Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 15 (देवी भागवत पुराण प्रथम स्कंध:पञ्चदशोऽध्यायःशुकदेवजीका विवाहके लिये अस्वीकार करना तथा व्यासजीका उनसे श्रीमद्देवीभागवत पढ़नेके लिये कहना)
(अथ पञ्चदशोऽध्यायः)
-श्रीशुकदेवजी बोले- हे पिताजी ! सर्वदा दुःख देनेवाले गृहस्थाश्रमको मैं कभी स्वीकार नहीं करूँगा; क्योंकि [पशु-पक्षियोंको फँसानेवाले] जालके समान यह आश्रम सभी मानवोंके लिये सदा बन्धनस्वरूप है ॥ १ ॥
हे तात ! धन-धान्यकी चिन्तामें व्याकुल लोगोंके लिये सुख कहाँ दिखायी पड़ता है? निर्धन और लोभके वशीभूत मनुष्य अपने ही परिवारजनोंद्वारा सर्वदा कष्ट पाते रहते हैं ॥ २ ॥
इन्द्र भी वैसे सुखी नहीं रहते, जैसा एक सुखी निःस्पृह भिक्षुक रहता है। तब भला इस संसारमें तीनों लोकोंका वैभव पाकर भी दूसरा कौन सुखी रह सकता है ? ॥ ३॥
किसी तपस्वीको तप करते हुए देखकर स्वर्गलोकके स्वामी इन्द्र भी चिन्तित हो उठते हैं और उसके तपमें अनेक प्रकारके विघ्न करने लगते हैं ॥ ४ ॥
ब्रह्मा भी सुखी नहीं हैं और मनोरम लक्ष्मीको पाकर विष्णु भी सुखी नहीं हैं; उन्हें भी दैत्योंके साथ युद्धके द्वारा निरन्तर कष्ट सहन करने पड़ते हैं।
उन ऐश्वर्यशाली रमापति विष्णुको भी [सुखप्राप्तिके लिये] अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं और कठोर तपस्या करनी पड़ती है। [इस संसारमें] किसको बहुत सुख है ? ॥ ५-६ ॥
भगवान् शंकर भी सदैव दुःखी रहते हैं- ऐसा मैं जानता हूँ; क्योंकि वे सदैव तपस्या करते हुए भी दैत्योंसे युद्ध करते रहते हैं ॥ ७ ॥
हे तात ! जब धनवान् होते हुए भी लोभी मनुष्य कभी भी सुखपूर्वक सो नहीं पाता, तब भला निर्धन मनुष्य कैसे सुख पा सकता है ?
इसलिये हे महाभाग ! यह जानते हुए भी आप अपने तेजसे उत्पन्न पुत्रको दुःखदायक तथा महाभयानक संसारमें क्यों लगा रहे हैं? ॥ ८-९ ॥
हे पिताजी ! जहाँ जन्ममें दुःख, बुढ़ापेमें दुःख, मरणमें दुःख तथा पुनः विष्ठा और मूत्रसे भरे हुए गर्भमें दुःख सहन करना पड़ता है; उससे भी अधिक दुःख तृष्णा और लोभसे उत्पन्न होता है। हे मानद ! मरनेसे भी अधिक दुःख माँगनेमें होता है ॥ १०-११ ॥
ब्राह्मण प्रतिग्रहद्वारा धन प्राप्त करते हैं और वे बुद्धि-बलका उपयोग नहीं करते। दूसरेके भरोसेपर रहना परम दुःखकर है तथा वह अहर्निश मृत्युके समान होता है ॥ १२ ॥
सभी वेद-शास्त्रोंका भलीभाँति अध्ययन करके भी विद्वानोंको धनिकोंके पास जाकर सब प्रकारसे उनकी प्रशंसा करनी पड़ती है।
केवल पेटके लिये कोई चिन्ताकी बात नहीं; उसे तो केवल पत्र, फल एवं कन्द-मूल आदिसे किसी भी प्रकार सन्तुष्टिपूर्वक भरा जा सकता है ॥ १३-१४ ॥
हे पिताजी ! भार्या, पुत्र, पौत्र आदि बड़े कुटुम्बके पालनमें तो अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं। ऐसी दशामें | गृहस्थको सुख कहाँ है ? ॥ १५ ॥
इसलिये हे तात ! मुझे सुखदायी ज्ञानशास्त्र और योगशास्त्रका उपदेश कीजिये। सम्पूर्ण कर्मकाण्डमें मेरा मन कभी नहीं लगता ॥ १६ ॥
अतः कर्मक्षयका कोई उपाय बताइये; जिससे संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण- तीनों प्रकारके कर्मफल नष्ट हो जायँ ॥ १७ ॥
स्त्री जोंकके समान सदा [पुरुषका] रक्त चूसती रहती है, जिसे बुद्धिहीन मनुष्य उसकी भावपूर्ण चेष्टाओंसे मोहित होनेके कारण नहीं जान पाता ॥ १८ ॥
स्त्री अपने संसर्गसे उसके तेजका तथा अपनी वचनचातुरीद्वारा उसके सम्पूर्ण धन और मनका-इस प्रकार सर्वस्वका हरण कर लेती है। उससे बढ़कर दूसरा चोर कौन है ? ॥ १९ ॥
इसलिये मेरे विचारमें तो मूर्ख मनुष्य ही केवल निद्रासुखका नाश करनेके लिये स्त्रीपरिणय करता है। विधाताद्वारा वह दुःखके लिये ही ठगा जाता है, सुखके लिये नहीं ॥ २० ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार शुकदेवकी युक्तियुक्त ये बातें सुनकर व्यासजी बड़ी चिन्तामें पड़ गये। वे मन-ही-मन सोचने लगे- ‘अब मैं क्या करूँ?’ तत्पश्चात् उनकी आँखोंसे दुःखके आँसू बहने लगे, शरीर काँपने लगा और मनमें ग्लानि होने लगी ॥ २१-२२ ॥
इस प्रकार शोक करते हुए अपने दीन तथा शोकाकुल पिताको देखकर आश्चर्यसे विस्मित नेत्रवाले शुकदेवजीने अपने पिता व्यासजीसे कहा-अहो! माया कितनी प्रबल है, जो कि यह वेदान्तदर्शनके प्रणेता तथा वेदका सांगोपांग ज्ञान रखनेवाले सर्वज्ञ पण्डित मेरे पिताजीको भी मोहित कर रही है!॥ २३-२४॥
न जाने वह कौन-सी तथा कैसी अति दुष्कर माया है, जो सत्यवतीसुत विद्वान् व्यासजीको भी मोहित कर रही है ! ॥ २५ ॥
जो पुराणोंके वक्ता, महाभारतके रचयिता, वेदोंके विभागकर्ता हैं, वे भी [मायाजनित] मोहको प्राप्त हो गये हैं ॥ २६ ॥
इसलिये मैं उन्हीं देवी महामायाकी शरणमें जाऊँ, जो समस्त जगत् तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदिको भी मोहित कर देती हैं, तब दूसरोंकी बात ही क्या है ? ॥ २७ ॥
इन तीनों लोकोंमें कौन ऐसा है जो मायासे मोहित न होता हो ? उस मायाने तो ब्रह्मा आदि देवताओंको भी पूर्वकालमें मोहित कर दिया था ॥ २८ ॥ अहो ! उन भगवती जगदम्बाके द्वारा रचित
मायाका बल तथा पराक्रम महान् आश्चर्यजनक है; उन्होंने अपनी मायाके प्रभावसे ही सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी ईश्वरको भी अपने वशमें कर रखा है ॥ २९ ॥
पौराणिकोंद्वारा कहा गया है कि व्यासजी भगवान् विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुए हैं; तथापि वे आज शोक-सागरमें इस प्रकार डूब रहे हैं जैसे समुद्रमें भग्न जलयानवाला वणिक् ॥ ३० ॥
आज वे भी मायाके वशीभूत होकर एक साधारण व्यक्तिके समान आँसू बहा रहे हैं। अहो ! माया बड़ी प्रबल है, जिसे बड़े-बड़े विद्वान् भी नहीं त्याग पाते ॥ ३१ ॥
व्यास कौन हैं? मैं कौन हूँ? यह संसार क्या वस्तु है ? और यह कैसा भ्रम है ? इस पांचभौतिक शरीरमें पिता-पुत्रकी भावना कहाँसे आयी ?
यह माया अतीव प्रबल है, जो मायावियोंको भी मोहित कर देती है, जिसके वशीभूत होकर यहाँ द्विज कृष्णद्वैपायन भी रुदन कर रहे हैं ॥ ३२-३३ ॥
सूतजी बोले – सब कारणोंकी एकमात्र कारण, सब देवताओंकी जननी तथा ब्रह्मा आदि देवताओंकी भी स्वामिनी आदिशक्ति भगवतीको मनसे स्मरण करके शोकसागरमें डूबे हुए अपने दुःखी पिता श्रीव्यासजीसे अरणीपुत्र शुकदेवजीने इस प्रकार नीतियुक्त वचन कहा- ॥ ३४-३५ ॥
हे पराशरनन्दन ! हे महाभाग ! आप तो स्वयं सब लोगोंको ज्ञान देनेवाले हैं तब हे स्वामिन् ! आप ऐसा शोक क्यों करते हैं, जैसा कोई अज्ञ साधारण | व्यक्ति करता है? ॥ ३६ ॥
हे महाभाग ! इस समय मैं आपका पुत्र हूँ, परंतु यह कौन जानता है कि पूर्वजन्ममें मैं कौन था और आप कौन थे ? यह संसार तो महात्माओंके लिये एक भ्रममात्र है ॥ ३७ ॥
अतएव आप धैर्य रखें, विवेक धारण करें तथा मनमें खेद न करें। हे महामते ! इसे मोहजाल समझकर आप शोकका परित्याग करें ॥ ३८ ॥
भूख भोजनसे मिटती है, पुत्रके देखनेसे नहीं। प्यास भी जल पीनेसे मिटती है, केवल पुत्र-दर्शनसे नहीं। इसी प्रकार सुगन्धित पदार्थसे नाकको तथा अच्छी बातोंसे कानोंको एवं स्त्रीसे विषय-सुखका आनन्द मिलता है। मैं आपका पुत्र हूँ, बताइये मैं आपके लिये क्या करूँ ? ॥ ३९-४० ॥
किसी समय अजीगर्त नामक ब्राह्मणने धन लेकर अपने पुत्र शुनःशेपको यज्ञपशुके रूपमें राजा हरिश्चन्द्रके हाथ बेच दिया था।
सुखका साधन केवल धन ही है, धन ही सुखकी राशि है। अतः यदि आपको लोभ हो, तो धनका संचय कीजिये। मैं आपका पुत्र हूँ, अतः [आपके सुखके लिये] मैं क्या करूँ ? ॥ ४१-४२ ॥
हे महामते ! आप दैवज्ञ हैं। अतः हे मुने ! आप मुझे अपनी बुद्धिसे ऐसा ज्ञान दीजिये, जिससे मैं गर्भवासजनित महान् भयसे मुक्त हो जाऊँ ॥ ४३ ॥
हे पवित्रात्मन् ! इस कर्मभूमिमें मनुष्य-जन्म अति दुर्लभ है, उसमें भी उत्तम कुलमें ब्राह्मणका जन्म और भी दुर्लभ है ॥ ४४ ॥
‘मैं आबद्ध हूँ’- यह बुद्धि मेरे चित्तसे नहीं हटती। संसारके वासनाजालमें यह उत्तरोत्तर बढ़ती हुई फँसती ही जाती है ॥ ४५ ॥
सूतजी बोले – असीम बुद्धिवाले अपने पुत्र शुकदेवके ऐसा कहनेपर व्यासजीने शान्त एवं संन्यास-आश्रमके लिये उत्सुक मनवाले शुकदेवजीसे कहा- ॥ ४६ ॥
व्यासजी बोले- हे महाभाग पुत्र ! मेरेद्वारा रचित श्रीमद्देवीभागवतपुराणको तुम पढ़ो; वेदतुल्य | यह पवित्र पुराण अधिक विस्तृत भी नहीं है ॥ ४७ ॥
इसमें बारह स्कन्ध हैं, यह पुराणोंके पाँचों लक्षणोंसे युक्त है। मेरे विचारमें यह पुराण सभी पुराणोंका आभूषण है ॥ ४८ ॥
हे महामते ! जिस भागवतके सुननेमात्रसे सत् और असत् वस्तुओंका यथार्थ ज्ञान हो जाता है, उसे तुम पढ़ो ॥ ४९ ॥
[एक बार महाप्रलयकालमें] वटपत्रपर शयन करते हुए बालरूपधारी भगवान् विष्णु वहाँ सोच रहे थे कि किस चिदात्माने, किस प्रयोजनसे तथा किस द्रव्यसे मुझे बालरूपमें उत्पन्न किया है?
इन सब विषयोंका ज्ञान मुझे कैसे हो? इस प्रकार चिन्तन कर रहे महात्मा बालमुकुन्दसे उन आदिशक्ति भगवतीने सम्पूर्ण अर्थको प्रदान करनेवाले ज्ञानको आधे श्लोकमें ही इस प्रकार कहा- ‘सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम्’ अर्थात् यह सब कुछ मैं ही हूँ और दूसरा कोई भी सनातन नहीं है॥ ५०-५२ ॥
यह बात पहले भी भगवान् विष्णुके हृदयमें उत्पन्न हुई थी। इसलिये अब वे सोचने लगे कि इस सत्य वचनका उच्चारण किसने किया ? इस कहनेवालेको मैं कैसे जानूँ ? वह स्त्री है या पुरुष अथवा नपुंसक है ?
ऐसी चिन्तावाले भगवान् विष्णुने भागवतको हृदयमें धारण किया और उसी श्लोकार्थमें मन लगाये हुए वे बार-बार उसका उच्चारण करने लगे। इस प्रकार वटपत्रपर सोये हुए वे भगवान् विष्णु चिन्तातुर हो गये ॥ ५३-५५॥
उसी समय शंख, चक्र, गदा, पद्म- इन श्रेष्ठ आयुधोंको धारण किये हुए, चतुर्भुजा, शान्तिस्वरूपा, शान्ता शिवा दिव्य वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित होकर अपने ही समान विभूतियोंवाली सखियोंसहित प्रादुर्भूत हुईं।
वे सुन्दर मुखवाली भगवती महालक्ष्मी परम तेजस्वी भगवान् विष्णुके समक्ष मन्द-मन्द मुसकराती हुई प्रकट हुईं ॥ ५६-५८ ॥
सूतजी बोले- उस अपार प्रलय-सागर में बिना अवलम्बके स्थित मनोरम रूपवाली उन दिव्य देवीको देखकर कमलनयन भगवान् विष्णु बड़े ही विस्मयमें पड़े ॥ ५९ ॥
वहाँ रति, भूति, बुद्धि, मति, कीर्ति, स्मृति, धृति, श्रद्धा, मेधा, स्वधा, स्वाहा, क्षुधा, निद्रा, दया, गति, तुष्टि, पुष्टि, क्षमा, लज्जा, जृम्भा, तन्द्रा- ये शक्तियाँ अलग-अलग रूपमें उन महादेवीके समीप सभी ओर खड़ी थीं ॥ ६०-६१ ॥
वे सभी श्रेष्ठ आयुध धारण किये हुए थीं, नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित थीं तथा उनके हृदयपर मन्दारकी मालाएँ और मोतियोंके हार सुशोभित हो रहे थे ॥ ६२ ॥
उन भगवती महालक्ष्मी तथा उनकी सभी अन्यान्य सखियोंको उस प्रलयसागरके जलमें उपस्थित देखकर भगवान् विष्णुके मनमें बड़ा विस्मय हुआ ॥ ६३ ॥
इस प्रकार भगवतीकी माया देखकर अति चकित सर्वात्मा भगवान् विष्णु सोचने लगे – ये देवियाँ कहाँसे आ गयीं, मैं वटवृक्षके पत्तेपर कैसे आ गया, इस एकार्णव महासागरमें वटवृक्ष कहाँसे उत्पन्न हो गया और किसके द्वारा मैं सुन्दर स्वरूपवाला बालक बनाकर उसपर स्थापित किया गया हूँ ? ॥ ६४-६५ ॥
ये मेरी माता तो नहीं हैं! अथवा यह कोई दुर्घट माया है ? किसने और किस कारणसे मुझे इस समय दर्शन दिये हैं? ॥ ६६ ॥
अब मैं इस विषयमें क्या कहूँ ? मैं यहाँसे कहीं – चला जाऊँ अथवा मौन धारण करके बालभावसे • सावधान होकर यहीं स्थित रहूँ ॥ ६७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां प्रथमस्कन्धे शुकवैराग्यवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥