अष्टावक्र गीता अध्याय 20 :-Ashtavakra geeta chapter 20.

अष्टावक्र गीता अध्याय 20 :-Ashtavakra geeta chapter 20. (अध्याय 20. ) जनक उवाच – क्व भूतानि क्व देहो वा क्वेन्द्रियाणि क्व वा मनः। क्व शून्यं क्व च नैराश्यं मत्स्वरूपे निरंजने॥२०-१॥ राजा जनक कहते हैं – मेरे निष्कलंक स्वरुप में पाँच महाभूत कहाँ हैं या शरीर कहाँ है और इन्द्रियाँ या मन कहाँ हैं, शून्य कहाँ … Read more

अष्टावक्र गीता अध्याय 19 :-Ashtavakra geeta chapter 19.

अष्टावक्र गीता अध्याय 19 :-Ashtavakra geeta chapter 19. (अध्याय 19. ) जनक उवाच- तत्त्वविज्ञानसन्दंश- मादाय हृदयोदरात्। नानाविधपरामर्श- शल्योद्धारः कृतो मया॥१९- १॥ राजा जनक कहते हैं – तत्त्व-विज्ञान की चिमटी द्वारा विभिन्न प्रकार के सुझावों रूपी काँटों को मेरे द्वारा हृदय के आन्तरिक भागों से निकाला गया॥१॥ King Janak says – Using the hook of self-knowledge, … Read more

अष्टावक्र गीता अध्याय 18 भाग 2:-Ashtavakra geeta chapter 18 bhag 2.

अष्टावक्र गीता अध्याय 18 भाग 2:-Ashtavakra geeta chapter 18 bhag 2. (अध्याय 18. ) अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा। तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः॥१८- ५१॥ जब साधक अपने आपको अकर्ता और अभोक्ता निश्चय कर लेता है तब उसके चित्त की सभी वृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं॥५१॥ When one sees oneself as neither the doer nor the reaper … Read more

अष्टावक्र गीता अध्याय 18 भाग 1:-Ashtavakra geeta chapter 18 bhag 1.

अष्टावक्र गीता अध्याय 18 भाग 1:-Ashtavakra geeta chapter 18 bhag 1. (अध्याय 18. ) अष्टावक्र उवाच – यस्य बोधोदये तावत्- स्वप्नवद् भवति भ्रमः। तस्मै सुखैकरूपाय नमः शान्ताय तेजसे॥१८- १॥ अष्टावक्र कहते हैं – जिस बोध का उदय होने पर, जागने पर स्वप्न के समान भ्रम की निवृत्ति हो जाती है, उस एक, सुखस्वरूप शांत प्रकाश … Read more

अष्टावक्र गीता अध्याय 17 :-Ashtavakra geeta chapter 17.

अष्टावक्र गीता अध्याय 17 :-Ashtavakra geeta chapter 17.   (अध्याय 17. ) अष्टावक्र उवाच – तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा।तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यं एकाकी रमते तु यः॥१७- १॥ अष्टावक्र कहते हैं – उन्होंने ज्ञान और योग (दोनों) का फल प्राप्त कर लिया है जो सदा संतुष्ट, शुद्ध इन्द्रियों वाले और एकांत में रमने वाले हैं ॥१॥ … Read more

अष्टावक्र गीता अध्याय 16 :-Ashtavakra geeta chapter 16.

अष्टावक्र गीता अध्याय 16 :-Ashtavakra geeta chapter 16. (अध्याय 16 ) अष्टावक्र उवाच – आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकशः। तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाद् ऋते॥१६- १॥ श्री अष्टावक्र कहते हैं – हे प्रिय, विद्वानों से सुनकर अथवा बहुत शास्त्रों के पढ़ने से तुम्हारी आत्म स्वरुप में वैसी स्थिति नहीं होगी जैसी कि सब कुछ उचित … Read more

अष्टावक्र गीता अध्याय 15 :-Ashtavakra geeta chapter 15.

अष्टावक्र गीता अध्याय 15 :-Ashtavakra geeta chapter 15.   (अध्याय 15.) अष्टावक्र उवाच – यथातथोपदेशेन कृतार्थः सत्त्वबुद्धिमान्। आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति॥१५- १॥ श्रीअष्टावक्र कहते हैं – सात्विक बुद्धि से युक्त मनुष्य साधारण प्रकार के उपदेश से भी कृतकृत्य(मुक्त) हो जाता है परन्तु ऐसा न होने पर आजीवन जिज्ञासु होने पर भी परब्रह्म का यथार्थ ज्ञान … Read more

अष्टावक्र गीता अध्याय 14 :-Ashtavakra geeta chapter 14.

अष्टावक्र गीता अध्याय 14 :-Ashtavakra geeta chapter 14. (अध्याय 14.)   जनक उवाच – प्रकृत्या शून्यचित्तो यः प्रमादाद् भावभावनः। निद्रितो बोधित इव क्षीण- संस्मरणो हि सः॥१४- १॥ श्रीजनक कहते हैं – जो स्वभाव से ही विचारशून्य है और शायद ही कभी कोई इच्छा करता है वह पूर्व स्मृतियों से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है … Read more

अष्टावक्र गीता अध्याय 13- :-Ashtavakra geeta chapter 13.

अष्टावक्र गीता अध्याय 13- :-Ashtavakra geeta chapter 13.   (अध्याय 13.) जनक उवाच- अकिंचनभवं स्वास्थ्यं कौपीनत्वेऽपि दुर्लभं। त्यागादाने विहायास्माद- हमासे यथासुखम्॥१३- १॥ श्री जनक कहते हैं – अकिंचन(कुछ अपना न) होने की सहजता केवल कौपीन पहनने पर भी मुश्किल से प्राप्त होती है, अतः त्याग और संग्रह की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं … Read more

अष्टावक्र गीता अध्याय 12- :-Ashtavakra geeta chapter 12.

अष्टावक्र गीता अध्याय 12- :-Ashtavakra geeta chapter 12. (अध्याय12) जनक उवाच – कायकृत्यासहः पूर्वं ततो वाग्विस्तरासहः।अथ चिन्तासहस्तस्माद् एवमेवाहमास्थितः॥१२- १॥ श्री जनक कहते हैं – पहले मैं शारीरिक कर्मों से निरपेक्ष (उदासीन) हुआ, फिर वाणी से निरपेक्ष (उदासीन) हुआ। अब चिंता से निरपेक्ष (उदासीन) होकर अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥१॥ Sri Janak says – First I … Read more

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