Devi Bhagwat puran mahima chapter 5(देवी भागवत पुराण महिमापञ्चमोऽध्यायः श्रीमद्देवीभागवतपुराणकी श्रवण-विधि, श्रवणकर्ताके लिये पालनीय नियम, श्रवणके फल तथा माहात्म्यका वर्णन)
[अथ पञ्चमोऽध्यायः]
श्रीमद्देवीभागवतपुराणकी श्रवण-विधि, श्रवणकर्ताके लिये पालनीय नियम, श्रवणके फल तथा माहात्म्यका वर्णन
:-ऋषियोंने कहा- हे महाभाग सूतजी ! हमलोगोंने श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्य सुन लिया और अब इस पुराणके श्रवणकी विधि सुनना चाहते हैं ॥ १॥
सूतजी बोले- हे मुनियो ! अब आपलोग इस पुराणके श्रवणका विधान सुनें, जिसे सुननेवाले मनुष्योंकी समस्त कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं ॥ २ ॥
पुराणश्रवणके इच्छुक विद्वान् मनुष्यको चाहिये कि वह सर्वप्रथम ज्योतिषीको बुलाकर शुभ मुहूर्त निर्धारित कर ले। इसके लिये ज्येष्ठमाससे लेकर छः महीने शुभकारक होते हैं ॥ ३ ॥
हस्त, अश्विनी, मूल, पुष्य, रोहिणी, अनुराधा, मृगशिरा तथा श्रवण नक्षत्र, पुण्य तिथि तथा शुभ दिनमें श्रीमद्देवीभागवतपुराणका श्रवण कल्याणकारी होता है ॥ ४ ॥
जिस नक्षत्रमें बृहस्पति हों, उससे चन्द्रमातक गिननेपर क्रमशः इस प्रकार फल होते हैं- चार नक्षत्रतक धर्म-प्राप्ति, पुनः चारतक लक्ष्मीकी प्राप्ति, इसके बाद एक नक्षत्र कथामें सिद्धि प्रदान करनेवाला, फिर पाँच नक्षत्र परम सुखकी प्राप्ति करानेवाले, बादमें छः नक्षत्र पीड़ा करनेवाले, इसके
बाद चार नक्षत्र राज-भय उत्पन्न करनेवाले और तत्पश्चात् तीन नक्षत्र ज्ञान प्राप्तिमें सहायक होते हैं। पुराणश्रवणके आरम्भमें शिवोक्त चक्रका शोधन कर लेना चाहिये ॥ ५-६ ॥
देवीकी प्रसन्नताके लिये इसे चारों नवरात्रोंमें * सुनना चाहिये अथवा तिथि, वार और नक्षत्रपर सम्यक् विचार करके यह पुराण अन्य मासोंमें भी सुना जा सकता है ॥ ७ ॥
विवाह आदिमें जिस प्रकार [उत्साहपूर्वक ] तैयारी की जाती है, उसी प्रकार नवाह-यज्ञके अवसरपर भी बुद्धिमान् मनुष्योंको प्रयत्नपूर्वक सामग्री आदिकी तैयारी करनी चाहिये ॥ ८ ॥
पाखण्ड तथा लोभसे रहित, चतुर, उदार एवं देवीभक्त सज्जनोंको भी सहायकके रूपमें लेना चाहिये ॥ ९ ॥
देश-देशमें भी यत्नपूर्वक यह सन्देश भेजना चाहिये- [हे कथानुरागी सज्जनो !] यहाँ श्रीमद्देवी- भागवतकी कथा होने जा रही है, आप अवश्य पधारें ॥ १० ॥
चाहे सूर्यकी उपासना करनेवाले हों, चाहे गणेशभक्त हों, चाहे शैव हों, चाहे वैष्णव अथवा शक्तिके उपासक हों, सभी इस कथाके श्रवणके अधिकारी हैं; क्योंकि सभी देवता शक्तिके साथ ही रहते हैं ॥ ११ ॥
इसलिये श्रीमद्देवीभागवतकी कथारूपी सुधाके रसिक प्रेमीजनोंको कथाश्रवणके लिये विशेषरूपसे आना चाहिये ॥ १२॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र- चारों वर्णके स्त्री, पुरुष एवं ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ, संन्यास – इन चारों आश्रमोंमें निरत मनुष्योंको चाहे सकामभावसे अथवा निष्कामभावसे- अवश्य ही इस कथा-सुधाका पान करना चाहिये ॥ १३ ॥
जिन लोगोंको पूरे नौ दिनतक कथा सुननेका अवकाश न मिल सके, वे जब भी समय मिले तभी आ जायँ; क्योंकि यज्ञमें क्षणभर भी पहुँच जाना विशेष पुण्यदायक होता है ॥ १४॥
बड़ी नम्रताके साथ मनुष्योंको निमन्त्रण देना चाहिये और आये हुए श्रोताओंके बैठनेका भी समुचित प्रबन्ध करना चाहिये ॥ १५ ॥
विस्तृत भूमिमें कथा-प्रवचनका सुन्दर स्थान बनाना चाहिये। उस स्थानकी सफाई कराकर गोबरसे लिपवा देना चाहिये। केलेके स्तम्भोंसे सुशोभित और ध्वज-पताकाओंसे अलंकृत एक सुरम्य मण्डपका निर्माण करना चाहिये और उसके ऊपर सुन्दर चाँदनी लगा देनी चाहिये ॥ १६-१७ ॥
कथावाचकका आसन दिव्य तथा सुखकर आस्तरणसे युक्त होना चाहिये। उसे प्रयत्नपूर्वक पूर्वा- भिमुख अथवा उत्तराभिमुख रखना चाहिये ॥ १८ ॥ कथाश्रवणके लिये आनेवाले पुरुष तथा स्त्री श्रोताओंके लिये भी यथायोग्य पृथक् पृथक् आसनोंकी व्यवस्था करनी चाहिये ॥ १९ ॥
वक्तृत्वसम्पन्न, संयमी, शास्त्रज्ञ, देवीकी आराधनामें तत्पर, दयालु, लोभहीन, दक्ष तथा धैर्यशाली कथावाचक उत्तम माना गया है ॥ २० ॥
इसी प्रकार श्रोता भी ऐसा होना चाहिये जो ब्राह्मणसेवी, देवभक्त, कथा-रसका पान करनेवाला, उदार, लोभरहित, विनम्र और हिंसा आदिसे रहित हो ॥ २१ ॥
पाखण्डी, लोभी, स्त्रीस्वभाव, कामी, धर्मका दिखावामात्र करनेवाला, निष्ठुर तथा क्रोधी वक्ता देवीभागवतके नवाहयज्ञमें श्रेष्ठ नहीं माना जाता है ॥ २२ ॥
श्रोताओंकी शंकाओंके निवारणहेतु कथावाचकके साथ एक ऐसा सहायक भी लगा देना चाहिये, जो पण्डित, गुणवान्, शान्त तथा श्रोताओंको समझानेमें कुशल हो ॥ २३ ॥
कथा प्रारम्भ होनेके एक दिन पूर्व ही वक्ता एवं श्रोतागणोंको क्षौरकर्म करा लेना चाहिये। तत्पश्चात् अन्यान्य नियमोंका पालन करना चाहिये ॥ २४ ॥
उस दिन शौचादिसे निवृत्त हो अरुणोदयवेलामें ही स्नान कर लेना चाहिये। सन्ध्या तथा तर्पण आदि नित्यकर्म संक्षेपमें ही करना चाहिये ॥ २५ ॥
तत्पश्चात् कथाश्रवणका अधिकारी बननेके लिये गोदान करे और सब विघ्नोंको दूर करनेवाले श्रीगणेशजीका सर्वप्रथम पूजन करे। कलश-स्थापन करके वहाँ दस दिक्पालों, बटुक, क्षेत्रपाल, सभी योगिनियों और मातृकाओंका भी पूजन करे। तुलसी, नवग्रह, विष्णु तथा शिवजीका पूजन करके नवाक्षरमन्त्रसे जगदम्बाका पूजन करना चाहिये ॥ २६-२८ ॥
तत्पश्चात् सुन्दर अक्षरोंमें लिखी हुई भगवतीकी वाङ्मयी मूर्तिस्वरूप श्रीमद्देवीभागवत- पुस्तककी सभी उपचारोंसे विधिवत् पूजा करके कथाकी निर्विघ्न समाप्तिके लिये पाँच विद्वान् ब्राह्मणोंका वरण करना चाहिये। उनसे निरन्तर नवार्णमन्त्रका जप एवं दुर्गासप्तशतीका पाठ कराना चाहिये ॥ २९-३० ॥
अन्तमें प्रदक्षिणा तथा नमस्कारके बाद इस प्रकार स्तुति करे- ‘हे कात्यायनि ! हे महामाये ! हे भुवनेश्वरि ! हे कृपामये! हे भवानि ! मैं संसार- सागरमें डूब रहा हूँ; मेरा उद्धार कीजिये तथा हे ब्रह्मा, विष्णु, महेशसे पूजनीया माता जगदम्बिके ! मेरे ऊपर प्रसन्न होइये। हे देवि ! आप मुझे मनोवांछित वर प्रदान कीजिये; आपको बार-बार प्रणाम है। इस प्रकार प्रार्थना करके स्वस्थचित्त होकर कथा सुने ॥ ३१-३३ ॥
उस समय संयतचित्त होकर वक्ताको साक्षात् व्यास समझकर विधिवत् उनकी पूजा करे और वस्त्राभूषण तथा माला आदि पहनाकर उनसे प्रार्थना करे- ‘समस्त शास्त्र तथा पुराणेतिहासके ज्ञाता हे व्यासजी ! आपको नमस्कार है। आप कथारूपी चन्द्रमाकी ज्योतिसे हमारे अन्तःकरणके अन्धकारसमूहको नष्ट कीजिये ‘ ॥ ३४-३५॥
इसके बाद नवाहके नियमोंका व्रत ले और ब्राह्मणोंका यथाशक्ति पूजन करके उन्हें पहले यथास्थान बैठा दे, तत्पश्चात् स्वयं भी अपने आसनपर बैठ | जाय ॥ ३६ ॥
तब सावधान मनसे चारों पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष) फलको प्राप्त करनेके लिये पुत्र-कलत्र, धन-धान्य तथा गृहकी चिन्ता छोड़कर कथा सुने ॥ ३७ ॥
विद्वान् वक्ताको चाहिये कि वह सूर्योदयसे आरम्भ करके पुनः दोपहरमें दो घड़ी विश्राम करके सूर्यास्तके कुछ समय पहलेतक कथा-वाचन करे ॥ ३८ ॥
मल-मूत्रके वेगको रोकनेके लिये स्वल्पाहार उत्तम होता है। कथार्थीको दिन-रातमें केवल एक बार हविष्यान्नका भोजन करना ही ठीक है; अथवा फलाहार करे या केवल दूध-घीके आहारपर ही रहे। बुद्धिमान्को चाहिये कि ऐसा आहार ग्रहण करे, जिससे कथामें किसी प्रकारकी बाधा न हो ॥ ३९-४० ॥
हे द्विजगण ! अब मैं कथाश्रवणमें निष्ठा रखनेवालोंके नियम बताता हूँ। जो लोग ब्रह्मा, विष्णु और शिवमें भेददृष्टि रखते हैं, देवीकी भक्तिसे रहित हैं, जो पाखण्डी, हिंसक तथा दुष्ट हैं और जो ब्राह्मणोंसे द्वेष रखनेवाले तथा नास्तिक हैं, वे कथाश्रवणके योग्य नहीं हैं ॥ ४१-४२ ॥
जो परस्त्री, पराया धन, ब्राह्मणधन तथा देव- सम्पत्तिके हरणमें लुब्ध रहते हैं, उनका कथाश्रवणमें अधिकार नहीं है ॥ ४३ ॥
श्रोताको चाहिये कि वह ब्रह्मचर्यका पालन करे, पृथ्वीपर सोये, सत्य बोले, जितेन्द्रिय रहे तथा कथाकी समाप्तिपर संयमपूर्वक पत्तलपर भोजन करे ॥ ४४ ॥ व्रतीको बैगन, बहेड़ा (कलिन्द), तेल, दाल, मधु और जला हुआ, बासी तथा भावदूषित अन्नका त्याग कर देना चाहिये ॥ ४५ ॥
कथा सुननेवाला व्रती मांस, मसूर, रजस्वला स्त्रीका देखा हुआ खाद्यान्न, लहसुन, मूली, हींग, प्याज, गाजर, कोहड़ा और करमीका साग न खाये। काम, क्रोध, मद, लोभ, पाखण्ड और अहंकारको छोड़ दे ॥ ४६-४७ ॥
विप्रद्रोही, पतित, संस्कारहीन, चाण्डाल, यवन, अन्त्यज, रजस्वला स्त्री और वेदविहीन मनुष्योंसे कथाव्रतीको वार्तालाप नहीं करना चाहिये ॥ ४८ ॥
श्रोताको चाहिये कि वह वेद, गौ, गुरु, ब्राह्मण, स्त्री, राजा, महापुरुष, देवताओं और देवभक्तोंकी निन्दा कभी न सुने ॥ ४९ ॥
जो कथाव्रती हो उसे सर्वदा विनयशील, सरलचित्त, पवित्र, दयालु, कम बोलनेवाला तथा उदार मनवाला होना चाहिये ॥ ५० ॥
श्वेतकुष्ठी, कुष्ठी, क्षयरोगी, अभागा, पापी, दरिद्र तथा सन्तानहीन मनुष्य इस कथाको भक्तिपूर्वक सुने ॥ ५१ ॥
जो स्त्री वन्ध्या, काकवन्ध्या (जिस स्त्रीको एक बार सन्तान होकर बन्द हो जाय), अभागिन तथा मृतवत्सा हो और जिसका गर्भ गिर जाता हो, ऐसी सभी स्त्रियोंको इस देवीभागवतकथाका श्रवण करना चाहिये ॥ ५२ ॥
जो मनुष्य बिना परिश्रमके ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, वह यत्नपूर्वक इस देवीभागवतकी कथा अवश्य सुने ॥ ५३॥
इस नवाहकथाके नौ दिन नौ यज्ञोंके समान हैं। उनमें किया गया दान, हवन तथा जप अनन्त फल देनेवाला होता है ॥ ५४ ॥
इस प्रकार नवाहव्रत करके उसका उद्यापन करना चाहिये। फलकी कामना करनेवाले पुरुषोंको महाष्टमीव्रतके उद्यापनकी भाँति नवाहव्रतका भी उद्यापन करना चाहिये ॥ ५५ ॥
निष्काम व्यक्ति कथाके श्रवणमात्रसे पवित्र होकर मुक्ति पा जाते हैं; क्योंकि परा भगवती मनुष्योंको भोग और मोक्ष सब कुछ देनेवाली हैं ॥ ५६ ॥
पुस्तक और कथावाचक-दोनोंकी प्रतिदिन पूजा करनी चाहिये और वक्ताद्वारा दिया हुआ प्रसाद भक्तिपूर्वक ग्रहण करना चाहिये ॥ ५७ ॥
नवाह-यज्ञमें जो श्रोता नित्य कुमारी कन्याओं, सुहागिन स्त्रियों तथा ब्राह्मणोंको भोजन कराता तथा उनसे प्रार्थना करता है, उसकी कार्यसिद्धि अवश्य हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५८ ॥
सभी त्रुटियोंकी शान्तिके निमित्त कथासमाप्तिके दिन गायत्रीसहस्रनाम अथवा विष्णुसहस्रनामका पाठ करना चाहिये ॥ ५९ ॥
जिनके स्मरण तथा नामकीर्तनसे तप, यज्ञ, क्रिया आदिमें न्यूनता समाप्त हो जाती है, उन विष्णुभगवान्का नाम-कीर्तन करना चाहिये ॥ ६० ॥
कथासमाप्तिके दिन दुर्गासप्तशतीके मन्त्रोंसे अथवा देवीमाहात्म्यके मूलपाठसे या नवार्ण* मन्त्रसे होम करना चाहिये अथवा घृतसहित पायसद्वारा गायत्री मन्त्रका उच्चारण करके हवन करे; क्योंकि यह श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण गायत्रीमय कहा गया है ॥ ६१-६२ ॥
कथावाचकको वस्त्र, भूषण, धन आदिके द्वारा सन्तुष्ट करे; क्योंकि कथावाचकके प्रसन्न होनेपर सभी देवता उसपर प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ६३ ॥
श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराये और नानाविध दक्षिणाओंसे उन्हें सन्तुष्ट करे; क्योंकि वे विप्र पृथ्वीपर देवताके स्वरूप हैं। उनके सन्तुष्ट होनेपर वांछित फल प्राप्त होता है ॥ ६४ ॥
सुहागिन स्त्रियों तथा कुमारी कन्याओंको साक्षात् देवी समझकर उन्हें भोजन कराये और उन्हें दक्षिणा देकर अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये प्रार्थना करे ॥ ६५ ॥
सुवर्ण, दूध देनेवाली गौ, हाथी, घोड़े और भूमिका दान करना चाहिये; क्योंकि उसका अक्षय फल होता है ॥ ६६ ॥
सुन्दर अक्षरोंमें लिखी देवीभागवतकी पुस्तकको रेशमी-वस्त्रमें लपेटकर उसे सुवर्णनिर्मित सिंहासनपर रखकर अष्टमी या नवमी तिथिको विधिपूर्वक कथावाचकको दान करना चाहिये। ऐसा करनेसे वह इस संसारमें सभी सुखोंको भोगकर अन्तमें दुर्लभ मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ६७-६८ ॥
पुराणको जाननेवाला वक्ता चाहे दरिद्र हो, दुर्बल हो, बालक हो, युवक हो अथवा वृद्ध हो, वह सर्वदा वन्दनीय पूज्य एवं मान्य होता है ॥ ६९ ॥
यद्यपि संसारमें जन्म अथवा गुणके कारण अनेक गुरु हैं, परंतु पुराणका ज्ञाता उन सबमें श्रेष्ठ गुरु है ॥ ७० ॥
व्यासके आसनपर बैठा हुआ पौराणिक ब्राह्मण जबतक कथा समाप्त न हो जाय, तबतक किसीको भी प्रणाम न करे ॥ ७१ ॥
जो लोग इस दिव्य पौराणिक कथाको श्रद्धारहित होकर सुनते हैं, उन दुःख तथा दारिद्र्य-युक्त मनुष्योंको कथाश्रवणका पुण्य फल प्राप्त नहीं होता ॥ ७२ ॥
जो लोग ताम्बूल, पुष्प आदि उपचारोंसे पुराणका पूजन किये बिना ही देवीकी कथा सुनते हैं, वे दरिद्र होते हैं और जो लोग कथाके बीचमें ही उसे छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं, कुछ ही समय बाद उनकी सम्पदाएँ एवं स्त्री आदि नष्ट हो जाती हैं ॥ ७३-७४ ॥
जो अभिमानवश व्याससे ऊँचे स्थानपर बैठकर कथा सुनते हैं, वे नरक-यातना भोगकर इस लोकमें कौएकी योनि पाते हैं ॥ ७५ ॥ ।
जो बहुमूल्य आसनपर अथवा वीरासनसे बैठकर दिव्य कथाका श्रवण करते हैं, वे ‘अर्जुन’ वृक्ष होते हैं ॥ ७६ ॥
कथा होते समय जो लोग व्यर्थ तर्क-वितर्क करते हैं, वे इस लोकमें पहले गर्दभयोनिमें तत्पश्चात् गिरगिटकी योनिमें जाते हैं ॥ ७७ ॥
जो लोग पुराण जाननेवालोंकी अथवा पापनाशिनी कथाकी निन्दा करते हैं, वे सैकड़ों जन्मतक दुष्ट कुत्ते होते हैं; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७८ ॥
जो लोग कथावाचकके बराबर आसनपर बैठकर कथा सुनते हैं, उन्हें गुरुके आसनपर बैठनेका पाप लगता है और वे नरकमें वास करते हैं।
जो लोग वक्ताको प्रणाम किये बिना ही कथा सुनने लगते हैं, वे जन्मान्तरमें विषैले वृक्ष होते हैं। इसी प्रकार जो लोग लेटे-लेटे कथा सुनते हैं; वे अजगर, साँपकी योनि पाते हैं ॥ ७९-८० ॥
जो मनुष्य कभी भी पुराणकी कथा नहीं सुनते, वे घोर नरक भोगकर बनैले सूअरकी योनिमें जाते हैं। जो शठ मनुष्य कथाका अनुमोदन नहीं करते अपितु उसमें विघ्न डाला करते हैं, वे करोड़ों वर्षोंतक नरक-यातना भोगकर अन्तमें ग्रामसूकर होते हैं ॥ ८१-८२ ॥
जो लोग पुराणवेत्ताको आसन, पात्र, द्रव्य, फल, वस्त्र तथा कम्बल प्रदान करते हैं, वे भगवान्के परम पदको प्राप्त करते हैं ॥ ८३ ॥
जो मनुष्य पुराणपुस्तकके लिये नवीन रेशमी वस्त्र तथा सुन्दर सूत्रका दान करते हैं, वे सुखी रहते हैं ॥ ८४ ॥
सभी पुराणोंके सुननेसे जो फल प्राप्त होता है, उससे सौगुना पुण्य श्रीमद्देवीभागवतपुराणके श्रवणसे होता है ॥ ८५ ॥
जिस प्रकार नदियोंमें गंगा श्रेष्ठ हैं; देवताओंमें शिव, काव्योंमें वाल्मीकीय रामायण तथा तेजस्वियोंमें भगवान् सूर्य श्रेष्ठ हैं; और जैसे आनन्द देनेवालोंमें चन्द्रमा, सब धनोंमें सुयश, क्षमाशीलोंमें पृथ्वी, गम्भीरतामें समुद्र, मन्त्रोंमें गायत्री तथा पापनाशके उपायोंमें भगवत्स्मरण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार अठारहों पुराणोंमें यह श्रीमद्देवीभागवतपुराण सर्वश्रेष्ठ है ॥ ८६-८८ ॥
जिस किसी भी उपायसे यदि कोई मनुष्य इस महापुराणकी नौ आवृत्तियाँ सुन ले तो उसके फलका वर्णन नहीं किया जा सकता, वह तो जीवन्मुक्त ही हो जाता है ॥ ८९ ॥
किसी शत्रु राजासे भय होनेपर, महामारीके समय, अकाल पड़नेपर तथा राष्ट्र-भंगके अवसरपर उसकी शान्तिके लिये यह पुराण सुनना चाहिये ॥ ९० ॥ हे विप्रो ! भूत-प्रेतादिके शमनके लिये, शत्रुसे राज्य प्राप्त करनेके लिये और पुत्र-प्राप्तिके लिये श्रीमद्देवीभागवतका श्रवण करना चाहिये ॥ ९१ ॥
जो देवीभागवतके आधे श्लोक या चौथाई श्लोकको भी प्रतिदिन सुनता या पढ़ता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है ॥ ९२ ॥
स्वयं भगवती जगदम्बाने इस पुराणको सर्वप्रथम केवल आधे श्लोकमें ही प्रकाशित किया, वही बादमें शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा देवीभागवतके रूपमें विस्तृत कर दिया गया ॥ ९३ ॥
गायत्रीसे बढ़कर न कोई धर्म है, न तप है, न कोई देवता है और न कोई मन्त्र ही है ॥ ९४ ॥
भगवती अपना गुणगान करनेवालेकी रक्षा करती हैं, इसी कारणसे उन्हें गायत्री कहा जाता है। वे भगवती गायत्री इस पुराणमें अपने रहस्योंसहित विराजती हैं।
अतः भगवतीको प्रसन्न करनेवाले इस देवीभागवतकी सोलहवीं कलाके समान भी अन्य महापुराण नहीं हो सकते ॥ ९५-९६ ॥
श्रीमद्देवीभागवतपुराण अत्यन्त निर्मल है। जो ब्राह्मणोंका अमूल्य धन है और जिसमें स्वयं धर्मपुत्र नारायणने पवित्र धर्मका वर्णन किया है। इसमें श्रीगायत्रीदेवीका रहस्य एवं मणिद्वीपका सम्यक् वर्णन किया गया है।
साथ ही इसमें हिमालयके प्रति स्वयं भगवतीद्वारा कही गयी देवीगीता विद्यमान है ॥ ९७ ॥ इस कारण हे विप्रो ! इस महापुराणके सदृश दूसरा कोई उत्तम पुराण लोकमें नहीं है, अतः आपलोग सदा इस श्रीमद्देवीभागवतका भलीभाँति सेवन करें ॥ ९८ ॥
जिनके सम्पूर्ण प्रभावको ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा भगवान् शेष भी भलीभाँति नहीं जान सकते जबकि वे उन्हींके अंशज भी हैं, तब दूसरे देवता उन्हें कैसे जान सकेंगे ? उन भगवती जगदम्बिकाको मेरा निरन्तर प्रणाम है ॥ ९९ ॥
जिनके चरण-कमलोंकी धूलि पाकर ब्रह्मा समस्त संसारकी रचना करते हैं, भगवान् विष्णु निरन्तर पालन करते हैं और रुद्र संहार करते हैं; दूसरे किसी उपायसे वे अपना-अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं हो सकते-ऐसी उन भगवती जगदम्बिकाको मेरा सतत प्रणाम है ॥ १०० ॥
अमृत-सागरके तटपर कल्पवृक्षकी वाटिकासे सुशोभित मणिद्वीपमें स्थित बहुवर्णचित्रित चिन्ता- मणिमय भवनमें तथा परम शिवके हृदयमें विराजमान रहनेवाली और मन्द-मन्द मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाली जगदम्बाका ध्यान करके मनुष्य सांसारिक सुखोंका उपभोग करता है और अन्तमें निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करता है ॥ १०१ ॥
इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र-आदि देवताओं एवं समस्त महर्षियोंद्वारा पूजित मणि- द्वीपनिवासिनी वे भगवती संसारका कल्याण करती | रहें ॥ १०२ ॥
इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्ये देवीभागवत- श्रवणविधिवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
॥ समाप्तमिदं श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्यम् ॥