] लकड़ीके संयोगसे अग्निसे धुआँ निकलता है, उसके अभावमें उस अग्निमें धुँआ नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार हे मुनिवर! वेदोक्त हिंसाको भी आप अहिंसा ही समझिये। रागीजनोंद्वारा की गयी हिंसा ही हिंसा है, किंतु अनासक्त जनोंके लिये वह हिंसा नहीं कही गयी है ॥ ५८-५९ ॥
जो कर्म रागरहित तथा अहंकाररहित होकर किया जाता हो, उस कर्मको वैदिक विद्वान् मनीषीजन न किये हुएके समान ही कहते हैं ॥ ६० ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! रागी गृहस्थोंके द्वारा यज्ञमें जो हिंसा होती है, वही हिंसा है। हे महाभाग ! जो कर्म रागरहित तथा अहंकारशून्य होकर किया जाता है, वह जितात्मा मुमुक्षुजनोंके लिये अहिंसा ही है ॥ ६१-६२॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे शुकाय जनकोपदेशवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥