Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 14 (देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:चतुर्दशोऽध्यायःव्यासपुत्र शुकदेवके अरणिसे उत्पन्न होनेकी कथा तथा व्यासजीद्वारा उनसे गृहस्थधर्मका वर्णन)

Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 14 (देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:चतुर्दशोऽध्यायःव्यासपुत्र शुकदेवके अरणिसे उत्पन्न होनेकी कथा तथा व्यासजीद्वारा उनसे गृहस्थधर्मका वर्णन)

[अथ चतुर्दशोऽध्यायः]

:-सूतजी बोले- उस सुन्दरी असितापांगी घृताचीको देखकर व्यासजी बड़े असमंजसमें पड़े और सोचने लगे कि यह देवकन्या अप्सरा मेरे योग्य नहीं है, अतः अब मैं क्या करूँ ? वह अप्सरा भी व्यासजीको चिन्तित होता देखकर भयभीत हो गयी कि कहीं ये मुझे शाप न दे दें ॥ १-२ ॥

तत्पश्चात् भयसे व्याकुल वह अप्सरा एक शुकीका रूप धारण करके उड़ गयी। व्यासजी उसे पक्षीके रूपमें देखकर आश्चर्यमें पड़ गये ॥ ३ ॥

उसे देखनेमात्रसे व्यासजीके शरीरमें कामका संचार हो आया और प्रत्यंगमें कामका प्रवेश हो जानेके कारण उनका मन अत्यन्त विस्मयमें पड़ गया ॥ ४ ॥

बड़ी धीरताके साथ मनको रोकनेकी चेष्टा करते हुए भी उस चंचल मनको वे व्यासमुनि वशमें करनेमें समर्थ नहीं हुए ॥ ५ ॥

 

इस प्रकार घृताचीद्वारा मोहित तेजस्वी व्यासजीका मन अनेक यत्न करनेपर भी भावी संयोगके कारण उनके वशमें न हो सका ॥ ६ ॥

इसी बीच अग्नि निकालनेके लिये मन्थन करते समय एकाएक उनका तेज उस अरणीपर गिर गया, किंतु उसके गिरनेपर ध्यान न देकर वे अरणिमन्थन करते रहे। उस अरणीसे उन्हींके सदृश मनोहर स्वरूपवाले ‘शुक’ उत्पन्न हो गये ॥ ७-८ ॥

अरणीसे उत्पन्न वह बालक विस्मय पैदा करते हुए उसी प्रकार सुशोभित हो रहा था, जिस प्रकार हवन करते समय घृताहुति पड़नेसे प्रकट अग्नि दीप्तिमान् हो उठती है ॥ ९ ॥

उस पुत्रको देखकर ‘यह क्या!’ – ऐसा सोचकर व्यासजी अत्यन्त विस्मयमें पड़ गये [और विचार करने लगे कि यह शिवके वरदानसे ही तो उत्पन्न नहीं हुआ है ! ॥ १० ॥

इस प्रकार अरणीगर्भसे उत्पन्न वह तेजस्वी पुत्र शुक अपने तेजसे दूसरे अग्निके तुल्य देदीप्यमान प्रतीत हो रहा था ॥ ११ ॥

व्यासजीने दिव्य देहधारी द्वितीय गार्हपत्य अग्निके समान तेजस्वी पुत्रको बड़ी प्रसन्नतासे देखा और पर्वतसे नीचे उतरकर गंगाजलसे उसको नहलाया। हे तपस्वियो ! उस समय आकाशसे उस शिशुके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ॥ १२-१३ ॥

व्यासजीने उस महात्मा शिशुका जातकर्म आदि संस्कार किया। उस समय देवताओंने दुंदुभियाँ बजायीं तथा अप्सराओंने नृत्य किया ॥ १४ ॥

उस बालकके दर्शनकी लालसावाले विश्वावसु, नारद, तुम्बुरु आदि सभी गन्धर्वराज प्रसन्न होकर शुकके जन्मपर गान करने लगे। सभी देवता तथा विद्याधर भी अरणीके गर्भसे उत्पन्न उस दिव्य व्यासपुत्रको देखकर प्रसन्नतापूर्वक स्तुति करने लगे ॥ १५-१६ ॥

हे द्विजोत्तम ! उसी समय शुकदेवजीके लिये आकाशसे दिव्य दण्ड, कमण्डलु और शुभ कृष्ण मृगचर्म पृथ्वीपर आ गिरे ॥ १७ ॥

 

उत्पन्न होते ही वह अति तेजस्वी शिशु शीघ्रतापूर्वक बड़ा हो गया, तब वैदिक विधानके मर्मज्ञ व्यासजीने उसका उपनयनसंस्कार भी कर दिया ॥ १८ ॥

उत्पन्न होते ही रहस्यों तथा संग्रहोंसहित सभी वेद उन महात्माके समक्ष वैसे ही उपस्थित हो गये, जैसे उसके पिता व्यासजीमें वे विद्यमान थे ॥ १९ ॥

अरणि-मन्थनके समय मुनिश्रेष्ठ व्यासजीने घृताची अप्सराको शुकीके रूपमें देखा था, इसलिये उन्होंने इस बालकका नाम शुक रख दिया ॥ २० ॥

व्याससुत शुकदेवने बृहस्पतिको अपना आचार्य मानकर विधिवत् ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। गुरुकुलमें निवासकर रहस्यों तथा संग्रहोंसहित सभी वेदों तथा धर्मशास्त्रोंका अध्ययन करके, तदनन्तर गुरुको दक्षिणा देकर वे शुकदेवमुनि अपने पिता व्यासजीके पास आ गये ॥ २१-२३॥

शुकदेवको आया देखकर व्यासजीने शीघ्रताके साथ प्रसन्नतापूर्वक उठकर बारंबार उनका आलिंगन किया और उनका सिर सूँघा। परम पवित्र व्यासजीने शुकदेवजीके कुशलक्षेम तथा अध्ययनके विषयमें पूछा तथा उन्हें आश्वस्त करके अपने पावन आश्रममें रख लिया ॥ २४-२५ ॥

तत्पश्चात् व्यासजी शुकदेवजीके विवाहके विषयमें सोचने लगे। एक दिन परम तेजस्वी व्यासजीने शुकदेवजीसे किसी सुन्दर मुनिकन्याकी चर्चा की ॥ २६ ॥

 

उन्होंने अपने पुत्र शुकदेवसे कहा- हे पवित्रात्मन् ! तुमने वेद तथा सभी धर्मशास्त्रोंका अध्ययन कर लिया है। अतः हे महामते ! अब तुम विवाह कर लो और गृहस्थ-आश्रममें रहकर देवताओं और पितरोंका यजन करो और हे पुत्र ! तुम सुन्दर स्त्रीको स्वीकारकर मुझे भी ऋणसे मुक्त कर दो ॥ २७-२८ ॥

अपुत्रकी गति नहीं होती और उसे स्वर्ग कदापि नहीं मिलता। इसलिये हे महाभाग पुत्र ! अब तुम गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करो और हे शुक ! हे पुत्र ! गृहस्थी बसाकर मुझे भी आनन्दित करो। ऐसा करके हे महामते ! हे पुत्र ! तुम मेरी महान् आशा परिपूर्ण करो ॥ २९-३० ॥

 

हे शुक ! कठिन तपस्या करके मैंने तुम्हारे-जैसा अयोनिज पुत्र पाया है। हे महाप्राज्ञ ! तुम देवतारूप हो, अतः मुझ पिताकी रक्षा करो ॥ ३१ ॥

सूतजी बोले- [हे ऋषियो !] ऐसा कहनेवाले व्यासजीके पास उपस्थित विरक्त शुकदेवजीने गृहस्थ- आश्रममें अनुरक्त अपने पितासे कहा ॥ ३२ ॥

शुकदेवजी बोले- हे महामते ! हे धर्मज्ञ ! हे वेदव्यास ! आप क्या कह रहे हैं, मुझ शिष्यको आप तत्त्वज्ञानका उपदेश दें; मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा ॥ ३३ ॥

व्यासजी बोले- हे पुत्र ! तुम्हारे लिये मैंने सैकड़ों वर्ष कष्ट सहकर जो तपस्या की और शिवजीकी आराधना की, उसके फलस्वरूप मैंने तुम्हें पाया है। किसी राजासे माँगकर मैं तुम्हें प्रचुर धन दूँगा, हे महाप्राज्ञ ! तुम श्रेष्ठ यौवन प्राप्त करके सुखका उपभोग करो ॥ ३४-३५ ॥

शुकदेवजी बोले- हे तात ! आप बतायें कि इस मनुष्यलोकमें भला विपत्तिरहित कौन-सा सुख है ? बुद्धिमान् लोग दुःखसे युक्त सुखको सुख नहीं कहते हैं ॥ ३६ ॥

हे महाभाग ! स्त्री पाकर मैं उसीके वशमें हो जाऊँगा। तब भला आप ही बताइये, परतन्त्र होकर और विशेषतः स्त्रीके वशमें रहकर मैं कौन-सा सुख पा सकूँगा ? ॥ ३७ ॥

लौह या काष्ठके फन्देमें जकड़ा हुआ पुरुष कदाचित् छूट भी सकता है, किंतु पुत्र-कलत्रके बन्धनमें फँसा हुआ प्राणी कभी भी बन्धनमुक्त नहीं हो पाता ॥ ३८ ॥

यह शरीर विष्ठा एवं मूत्रसे परिपूर्ण रहता है; वैसे ही स्त्रियोंका शरीर भी होता है। हे विप्रेन्द्र ! तब कौन बुद्धिमान् पुरुष उससे प्रीति करना चाहेगा ! ॥ ३९ ॥

हे विप्रशिरोमणे ! मैं अयोनिज हूँ, तब योनिजन्य सुखमें मेरी बुद्धि कैसे होगी? मैं भविष्यमें भी अपनी उत्पत्ति किसी योनिमें नहीं चाहता ॥ ४० ॥

अतः अद्भुत अध्यात्म सुखको छोड़कर मैं विट्- मूत्रजन्य सुखको क्यों चाहूँ? अपने-आपमें रमण | करनेवाला कभी विषय-सुखका लोभी नहीं होता ॥ ४१ ॥

 

मैंने सांगोपांग वेदोंका अध्ययन किया और जाना कि वे हिंसामय हैं तथा कर्ममार्गके प्रवर्तक हैं। मुझे गुरुरूपमें बृहस्पति प्राप्त हुए, वे भी गृहस्थीके सागरमें डूबे हुए हैं। अविद्याग्रस्त हृदयवाले वे मेरा उद्धार कैसे कर सकते हैं? ॥ ४२-४३ ॥

जैसे कोई रोगग्रस्त वैद्य दूसरेके रोगकी चिकित्सा करता हो, उसी प्रकार मुझ मोक्षार्थीके गुरु गृहस्थ हैं, यह विडम्बना ही है। इसलिये ऐसे गुरुको नमस्कार करके मैं आपके पास आया हूँ। अब आप तत्त्वज्ञानका उपदेश देकर मेरी रक्षा करें; क्योंकि मैं इस संसाररूपी सर्पसे अत्यन्त भयभीत हूँ ॥ ४४-४५ ॥

इस महाभयंकर संसार-चक्रमें प्राणिमात्रको सर्वदा नक्षत्रोंकी भाँति चक्कर काटना पड़ता है और सूर्यकी भाँति दिन-रात उन्हें भी कभी विश्राम करनेका अवसर नहीं मिलता ॥ ४६ ॥

हे तात ! इस संसारमें आत्मज्ञानको छोड़कर कौन- सा सुख है ? मूढ जनोंको सुखकी वैसी ही प्रतीति होती है, जैसी विष्ठाके कीड़ोंको विष्ठामें होती है ॥ ४७ ॥

वेदशास्त्रोंको पढ़कर भी जो सांसारिक सुखमें फँसे रहते हैं, भला उनसे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा ? उन्हें तो कुत्ते, घोड़े एवं सूअर आदि पशुओंके समान धर्मवाला समझना चाहिये ॥ ४८ ॥

 

दुर्लभ मानवतनको पाकर तथा वेदशास्त्रोंका अध्ययन करके भी यदि मनुष्य इस संसारमें बँधता है, तो दूसरा भला कौन बन्धनमुक्त हो सकता है ? इससे बढ़कर संसारमें कोई दूसरी अद्भुत बात नहीं है कि पुत्र-कलत्र और घरके बन्धनमें पड़ा हुआ भी पण्डित कहलाता है ! ॥ ४९-५० ॥

जो मनुष्य इस संसारमें मायाके सत्त्व, रज, तम- रूपी तीनों गुणोंसे बाँधा नहीं जाता है; वही विद्वान्, बुद्धिमान् एवं शास्त्रमें पारंगत है ॥ ५१ ॥

दृढ़ बन्धनमें डालनेवाले व्यर्थ विद्याध्ययनसे क्या लाभ ? उसीका अध्ययन करना चाहिये, जो शीघ्र ही भवबन्धनसे मुक्त कर दे ॥ ५२ ॥

पुरुषको बन्धनमें जकड़ लेनेके कारण ही उसे गृह कहा गया है। अतः ऐसे बन्धनरूप घरमें सुख कहाँ ? हे पिताजी ! इसीलिये मैं भयभीत हूँ ॥ ५३ ॥

 

जो अज्ञानी, मन्दबुद्धि तथा अभागे मनुष्य हैं; वे इस मानव-जन्मको पाकर भी पुनः बन्धनमें पड़ जाते हैं ॥ ५४ ॥

व्यासजी बोले – गृह बन्धनागार नहीं है और न बन्धनका कारण ही है। जो मनसे बन्धनमुक्त है, वह गृहस्थ-आश्रममें रहते हुए भी मुक्त हो जाता है ॥ ५५ ॥

जो न्यायमार्गसे धनोपार्जन करता है, शास्त्रोक्त कर्मोंका विधिवत् सम्पादन करता है, पितृश्राद्ध आदि यज्ञ करता है, सर्वदा सत्य बोलता है तथा पवित्र रहता है, वह गृहमें रहते हुए भी मुक्त हो जाता है ॥ ५६ ॥

ब्रह्मचारी, संन्यासी, वानप्रस्थी तथा व्रतोपवास करनेवाला ये सब मनुष्य मध्याह्नोत्तरकालमें गृहस्थके पास ही जाते हैं। वे धार्मिक गृहस्थ श्रद्धाके साथ मधुर वचनोंद्वारा सबका सत्कार करते एवं अन्नदानसे उन्हें उपकृत करते हैं ॥ ५७-५८ ॥

गृहस्थ-आश्रमसे बढ़कर कोई दूसरा आश्रम देखा या सुना नहीं गया। वसिष्ठ आदि आचार्यों और तत्त्वज्ञानियोंने इसका आश्रय ग्रहण किया है ॥ ५९ ॥

हे महाभाग ! वेदोक्त कर्म करनेवाले गृहस्थके लिये क्या असाध्य रह जाता है ? वह स्वर्ग, मोक्ष अथवा उत्तम कुलमें जन्म – जो कुछ भी चाहता है, वह हो जाता है। ‘एक आश्रमसे दूसरे आश्रममें जाना चाहिये’- ऐसा धर्मज्ञोंने बताया है। अतः आलस्यरहित होकर गृहस्थसम्बन्धी कर्मोंको सम्पादित करो ॥ ६०-६१ ॥

हे धर्मज्ञ पुत्र ! देवताओं, पितरों एवं आश्रित- जनोंको विधिवत् सन्तुष्ट करके, पुत्र उत्पन्न करके और उसे भी गृहस्थ-आश्रममें लगाकर पुनः गृह त्यागकर वनमें जाकर श्रेष्ठ व्रतका आश्रय ग्रहण करो। वहाँ वानप्रस्थ-आश्रम पूर्ण करके उसके बाद संन्यास धारण करो ॥ ६२-६३ ॥

हे महाभाग ! इन्द्रियाँ मनुष्यको निश्चितरूपसे प्रमत्त बना देती हैं। जो मनुष्य स्त्रीरहित होता है, उसे | मन पाँचों इन्द्रियोंसहित विकल कर देता है ॥ ६४ ॥

 

हे महामते ! इसलिये उन बलवान् इन्द्रियोंपर विजय पानेके लिये स्त्रीपरिणय करके गृहस्थ बनना चाहिये, तत्पश्चात् वृद्धावस्थामें तप करना चाहिये- यह शास्त्रवचन है ॥ ६५ ॥

हे महाभाग ! वनमें स्थित महातेजस्वी महर्षि विश्वामित्र किसी समय तीन सहस्त्र वर्षोंतक निराहार और जितेन्द्रिय रहकर अत्यन्त कठोर तप करके भी मेनकाको देखकर मोहित हो गये और उन्हींके तेजसे पुत्रीरूपमें सुन्दर शकुन्तला पैदा हुई ॥ ६६-६७ ॥

मेरे पिता पराशरजी भी धीवरकी कृष्णवर्णा कन्याको देखकर काम बाणसे आहत हो गये और उन्होंने नावपर ही उसे स्वीकार कर लिया था ॥ ६८ ॥

ब्रह्माजी भी अपनी कन्या को देखकर कामसे पीड़ित हो गये और बेसुध होकर उसके पीछे दौड़ते रहे; तब शिवजीने उन्हें रोका ॥ ६९ ॥

अतः हे कल्याणकारी पुत्र ! तुम मेरा हितकर वचन मान लो और किसी कुलीन कन्यासे विवाह करके सनातन वेदमार्गका पालन करो ॥ ७० ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां प्रथमस्कन्धे व्यासेन गृहस्थधर्मवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥

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