Devi bhagwat puran mahima chapter 2(देवी भागवत पुराण महिमा द्वितीयोऽध्यायःश्रीमद्देवीभागवतके माहात्म्यके प्रसंगमें स्यमन्तकमणिकी कथा)

Devi bhagwat puran mahima chapter 2(देवी भागवत पुराण महिमा द्वितीयोऽध्यायःश्रीमद्देवीभागवतके माहात्म्यके प्रसंगमें स्यमन्तकमणिकी कथा) 

 

-ऋषिगण बोले – महाभाग वसुदेवजीने अपने पुत्रको किस प्रकार प्राप्त किया और वनमें भ्रमण करते हुए श्रीकृष्णने प्रसेनको कैसे खोजा ?

 

हे सुमते ! हे सूतजी ! किस विधिसे और किससे वसुदेवजीने श्रीमद्देवीभागवतपुराणका श्रवण किया; आप हमलोगोंको यह कथा बतायें ॥ १-२ ॥

 

सूतजी बोले – भोजवंशी सत्राजित् द्वारकापुरीमें आनन्दपूर्वक निवास करता हुआ सूर्यकी आराधनामें तत्पर रहता था। वह सूर्यका परम भक्त एवं उनका मित्र था ॥ ३ ॥

 

कुछ समयके पश्चात् सूर्यदेव उसके ऊपर प्रसन्न हो गये और उन्होंने उसे अपने लोकका दर्शन कराया। उसकी भक्ति तथा प्रेमसे अत्यन्त प्रसन्न हुए भगवान् सूर्यने सत्राजित्को स्यमन्तकमणि दे दी और वह उस मणिको अपने गलेमें धारण किये हुए द्वारका आ गया ॥ ४-५ ॥

 

उसे देखकर मणिके तेजसे भ्रमित नागरिकोंने सत्राजित्को सूर्य समझकर सुधर्मा नामक अपनी सभामें विराजमान श्रीकृष्णके पास पहुँचकर उनसे कहा ॥ ६ ॥

 

हे जगत्पते ! आपके दर्शनकी अभिलाषासे भगवान् सूर्य स्वयं आपके पास आ रहे हैं। यह बात सुनकर सभामें श्रीकृष्ण हँसकर बोले ॥ ७ ॥

 

हे बाल-स्वभाव नागरिको ! ये सूर्यभगवान् नहीं हैं; बल्कि सत्राजित् है, जो स्वयं सूर्यद्वारा प्रदत्त स्यमन्तक-मणिसे दीप्तिमान् होता हुआ यहाँ आ | रहा है ॥ ८ ॥

 

उसके पश्चात् ब्राह्मणोंको बुलाकर सत्राजित्ने स्वस्तिवाचन कराया और भलीभाँति पूजन करके उस मणिको अपने घरमें स्थापित किया ॥ ९ ॥

 

वह मणि जहाँ रहती थी, वहाँ किसी प्रकारकी महामारी, दुर्भिक्ष तथा उपसर्ग (भूकम्प आदि प्राकृतिक संकट) का भय उत्पन्न नहीं होता था और (उस मणिकी एक विशेषता यह भी थी कि वह नित्य आठ भार* स्वर्ण दिया करती थी ॥ १० ॥

 

तदनन्तर एक दिन सत्राजित्के भाई प्रसेनने उस मणिको गलेमें धारणकर सिन्धुदेशीय घोड़ेपर सवार होकर आखेटके लिये वनकी ओर प्रस्थान किया। वहाँ वनमें किसी सिंहने उसे देखा और घोड़ेसहित प्रसेनको मारकर सिंहने वह मणि स्वयं ले ली ॥ ११-१२ ॥

 

इसके पश्चात् महाबली ऋक्षराज जाम्बवान्ने मणि धारण करनेवाले उस सिंहको अपनी गुफाके द्वारपर देखकर और उसे मारकर मणि स्वयं ले ली ॥ १३ ॥

 

पराक्रमी ऋक्षराजने वह मणि खेलनेके लिये अपने पुत्रको दे दी और वह बालक भी उस प्रदीप्त मणिको पाकर उसके साथ खेलने लगा ॥ १४ ॥

 

कुछ काल बीतनेपर भी प्रसेनके वापस न लौटनेपर सत्राजित् अत्यन्त दुःखी हुआ और सोचने लगा कि मणि लेनेकी इच्छासे न जाने किसने प्रसेनको मार डाला ॥ १५ ॥

 

इसी बीच द्वारकापुरमें नागरिकोंकी पारस्परिक बात-चीतसे किसी प्रकार यह किंवदन्ती फैल गयी कि मणिके लोभके वशीभूत श्रीकृष्णने ही प्रसेनका वध किया है ॥ १६ ॥

 

श्रीकृष्णने भी जब अपने विषयमें अपयशकी वह बात सुनी तो उन्होंने अपने ऊपर लगे हुए कलंकके परिमार्जनहेतु प्रसेनके अन्वेषणार्थ नागरिकोंके | साथ प्रस्थान किया ॥ १७ ॥

 

वनमें पहुँचनेपर श्रीकृष्णने सिंहद्वारा मारे गये प्रसेनको देखा और तदनन्तर गिरे हुए रक्त-बिन्दुओंसे चिह्नित मार्गका अनुसरण करके सिंहको खोजते हुए वे कुछ दूर गये ॥ १८ ॥

 

इसके पश्चात् एक गुफाके द्वारपर मरे हुए सिंहको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण करुणायुक्त वाणीमें नागरिकोंसे बोले- मणिका हरण करनेवालेको खोजनेके लिये मैं इस गुफाके भीतर प्रवेश कर रहा हूँ। जबतक मैं वापस न आ जाऊँ, तुम लोग यहींपर ठहरो ॥ १९-२० ॥

 

वे द्वारकावासी ‘ठीक है’ – ऐसा बोलकर वहींपर ठहर गये और श्रीकृष्ण गुफाके भीतर प्रविष्ट हुए, जहाँ जाम्बवान्का घर था ॥ २१ ॥

 

तत्पश्चात् वहाँ पहुँचनेपर श्रीकृष्णने ऋक्षराजके पुत्रको मणि धारण किये देखकर मणिको छीनना चाहा, इसपर उसकी धात्री (धाय) भयभीत होकर चिल्लाने लगी ॥ २२ ॥

 

तब धात्रीकी आवाज सुनकर जाम्बवान् तुरंत वहाँ आ गया और वह अपने [पूर्व] स्वामी श्रीकृष्णके साथ दिन-रात निरन्तर युद्ध करने लगा ॥ २३ ॥

 

इस प्रकार उन दोनोंके बीच सत्ताईस दिनोंतक भयंकर युद्ध हुआ। इधर द्वारकावासी गुफाके द्वारपर बारह दिनोंतक तो श्रीकृष्णके आगमनकी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे रहे, किंतु इसके बाद वे भयभीत होकर अपने-अपने घर चले गये और वहाँ पहुँचकर उन्होंने लोगोंसे सारा वृत्तान्त कहा ॥ २४-२५ ॥

 

द्वारकापुरीके सभी नागरिक यह सब सुनकर सत्राजित्की भर्त्सना करते हुए अत्यन्त शोकविह्वल हो गये। महाभाग वसुदेवजी अपने पुत्रका वह समाचार सुनकर परिवारसहित महान् शोकसे मूर्छित हो गये और बार-बार सोचने लगे कि मेरा कल्याण किस प्रकारसे हो ? ॥ २६-२७ ॥

 

उसी समय ब्रह्मलोकसे देवर्षि नारद वहाँ आ गये। वसुदेवजीने उठकर उन्हें प्रणाम करके विधिवत् उनकी पूजा की ॥ २८ ॥

 

देवर्षि नारद महामति यदुश्रेष्ठ वसुदेवजीसे कुशल-क्षेम पूछकर उनसे बोले – आप क्यों चिन्तित हैं, यह मुझे बताइये ॥ २९ ॥

 

वसुदेवजी बोले – मेरा अतिशय प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण प्रसेनको खोजनेके लिये द्वारकाके नागरिकोंके साथ वनमें गया था, जहाँ उसने प्रसेनको मरा हुआ देखा।

 

इसके पश्चात् प्रसेनको मारनेवाले सिंहको भी एक गुफाके द्वारपर मरा देखकर श्रीकृष्ण नागरिकोंको द्वारपर ही रोककर स्वयं गुफाके अन्दर चले गये।

 

बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं, किंतु मेरा पुत्र अभीतक नहीं लौटा, जिससे मैं चिन्तित हूँ, अतः हे मुने ! आप कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे मैं अपने प्रिय पुत्रको प्राप्त कर सकूँ ॥ ३०-३२॥

 

नारदजी बोले- हे यदुश्रेष्ठ ! आप पुत्रकी प्राप्तिके लिये अम्बिकादेवीकी आराधना कीजिये। उनकी आराधनासे शीघ्र ही आपका कल्याण होगा ॥ ३३ ॥

 

वसुदेवजी बोले- हे भगवन् ! वे देवी कौन हैं, वे महेश्वरी किस प्रकारके प्रभाववाली हैं तथा उनकी आराधना किस प्रकार की जाती है? हे देवर्षे ! कृपा करके यह बतायें ॥ ३४ ॥

 

नारदजी बोले- हे महाभाग वसुदेव ! देवीके अतुलित माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन करनेमें कौन समर्थ है ? अतः मैं संक्षेपमें ही कह रहा हूँ, आप उसे सुनें ॥ ३५ ॥

 

जो भगवती शाश्वत, सच्चिदानन्दस्वरूपा और परात्परतरा देवी हैं तथा जिनके द्वारा यह जगत् व्याप्त है, जिनकी आराधनाके प्रभावसे ही ब्रह्मा इस चराचर सृष्टिकी रचना करते हैं, जिनका स्तवन करके भगवान् विष्णु मधु-कैटभके भयसे मुक्त हुए तथा जिनकी कृपासे वे विश्वका पालन-पोषण करते हैं,

जिनके कृपा-कटाक्षमात्रसे भगवान् शंकर जगत्का संहार करते हैं और जो संसारके बन्धनकी कारणरूपा हैं, वे ही मुक्ति प्रदान करनेवाली हैं, वे ही परम विद्यास्वरूपा हैं और वे ही समस्त ईश्वरोंकी भी ईश्वरी हैं ॥ ३६-३९ ॥

 

अतः आप नवरात्रविधानके अनुसार जगदम्बाकी विधिवत् पूजा करके नौ दिनोंमें इस श्रीमद्देवीभागवत- पुराणका श्रवण कीजिये,

 

जिसके श्रवणमात्रसे आप शीघ्र ही अपने पुत्रकी प्राप्ति कर लेंगे। इस पुराणका पाठ तथा श्रवण करनेवाले मनुष्योंसे भोग एवं मोक्ष | दूर नहीं रहते ॥ ४०-४१ ॥

 

नारदजीके ऐसा कहनेपर वे वसुदेवजी मुनि- श्रेष्ठ नारदको प्रणाम करके अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ ४२ ॥

 

वसुदेवजी बोले- हे भगवन् ! आपके इस कथनसे देवी-माहात्म्यसे सम्बन्धित एक अपना वृत्तान्त मुझे याद आ गया; मैं उसे कह रहा हूँ, आप सुनिये ॥ ४३ ॥

 

पूर्वकालमें पापी कंसने आकाशवाणीके माध्यमसे देवकीके आठवें गर्भसे अपनी मृत्यु जानकर भयभीत हो भार्यासहित मुझको बन्दी बना लिया ॥ ४४ ॥

 

तदनन्तर मैं अपनी पत्नी देवकीके साथ कारागारमें रहने लगा और पापी कंस भी मेरे पैदा होनेवाले पुत्रोंको एक-एक करके मारता रहा ॥ ४५ ॥

 

इस प्रकार जब कंसके द्वारा मेरे छः पुत्र मार डाले गये तब मेरी निर्दोष भार्या देवी देवकी अत्यन्त शोकाकुल हो उठीं और दिन-रात दुखी रहने लगीं ॥ ४६ ॥

 

तत्पश्चात् गर्गमुनिको बुलाकर उनका अभिवादन तथा पूजन करके पुत्र-प्राप्तिकी कामनासे मैंने उनसे देवकीका दुःख बताकर कहा- हे भगवन्!

 

हे दयासिन्धो ! हे मुनिवर ! आप यदुकुलके गुरु हैं, अतः मुझे आयुष्मान् पुत्रकी प्राप्तिका कोई उपाय बताइये। इसके अनन्तर दयानिधान गर्गजी प्रसन्न होकर मुझसे कहने लगे ॥ ४७-४८३ ॥

 

गर्गजी बोले- हे महाभाग वसुदेव ! अब आप उस सर्वश्रेष्ठ साधनको सुनिये। जो भगवती दुर्गा अपने भक्तोंकी दुर्गतिका विनाश कर देती हैं, आप उन कल्याणकारिणी देवीकी आराधना कीजिये।

 

इससे शीघ्र ही आपका कल्याण होगा; क्योंकि उनकी आराधनासे सभी लोगोंकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। दुर्गाकी उपासना करनेवाले मनुष्योंके लिये संसारमें कुछ भी दुर्लभ नहीं है ॥ ४९-५१ ॥

 

गर्गमुनिके ऐसा कहनेपर मैं प्रसन्न हो गया और अपनी पत्नीसहित मुनिश्रेष्ठ गर्गको परम श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर मैंने उनसे कहा ॥ ५२ ॥

 

वसुदेवजी बोले- हे भगवन् ! हे करुणासागर ! हे गुरो ! यदि आप मुझपर स्नेह रखते हैं तो मेरे कल्याणके निमित्त आप ही उन भगवती चण्डिकाकी आराधना कर दें।

 

मैं तो कंसके घरमें बन्दी रहनेके कारण कुछ भी कर सकनेमें समर्थ नहीं हूँ। अतः हे महामते ! अब आप ही इस दुःखसागरसे मेरा उद्धार कीजिये ॥ ५३-५४॥

 

मेरे इस प्रकार कहनेपर वे मुनिश्रेष्ठ प्रसन्न होकर बोले- हे वसुदेव ! आपकी प्रीतिके कारण मैं आपका कल्याण करूँगा ॥ ५५ ॥

 

मेरे द्वारा प्रीतिपूर्वक प्रार्थना किये जानेके उपरान्त गर्गमुनि देवी दुर्गाकी आराधनाकी इच्छासे ब्राह्मणोंके साथ विन्ध्यपर्वतपर चले गये ॥ ५६ ॥

 

वहाँ जाकर जप एवं पाठमें तत्पर रहते हुए गर्गमुनि जगत्की मातृस्वरूपा और भक्तोंकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली भगवतीकी आराधना करने लगे ॥ ५७ ॥

 

जप-पूजनादि अनुष्ठानोंकी समाप्तिके पश्चात् आकाशवाणी हुई कि हे मुने ! मैं प्रसन्न हो गयी हूँ, अतएव तुम्हारे कार्यकी सिद्धि होगी ॥ ५८ ॥

 

[समस्त प्रकारके पाप एवं अनाचारस्वरूप] पृथ्वीके भारका नाश करनेके लिये मुझसे प्रेरणा प्राप्तकर स्वयं भगवान् विष्णु अपने अंशसे वसुदेवकी भार्या देवकीके गर्भसे अवतार लेंगे ॥ ५९॥

 

कंसके भयसे वसुदेवजी उस शिशुको लेकर शीघ्र ही गोकुलमें नन्दके घर पहुँचा देंगे और वहाँसे यशोदाकी कन्याको लाकर अपने घरमें राजा कंसको दे देंगे। तब कंस उस कन्याको मारनेके लिये उसे पृथ्वीपर पटक देगा ॥ ६०-६१ ॥

 

तदनन्तर उसके हाथसे छूटकर मेरी अंशस्वरूपा वह कन्या तत्क्षण अलौकिक रूप धारण करके विन्ध्यपर्वतपर चली जायगी और निरन्तर जगत्का कल्याण करेगी ॥ ६२ ॥

 

इस प्रकार उस आकाशवाणीको सुनकर गर्गमुनि भगवती जगदम्बाको प्रणाम करके प्रसन्न मनसे मथुरापुरी आ गये ॥ ६३ ॥

 

आचार्य गर्गके मुखसे महादेवीके वरदानकी बात सुनकर मैं पत्नीसहित अत्यन्त प्रसन्न हुआ और परम आनन्दविभोर हो उठा ॥ ६४ ॥

 

तभीसे मैं देवीके अत्युत्तम माहात्म्यको जान रहा हूँ और हे देवर्षे ! आज भी आपके मुखारविन्दसे मैंने वही देवीमाहात्म्य सुना है ॥ ६५ ॥

 

अतः हे प्रभो ! अब आप ही मुझे श्रीमद्देवीभागवत सुनाइये। हे दयानिधान ! मेरे सौभाग्यसे ही आप यहाँ पधारे हुए हैं ॥ ६६ ॥

 

वसुदेवजीका वचन सुनकर प्रसन्न मनवाले नारदजीने शुभ दिन एवं शुभ नक्षत्रमें श्रीमद्देवीभागवतकी कथा आरम्भ की ॥ ६७ ॥

 

कथामें आनेवाली विघ्न बाधाओंके शमनार्थ ब्राह्मण देवीके नवाक्षर (ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे)-मन्त्रका जप तथा मार्कण्डेयपुराणमें वर्णित देवीस्तोत्रका पाठ करने लगे ॥ ६८ ॥

 

प्रथम स्कन्धके आरम्भसे ही वसुदेवजी देवर्षि नारदके मुखसे निःसृत अमृतस्वरूप श्रीमद्देवीभागवत- पुराणका भक्तिपूर्वक श्रवण करने लगे ॥ ६९ ॥

 

नौवें दिन कथाकी समाप्ति होनेपर महामनस्वी वसुदेवजीने श्रीमद्देवीभागवतग्रन्थ तथा कथावाचक दोनोंकी प्रसन्नतापूर्वक पूजा की ॥ ७० ॥

 

उधर कन्दरामें श्रीकृष्ण तथा जाम्बवान्के बीच चल रहे युद्धमें श्रीकृष्णके मुष्टिकाप्रहारोंसे जाम्बवान्‌का शरीर अत्यन्त शिथिल पड़ गया था ॥ ७१ ॥

 

उसी समय जाम्बवान्को भी पूर्वकालकी घटनाएँ याद आ गयीं और भगवान् श्रीकृष्णको परम भक्तिके साथ प्रणाम करके अपने अपराधके लिये क्षमा- याचना करते हुए उसने

 

श्रीकृष्णसे कहा-अब मुझे ज्ञात हो गया कि आप रघुश्रेष्ठ श्रीराम ही हैं, जिनके भयंकर कोपसे सागर तथा लंकानगरी – दोनों क्षुब्ध हो गये थे और रावण अपने बन्धु-बान्धवोंसहित मारा गया था ॥ ७२-७३ ॥

 

हे श्रीकृष्ण ! वे राम आप ही हैं, अतः मेरी धृष्टताको क्षमा करें। मैं आपका सर्वथा सेवक हूँ, अतएव मेरेयोग्य जो भी कार्य हो, उसके लिये मुझे आदेश दीजिये ॥ ७४ ॥

 

जाम्बवान्का वचन सुनकर जगत्पति श्रीकृष्ण बोले- हे ऋक्षराज ! मणि प्राप्त करनेके लिये हमलोग इस कन्दरामें आये हुए हैं ॥ ७५ ॥

 

तत्पश्चात् ऋक्षराज जाम्बवान्ने श्रीकृष्णकी विधिवत् पूजा करके स्यमन्तकमणि तथा अपनी पुत्री जाम्बवती उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अर्पित कर दी ॥ ७६ ॥

 

श्रीकृष्णने जाम्बवतीको पत्नीके रूपमें अंगीकार करके मणिको गलेमें धारण कर लिया और ऋक्षराज जाम्बवान्से विदा लेकर वे द्वारकापुरीके लिये प्रस्थित हुए ॥ ७७ ॥

 

उधर द्वारकामें उदारहृदय श्रीवसुदेवजीने श्रीमद्देवीभागवतपुराण-कथाकी समाप्तिके दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा नानाविध दक्षिणाओंसे उन्हें सन्तुष्ट किया ॥ ७८ ॥

 

जिस समय वे ब्राह्मण वसुदेवको आशीर्वचन प्रदान कर रहे थे, उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण मणि धारण किये हुए पत्नी जाम्बवतीके साथ वहाँ आ पहुँचे ॥ ७९ ॥

 

भार्यासहित भगवान् श्रीकृष्णको देखकर वसुदेवजी तथा उपस्थित जनसमूहकी आँखें हर्षातिरेकके अश्रुसे परिपूर्ण हो गयीं और वे परम आनन्दित हुए ॥ ८० ॥

 

देवर्षि नारद भी श्रीकृष्णके आगमनसे हर्षित हुए और उन्होंने वसुदेवजी तथा श्रीकृष्णसे विदा लेकर ब्रह्मसभाके लिये प्रस्थान किया ॥ ८१ ॥

 

जो मनुष्य निष्कपट भक्ति एवं शुद्ध हृदयसे भगवान्के इस विख्यात तथा कलंकनाशक चरित्रका पाठ एवं श्रवण करता है, वह पूर्ण सुखी हो जाता है, जगत्में उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा मृत्युके अनन्तर वह मोक्षपद प्राप्त करता है ॥ ८२ ॥

 

इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्ये वसुदेवस्य देवीभागवतनवाह- श्रवणात्पुत्रप्राप्तिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥



 

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