Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 11(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:एकादश अध्याय: बुधके जन्मकी कथा)
[अथैकादशोऽध्यायः]
ऋषिगण बोले- हे सूतजी ! वे राजा पुरूरवा कौन थे तथा वह देवकन्या उर्वशी कौन थी ? उस मनस्वी राजाने किस प्रकार संकट प्राप्त किया ? ॥ १ ॥
हे लोमहर्षणतनय ! आप इस समय पूरा कथानक विस्तारपूर्वक कहें। हम सभी लोग आपके मुखारविन्दसे निःसृत रसमयी वाणीको सुननेके इच्छुक हैं ॥ २ ॥
हे सूतजी ! आपकी वाणी अमृतसे भी बढ़कर मधुर एवं रसमयी है। जिस प्रकार देवगण अमृत- पानसे कभी तृप्त नहीं होते, उसी प्रकार आपके कथा-श्रवणसे हम तृप्त नहीं होते ॥ ३ ॥
सूतजी बोले- हे मुनियो ! अब आपलोग उस दिव्य तथा मनोहर कथाको सुनिये, जिसे मैंने परम श्रेष्ठ व्यासजीके मुखसे सुना है। मैं उसे अपनी बुद्धिके अनुसार वैसा ही कहूँगा ॥ ४॥
सुरगुरु बृहस्पतिकी पत्नीका नाम ‘तारा’ था। वह रूप-यौवनसे सम्पन्न तथा सुन्दर अंगोंवाली थी ॥ ५ ॥
एक बार वह सुन्दरी अपने यजमान चन्द्रमाके घर गयी। उस रूप तथा यौवनसे सम्पन्न चन्द्रमुखी कामिनीको देखते ही चन्द्रमा उसपर आसक्त हो गये।
तारा भी चन्द्रमाको देखकर आसक्त हो गयी। इस प्रकार वे दोनों तारा तथा चन्द्रमा एक-दूसरेको | देखकर प्रेमविभोर हो गये ॥ ६-८ ॥
वे दोनों प्रेमोन्मत्त एक-दूसरेको चाहनेकी इच्छासे युक्त हो विहार करने लगे। इस प्रकार उनके कुछ दिन व्यतीत हुए। तब बृहस्पतिने ताराको घर लानेके लिये अपना एक शिष्य भेजा; परंतु वह न आ सकी ॥ ९-१० ॥
जब चन्द्रमाने बृहस्पतिके शिष्यको कई बार लौटाया, तो वे क्रोधित होकर चन्द्रमाके पास स्वयं गये ॥ ११ ॥
चन्द्रमाके घर जाकर उदारचित्त बृहस्पतिने अभिमानके साथ मुसकराते हुए उस चन्द्रमासे कहा- हे चन्द्रमा !
तुमने यह धर्मविरुद्ध कार्य क्यों किया और मेरी इस परम सुन्दरी पत्नीको अपने घरमें क्यों रख लिया ? ॥ १२-१३ ॥
हे देव ! मैं तुम्हारा गुरु हूँ और तुम मेरे यजमान हो। तब हे मूर्ख ! तुमने गुरुपत्नीको अपने घरमें क्यों रख लिया ? ॥ १४ ॥
ब्रह्महत्या करनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, मदिरापान करनेवाला, गुरुपत्नीगामी तथा पाँचवाँ इन पापियोंके साथ संसर्ग रखनेवाला – ये ‘महापातकी’ हैं।
तुम महापापी, दुराचारी एवं अत्यन्त निन्दनीय हो। यदि तुमने मेरी पत्नीके साथ अनाचार किया है तो तुम देवलोकमें रहनेयोग्य नहीं हो ॥ १५-१६ ॥
हे दुष्टात्मन् ! असितापांगी मेरी इस पत्नीको छोड़ दो जिससे मैं इसे अपने घर ले जाऊँ, अन्यथा गुरुपत्नीका अपहरण करनेवाले तुझको मैं शाप दे दूँगा ॥ १७ ॥
इस प्रकार बोलते हुए स्त्रीविरहसे कातर तथा क्रोधाकुल देवगुरु बृहस्पतिसे रोहिणीपति चन्द्रमाने कहा ॥ १८ ॥
चन्द्रमा बोले- क्रोधके कारण ब्राह्मण अपूजनीय होते हैं। क्रोधरहित तथा धर्मशास्त्रज्ञ विप्र पूजाके योग्य हैं और इन गुणोंसे हीन ब्राह्मण त्याज्य होते हैं ॥ १९ ॥
हे अनघ ! वह सुन्दर स्त्री अपनी इच्छासे आपके घर चली जायगी और यदि कुछ दिन यहाँ ठहर भी गयी तो इससे आपकी क्या हानि है ?
अपनी इच्छासे ही वह यहाँ रहती है। सुखकी इच्छा रखनेवाली वह कुछ दिन यहाँ रहकर अपनी इच्छासे चली जायगी ॥ २०-२१ ॥
आपने ही तो पूर्वमें धर्मशास्त्रके इस मतका उल्लेख किया है कि संसर्गसे स्त्री और वेदकर्मसे ब्राह्मण कभी दूषित नहीं होते ॥ २२ ॥
चन्द्रमाके ऐसा कहनेपर बृहस्पति अत्यन्त दुखी हुए एवं चिन्तामग्न होकर शीघ्र ही अपने घर चले गये ॥ २३ ॥
कुछ दिन अपने घर रहकर चिन्तासे व्याकुल गुरु बृहस्पति पुनः उन औषधिपति चन्द्रमाके यहाँ शीघ्र जा पहुँचे। वहाँ द्वारपालने उन्हें भीतर जानेसे रोका, तब वे क्रुद्ध होकर द्वारपर ही रुक गये।
[ कुछ देरतक प्रतीक्षा करनेपर] जब चन्द्रमा वहाँ नहीं आये, तब बृहस्पति अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे ॥ २४-२५ ॥
[वे विचार करने लगे] मेरा शिष्य होते हुए भी इसने माताके समान आदरणीया गुरुपत्नीको बलपूर्वक हर लिया है। इसलिये अब मुझे इस अधर्मीको दण्डित करना चाहिये ॥ २६ ॥
तब बाहर द्वारपर खड़े बृहस्पतिने क्रोधके साथ चन्द्रमासे कहा-अरे नीच! पापी! देवाधम ! तुम अपने घरमें निश्चिन्त होकर क्यों पड़े हो ?
मेरी स्त्री शीघ्र मुझे लौटा दो, अन्यथा मैं तुम्हें शाप दे दूँगा। यदि तुम मेरी पत्नी नहीं दोगे तो मैं तुझे अभी अवश्य भस्म कर दूँगा ॥ २७-२८ ॥
सूतजी बोले- बृहस्पतिके इस प्रकारके क्रोधभरे वचन सुनकर द्विजराज चन्द्रमा शीघ्र घरसे बाहर निकले और हँसते हुए उनसे बोले – आप इतना अधिक क्यों बोल रहे हैं? सर्वलक्षणसम्पन्न वह असितापांगी आपके योग्य नहीं है ॥ २९-३० ॥
हे विप्र ! आप अपने समान किसी अन्य स्त्रीको ग्रहण कर लीजिये; ऐसी सुन्दरी भिक्षुकके घरमें रहनेयोग्य नहीं है। यह प्रायः कहा जाता है कि अपने समान गुणसम्पन्न पतिपर ही पत्नीका प्रेम स्थिर रहता है।
अपने इच्छानुसार अब आप चाहे जहाँ चले जायँ। मैं इसे नहीं दूँगा। आपका शाप मेरे ऊपर नहीं लग सकता। हे गुरो ! मैं यह रमणी आपको नहीं दूँगा, अब आप जैसा चाहें वैसा करें ॥ ३१-३४॥
सूतजी बोले – चन्द्रमाके ऐसा कहनेपर देवगुरु बृहस्पति रुष्ट होकर चिन्तामें पड़ गये और वे कुपित हो शीघ्रतासे इन्द्रके भवन चले गये ॥ ३५ ॥
वहाँ स्थित देवगुरु बृहस्पतिको दुःखसे व्याकुल देखकर इन्द्रने पाद्य, अर्घ्य तथा आचमनीय आदिसे उनकी विधिवत् पूजा करके बैठाया ॥ ३६ ॥
जब बृहस्पति आसनपर बैठकर स्वस्थ हो गये, तब परम उदार इन्द्रने उनसे पूछा- ‘हे महाभाग ! आपको कौन-सी चिन्ता है ? हे मुनिवर ! आप इतने शोकाकुल किसलिये हैं ? ॥ ३७ ॥
मेरे राज्यमें आपका अपमान किसने किया है ? आप मेरे गुरु हैं, अतः हमारी सारी सेना एवं लोकपाल सभी आपके अधीन हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा अन्य देवता भी आपकी सहायता करेंगे। आपको कौन-सी चिन्ता है; इस समय उसे बताइये ॥ ३८-३९ ॥
बृहस्पति बोले – चन्द्रमाने मेरी सुन्दर नेत्रोंवाली पत्नी ताराका हरण कर लिया और वह दुष्ट मेरे बार- बार प्रार्थना करनेपर भी उसे लौटाता नहीं है।
हे देवराज ! अब मैं क्या करूँ ? अब तो केवल आप ही मेरी शरण हैं। हे शतक्रतो ! मैं अत्यन्त दुःखी हूँ। हे देवेश ! आप मेरी सहायता कीजिये ॥ ४०-४१ ॥
इन्द्र बोले – हे धर्मात्मन् ! आप शोक न करें, हे सुव्रत ! मैं आपका सेवक हूँ, मैं आपकी पत्नीको अवश्य लाऊँगा। हे महामते ! यदि दूत भेजनेपर भी वह मदोन्मत्त चन्द्रमा आपकी स्त्रीको नहीं देगा तो देवसेनाओंसहित मैं स्वयं युद्ध करूँगा ॥ ४२-४३ ॥
इन्द्रने अपनी बातको सही ढंगसे कहनेवाले, विलक्षण तथा वाक्पटु दूतको चन्द्रमाके पास भेजा ॥ ४४ ॥इस प्रकार गुरु बृहस्पतिको आश्वासन देकर शीघ्र ही वह चतुर दूत चन्द्रलोक गया और रोहिणीपति चन्द्रमासे यह सन्देश-वचन कहने लगा- हे महाभाग !
हे महामते ! इन्द्रने आपसे कुछ कहनेके लिये मुझे भेजा है। अतः उनके द्वारा जो कुछ कहा गया है, वही ज्यों-का-त्यों मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ ४५-४६ ॥
हे महाभाग ! हे सुव्रत ! आप धर्मज्ञ हैं, नीति जानते हैं तथा धर्मात्मा अत्रिमुनि आपके पिता हैं, अतएव आपको कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये जिससे आप निन्दनीय हो जायँ। आलस्यरहित होकर यथाशक्ति अपनी स्त्रीकी रक्षा सभी प्राणी करते हैं। अतः इस (तारा) के लिये बड़ा कलह होगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४७-४८ ॥
हे सुधानिधे ! जैसे आप अपनी भार्याकी रक्षा हेतु प्रयत्न करते हैं, वैसे वे गुरु बृहस्पति भी अपनी पत्नीकी रक्षाके लिये प्रयत्नशील हैं। आप अपने ही सदृश सभी प्राणियोंके विषयमें विचार कीजिये ॥ ४९ ॥
हे सुधानिधे ! आपको दक्षप्रजापतिकी सुलक्षणोंसे युक्त अट्ठाईस कन्याएँ पत्नीके रूपमें प्राप्त हैं। आप अपने गुरुकी पत्नीको पानेकी इच्छा क्यों रखते हैं ?
स्वर्गलोकमें मेनका आदि अनेक मनोरम अप्सराएँ सर्वदा सुलभ हैं, तब उनके साथ स्वेच्छापूर्वक विहार कीजिये और गुरुपत्नी ताराको शीघ्र ही लौटा दीजिये ॥ ५०-५१ ॥
आप-जैसे महान् लोग यदि अहंकारवश ऐसा निन्दित कर्म करें तो अनभिज्ञ साधारणजन तो उनका अनुकरण करेंगे ही और तब धर्मका नाश हो जायगा। अतः हे महाभाग ! गुरुकी इस मनोरमा पत्नीको शीघ्र लौटा दीजिये, जिससे आपके कारण इस समय देवताओंके बीच कलह न उत्पन्न हो ॥ ५२-५३ ॥
सूतजी बोले- दूतसे इन्द्रका सन्देश सुनकर चन्द्रमा कुछ क्रोधित हो गये और उन्होंने इन्द्रके दूतको इस प्रकार व्यंग्यपूर्वक उत्तर दिया ॥ ५४ ॥
चन्द्रमा बोले- हे महाबाहो ! आप धर्मज्ञ हैं और स्वयं देवताओंके राजा हैं। आपके पुरोहित बृहस्पति भी ठीक आपकी तरह हैं और आप दोनोंकी बुद्धि भी एक समान है ॥ ५५ ॥
दूसरोंको उपदेश देनेमें अनेक लोग चतुर होते हैं, परंतु कार्य उपस्थित होनेपर [उपदेशानुसार] स्वयं आचरण करनेवाला दुर्लभ होता है ॥ ५६ ॥
हे देवेश ! बृहस्पतिके बनाये शास्त्रको सभी मनुष्य स्वीकार करते हैं। शक्तिशाली लोगोंके लिये सब कुछ अपना होता है, परंतु दुर्बल लोगोंके लिये कुछ भी अपना नहीं होता।
तारा जितना प्रेम मुझसे करती है, उतना बृहस्पतिसे नहीं। अतः अनुरक्त स्त्री धर्म अथवा न्यायसे त्याज्य कैसे हो सकती है?
गार्हस्थ्य जीवनका वास्तविक सुख तो प्रेम रखनेवाली स्त्रीके साथ ही होता है, उदासीन स्त्रीके साथ नहीं; इसलिये हे दूत ! तुम जाओ और इन्द्रसे कह दो कि मैं इसे नहीं दूँगा। हे सहस्राक्ष ! आप स्वयं समर्थ हैं; | आप जो चाहते हों, वह कीजिये ॥ ५७-६१ ॥
सूतजी बोले- चन्द्रमाके ऐसा कहनेपर दूत इन्द्रके पास लौट गया और चन्द्रमाने जो कहा था, वह सब उसने इन्द्रसे कह दिया ॥ ६२ ॥
इसे सुनकर प्रतापी इन्द्र भी अत्यन्त क्रोधित हुए और गुरु बृहस्पतिकी सहायताके लिये सेनाकी तैयारी करने लगे ॥ ६३ ॥
दैत्यगुरु शुक्राचार्य चन्द्रमा तथा देवगुरुके विरोधकी बात सुनकर बृहस्पतिसे द्वेषके कारण चन्द्रमाके पास गये और उससे बोले कि आप ताराको वापस मत कीजिये ॥ ६४ ॥
हे महामते ! हे मान्य! यदि इन्द्रके साथ आपका युद्ध छिड़ जायगा तो मैं भी अपनी मन्त्रशक्तिसे आपकी सहायता करूँगा ॥ ६५ ॥
गुरुपत्नीसे अनाचारकी बात सुनकर और शुक्राचार्यको बृहस्पतिका शत्रु जानकर शिवजी भी बृहस्पतिकी सहायताके लिये तैयार हो गये ॥ ६६ ॥
तब तारकासुरके साथ हुए युद्धकी भाँति देव- दानवोंमें संग्राम छिड़ गया। यह युद्ध बहुत वर्षोंतक चलता रहा ॥ ६७ ॥
देव-दानवोंका यह संग्राम देखकर प्रजापति ब्रह्माजी हंसपर सवार होकर उस क्लेशकी शान्तिके लिये रणस्थलमें शीघ्र पहुँचे।
तब ब्रह्माजीने चन्द्रमासे कहा कि तुम गुरु बृहस्पतिकी पत्नी लौटा दो, नहीं तो भगवान् विष्णुको बुलाकर मैं तुम्हें समूल नष्ट कर दूँगा।
तत्पश्चात् लोकपितामह ब्रह्माजीने भृगुनन्दन शुक्रको भी युद्धसे रोका और उनसे कहा- हे महामते ! दैत्योंके संगसे क्या आपकी भी बुद्धि अन्याययुक्त हो गयी है ? ॥ ६८-७० ॥
तत्पश्चात् [ब्रह्माजीकी बात सुनकर शुक्राचार्य चन्द्रमाके पास गये] उन्होंने चन्द्रमाको युद्धसे रोका और कहा कि तुम्हारे पिताने मुझे भेजा है, तुम अपने गुरुकी पत्नीको तत्काल छोड़ दो ॥ ७१ ॥
सूतजी बोले – शुक्राचार्यकी वह अद्भुत वाणी सुनकर चन्द्रमाने बृहस्पतिकी गर्भवती सुन्दरी प्रिय भार्याको लौटा दिया ॥ ७२ ॥
पत्नीको पाकर देवगुरु बड़े प्रसन्न हुए और आनन्दपूर्वक अपने घर चले गये। तत्पश्चात् सभी | देवता और दैत्य भी अपने-अपने घर चले गये ॥ ७३ ॥
पितामह ब्रह्मा अपने लोकको तथा शिवजी भी कैलासपर्वतपर चले गये। इस प्रकार अपनी सुन्दरी स्त्रीको पाकर बृहस्पति सन्तुष्ट हो गये ॥ ७४ ॥
तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद ताराने शुभ दिन तथा शुभ नक्षत्रमें गुणोंमें चन्द्रमाके समान ही सुन्दर पुत्रको जन्म दिया। पुत्रको उत्पन्न देखकर देवगुरु बृहस्पतिने प्रसन्न मनसे उसके विधिवत् जातकर्म आदि सभी संस्कार किये ॥ ७५-७६ ॥
हे श्रेष्ठ मुनियो ! चन्द्रमाने जब सुना कि पुत्र उत्पन्न हुआ है, तब बुद्धिमान् चन्द्रमाने बृहस्पतिके पास अपना दूत भेजा [और कहलाया- हे गुरो !] यह पुत्र आपका नहीं है; क्योंकि यह मेरे तेजसे उत्पन्न है। तब आपने अपनी इच्छासे बालकका जातकर्मादि संस्कार क्यों कर लिया ? ॥ ७७-७८ ॥
उस दूतका वचन सुनकर बृहस्पतिने कहा कि यह मेरा पुत्र है; क्योंकि इसकी आकृति मेरे समान है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ७९ ॥
पुनः दोनोंमें विवाद खड़ा हो गया और देव- दानव मिलकर फिर युद्धके लिये आ गये और इस प्रकार उनका बहुत बड़ा समूह एकत्र हो गया ॥ ८० ॥
उस समय शान्तिके अभिलाषी स्वयं प्रजापति ब्रह्माजी पुनः वहाँ पहुँचे और रणभूमिमें डटे हुए युद्धोत्सुक देव-दानवोंको उन्होंने युद्धसे रोका ॥ ८१ ॥
धर्मात्मा ब्रह्माजीने तारासे पूछा- ‘हे कल्याणि ! यह पुत्र किसका है ? हे सुन्दरि ! तुम सही-सही बता दो, जिससे यह कलह शान्त हो जाय ‘ ॥ ८२ ॥
तब असितापांगी सुन्दरी ताराने लजाते हुए सिर नीचे करके मन्द स्वरमें कहा- ‘यह पुत्र चन्द्रमाका है’ ऐसा कहकर वह घरके भीतर चली गयी ॥ ८३ ॥
तब प्रसन्नचित्त होकर चन्द्रमाने उस पुत्रको ले लिया। उन्होंने उसका नाम ‘बुध’ रखा। पुनः वे अपने घर चले गये ॥ ८४॥
तत्पश्चात् ब्रह्माजी अपने लोकको तथा इन्द्रसहित सभी देवता भी चले गये। इसी प्रकार प्रेक्षक भी जो जहाँसे आये थे, वे सभी अपने-अपने | स्थानको चले गये ॥ ८५ ॥
[हे मुनिजन !] इस प्रकार गुरुके क्षेत्रमें चन्द्रमासे बुधकी उत्पत्तिका यह वृत्तान्त जैसा मैंने पूर्वमें सत्यवती-पुत्र व्यासजीसे सुना था, वैसा आपलोगोंसे कह दिया है ॥ ८६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे बुधोत्पत्तिर्नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
[देवी भागवत पुराण संस्कृत]
Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 11(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:एकादश अध्याय: बुधके जन्मकी कथा)
[अथैकादशोऽध्यायः]
ऋषय ऊचुः
कोऽसौ पुरूरवा राजा कोर्वशी देवकन्यका। कथं कष्टं च सम्प्राप्तं तेन राज्ञा महात्मना ॥ १ सर्वं कथानकं ब्रूहि लोमहर्षणजाधुना। श्रोतुकामा वयं सर्वे त्वन्मुखाब्जच्युतं रसम् ॥ २ अमृतादपि मिष्टा ते वाणी सूत रसात्मिका। न तृप्यामो वयं सर्वे सुधया च यथामराः ॥ ३
सूत उवाच
शृणुध्वं मुनयः सर्वे कथां दिव्यां मनोरमाम्। वक्ष्याम्यहं यथाबुद्धया श्रुतां व्यासवरोत्तमात् ॥ ४ गुरोस्तु दयिता भार्या तारा नामेति विश्रुता। रूपयौवनयुक्ता सा चार्वङ्गी मदविह्वला ॥ ५ गतैकदा विधोर्धाम यजमानस्य भामिनी । दृष्टा च शशिनात्यर्थं रूपयौवनशालिनी ॥ ६ कामातुरस्तदा जातः शशी शशिमुखीं प्रति । सापि वीक्ष्य विधुं कामं जाता मदनपीडिता ॥ ७ तावन्योन्यं प्रेमयुक्तौ स्मरार्तों च बभूवतुः । तारा शशी मदोन्मत्तौ कामबाणप्रपीडितौ ॥ ८
रेमाते मदमत्तौ तौ परस्परस्पृहान्वितौ । दिनानि कतिचित्तत्र जातानि रममाणयोः ॥ ९
बृहस्पतिस्तु दुःखार्तस्तारामानयितुं गृहम् । प्रेषयामास शिष्यं तु नायाता सा वशीकृता ॥ १०
पुनः पुनर्यदा शिष्यं परावर्तत चन्द्रमाः । बृहस्पतिस्तदा क्रुद्धो जगाम स्वयमेव हि ॥ ११
गत्वा सोमगृहं तत्र वाचस्पतिरुदारधीः । उवाच शशिनं कुद्धः स्मयमानं मदान्वितम् ॥ १२
किं कृतं किल शीतांशो कर्म धर्मविगर्हितम् । रक्षिता मम भार्येयं सुन्दरी केन हेतुना ॥ १३
तव देव गुरुश्चाहं यजमानोऽसि सर्वथा । गुरुभार्या कथं मूढ भुक्ता किं रक्षिताथवा ॥ १४
ब्रह्महा हेमहारी च सुरापो गुरुतल्पगः । महापातकिनो ह्येते तत्संसर्गी च पञ्चमः ॥ १५
महापातकयुक्तस्त्वं दुराचारोऽतिगर्हितः । न देवसदनार्होऽसि यदि भुक्तेयमङ्गना ॥ १६
मुञ्चेमामसितापाङ्गीं नयामि सदनं मम। नोचेद्वक्ष्यामि दुष्टात्मन् गुरुदारापहारिणम् ॥ १७
इत्येवं भाषमाणं तमुवाच रोहिणीपतिः । गुरुं क्रोधसमायुक्तं कान्ताविरहदुःखितम् ॥ १८
इन्दुरुवाच
क्रोधात्ते तु दुराराध्या ब्राह्मणाः क्रोधवर्जिताः । पूजार्हा धर्मशास्त्रज्ञा वर्जनीयास्ततोऽन्यथा ॥ १९
आगमिष्यति सा कामं गृहं ते वरवर्णिनी। अत्रैव संस्थिता बाला का ते हानिरिहानघ ॥ २०
इच्छया संस्थिता चात्र सुखकामार्थिनी हि सा । दिनानि कतिचित्स्थित्वा स्वेच्छ्या चागमिष्यति ॥ २१
त्वयैवोदाहृतं पूर्व धर्मशास्त्रमतं तथा। न स्त्री दुष्यति चारेण न विप्रो वेदकर्मणा ॥ २२
इत्युक्तः शशिना तत्र गुरुरत्यन्तदुःखितः । जगाम स्वगृहं तूर्णं चिन्ताविष्टः स्मरातुरः ॥ २३
दिनानि कतिचित्तत्र स्थित्वा चिन्तातुरो गुरुः । ययावथ गृहं तस्य त्वरितश्चौषधीपतेः ॥ २४
स्थितः क्षत्रा निषिद्धोऽसौ द्वारदेशे रुषान्वितः । नाजगाम शशी तत्र चुकोपाति बृहस्पतिः ॥ २५
अयं मे शिष्यतां यातो गुरुपत्नीं तु मातरम्। जग्राह बलतोऽधर्मी शिक्षणीयो मयाधुना ॥ २६
उवाच वाचं कोपात्तु द्वारदेशस्थितो बहिः । किं शेषे भवने मन्द पापाचार सुराधम ॥ २७
देहि मे कामिनीं शीघ्रं नोचेच्छापं ददाम्यहम् । करोमि भस्मसान्नूनं न ददासि प्रियां मम ॥ २८
सूत उवाच
क्रूराणि चैवमादीनि भाषणानि बृहस्पतेः । श्रुत्वा द्विजपतिः शीघ्रं निर्गतः सदनाद् बहिः ॥ २९
तमुवाच हसन्सोमः किमिदं बहु भाषसे। न ते योग्यासितापाङ्गी सर्वलक्षणसंयुता ॥ ३०
कुरूपां च स्वसदृशीं गृहाणान्यां स्त्रियं द्विज । भिक्षुकस्य गृहे योग्या नेदृशी वरवर्णिनी ॥ ३१
रतिः स्वसदृशे कान्ते नार्याः किल निगद्यते । त्वं न जानासि मन्दात्मन् कामशास्त्रविनिर्णयम् ॥ ३२
यथेष्टं गच्छ दुर्बुद्धे नाहं दास्यामि कामिनीम् । यच्छक्यं कुरु तत्कामं न देया वरवर्णिनी ॥ ३३
कामार्तस्य च ते शापो न मां बाधितुमर्हति।
नाहं ददे गुरो कान्तां यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ३४
सूत उवाच
इत्युक्तः शशिना चेज्यश्चिन्तामाप रुषान्वितः ।
जगाम तरसा सद्म क्रोधयुक्तः शचीपतेः ॥ ३५
दृष्ट्वा शतक्रतुस्तत्र गुरुं दुःखातुरं स्थितम् । पाद्यार्थ्याचमनीयाद्यैः पूजयित्वा सुसंस्थितः ॥ ३६
पप्रच्छ परमोदारस्तं तथावस्थितं गुरुम् । का चिन्ता ते महाभाग शोकार्तोऽसि महामुने ॥ ३७
केनापमानितोऽसि त्वं मम राज्ये गुरुश्च मे। त्वदधीनमिदं सर्वं सैन्यं लोकाधिपैः सह ॥ ३८
ब्रह्मा विष्णुस्तथा शम्भुर्ये चान्ये देवसत्तमाः । करिष्यन्ति च साहाय्यं का चिन्ता वद साम्प्रतम् ॥ ३९
गुरुरुवाच
शशिनापहृता भार्या तारा मम सुलोचना। न ददाति स दुष्टात्मा प्रार्थितोऽपि पुनः पुनः ॥ ४०
किं करोमि सुरेशान त्वमेव शरणं मम। साहाय्यं कुरु देवेश दुःखितोऽस्मि शतक्रतो ।। ४१
इन्द्र उवाच
मा शोकं कुरु धर्मज्ञ दासोऽस्मि तव सुव्रत । आनयिष्याम्यहं नूनं भार्या तव महामते ॥ ४२
प्रेषिते चेन्मया दूते न दास्यति मदाकुलः । ततो युद्धं करिष्यामि देवसैन्यैः समावृतः ॥ ४३
इत्याश्वास्य गुरुं शक्रो दूतं वक्तृविचक्षणम्। प्रेषयामास सोमाय वार्ताशंसिनमद्भुतम् ॥ ४४
स गत्वा शशिलोकं तु त्वरितः सुविचक्षणः । उवाच वचनेनैव वचनं रोहिणीपतिम् ॥ ४५
प्रेषितोऽहं महाभाग शक्रेण त्वां विवक्षया। कथितं प्रभुणा यच्च तद् ब्रवीमि महामते ॥ ४६
धर्मज्ञोऽसि महाभाग नीतिं जानासि सुव्रत ।
अत्रिः पिता ते धर्मात्मा न निन्द्यं कर्तुमर्हसि ॥ ४७
भार्या रक्ष्या सर्वभूतैर्यथाशक्ति ह्यतन्द्रितैः ।
तदर्थे कलहः कामं भविता नात्र संशयः ॥ ४८
यथा तव तथा तस्य यत्नः स्याद्दाररक्षणे। आत्मवत्सर्वभूतानि चिन्तय त्वं सुधानिधे ॥ ४९
अष्टाविंशतिसंख्यास्ते कामिन्यो दक्षजाः शुभाः । गुरुपत्नीं कथं भोक्तुं त्वमिच्छसि सुधानिधे ॥ ५०
स्वर्गे सदा वसन्त्येता मेनकाद्या मनोरमाः । भुंक्ष्व ताः स्वेच्छया कामं मुञ्च पत्नीं गुरोरपि ॥ ५१
ईश्वरा यदि कुर्वन्ति जुगुप्सितमहन्तया । अज्ञास्तदनुवर्तन्ते तदा धर्मक्षयो भवेत् ॥ ५२
तस्मान्मुञ्च महाभाग गुरोः पत्नीं मनोरमाम् । कलहस्त्वन्निमित्तोऽद्य सुराणां न भवेद्यथा ॥ ५३
सूत उवाच
सोमः शक्रवचः श्रुत्वा किञ्चित्क्रोधसमाकुलः । भङ्ग्या प्रतिवचः प्राह शक्रदूतं तदा शशी ॥ ५४
इन्दुरुवाच
धर्मज्ञोऽसि महाबाहो देवानामधिपः स्वयम् । पुरोधापि च ते तादृग्युवयोः सदृशी मतिः ॥ ५५
परोपदेशे कुशला भवन्ति बहवो जनाः । दुर्लभस्तु स्वयं कर्ता प्राप्ते कर्मणि सर्वदा ॥ ५६
बार्हस्पत्यप्रणीतं च शास्त्रं गृह्णन्ति मानवाः । को विरोधोऽत्र देवेश कामयानां भजन्स्त्रियम् ।। ५७
स्वकीयं बलिनां सर्वं दुर्बलानां न किञ्चन। स्वीया च परकीया च भ्रमोऽयं मन्दचेतसाम् ॥ ५८
तारा मय्यनुरक्ता च यथा न तु तथा गुरौ। अनुरक्ता कथं त्याज्या धर्मतो न्यायतस्तथा ॥ ५९
गृहारम्भस्तु रक्तायां विरक्तायां कथं भवेत्। विरक्तेयं यदा जाता चकमेऽनुजकामिनीम् ॥ ६०
न दास्येऽहं वरारोहां गच्छ दूत वद स्वयम् ।
ईश्वरोऽसि सहस्त्राक्ष यदिच्छसि कुरुष्व तत् ॥ ६१
सूत उवाच
इत्युक्तः शशिना दूतः प्रययौ शक्रसन्निधिम् । इन्द्रायाचष्ट तत्सर्वं यदुक्तं शीतरश्मिना ॥ ६२
तुराषाडपि तच्छ्रुत्वा क्रोधयुक्तो बभूव ह। सेनोद्योगं तथा चक्रे साहाय्यार्थं गुरोर्विभुः ॥ ६३
शुक्रस्तु विग्रहं श्रुत्वा गुरुद्वेषात्ततो ययौ। मा ददस्वेति तं वाक्यमुवाच शशिनं प्रति ॥ ६४
साहाय्यं ते करिष्यामि मन्त्रशक्त्या महामते। भविता यदि संग्रामस्तव चेन्द्रेण मारिष ॥ ६५
शङ्करस्तु तदाकर्ण्य गुरुदाराभिमर्शनम् । गुरुशत्रु भृगुं मत्वा साहाय्यमकरोत्तदा ॥ ६६
संग्रामस्तु तदा वृत्तो देवदानवयोद्रुतम् । बहूनि तत्र वर्षाणि तारकासुरवत्किल ॥ ६७
देवासुरकृतं युद्धं दृष्ट्वा तत्र पितामहः । हंसारूढो जगामाशु तं देशं क्लेशशान्तये ॥ ६८
राकापतिं तदा प्राह मुञ्च भार्यां गुरोरिति। नोचेद्विष्णुं समाहूय करिष्यामि तु संक्षयम् ॥ ६९
भृगुं निवारयामास ब्रह्मा लोकपितामहः । किमन्यायमतिर्जाता सङ्गदोषान्महामते ।। ७०
निषेधयामास ततो भृगुस्तं चौषधीपतिम् । मुञ्च भार्यां गुरोरद्य पित्राहं प्रेषितस्तव ॥ ७१
सूत उवाच द्विजराजस्तु तच्छ्रुत्वा भृगोर्वचनमद्भुतम् । ददौ च तत्प्रियां भार्यां गुरोर्गर्भवतीं शुभाम् ॥ ७२
प्राप्य कान्तां गुरुर्हष्टः स्वगृहं मुदितो ययौ । ततो देवास्ततो दैत्या ययुः स्वान्स्वान्गृहान्प्रति ॥ ७३
ब्रह्मा स्वसदनं प्राप्तः कैलासं चापि शङ्करः । बृहस्पतिस्तु सन्तुष्टः प्राप्य भार्यां मनोरमाम् ॥ ७४
ततः कालेन कियता तारासूत सुतं शुभम्। सुदिने शुभनक्षत्रे तारापतिसमं गुणैः ॥ ७५
दृष्ट्वा पुत्रं गुरुर्जातं चकार विधिपूर्वकम् । जातकर्मादिकं सर्वं प्रहृष्टेनान्तरात्मना ।। ७६
श्रुतं चन्द्रमसा जन्म पुत्रस्य मुनिसत्तमाः । दूतं च प्रेषयामास गुरुं प्रति महामतिः ।॥ ७७
न चायं तव पुत्रोऽस्ति मम वीर्यसमुद्भवः । कथं त्वं कृतवान्कामं जातकर्मादिकं विधिम् ॥ ७८
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य दूतस्य च बृहस्पतिः । उवाच मम पुत्रो मे सदृशो नात्र संशयः ॥ ७९
पुनर्विवादः सञ्जातो मिलिता देवदानवाः । युद्धार्थमागतास्तेषां समाजः समजायत ॥ ८०
तत्रागतः स्वयं ब्रह्मा शान्तिकामः प्रजापतिः । निवारयामास मुखे संस्थितान्युद्धदुर्मदान् ॥ ८१
तारां पप्रच्छ धर्मात्मा कस्यायं तनयः शुभे। सत्यं वद वरारोहे यथा क्लेशः प्रशाम्यति ॥ ८२
तमुवाचासितापाङ्गी लज्जमानाप्यधोमुखी । चन्द्रस्येति शनैरन्तर्जगाम वरवर्णिनी ॥ ८३
जग्राह तं सुतं सोमः प्रहृष्टेनान्तरात्मना । नाम चक्रे बुध इति जगाम स्वगृहं पुनः ॥ ८४
ययौ ब्रह्मा स्वकं धाम सर्वे देवाः सवासवाः । यथागतं गतं सर्वैः सर्वशः प्रेक्षकैर्जनैः ॥ ८५
कथितेयं बुधोत्पत्तिर्गुरुक्षेत्रे च सोमतः ।यथा श्रुता मया पूर्वं व्यासात्सत्यवतीसुतात् ॥ ८६
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे बुधोत्पत्तिनमैिकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥