(Devi Bhagwat puran mahima chapter 4(देवी भागवत पुराण महिमाचतुर्थोऽध्यायःश्रीमद्देवीभागवतके माहात्म्यके प्रसंगमें रेवती नक्षत्रके पतन और पुनः स्थापनकी कथा तथा श्रीमद्देवीभागवतके श्रवणसे राजा दुर्दमको मन्वन्तराधिप-पुत्रकी प्राप्ति)
[अथ चतुर्थोऽध्यायः]
सूतजी बोले- इस अलौकिक एवं विचित्र कथाको सुनकर पुनः सुननेकी इच्छावाले अगस्त्यजीने बड़ी विनम्रतापूर्वक भगवान् कार्तिकेयसे कहा- ॥ १ ॥
अगस्त्यजी बोले- हे देवसेनापते ! हे देव! मैंने यह विचित्र कथा सुन ली, अब आप श्रीमद्देवीभागवतका दूसरा माहात्म्य मुझे बतायें ॥ २ ॥
कार्तिकेयजी बोले- हे मित्रावरुणसे प्रकट होनेवाले मुने ! अब आप यह कथा सुनें, जिसके एक अंशमें भागवतकी महिमा कही गयी हो, धर्मका विशद वर्णन किया गया हो और गायत्रीका प्रसंग आरम्भ करके उसकी महिमा दर्शायी गयी हो, उसे भागवतके रूपमें जाना जाता है ॥ ३-४ ॥
यह पुराण देवी भगवतीके माहात्म्यसे परिपूर्ण होनेके कारण देवीभागवत कहा जाता है। वे परा भगवती ब्रह्मा, विष्णु और महेशकी आराध्या हैं ॥ ५ ॥
ऋतवाक् नामसे विख्यात एक महान् बुद्धिसम्पन्न मुनि थे। रेवती नक्षत्रके अन्तिम भाग गण्डान्तयोगमें उनके यहाँ समयानुसार एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ६ ॥
उन्होंने उस पुत्रकी जातकर्म आदि क्रियाएँ तथा चूडाकरण एवं उपनयन आदि संस्कार भी विधिपूर्वक सम्पन्न किये ॥ ७ ॥
महात्मा ऋतवाक्के यहाँ जबसे वह पुत्र उत्पन्न हुआ, उसी समयसे वे शोक तथा रोगसे ग्रस्त रहने लगे और क्रोध एवं लोभने उन्हें घेर लिया। उस बालककी माता भी अनेक रोगोंसे ग्रसित होकर नित्य शोकाकुल और अति दुःखी रहने लगीं ॥ ८-९ ॥
मुनि ऋतवाक् अत्यन्त दुःखी और चिन्तित होकर सोचने लगे कि ऐसा क्या कारण है कि मेरे यह अत्यन्त दुर्मति पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ १० ॥
[ तरुणावस्थाको प्राप्त होनेपर] उसने किसी मुनिपुत्रकी पत्नीका बलपूर्वक हरण कर लिया। वह दुर्बुद्धि अपने माता-पिताकी शिक्षाओंपर कभी भी ध्यान नहीं देता था ॥ ११ ॥
तदनन्तर अत्यन्त दुःखित मनवाले ऋतवाक्ने यह कहा कि मनुष्योंके लिये पुत्रहीन रह जाना अच्छा है, किंतु कुपुत्रकी प्राप्ति कभी भी ठीक नहीं है ॥ १२ ॥
कुपुत्र स्वर्गमें गये हुए पितरोंको भी नरकमें गिरा देता है। वह जबतक जीवित रहता है, तबतक माता-पिताको केवल कष्ट ही देता रहता है ॥ १३ ॥
अतएव माता-पिताको कष्ट पहुँचानेवाले पापी कुपुत्रके जन्मको धिक्कार है। ऐसा पुत्र मित्रोंका न तो उपकार कर सकता है और न शत्रुओंका अपकार ही ॥ १४ ॥
संसारमें वे मानव धन्य हैं, जिनके घरमें परोपकारपरायण तथा माता-पिताको सुख देनेवाला पुत्र हुआ करता है ॥ १५ ॥
कुपुत्रसे कुल नष्ट हो जाता है, कुपुत्रसे यश नष्ट हो जाता है और कुपुत्रसे लौकिक तथा पारलौकिक-दोनों जगत्में दुःख तथा नारकीय यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं ॥ १६ ॥
कुपुत्रसे वंश नष्ट हो जाता है, दुष्ट पत्नीसे जीवन नष्ट हो जाता है, विकृत भोजनसे दिन व्यर्थ चला जाता है और दुरात्मा मित्रसे सुख कहाँसे मिल सकता है ! ॥ १७ ॥
कार्तिकेयजी बोले – [हे अगस्त्यजी!] अपने दुष्ट पुत्रके दुराचरणोंसे निरन्तर सन्तप्त रहते हुए मुनि ऋतवाक्ने किसी दिन गर्गऋषिके पास जाकर पूछा- ॥ १८ ॥
ऋतवाक् बोले – हे भगवन् ! हे ज्योतिषशास्त्रके आचार्य ! मैं आपसे अपने पुत्रकी दुःशीलताका कारण पूछना चाहता हूँ। हे प्रभो! आप उसे बतायें ॥ १९ ॥
गुरुकी निरन्तर सेवा करते हुए मैंने विधिपूर्वक वेदाध्ययन किया और ब्रह्मचर्यव्रत पूर्ण करके विधि- विधानके साथ विवाह किया ॥ २० ॥
अपनी भार्याके साथ मैंने गृहस्थधर्मका सदैव यथोचित पालन किया और विधिपूर्वक पंचयज्ञका अनुष्ठान किया ॥ २१ ॥
हे विप्र ! नरकप्राप्तिके भयसे बचनेके लिये पुत्र प्राप्त करनेकी कामनासे मैंने विधिवत् गर्भाधान किया | था न कि वासनात्मक सुखप्राप्तिकी इच्छासे ॥ २२ ॥
हे मुने ! दुःखदायी, माता-पिताके प्रति उद्दण्ड तथा बन्धु-बान्धवोंको पीड़ा पहुँचानेवाला यह पुत्र मेरे दोषसे अथवा अपनी माताके दोषसे उत्पन्न हुआ ? ॥ २३ ॥
तब ज्योतिषशास्त्रके ज्ञाता गर्गाचार्यने मुनि ऋतवाक्का यह वचन सुनकर सभी कारणोंपर सम्यक् रूपसे विचार करके कहा ॥ २४ ॥
गर्गाचार्यजी बोले- हे मुने ! इसमें न तो आपका दोष है, न बालककी माताका दोष है और न तो कुलका दोष है। रेवती नक्षत्रका अन्तिम भाग- गण्डान्तयोग ही इस बालककी दुर्विनीतताका कारण है ॥ २५ ॥
हे मुने ! अशुभ वेलामें आपके पुत्रका जन्म हुआ है, इसी कारण यह आपको दुःख दे रहा है; इसमें लेशमात्र भी अन्य कोई कारण नहीं है ॥ २६ ॥
अतः हे ब्रह्मन् ! इस दुःखके शमनके लिये आप प्रयत्नपूर्वक समस्त दुर्गतियोंका विनाश करनेवाली कल्याणी जगदम्बा दुर्गाकी आराधना कीजिये ॥ २७ ॥
गर्गाचार्यजीका वचन सुनकर ऋतवाक्मुनि क्रोधसे मूच्छित हो गये और उन्होंने रेवतीको शाप दे दिया कि वह आकाशसे नीचे गिर जाय ॥ २८ ॥
ऋतवाक्के शाप देते ही चमकता हुआ रेवती नक्षत्र सभी लोगोंके देखते-देखते आकाशसे कुमुदपर्वतपर जा गिरा ॥ २९ ॥
वह कुमुदपर्वत रेवतीके गिरनेके कारण रैवतक नामसे प्रसिद्ध हुआ और उसी समयसे वह अत्यन्त रमणीक हो गया ॥ ३० ॥
रेवतीको शाप देकर मुनि ऋतवाक्ने महर्षि गर्गद्वारा बताये गये विधानके अनुसार देवी भगवतीकी सम्यक् आराधनाकर सुख और सौभाग्य प्राप्त किया ॥ ३१ ॥
कार्तिकेयजी बोले [हे अगस्त्यजी!] उस रेवती नक्षत्रके महान् तेजसे एक कन्या उत्पन्न हुई, जो अनुपम रूपवती होनेके कारण लोकमें दूसरी लक्ष्मीकी भाँति प्रतीत हो रही थी ॥ ३२ ॥
रेवती नक्षत्रकी कान्तिसे प्रादुर्भूत उस कन्याको देखकर मुनि प्रमुचने प्रसन्न होकर उसका ‘रेवती’- | यह नाम रख दिया ॥ ३३ ॥
तदनन्तर ब्रह्मर्षि प्रमुच उसे कुमुदाचलपर स्थित अपने आश्रममें ले आये और पुत्रीकी भाँति उसका धर्मपूर्वक पालन-पोषण करने लगे ॥ ३४ ॥
समय पाकर यौवनको प्राप्त उस रूपवती कन्याको देखकर मुनिने विचार किया कि इस कन्याके योग्य वर कौन होगा ? ॥ ३५ ॥
बहुत अन्वेषणके बाद भी जब मुनिको उसके योग्य कोई वर नहीं मिला, तब वे अग्निशालामें प्रवेश करके अग्निदेवकी स्तुति करने लगे ॥ ३६ ॥
प्रमुचऋषिके स्तुति-गानसे प्रसन्न होकर अग्निदेवने कन्याके योग्य वरका संकेत करते हुए कहा- हे मुने ! इस कन्याके पति धर्मपरायण, बलशाली, वीर, प्रिय भाषण करनेवाले और अपराजेय राजा दुर्दम होंगे। तब अग्निदेवके इस वचनको सुनकर मुनि अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ ३७-३८ ॥
संयोगसे उसी समय आखेटके बहाने दुर्दम नामक प्रतिभाशाली राजा मुनि प्रमुचके आश्रममें आ गये ॥ ३९ ॥
बलवान् तथा अप्रतिम ओजसे सम्पन्न वे प्रियव्रतके वंशज राजा दुर्दम विक्रमशीलके पुत्र थे और कालिन्दीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे ॥ ४० ॥
मुनिके आश्रममें प्रवेशकर और उन्हें वहाँ न देखकर राजा दुर्दमने रेवतीको ‘प्रिये’ – इस शब्दसे सम्बोधित करके पूछा ॥ ४१ ॥
राजा बोले- हे प्रिये ! महर्षि भगवान् प्रमुच इस आश्रमसे कहाँ गये हुए हैं? हे कल्याणि ! मुझे सच-सच बताओ; मैं उनके चरणोंका दर्शन करना चाहता हूँ ॥ ४२ ॥
कन्या बोली- हे महाराज ! महामुनि अग्निशालामें गये हुए हैं। राजा भी यह वचन सुनकर शीघ्रतापूर्वक आश्रमसे बाहर निकल आये ॥ ४३ ॥
इसके बाद प्रमुचमुनिने राजलक्षणसम्पन्न एवं विनयावनत राजा दुर्दमको अग्निशालाके द्वारपर स्थित देखा ॥ ४४ ॥
मुनिको देखकर राजाने प्रणाम किया और तदनन्तर मुनि प्रमुचने शिष्यसे कहा- हे गौतम ! ये राजा अर्घ्य पानेके योग्य हैं, अतः शीघ्र ही इनके लिये-
अर्घ्य ले आओ। बहुत दिन बाद ये पधारे हुए हैं और विशेषरूपसे ये हमारे जामाता हैं- ऐसा कहकर मुनिने राजाको अर्घ्य प्रदान किया और राजाने भी विचार करते हुए उसे ग्रहण किया ॥ ४५-४६ ॥
तत्पश्चात् राजाके अर्घ्य ग्रहण करके आसनपर बैठ जानेके उपरान्त मुनि प्रमुचने उन्हें आशीर्वचनोंसे अभिनन्दित करके उनका कुशल-क्षेम पूछा- हे राजन् ! आप स्वस्थ तो हैं?
आपकी सेना, कोष, बन्धु- बान्धव, सेवकगण, सचिव, नगर, देश आदिकी सर्वविध कुशलता तो है ? हे नरेश! आपकी भार्या तो यहीं विद्यमान है और वह सकुशल है। अतएव, मैं उसकी कुशलता नहीं पूछेंगा, आप अपनी अन्य स्त्रियोंका कुशल-क्षेम बताइये ॥ ४७-४९ ॥
राजा बोले- हे भगवन् ! आपके कृपाप्रभावसे मेरी सर्वविध कुशलता है। हे ब्रह्मन् ! अब मेरी यह जिज्ञासा है कि मेरी कौन-सी भार्या यहाँ है ? ॥ ५० ॥
ऋषि बोले- हे पृथ्वीपते ! संसारमें अप्रतिम लावण्यसे सम्पन्न रेवती नामक आपकी पत्नी यहाँ ही रहती है। क्या आप उसे नहीं जानते ? ॥ ५१ ॥
राजा बोले- हे प्रभो ! सुभद्रा आदि मेरी पत्नियाँ तो घरपर ही हैं। हे भगवन् ! मैं तो केवल उन्हें ही जानता हूँ। मैं रेवतीको तो नहीं जानता ॥ ५२ ॥
ऋषि बोले- हे महामते ! हे राजन् ! इसी समय ‘प्रिये’ के सम्बोधनसे आपने जिससे पूछा था, अपनी उस योग्यतम प्रियाको आपने क्षणभरमें ही भुला दिया ! ॥ ५३ ॥
राजा बोले- हे मुने ! आपने जो कहा, वह असत्य नहीं है; किंतु मैंने तो सामान्यरूपसे ऐसा कह दिया था। इसमें मेरा कोई दूषित भाव नहीं था, अतः आप मेरे ऊपर क्रोध न करें ॥ ५४ ॥
ऋषि बोले- हे राजन् ! आपका भाव दूषित नहीं था अपितु आपने सत्य ही कहा था। अग्निदेवके द्वारा प्रेरित किये जानेपर ही आपने ऐसा कहा था ॥ ५५ ॥
‘इसका पति कौन होगा’ – ऐसा मेरे द्वारा आज
अग्निदेवसे पूछे जानेपर उन्होंने कहा था कि इसके
पति निश्चितरूपसे राजा दुर्दम ही होंगे ॥ ५६ ॥
५६
हे महीपते ! अतः मेरे द्वारा प्रदत्त इस कन्याको आप स्वीकार कीजिये। आप इसे ‘प्रिये’ ऐसा सम्बोधित भी कर चुके हैं। अतएव अब शंकारहित होकर किसी अन्य विचारमें न पड़ें ॥ ५७ ॥
मुनिका यह वचन सुनकर राजा दुर्दम चिन्तन करते हुए चुप हो गये और मुनि उनके वैवाहिक अनुष्ठानकी तैयारीमें जुट गये ॥ ५८ ॥
इसके बाद विवाह-कार्यके लिये मुनिको तत्पर देखकर रेवतीने कहा- हे तात! आप मेरा विवाह रेवती नक्षत्रमें ही सम्पन्न करायें ॥ ५९ ॥
ऋषि बोले- वत्से ! विवाहके योग्य अन्य बहुत-से नक्षत्र हैं। रेवती नक्षत्रमें विवाह कैसे होगा; क्योंकि रेवती तो आकाशमें स्थित है ही नहीं ॥ ६० ॥
कन्या बोली- रेवती नक्षत्रके अतिरिक्त अन्य कोई भी नक्षत्र मेरे विवाहके लिये उचित नहीं है। अतः मैं प्रार्थना करती हूँ कि आप मेरा विवाह रेवती नक्षत्रमें ही करें ॥ ६१ ॥
ऋषि बोले- पूर्वकालमें मुनि ऋतवाक्ने रेवती नक्षत्रको पृथ्वीपर गिरा दिया था। इस प्रकार अन्य नक्षत्रमें यदि तुम्हारी श्रद्धा नहीं है, तब तुम्हारा विवाह कैसे होगा ? ॥ ६२ ॥
कन्या बोली – तात ! क्या केवल एक ऋतवाक्ने ही तपश्चर्या की है? क्या आपने मन-वचन-कर्मसे ऐसी तपःसाधना नहीं की है ? ॥ ६३ ॥
हे पिताजी ! मैं आपके तपोबलको जानती हूँ; आप जगत्की सृष्टि करनेमें समर्थ हैं। अतः आप अपने तपके प्रभावसे रेवतीको पुनः आकाशमें स्थापित करके उसी नक्षत्रमें मेरा विवाह कीजिये ॥ ६४ ॥
ऋषि बोले- तुम्हारा कल्याण हो। तुम जैसा मुझसे कह रही हो, वैसा ही होगा, तुम्हारे हितार्थ मैं आज ही रेवती नक्षत्रको सोममार्ग (नक्षत्र-मण्डल) – में स्थापित करूँगा ॥ ६५ ॥
कार्तिकेयजी बोले- हे अगस्त्यजी ! ऐसा
कहकर मुनिने अपने तपोबलसे शीघ्र ही पूर्वकी भाँति रेवती नक्षत्रको फिरसे नक्षत्र-मण्डलमें स्थापित कर दिया ॥ ६६ ॥
तदनन्तर मुनि प्रमुचने रेवती नक्षत्रमें वैवाहिक विधिके अनुसार महात्मा राजा दुर्दमको वह रेवती कन्या सौंप दी ॥ ६७ ॥
इस प्रकार कन्याका विवाह कर देनेके उपरान्त मुनिने राजासे कहा- हे वीर ! तुम्हारी क्या अभिलाषा है ? मुझे बताओ, मैं उसे पूरी करूँगा ॥ ६८ ॥
राजा बोले – हे मुने ! मैं स्वायम्भुव मनुके वंशमें उत्पन्न हुआ हूँ, अतः मैं यही कामना करता हूँ कि आपकी कृपासे मुझे मन्वन्तराधिपति पुत्रकी प्राप्ति हो ॥ ६९ ॥
मुनि बोले – यदि आपकी यह अभिलाषा है तो आप देवी भगवतीकी आराधना कीजिये। ऐसा करनेपर आपका पुत्र मनु अवश्य ही मन्वन्तराधिपति होगा ॥ ७० ॥
श्रीमद्देवीभागवत जो पंचम पुराणके रूपमें विख्यात है, उसका पाँच बार श्रवण करनेके उपरान्त आपको मनोवांछित पुत्र प्राप्त होगा ॥ ७१ ॥
रेवतीके गर्भसे उत्पन्न रैवत नामवाला पाँचवाँ मनु वेदवेत्ता, शास्त्रोंके तत्त्वोंको जाननेवाला, धर्मपरायण तथा अपराजेय होगा ॥ ७२ ॥
मुनि प्रमुचके इस प्रकार कहनेपर प्रसन्न होकर प्रतिभासम्पन्न राजा दुर्दमने मुनिको प्रणाम किया और वे भार्या रेवतीके साथ अपने नगर चले गये ॥ ७३ ॥ महामति राजा दुर्दमने अपने पिता-पितामहसे प्राप्त राज्यपर शासन किया और उस धर्मात्माने औरस
पुत्रोंकी भाँति अपनी प्रजाओंका पालन किया ॥ ७४ ॥ एक बार उनके यहाँ महात्मा लोमशऋषि पधारे। राजा दुर्दमने उन्हें प्रणाम किया और उनका विधिवत् पूजनकर दोनों हाथ जोड़कर कहा ॥ ७५ ॥
राजा बोले- हे भगवन् ! हे मुने ! यदि आप कृपा करें तो मैं पुत्र-प्राप्तिकी कामनासे आपसे देवीभागवत नामक पुराण सुनना चाहता हूँ ॥ ७६ ॥ राजाका यह वचन सुनकर लोमशमुनि प्रसन्न
हो गये और बोले- हे राजन् ! आप धन्य हैं; क्योंकि तीनों लोकोंकी जननी देवी भगवतीमें आपकी ऐसी भक्ति हो गयी है। देव, दानव तथा मानवकी आराध्या परा भगवती जगदम्बामें यदि आपकी भक्ति उत्पन्न हुई है तो आपकी कार्य-सिद्धि | अवश्य होगी ॥ ७७-७८ ॥
अतएव हे राजन् ! मैं आपको श्रीमद्देवीभागवत सुनाऊँगा, जिसके सुननेमात्रसे कुछ भी दुष्प्राप्य नहीं रह जाता ॥ ७९ ॥
हे ब्रह्मन् ! ऐसा कहकर मुनिने किसी शुभ दिनमें कथाका आरम्भ किया। अपनी पत्नीके साथ राजाने पाँच बार श्रीमद्देवीभागवतपुराणका विधिवत् श्रवण किया ॥ ८० ॥
कथा-समाप्तिके दिन धर्मनिष्ठ राजा दुर्दमने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक श्रीमद्देवीभागवतपुराण तथा लोमशमुनिकी पूजा की ॥ ८१ ॥
राजाने नवार्णमन्त्रसे हवन करके कुमारी कन्याओंको भोजन कराया और सपत्नीक ब्राह्मणोंको प्रभूत दक्षिणादानद्वारा संतुष्ट किया ॥ ८२ ॥
कुछ समय बीत जानेपर भगवतीकी कृपासे उस रानी रेवतीने लोककल्याणकारी गर्भ धारण किया ॥ ८३ ॥
इसके बाद जब समस्त ग्रह-नक्षत्र अपने-अपने अनुकूल स्थानोंपर थे और सभी मांगलिक कृत्य सम्पन्न हो गये थे-ऐसे शुभ समयमें रेवतीने पुत्रको जन्म दिया ॥ ८४ ॥
पुत्रके जन्मका समाचार सुनकर राजा दुर्दम अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने स्नान करके स्वर्ण- कलशके जलसे पुत्रका जातकर्म आदि संस्कार सम्पन्न किया ॥ ८५ ॥
तदनन्तर राजाने विधिपूर्वक दान देकर ब्राह्मणोंको संतुष्ट किया। समयपर पुत्रका उपनयन- संस्कार करके राजाने अपने पुत्रको अंगोंसहित वेदोंका अध्ययन कराया ॥ ८६ ॥
इस प्रकार राजाका वह रैवत नामक तेजस्वी पुत्र समग्र विद्याओंका निधान, धर्मपरायण, अस्त्र- विशारदोंमें श्रेष्ठ, धर्मका वक्ता तथा धर्मका पालनकर्ता हो गया ॥ ८७ ॥
इसके बाद ब्रह्माजीने रैवतको मनुके पदपर नियुक्त किया और वे श्रीमान् मन्वन्तराधिपके रूपमें धर्मपूर्वक पृथ्वीपर शासन करने लगे ॥ ८८ ॥
इस प्रकार मैंने देवी भगवतीके इस प्रभावका संक्षिप्तरूपसे वर्णन कर दिया। इस श्रीमद्देवीभागवत- पुराणके माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन करनेमें कौन समर्थ है ? ॥ ८९ ॥
सूतजी बोले- [हे ब्राह्मणो!] इस प्रकार श्रीमद्देवीभागवतका माहात्म्य तथा उसकी विधि सुनकर और कुमार कार्तिकेयकी पूजाकर अगस्त्यजी अपने आश्रम चले आये ॥ ९० ॥
हे विप्रो ! मैंने आपलोगोंके समक्ष श्रीमद्देवी- भागवतका यह माहात्म्य कह दिया। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसका श्रवण तथा पाठ करता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण भोगोंका सुख प्राप्त करके अन्तमें मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ९१ ॥
इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्ये रैवतनामक- मनुपुत्रोत्पत्तिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥