Bhagwat puran third skandh chapter 1( भागवत पुराण तृतीय स्कंध:प्रथमोऽध्यायः उद्धव और विदुरकी भेंट)
।। ॐ तत्सत् ।।
।। श्रीगणेशायः नमः ।।
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्
तृतीय स्कन्धः अथ प्रथमोऽध्यायः उद्धव और विदुरकी भेंट
संस्कृत श्लोक :-
श्रीशुक उवाच
एवमेतत्पुरा पृष्टो मैत्रेयो भगवान् किल । क्षत्त्रा वनं प्रविष्टेन त्यक्त्वा स्वगृहमृद्धिमत् ।।१ यद्वा अयं मन्त्रकृद्धो भगवानखिलेश्वरः । पौरवेन्द्रगृहं हित्वा प्रविवेशात्मसास्कृतम् ।।२
राजोवाच
कुत्र क्षत्तुर्भगवता मैत्रेयेणास सङ्गमः । कदा वा सह संवाद एतद्वर्णय नः प्रभो ।।३ न ह्यल्पार्थोदयस्तस्य विदुरस्यामलात्मनः । तस्मिन् वरीयसि प्रश्नः साधुवादोपबृंहितः ।।४
सूत उवाच
स एवमृषिवर्योऽयं पृष्टो राज्ञा परीक्षिता । प्रत्याह तं सुबहुवित्प्रीतात्मा श्रूयतामिति ।।५
श्रीशुक उवाच
यदा तु राजा स्वसुतानसाधून् पुष्णन्नधर्मेण विनष्टदृष्टिः । भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून् प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ।।६
यदा सभायां कुरुदेवदेव्याः केशाभिमर्थं सुतकर्म गर्हाम् । न वारयामास नृपः स्नुषायाः स्वासैर्हरन्त्याः कुचकुङ्कुमानि ।।७
हिंदी अनुवाद:-
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित् ! जो बात तुमने पूछी है, वही पूर्वकालमें अपने सुख- समृद्धिसे पूर्ण घरको छोड़कर वनमें गये हुए विदुरजीने भगवान् मैत्रेयजीसे पूछी थी ।।१।।
जब सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवोंके दूत बनकर गये थे, तब वे दुर्योधनके महलोंको छोड़कर, उसी विदुरजीके घरमें उसे अपना ही समझकर बिना बुलाये चले गये थे ।।२।।
राजा परीक्षित्ने पूछा- प्रभो ! यह तो बतलाइये कि भगवान् मैत्रेयके साथ विदुरजीका समागम कहाँ और किस समय हुआ था? ।।३।।
पवित्रात्मा विदुरने महात्मा मैत्रेयजीसे कोई साधारण प्रश्न नहीं किया होगा; क्योंकि उसे तो मैत्रेयजी-जैसे साधुशिरोमणिने अभिनन्दनपूर्वक उत्तर देकर महिमान्वित किया था ।।४।।
सूतजी कहते हैं-सर्वज्ञ शुकदेवजीने राजा परीक्षित्के इस प्रकार पूछनेपर अति प्रसन्न होकर कहा-सुनो ।।५।।
श्रीशुकदेवजी कहने लगे- परीक्षित् ! यह उन दिनोंकी बात है, जब अन्धे राजा धृतराष्ट्रने अन्यायपूर्वक अपने दुष्ट पुत्रोंका पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डुके अनाथ बालकोंको लाक्षाभवनमें भेजकर आग लगवा दी ।।६।।
जब उनकी पुत्रवधू और महाराज युधिष्ठिरकी पटरानी द्रौपदीके केश दुःशासनने भरी सभामें खींचे, उस समय द्रौपदीकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बह चली और उस प्रवाहसे उसके वक्षःस्थलपर लगा हुआ केसर भी बह चला; किन्तु धृतराष्ट्रने अपने पुत्रको उस कुकर्मसे नहीं रोका ।।७।।
संस्कृत श्लोक :-
द्यूते त्वधर्मेण जितस्य साधोः सत्यावलम्बस्य वनागतस्य । न याचतोऽदात्समयेन दायंतमो जुषाणो यदजातशत्रोः ।।८ यदा च पार्थप्रहितः सभायां जगद्गुरुर्यानि जगाद कृष्णः ।
न तानि पुंसाममृतायनानि राजोरु मेने क्षतपुण्यलेशः ।।९यदोपहूतो भवनं प्रविष्टो मन्त्राय पृष्टः किल पूर्वजेन ।अथाह तन्मन्त्रदृशां वरीयान् यन्मन्त्रिणो वैदुरिकं वदन्ति ।।१०
अजातशत्रोः प्रतियच्छ दायं तितिक्षतो दुर्विषहं तवागः ।सहानुजो यत्र वृकोदराहिः श्वसन् रुषा यत्त्वमलं बिभेषि ।।११पार्थास्तु देवो भगवान्मुकुन्दो गृहीतवान् सक्षितिदेवदेवः ।आस्ते स्वपुर्यां यदुदेवदेवो विनिर्जिताशेषनृदेवदेवः ।।१२ स एष दोषः पुरुषद्विडास्ते
गृहान् प्रविष्टो यमपत्यमत्या । पुष्णासि कृष्णाद्विमुखो गतश्री- स्त्यजाश्वशैवं कुलकौशलाय ।।१३इत्यूचिवांस्तत्र सुयोधनेन प्रवृद्धकोपस्फुरिताधरेण ।
हिंदी अनुवाद:-
दुर्योधनने सत्यपरायण और भोले-भाले युधिष्ठिरका राज्य जूएमें अन्यायसे जीत लिया और उन्हें वनमें निकाल दिया। किन्तु वनसे लौटनेपर प्रतिज्ञानुसार जब उन्होंने अपना न्यायोचित पैतृक भाग माँगा, तब भी मोहवश उन्होंने उन अजातशत्रु युधिष्ठिरको उनका हिस्सा नहीं दिया ।।८।।
महाराज युधिष्ठिरके भेजनेपर जब जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णने कौरवोंकी सभामें हितभरे सुमधुर वचन कहे, जो भीष्मादि सज्जनोंको अमृत-से लगे, पर कुरुराजने उनके कथनको कुछ भी आदर नहीं दिया।देते कैसे? उनके तो सारे पुण्य नष्ट हो चुके थे ।।९।।
फिर जब सलाहके लिये विदुरजीको बुलाया गया, तब मन्त्रियोंमें श्रेष्ठ विदुरजीने राज्यभवनमें जाकर बड़े भाई धृतराष्ट्रके पूछनेपर उन्हें वह सम्मति दी, जिसे नीति- शास्त्रके जाननेवाले पुरुष ‘विदुरनीति’ कहते हैं ।।१०।।
उन्होंने कहा- ‘महाराज ! आप अजातशत्रु महात्मा युधिष्ठिरको उनका हिस्सा दे दीजिये। वे आपके न सहनेयोग्य अपराधको भी सह रहे हैं। भीमरूप काले नागसे तो आप भी बहुत डरते हैं; देखिये, वह अपने छोटे भाइयोंके सहित बदला लेनेके लिये बड़े क्रोधसे फुफकारें मार रहा है ।।११।।
आपको पता नहीं, भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंको अपना लिया है। वे यदुवीरोंके आराध्यदेव इस समय अपनी राजधानी द्वारकापुरीमें विराजमान हैं। उन्होंने पृथ्वीके सभी बड़े-बड़े राजाओंको अपने अधीन कर लिया है तथा ब्राह्मण और देवता भी उन्हींके पक्षमें हैं ।।१२।।
जिसे आप पुत्र मानकर पाल रहे हैं तथा जिसकी हाँ-में-हाँ मिलाते जा रहे हैं, उस दुर्योधनके रूपमें तो मूर्तिमान् दोष ही आपके घरमें घुसा बैठा है।
यह तो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णसे द्वेष करनेवाला है। इसीके कारण आप भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख होकर श्रीहीन हो रहे हैं। अतएव यदि आप अपने कुलकी कुशल चाहते हैं तो इस दुष्टको तुरन्त ही त्याग दीजिये’ ।।१३।।
विदुरजीका ऐसा सुन्दर स्वभाव था कि साधुजन भी उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करते थे। किंतु उनकी यह बात सुनते ही कर्ण, दुःशासन और शकुनिके सहित दुर्योधनके होठ अत्यन्त क्रोधसे फड़कने लगे और उसने उनका तिरस्कार करते हुए कहा- ‘अरे !
इस कुटिल दासीपुत्रको यहाँ किसने बुलाया है? यह जिनके टुकड़े खा-खाकर जीता है, उन्हींके प्रतिकूल होकर शत्रुका काम बनाना चाहता है। इसके प्राण तो मत लो, परंतु इसे हमारे नगरसे तुरन्त बाहर निकाल दो’ ।।१४-१५।।
भाईके सामने ही कानोंमें बाणके समान लगनेवाले इन अत्यन्त कठोर वचनोंसे मर्माहत होकर भी विदुरजीने कुछ बुरा न माना और भगवान्की मायाको प्रबल समझकर अपना धनुष राजद्वारपर रख वे हस्तिनापुरसे चल दिये ।।१६।।
कौरवोंको विदुर-जैसे महात्मा बड़े पुण्यसे प्राप्त हुए थे। वे हस्तिनापुरसे चलकर पुण्य करनेकी इच्छासे भूमण्डलमें तीर्थपाद भगवान्के क्षेत्रोंमें विचरने लगे, जहाँ श्रीहरि, ब्रह्मा, रुद्र, अनन्त आदि अनेकों मूर्तियोंके रूपमें विराजमान हैं ।।१७।।
जहाँ-जहाँ भगवान्की प्रतिमाओंसे सुशोभित तीर्थस्थान, नगर, पवित्र वन, पर्वत, निकुंज और निर्मल जलसे भरे हुए नदी-सरोवर आदि थे, उन सभी स्थानोंमें वे अकेले ही विचरते रहे ।।१८।।
वे अवधूत-वेषमें स्वच्छन्दतापूर्वक पृथ्वीपर विचरते थे, जिससे आत्मीयजन उन्हें पहचान न सकें। वे शरीरको सजाते न थे, पवित्र और साधारण भोजन करते, शुद्धवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थमें स्नान करते, जमीनपर सोते और भगवान्को प्रसन्न करनेवाले व्रतोंका पालन करते रहते थे ।।१९।।
संस्कृत श्लोक :-
असत्कृतः स्वत्स्पृहणीयशीलः क्षत्ता सकर्णानुजसौबलेन ।।१४ क एनमत्रोपजुहाव जिह्यं दास्याः सुतं यद्बलिनैव पुष्टः । तस्मिन् प्रतीपः परकृत्य आस्ते निर्वास्यतामाशु पुराच्छ्वसानः ।।१५ स इत्थमत्युल्बणकर्णबाणै- र्भातुः पुरो मर्मसु ताडितोऽपि । स्वयं धनुर्द्वारि निधाय मायांगतव्यथोऽयादुरु मानयानः ।।१६
स निर्गतः कौरवपुण्यलब्धो गजाह्वयात्तीर्थपदः पदानि । अन्वाक्रमत्पुण्यचिकीर्षयोर्व्या स्वधिष्ठितो यानि सहस्रमूर्तिः ।।१७पुरेषु पुण्योपवनाद्रिकुञ्ज- ष्वपङ्कतोयेषु सरित्सरःसु अनन्तलिङ्गैः समलङ्कृतेषु चचार तीर्थायतनेष्वनन्यः ।।१८
गां पर्यटन्मेध्यविविक्तवृत्तिः सदाऽऽप्लुतोऽधः शयनोऽवधूतः ।अलक्षितः स्वैरवधूतवेषो व्रतानि चेरे हरितोषणानि ।।१९
इत्थं व्रजन् भारतमेव वर्ष कालेन यावद्गतवान् प्रभासम् ।तावच्छशास क्षितिमेकचक्रा- मेकातपत्रामजितेन पार्थः ।।२०तत्राथ शुश्राव सुहृद्विनष्टिं वनं यथा वेणुजवह्निसंश्रयम् ।संस्पर्धया दग्धमथानुशोचन् सरस्वतीं प्रत्यगियाय तूष्णीम् ।।२१
हिंदी अनुवाद:-
इस प्रकार भारतवर्षमें ही विचरते-विचरते जबतक वे प्रभासक्षेत्रमें पहुँचे, तबतक भगवान् श्रीकृष्णकी सहायतासे महाराज युधिष्ठिर पृथ्वीका एकच्छत्र अखण्ड राज्य करने लगे थे ।। २० ।।
वहाँ उन्होंने अपने कौरव बन्धुओंके विनाशका समाचार सुना, जो आपसकी कलहके कारण परस्पर लड़-भिड़कर उसी प्रकार नष्ट हो गये थे, जैसे अपनी ही रगड़से उत्पन्न हुई आगसे बाँसोंका सारा जंगल जलकर खाक हो जाता है। यह सुनकर वे शोक करते हुए चुपचाप सरस्वतीके तीरपर आये ।।२१।।
संस्कृत श्लोक :-
तस्यां त्रितस्योशनसो मनोश्च पृथोरथाग्नेरसितस्य वायोः ।तीर्थं सुदासस्य गवां गुहस्य यच्छ्राद्धदेवस्य स आसिषेवे ।।२२ अन्यानि चेह द्विजदेवदेवैः कृतानि नानायतनानि विष्णोः ।
प्रत्यङ्गमुख्याङ्ङ्कितमन्दिराणियद्दर्शनात्कृष्णमनुस्मरन्ति ।।२३ ततस्त्वतिव्रज्य सुराष्ट्रमृद्धं सौवीरमत्स्यान् कुरुजाङ्गलांश्च ।कालेन तावद्यमुनामुपेत्य तत्रोद्धवं भागवतं ददर्श ।। २४ स वासुदेवानुचरं प्रशान्तं बृहस्पतेः प्राक् तनयं प्रतीतम् । आलिङ्ग्य गाढं प्रणयेन भद्रं स्वानामपृच्छद्भगवत्प्रजानाम् ।।२५
कच्चित्पुराणौ पुरुषौ स्वनाभ्य- पाद्मानुवृत्त्येह किलावतीर्णों । आसात उर्व्याः कुशलं विधाय कृतक्षणौ कुशलं शूरगेहे ।। २६ कच्चित्कुरूणां परमः सुहृन्नो भामः स आस्ते सुखमङ्ग शौरिः । यो वै स्वसृणां पितृवद्ददाति वरान् वदान्यो वरतर्पणेन ।। २७ कच्चिद्वरूथाधिपतिर्यदूनां प्रद्युम्न आस्ते सुखमङ्ग वीरः । यं रुक्मिणी भगवतोऽभिलेभे आराध्य विप्रान् स्मरमादिसर्गे ।।२८ कच्चित्सुखं सात्वतवृष्णिभोज- दाशार्हकाणामधिपः स आस्ते । यमभ्यषिञ्चच्छतपत्रनेत्रो नृपासनाशां परिहृत्य दूरात् ।।२९
हिंदी अनुवाद:-
वहाँ उन्होंने त्रित, उशना, मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु, सुदास, गौ, गुह और श्राद्धदेवके नामोंसे प्रसिद्ध ग्यारह तीर्थोंका सेवन किया ।। २२ ।।
इनके सिवा पृथ्वीमें ब्राह्मण और देवताओंके स्थापित किये हुए जो भगवान् विष्णुके और भी अनेकों मन्दिर थे, जिनके शिखरोंपर भगवान्के प्रधान आयुध चक्रके चिह्न थे और जिनके दर्शनमात्रसे श्रीकृष्णका स्मरण हो आता था, उनका भी सेवन किया ।। २३ ।।
वहाँसे चलकर वे धन-धान्यपूर्ण सौराष्ट्र, सौवीर, मत्स्य और कुरुजांगल आदि देशोंमें होते हुए जब कुछ दिनोंमें यमुनातटपर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने परमभागवत उद्धवजीका दर्शन किया ।। २४।।
वे भगवान् श्रीकृष्णके प्रख्यात सेवक और अत्यन्त शान्तस्वभाव थे। वे पहले बृहस्पतिजीके शिष्य रह चुके थे। विदुरजीने उन्हें देखकर प्रेमसे गाढ़ आलिंगन किया और उनसे अपने आराध्य भगवान् श्रीकृष्ण और उनके आश्रित अपने स्वजनोंका कुशल-समाचार पूछा ।।२५।।
विदुरजी कहने लगे- उद्धवजी ! पुराणपुरुष बलरामजी और श्रीकृष्णने अपने ही नाभिकमलसे उत्पन्न हुए ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे इस जगत्में अवतार लिया है। वे पृथ्वीका भार उतारकर सबको आनन्द देते हुए अब श्रीवसुदेवजीके घर कुशलसे रह रहे हैं न? ।।२६।।
प्रियवर ! हम कुरुवंशियोंके परम सुहृद् और पूज्य वसुदेवजी, जो पिताके समान उदारतापूर्वक अपनी कुन्ती आदि बहिनोंको उनके स्वामियोंका सन्तोष कराते हुए उनकी सभी मनचाही वस्तुएँ देते आये हैं, आनन्दपूर्वक हैं न? ।। २७।।
प्यारे उद्धवजी ! यादवोंके सेनापति वीरवर प्रद्युम्नजी तो प्रसन्न हैं न, जो पूर्वजन्ममें कामदेव थे तथा जिन्हें देवी रुक्मिणीजीने ब्राह्मणोंकी आराधना करके भगवान्से प्राप्त किया था ।।२८।।
सात्वत, वृष्णि, भोज और दाशार्हवंशी यादवोंके अधिपति महाराज उग्रसेन तो सुखसे हैं न, जिन्होंने राज्य पानेकी आशाका सर्वथा परित्याग कर दिया था किंतु कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने जिन्हें फिरसे राजसिंहासनपर बैठाया ।। २९।।
संस्कृत श्लोक :-
कच्चिद्धरेः सौम्य सुतः सदृक्ष आस्तेऽग्रणी रथिनां साधु साम्बः ।असूत यं जाम्बवती व्रताढ्या देवं गुहं योऽम्बिकया धृतोऽग्रे ।।३०क्षेमं स कच्चिद्युयुधान आस्ते यः फाल्गुनाल्लब्धधनूरहस्यः ।
लेभेऽञ्जसाधोक्षजसेवयैव गतिं तदीयां यतिभिर्दुरापाम् ।।३१
कच्चिद् बुधः स्वस्त्यनमीव आस्ते श्वफल्कपुत्रो भगवत्प्रपन्नः । यःकृष्णपादाङ्कितमार्गपांसु- ष्वचेष्टत प्रेमविभिन्नधैर्यः ।।३२
कच्चिच्छिवं देवकभोजपुत्र्या विष्णुप्रजाया इव देवमातुः ।या वै स्वगर्भेण दधार देवं त्रयी यथा यज्ञवितानमर्थम् ।।३३अपिस्विदास्ते भगवान् सुखं वो यः सात्वतां कामदुघोऽनिरुद्धः ।
यमामनन्ति स्म ह शब्दयोनिं मनोमयं सत्त्वतुरीयतत्त्वम् ।।३४अपिस्विदन्ये च निजात्मदैव- मनन्यवृत्त्या समनुव्रता ये । हृदीकसत्यात्मजचारुदेष्ण- गदादयः स्वस्ति चरन्ति सौम्य ।।३५
अपि स्वदोर्थ्यां विजयाच्युताभ्यां धर्मेण धर्मः परिपाति सेतुम् । दुर्योधनोऽतप्यत यत्सभायां साम्राज्यलक्ष्म्या विजयानुवृत्त्या ।।३६किं वा कृताघेष्वघमत्यमर्षी भीमोऽहिवद्दीर्घतमं व्यमुञ्चत् । यस्याङ्घ्रिपातं रणभूर्न सेहे मार्गं गदायाश्चरतो विचित्रम् ।।३७
हिंदी अनुवाद:-
सौम्य ! अपने पिता श्रीकृष्णके समान समस्त रथियोंमें अग्रगण्य श्रीकृष्णतनय साम्ब सकुशल तो हैं न?
ये पहले पार्वतीजीके द्वारा गर्भमें धारण किये हुए स्वामिकार्तिक हैं। अनेकों व्रत करके जाम्बवतीने इन्हें जन्म दिया था ।। ३० ।।
जिन्होंने अर्जुनसे रहस्ययुक्त धनुर्विद्याकी शिक्षा पायी है, वे सात्यकि तो कुशलपूर्वक हैं? वे भगवान् श्रीकृष्णकी सेवासे अनायास ही भगवज्जनोंकी उस महान् स्थितिपर पहुँच गये हैं, जो बड़े-बड़े योगियोंको भी दुर्लभ है ।।३१।।
भगवान्के शरणागत निर्मल भक्त बुद्धिमान् अक्रूरजी भी प्रसन्न हैं न, जो श्रीकृष्णके चरणचिह्नोंसे अंकित व्रजके मार्गकी रजमें प्रेमसे अधीर होकर लोटने लगे थे? ।।३२।।
भोजवंशी देवककी पुत्री देवकीजी अच्छी तरह हैं न, जो देवमाता अदितिके समान ही साक्षात् विष्णुभगवान्की माता हैं? जैसे वेदत्रयी यज्ञविस्ताररूप अर्थको अपने मन्त्रोंमें धारण किये रहती है, उसी प्रकार उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको अपने गर्भमें धारण किया था ।।३३।।
आप भक्तजनोंकी कामनाएँ पूर्ण करनेवाले भगवान् अनिरुद्धजी सुखपूर्वक हैं न, जिन्हें शास्त्र वेदोंके आदिकारण और अन्तःकरणचतुष्टयके चौथे अंश मनके अधिष्ठाता बतलाते हैं ।। ३४।।
सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! अपने हृदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्णका अनन्यभावसे अनुसरण करनेवाले जो हृदीक,सत्यभामानन्दन चारुदेष्ण और गद आदि अन्य भगवान्के पुत्र हैं, वे सब भी कुशलपूर्वक हैं न? ।।३५।।
महाराज युधिष्ठिर अपनी अर्जुन और श्रीकृष्ण-रूप दोनों भुजाओंकी सहायतासे धर्ममर्यादाका न्यायपूर्वक पालन करते हैं न? मयदानवकी बनायी हुई सभामें इनके राज्यवैभव और दबदबेको देखकर दुर्योधनको बड़ा डाह हुआ था ।। ३६।।
अपराधियोंके प्रति अत्यन्त असहिष्णु भीमसेनने सर्पके समान दीर्घकालीन क्रोधको छोड़ दिया है क्या? जब वे गदायुद्धमें तरह-तरहके पैंतरे बदलते थे, तब उनके पैरोंकी धमकसे धरती डोलने लगती थी ।। ३७।।
संस्कृत श्लोक :-
कच्चिद्यशोधा रथयूथपानां गाण्डीवधन्वोपरतारिरास्ते । अलक्षितो यच्छरकूटगूढो मायाकिरातो गिरिशस्तुतोष ।।३८यमावुतस्वित्तनयौ पृथायाः पार्थैर्वृतौ पक्ष्मभिरक्षिणीव । रेमात उद्दाय मृधे स्वरिक्थं परात्सुपर्णाविव वज्रिवक्त्रात् ।।३९
अहो पृथापि ध्रियतेऽर्भकार्थे राजर्षिवर्येण विनापि तेन । यस्त्वेकवीरोऽधिरथो विजिग्ये धनुर्द्वितीयः ककुभश्चतस्रः ।।४०सौम्यानुशोचे तमधःपतन्तं भ्रात्रे परेताय विदुदुहे यः । निर्यापितो येन सुहृत्स्वपुर्या अहं स्वपुत्रान् समनुव्रतेन ।।४१
सोऽहं हरेर्मर्त्यविडम्बनेन दृशो नृणां चालयतो विधातुः । नान्योपलक्ष्यः पदवीं प्रसादा- च्चरामि पश्यन् गतविस्मयोऽत्र ।।४२नूनं नृपाणां त्रिमदोत्पथानां महीं मुहुश्चालयतां चमूभिः । वधात्प्रपन्नार्तिजिहीर्षयेशो- ऽप्युपैक्षताघं भगवान् कुरूणाम् ।।४३
हिंदी अनुवाद:-
जिनके बाणोंके जालसे छिपकर किरातवेषधारी, अतएव किसीकी पहचानमें न आनेवाले भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये थे, वे रथी और यूथपतियोंका सुयश बढ़ानेवाले गाण्डीवधारी अर्जुन तो प्रसन्न हैं न? अब तो उनके सभी शत्रु शान्त हो चुके होंगे? ।। ३८।।
पलक जिस प्रकार नेत्रोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्तीके पुत्र युधिष्ठिरादि जिनकी सर्वदा सँभाल रखते हैं और कुन्तीने ही जिनका लालन-पालन किया है, वे माद्रीके यमज पुत्र नकुल- सहदेव कुशलसे तो हैं न? उन्होंने युद्धमें शत्रुसे अपना राज्य उसी प्रकार छीन लिया, जैसे दो गरुड़ इन्द्रके मुखसे अमृत निकाल लायें ।। ३९।।
अहो ! बेचारी कुन्ती तो राजर्षिश्रेष्ठ पाण्डुके वियोगमें मृतप्राय-सी होकर भी इन बालकोंके लिये ही प्राण धारण किये हुए है। रथियोंमें श्रेष्ठ महाराज पाण्डु ऐसे अनुपम वीर थे कि उन्होंने केवल एक धनुष लेकर ही अकेले चारों दिशाओंको जीत लिया था ।।४०।।
सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! मुझे तो अधःपतनकी ओर जानेवाले उन धृतराष्ट्रके लिये बार-बार शोक होता है, जिन्होंने पाण्डवोंके रूपमें अपने परलोकवासी भाई पाण्डुसे ही द्रोह किया तथा अपने पुत्रोंकी हाँ-में-हाँ मिलाकर अपने हितचिन्तक मुझको भी नगरसे निकलवा दिया ।।४१।।
किंतु भाई ! मुझे इसका कुछ भी खेद अथवा आश्चर्य नहीं है। जगद्विधाता भगवान् श्रीकृष्ण ही मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करके लोगोंकी मनोवृत्तियोंको भ्रमित कर देते हैं। मैं तो उन्हींकी कृपासे उनकी महिमाको देखता हुआ दूसरोंकी दृष्टिसे दूर रहकर सानन्द विचर रहा हूँ ।।४२।।
यद्यपि कौरवोंने उनके बहुत-से अपराध किये, फिर भी भगवान्ने उनकी इसीलिये उपेक्षा कर दी थी कि वे उनके साथ उन दुष्ट राजाओंको भी मारकर अपने शरणागतोंका दुःख दूर करना चाहते थे, जो धन, विद्या और जातिके मदसे अंधे होकर कुमार्गगामी हो रहे थे और बार-बार अपनी सेनाओंसे पृथ्वीको कँपा रहे थे ।।४३।।
संस्कृत श्लोक :-
अजस्य जन्मोत्पथनाशनाय कर्माण्यकर्तुर्ग्रहणाय पुंसाम् । नन्वन्यथा कोऽर्हति देहयोगं परो गुणानामुत कर्मतन्त्रम् ।।४४तस्य प्रपन्नाखिललोकपाना-मवस्थितानामनुशासने स्वे !अर्थाय जातस्य यदुष्वजस्य वार्ता सखे कीर्तय तीर्थकीर्तेः ।।४५
हिंदी अनुवाद:-
उद्धवजी ! भगवान् श्रीकृष्ण जन्म और कर्मसे रहित हैं, फिर भी दुष्टोंका नाश करनेके लिये और लोगोंको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये उनके दिव्य जन्म-कर्म हुआ करते हैं। नहीं तो, भगवान्की तो बात ही क्या- दूसरे जो लोग गुणोंसे पार हो गये हैं, उनमें भी ऐसा कौन है, जो इस कर्माधीन देहके बन्धनमें पड़ना चाहेगा ।।४४।।
अतः मित्र ! जिन्होंने अजन्मा होकर भी अपनी शरणमें आये हुए समस्त लोकपाल और आज्ञाकारी भक्तोंका प्रिय करनेके लिये यदुकुलमें जन्म लिया है, उन पवित्रकीर्ति श्रीहरिकी बातें सुनाओ ।।४५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे
प्रथमोऽध्यायः ।।१।।
* चित्त, अहंकार, बुद्धि और मन-ये अन्तःकरणके चार अंश हैं। इनके अधिष्ठाता क्रमशः वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध हैं।