Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 17(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कंध:सप्तदशोऽध्यायःशुकदेवजीका राजा जनकसे मिलनेके लिये मिथिलापुरीको प्रस्थान तथा राजभवनमें प्रवेश)
[अथ सप्तदशोऽध्यायः]
-सूतजी बोले- [हे मुनियो!] पितासे यह कहकर महात्मा पुत्र शुकदेवजी उनके चरणोंपर गिर पड़े तथा हाथ जोड़कर चलनेकी इच्छासे बोले- हे महाभाग ! अब आपसे आज्ञा चाहता हूँ। मुझे आपका वचन स्वीकार्य है। अतः मैं महाराज जनकद्वारा पालित मिथिलापुरी देखना चाहता हूँ ॥ १-२ ॥
राजा जनक दण्ड दिये बिना ही कैसे राज्य चलाते हैं ? क्योंकि यदि दण्डका भय प्रजाओंको न हो तो लोग धर्मका पालन नहीं करेंगे ॥ ३ ॥
मनु आदिके द्वारा धर्माचरणका मूल कारण सदा दण्ड-विधान ही कहा गया है। इस राजधर्मका निर्वाह बिना दण्डके कैसे हो सकेगा ?
हे पिताजी ! इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है। हे महाभाग ! यह बात वैसी ही अनर्गल प्रतीत होती है, जैसे कोई कहे कि मेरी यह माता वन्ध्या है। हे परन्तप ! अब मैं आपसे अनुमति लेता हूँ और यहाँसे जा रहा हूँ ॥ ४-५ ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार शुकदेवजीको जनकपुर जानेका इच्छुक देखकर व्यासजीने अपने ज्ञानी एवं निःस्पृह पुत्रका दृढ़ आलिंगन करके कहा- ॥ ६ ॥
व्यासजी बोले- हे महामते ! हे पुत्र ! तुम्हारा कल्याण हो, हे शुक! तुम दीर्घायु होओ। हे तात ! तुम मुझे यह सत्य वचन देकर सुखपूर्वक जाओ कि यहाँसे जाकर मेरे इस उत्तम आश्रममें पुनः आओगे। हे पुत्र ! तुम वहाँसे कहीं और कभी भी मत चले जाना ॥ ७-८ ॥
हे पुत्र ! मैं तुम्हारा मुखकमल देखकर ही सुखपूर्वक जीता हूँ और तुम्हें न देखनेपर दुःखी रहता हूँ। हे सुत! तुम्हीं मेरे प्राण हो ॥ ९॥ हे पुत्र ! वहाँ राजर्षि जनकसे मिलकर और अपना सन्देह दूर करके फिर उसके बाद यहाँ आकर वेदाध्ययनमें रत रहते हुए सुखपूर्वक रहो ॥ १०॥
सूतजी बोले – व्यासजीके ऐसा कहनेपर शुकदेवजी अपने पिताको प्रणाम तथा उनकी प्रदक्षिणा करके शीघ्र ही इस प्रकार चल पड़े जैसे धनुषसे छूटा हुआ बाण ॥ ११ ॥
मार्गमें चलते हुए अनेक समृद्धिशाली देशों, नागरिकों, वनों, वृक्षों, फले-फूले खेतों, तप करते हुए तपस्वीजनों, दीक्षा लिये हुए याजकजनों, योगाभ्यासमें तत्पर योगीजनों, वनमें रहनेवाले वानप्रस्थों, वैष्णव, पाशुपत, शैव, शाक्त एवं सूर्योपासक और अनेक धर्मा-वलम्बियोंको देखकर वे शुकदेवमुनि अति विस्मयमें पड़ गये ॥ १२-१४॥
इस प्रकार वे महामति शुकदेवजी लगभग दो वर्षोंमें मेरुपर्वत और एक वर्षमें हिमालयको पार करके मिथिला-देशमें पहुँचे ॥ १५ ॥
जब वे मिथिलामें प्रविष्ट हुए, तब उन्होंने वहाँकी श्रेष्ठ ऐश्वर्यसम्पदाको देखा तथा वहाँकी सारी प्रजाको सुखी एवं सदाचारसम्पन्न देखा ॥ १६ ॥
वहाँ द्वारपालने उन्हें रोका और पूछा- तुम कौन हो और कहाँसे आये हो, तुम्हारा क्या कार्य है; बताओ। ऐसा पूछनेपर भी शुकदेवजी मौन रहे, कुछ बोले नहीं। वे नगरद्वारसे बाहर जाकर स्थाणुकी तरह खड़े हो गये और थोड़ी देरमें आश्चर्यचकित होकर हँसते हुए वहीं स्थित हो गये, पर किसीसे कुछ बोले नहीं ॥ १७-१८ ॥
द्वारपालने पूछा- हे ब्रह्मन् ! बोलिये, आप गूँगे तो नहीं हैं। आपका किस हेतु यहाँ आना हुआ है ? मेरे विचारमें तो कोई कहीं भी निष्प्रयोजन नहीं जाता ॥ १९ ॥
हे विप्र ! इस नगरमें राजाकी आज्ञा पाकर ही कोई प्रवेश कर सकता है। अज्ञात कुल तथा शीलवाले व्यक्तिका प्रवेश यहाँ कदापि नहीं होता है ॥ २० ॥
हे मानद ! आप निश्चय ही तेजस्वी एवं वेदवेत्ता ब्राह्मण प्रतीत हो रहे हैं। इसलिये आप अपने कुल तथा प्रयोजनके विषयमें मुझे बता दें और फिर अपने इच्छानुसार चले जायँ ॥ २१ ॥
शुकदेवजी बोले- मैं जिस कार्यके लिये यहाँ आया था, वह तुम्हारे कथनमात्रसे ही पूरा हो गया। मैं विदेहनगर देखने आया था, परंतु यहाँ तो प्रवेश ही दुर्लभ है ॥ २२ ॥
मुझ अज्ञानीकी यह भूल थी, जो दो पर्वतोंको लाँघकर महाराजसे मिलनेकी इच्छासे घूमते हुए यहाँ चला आया ॥ २३ ॥
मैं तो स्वयं अपने पिताद्वारा ही ठगा गया हूँ। इसमें किसी अन्यको ही क्या दोष दिया जाय ? अथवा हे महाभाग ! यह मेरे दुर्भाग्यका ही दोष है,
जिसके कारण इस भूमिपर मुझे इतना चक्कर काटना पड़ा ॥ २४ ॥ इस संसारमें लोगोंका भ्रमण करनेका उद्देश्य धनोपार्जन ही है, किंतु मुझे उसकी कोई इच्छा नहीं
है। मैं तो केवल भ्रमवश ही यहाँ आ गया हूँ ॥ २५ ॥ आशारहित पुरुषको ही सर्वदा सुख प्राप्त होता है, यदि वह मोहमें न पड़े। किंतु हे महाभाग ! मैं तो निराश होकर भी, न जानें क्यों इस मोहसागरमें निमग्न हो रहा हूँ ! ॥ २६ ॥
कहाँ सुमेरुपर्वत और कहाँ यह मिथिलापुरी ! पैदल ही चलकर मैं यहाँ आया हूँ। इस परिश्रमका फल मुझे क्या मिला ? प्रारब्धने ही मुझे ठगा है। प्रारब्धका भोग अवश्य ही भोगना पड़ता है, चाहे वह शुभ हो या अशुभ। उद्योग भी तो सदा उसी दैवके अधीन ही रहता है; वह जैसा चाहे वैसा कराता है ॥ २७-२८ ॥
यहाँ न कोई तीर्थ है न ज्ञानप्राप्ति होनी है, जिसके लिये यह मेरा परिश्रम हुआ। मैं तो महाराज जनकका ‘विदेह’ नाम सुनकर उत्सुकतासे यहाँ आया था, किंतु उनके नगरमें तो प्रवेश करना भी निषिद्ध है ॥ २९ ॥
इतना कहकर शुकदेवजी चुप हो गये और मौन होकर खड़े रहे। द्वारपालको लगा कि ये कोई ज्ञानी श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं। तब उसने वहाँ खड़े मुनिसे शान्तिपूर्वक निवेदन किया – हे द्विजश्रेष्ठ ! आपका जहाँ कार्य हो, वहाँ यथेष्ट चले जाइये ॥ ३०-३१ ॥
हे ब्रह्मन् ! मैंने जो आपको रोका था, वह मेरा अपराध हुआ। उसके लिये आप क्षमा करें; क्योंकि हे महाभाग ! मुक्तजनोंका तो क्षमा ही बल है ॥ ३२ ॥
शुकदेवजी बोले- हे द्वारपाल ! इसमें तुम्हारा क्या दोष है; तुम तो सर्वदा पराधीन हो। सेवकको तो स्वामीकी आज्ञाका यथोचित पालन करना ही चाहिये। तुमने मुझे जो रोका इसमें राजाका भी कोई दोष नहीं है; क्योंकि बुद्धिमानोंको चोर और शत्रुओंका सम्यक् ज्ञान रखना चाहिये ॥ ३३-३४॥
यह सर्वथा मेरा ही दोष है, जो मैं यहाँ आ गया। [बिना बुलाये] दूसरेके घर जाना लघुताका कारण होता है ॥ ३५ ॥
द्वारपालने कहा- हे विप्र ! सुख क्या है, दुःख क्या है, कल्याण चाहनेवाले पुरुषका क्या कर्तव्य है ? शत्रु कौन है और मित्र कौन है? आप मुझे यह सब बताइये ॥ ३६ ॥
शुकदेवजी बोले – सभी लोकोंमें सर्वत्र द्वैविध्य रहता है। इसलिये मनुष्य भी दो प्रकारके हैं- एक रागी और दूसरा विरागी। उन दोनोंके मन भी दो प्रकारके होते हैं। उनमें भी विरागी तीन प्रकारके होते हैं- ज्ञात, अज्ञात एवं मध्यम।
रागी भी दो प्रकारके कहे गये हैं- मूर्ख तथा चतुर। चातुर्य भी दो प्रकारका कहा गया है-शास्त्रजनित तथा बुद्धिजनित। इसी प्रकार लोकमें बुद्धि भी युक्त और अयुक्त-भेदसे दो प्रकारकी होती है ॥ ३७-३९ ॥
द्वारपालने कहा- हे विद्वन् ! हे विप्रवर! आपने जो कुछ कहा है, उसे मैं भलीभाँति नहीं समझ पाया। अतएव हे श्रेष्ठ ! आप फिरसे विस्तारपूर्वक इस विषयको यथार्थरूपसे समझाइये ॥ ४० ॥
शुकदेवजी बोले- इस संसारमें जिसको राग है, वह निश्चय ही रागी कहलाता है। उस रागीको अनेक प्रकारके सुख एवं दुःख आते ही रहते हैं ॥ ४१ ॥
धन, पुत्र, कलत्र, मान-प्रतिष्ठा और विजय प्राप्त करके ही सुख प्राप्त होता है। इनके न मिलनेपर प्रतिक्षण महान् दुःख होता ही है ॥ ४२ ॥
अतः जैसे सुख प्राप्त हो सके, वैसा उपाय करना चाहिये और सुखके साधनका संग्रह करना चाहिये। जो उस सुखमें विघ्न डाले, उसे शत्रु समझना चाहिये। जो रागी पुरुषके सुखको सर्वदा बढ़ाये, वही मित्र है। चतुर मनुष्य मोहमें फँसता नहीं है; किंतु मूर्ख सर्वत्र आसक्त रहता है ॥ ४३-४४ ॥
विरागी तथा आत्माराम पुरुषको एकान्तवास, आत्म-चिन्तन तथा वेदान्तशास्त्रका अनुशीलन करनेसे ही सुख होता है। सांसारिक विषयोंकी चर्चा आदि-यह सब उनके लिये दुःखरूप है।
कल्याण चाहनेवाले विद्वान् पुरुषके लिये बहुत शत्रु हैं; काम, क्रोध, प्रमाद आदि अनेक प्रकारके शत्रु बताये गये हैं; किंतु व्यक्तिका सच्चा बन्धु तो एकमात्र सन्तोष ही है; तीनों लोकोंमें दूसरा कोई भी नहीं है ॥ ४५-४७ ॥
सूतजी बोले – शुकदेवजीकी बात सुनकर उन्हें ज्ञानी द्विज समझकर उसने शुकदेवजीको एक अत्यन्त रमणीय कक्षसे प्रवेश कराया ॥ ४८ ॥
तीन प्रकारके नागरिकजनोंसे भरे हुए; अनेक प्रकारके क्रय-विक्रयकी वस्तुओंसे सजी दूकानोंवाले; राग-द्वेष, काम, लोभ, मोहसे युक्त एवं परस्पर वाद-विवादमें संलग्न श्रेष्ठीजनोंसे सुशोभित और धन-धान्यसे परिपूर्ण विशाल नगरको देखते हुए शुकदेवजी चले।
इस तरह तीन प्रकारके लोगोंको देखते हुए शुकदेवजी राजभवनकी ओर बढ़े। इस प्रकार द्वितीय सूर्यके समान परम तेजस्वी शुकदेवजी द्वारपर पहुँचे; द्वारपालने उन्हें अन्दर जानेसे रोका। तब वे काष्ठके समान वहीं द्वारपर खड़े हो गये और मोक्षसम्बन्धी विषयपर विचार करने लगे ॥ ४९-५२ ॥
धूप तथा छायाको समान-समझनेवाले महातपस्वी शुकदेवजी वहाँ एकान्तमें ध्यान करके इस प्रकार खड़े रहे मानो कोई अचल स्तम्भ हो ॥ ५३ ॥
थोड़ी देर बाद राजमन्त्रीने हाथ जोड़े हुए स्वयं आकर उन्हें राजभवनके दूसरे कक्षमें प्रवेश कराया ॥ ५४ ॥
वहाँ एक दिव्य रमणीय उपवन था, जिसमें विविध प्रकारके पुष्पोंसे लदे दिव्य वृक्ष सुशोभित हो रहे थे। उस वनको दिखाकर मन्त्रीने उनका यथोचित आतिथ्य सत्कार किया। वहाँ राजाकी सेवा करनेवाली अनेक वारांगनाएँ थीं, वे नृत्य गानमें कुशल तथा कामशास्त्रमें निपुण थीं।
शुकदेवजीकी सेवाके लिये उन्हें आदेश देकर राजमन्त्री उस भवनसे निकल गये और शुकदेवजी वहीं स्थित रहे। उन वारांगनाओंने परम भक्तिके साथ उनकी पूजा की और देशकालानुसार उपलब्ध अनेक प्रकारके भोजनसे उन्हें सन्तुष्ट किया ॥ ५५-५८ ॥
तत्पश्चात् अन्तःपुरनिवासिनी कामिनी स्त्रियोंने उन्हें अन्तःपुरका वन दिखाया, जो अत्यन्त रमणीय था। वे युवा, रूपवान्, कान्तिमान्, मृदुभाषी एवं मनोरम थे। दूसरे कामदेवके समान उन शुकदेवजीको देखकर वे सभी मुग्ध हो गयीं ॥ ५९-६० ॥
मुनिको जितेन्द्रिय जानकर वे सब उनकी परिचर्या करने लगीं। अरणिनन्दन शुद्धात्मा शुकदेवजीने उन्हें माताके समान समझा ॥ ६१ ॥
वे आत्माराम तथा क्रोधको जीतनेवाले शुकदेवजी न हर्षित होते थे और न दुःखी। उनकी चेष्टाओंको देखकर भी वे शान्तचित्त होकर स्थित रहे ॥ ६२ ॥
तब उन स्त्रियोंने उनके लिये सुरम्य, कोमल तथा बहुमूल्य आस्तरण और नानाविध उपकरणोंसे सुसज्जित शय्या बिछायी। शुकदेवजी हाथ-पाँव धोकर हाथमें कुश लेकर सावधान हो सायंकालीन सन्ध्योपासन सम्पन्न करके भगवान्के ध्यानमें लग गये ॥ ६३-६४ ॥
इस प्रकार एक प्रहरतक ध्यानावस्थित होकर वे शयन करने लगे। दो प्रहर शयन करके पुनः वे शुकदेवजी उठ गये। रात्रिके चौथे प्रहरमें वे पुनः ध्यानमें स्थित रहे; तदनन्तर स्नान करके प्रातः – कालीन क्रियाएँ सम्पन्न करके पुनः समाधिस्थ हो गये ॥ ६५-६६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे शुकस्य राजमन्दिरप्रवेशवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥