Bhagwat puran skandh 8 chapter 5(भागवत पुराण अष्टम: स्कन्ध:अध्याय 5 देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और ब्रह्माकृत भगवान्‌की स्तुति)

Bhagwat puran skandh 8 chapter 5(भागवत पुराण अष्टम: स्कन्ध:अध्याय 5 देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और ब्रह्माकृत भगवान्‌की स्तुति)

(संस्कृत श्लोक: -)

 

श्रीशुक उवाच

राजन्नुदितमेतत् ते हरेः कर्माघनाशनम् । गजेन्द्रमोक्षणं पुण्यं रैवतं त्वन्तरं शृणु ।।१

पञ्चमो रैवतो नाम मनुस्तामससोदरः । बलिविन्ध्यादयस्तस्य सुता अर्जुनपूर्वकाः ।।२

विभुरिन्द्रः सुरगणा राजन्भूतरयादयः । हिरण्यरोमा वेदशिरा ऊर्ध्वबाह्वादयो द्विजाः ।।३

पत्नी विकुण्ठा शुभ्रस्य वैकुण्ठैः सुरसत्तमैः । तयोः स्वकलया जज्ञे वैकुण्ठो भगवान्स्वयम् ।।४

वैकुण्ठः कल्पितो येन लोको लोकनमस्कृतः । रमया प्रार्थ्यमानेन देव्या तत्प्रियकाम्यया ।।५

(अनुवाद: -)

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! भगवान्‌की यह गजेन्द्रमोक्षकी पवित्र लीला समस्त पापोंका नाश करनेवाली है। इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब रैवत मन्वन्तरकी कथा सुनो ।।१।।

पाँचवें मनुका नाम था रैवत। वे चौथे मनु तामसके सगे भाई थे। उनके अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि कई पुत्र थे ।।२।।

उस मन्वन्तरमें इन्द्रका नाम था विभु और भूतरय आदि देवताओंके प्रधान गण थे। परीक्षित् ! उस समय हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु आदि सप्तर्षि थे ।।३।।

उनमें शुभ्र ऋषिकी पत्नीका नाम था विकुण्ठा। उन्हींके गर्भसे वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओंके साथ अपने अंशसे स्वयं भगवान्ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया ।।४।।

उन्हींने लक्ष्मीदेवीकी प्रार्थनासे उनको प्रसन्न करनेके लिये वैकुण्ठधामकी रचना की थी। वह लोक समस्त लोकोंमें श्रेष्ठ है ।।५।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

तस्यानुभावः कथितो गुणाश्च परमोदयाः ।भौमान् रेणून्स विममे यो विष्णोर्वर्णयेद् गुणान् ।।६

षष्ठश्च चक्षुषः पुत्रश्चाक्षुषो नाम वै मनुः । पूरुपूरुषसुद्युम्नप्रमुखाश्चाक्षुषात्मजाः ।।७

इन्द्रो मन्त्रद्रुमस्तत्र देवा आप्यादयो गणाः । मुनयस्तत्र वै राजन्हविष्मद्वीरकादयः ।।८

तत्रापि देवः सम्भूत्यां वैराजस्याभवत् सुतः । अजितो नाम भगवानंशेन जगतः पतिः ।।९पयोधिं येन निर्मथ्य सुराणां साधिता सुधा । भ्रममाणोऽम्भसि धृतः कूर्मरूपेण मन्दरः ।।१०

राजोवाच

यथा भगवता ब्रह्मन्मथितः क्षीरसागरः । यदर्थं वा यतश्चाद्रिं दधाराम्बुचरात्मना ।।११

यथामृतं सुरैः प्राप्तं किञ्चान्यदभवत् ततः । एतद् भगवतः कर्म वदस्व परमाद्भुतम् ।।१२त्वया सङ्कथ्यमानेन महिम्ना सात्वतां पतेः । नातितृप्यति मे चित्तं सुचिरं तापतापितम् ।।१३

सूत उवाच

सम्पृष्टो भगवानेवं द्वैपायनसुतो द्विजाः । अभिनन्द्य हरेर्वीर्यमभ्याचष्टुं प्रचक्रमे ।।१४

श्रीशुक उवाच

यदा युद्धेऽसुरैर्देवा बाध्यमानाः शितायुधैः । गतासवो निपतिता नोत्तिष्ठेरन्स्म भूयशः ।।१५

(अनुवाद: -)

 

उन वैकुण्ठनाथके कल्याणमय गुण और प्रभावका वर्णन मैं संक्षेपसे (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। भगवान् विष्णुके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो वह करे, जिसने पृथ्वीके परमाणुओंकी गिनती कर ली हो ।।६।।

छठे मनु चक्षुके पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पूरुष, सुद्युम्न आदि कई पुत्र थे ।।७।।

इन्द्रका नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि। उस मन्वन्तरमें हविष्यमान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे ।।८।।

जगत्पति भगवान्ने उस समय भी वैराजकी पत्नी सम्भूतिके गर्भसे अजित नामका अंशावतार ग्रहण किया था ।।९।।

उन्होंने ही समुद्रमन्थन करके देवताओंको अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छपरूप धारण करके मन्दराचलकी मथानीके आधार बने थे ।।१०।।

राजा परीक्षित्ने पूछा- भगवन् ! भगवान्ने क्षीरसागरका मन्थन कैसे किया? उन्होंने कच्छपरूप धारण करके किस कारण और किस उद्देश्यसे मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया? ।।११।।

देवताओंको उस समय अमृत कैसे मिला? और भी कौन-कौन-सी वस्तुएँ समुद्रसे निकलीं? भगवान्‌की यह लीला बड़ी ही अ‌द्भुत है, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये ।।१२।।

आप भक्तवत्सल भगवान्‌की महिमाका ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही- त्यों मेरा हृदय उसको और भी सुननेके लिये उत्सुक होता जा रहा है। अघानेका तो नाम ही नहीं लेता। क्यों न हो, बहुत दिनोंसे यह संसारकी ज्वालाओंसे जलता जो रहा है ।।१३।।

सूतजीने कहा-शौनकादि ऋषियो ! भगवान् श्रीशुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌के इस प्रश्नका अभिनन्दन करते हुए भगवान्‌की समुद्र-मन्थन-लीलाका वर्णन आरम्भ किया ।।१४।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! जिस समयकी यह बात है, उस समय असुरोंने अपने तीखे शस्त्रोंसे देवताओंको पराजित कर दिया था। उस युद्धमें बहुतोंके तो प्राणोंपर ही बन आयी, वे रणभूमिमें गिरकर फिर उठ न सके ।।१५।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

यदा दुर्वाससः शापात् सेन्द्रा लोकास्त्रयो नृप ।निःश्रीकाश्चाभवंस्तत्र नेशुरिज्यादयः क्रियाः ।।१६निशाम्यैतत् सुरगणा महेन्द्रवरुणादयः ।

नाध्यगच्छन्स्वयं मन्त्रैर्मन्त्रयन्तो विनिश्चयम् ।।१७ततो ब्रह्मसभां जग्मुर्मेरोर्मूर्धनि सर्वशः ।सर्वं विज्ञापयाञ्चक्रुः प्रणताः परमेष्ठिने ।।१८स विलोक्येन्द्रवाय्वादीन् निःसत्त्वान्विगतप्रभान् ।लोकानमङ्गलप्रायानसुरानयथा विभुः ।।१९

समाहितेन मनसा संस्मरन्पुरुषं परम् ।उवाचोत्फुल्लवदनो देवान्स भगवान्परः ।।२०अहं भवो यूयमथोऽसुरादयो मनुष्यतिर्यग्द्रुमघर्मजातयः ।यस्यावतारांशकलाविसर्जिता व्रजाम सर्वे शरणं तमव्ययम् ।।२१

न यस्य वध्यो न च रक्षणीयो नोपेक्षणीयादरणीयपक्षः ।अथापि सर्गस्थितिसंयमार्थं धत्ते रजः सत्त्वतमांसि काले ।।२२अयं च तस्य स्थितिपालनक्षणः सत्त्वं जुषाणस्य भवाय देहिनाम् । तस्माद् व्रजामः शरणं जगद्‌गुरुं स्वानां स नो धास्यति शं सुरप्रियः ।।२३

(अनुवाद: -)

 

दुर्वासाके शापसे तीनों लोक और स्वयं इन्द्र भी श्रीहीन हो गये थे। यहाँतक कि यज्ञ- यागादि धर्म-कर्मोंका भी लोप हो गया था ।।१६।।

यह सब दुर्दशा देखकर इन्द्र, वरुण आदि देवताओंने आपसमें बहुत कुछ सोचा-विचारा; परन्तु अपने विचारोंसे वे किसी निश्चयपर नहीं पहुँच सके ।।१७।।

तब वे सब के सब सुमेरुके शिखरपर स्थित ब्रह्माजीकी सभामें गये और वहाँ उन लोगोंने बड़ी नम्रतासे ब्रह्माजीकी सेवामें अपनी परिस्थितिका विस्तृत विवरण उपस्थित किया ।।१८।।

ब्रह्माजीने स्वयं देखा कि इन्द्र, वायु आदि देवता श्रीहीन एवं शक्तिहीन हो गये हैं। लोगोंकी परिस्थिति बड़ी विकट, संकटग्रस्त हो गयी है और असुर इसके विपरीत फल-फूल रहे हैं ।। १९।।

समर्थ ब्रह्माजीने अपना मन एकाग्र करके परम पुरुष भगवान्‌का स्मरण किया; फिर थोड़ी देर रुककर प्रफुल्लित मुखसे देवताओंको सम्बोधित करते हुए कहा ।।२०।।

‘देवताओ! मैं, शंकरजी, तुमलोग तथा असुर, दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष और स्वेदज आदि समस्त प्राणी जिनके विराट् रूपके एक अत्यन्त स्वल्पातिस्वल्प अंशसे रचे गये हैं- हमलोग उन अविनाशी प्रभुकी ही शरण ग्रहण करें ।।२१।।

यद्यपि उनकी दृष्टिमें न कोई वधका पात्र है और न रक्षाका, उनके लिये न तो कोई उपेक्षणीय है न कोई आदरका पात्र ही- फिर भी सृष्टि, स्थिति और प्रलयके लिये समय- समयपर वे रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणको स्वीकार किया करते हैं ।। २२ ।।

उन्होंने इस समय प्राणियोंके कल्याणके लिये सत्त्वगुणको स्वीकार कर रखा है। इसलिये यह जगत्की स्थिति और रक्षाका अवसर है।

अतः हम सब उन्हीं जगद्‌गुरु परमात्माकी शरण ग्रहण करते हैं। वे देवताओंके प्रिय हैं और देवता उनके प्रिय। इसलिये हम निजजनोंका वे अवश्य ही कल्याण करेंगे ।।२३।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

श्रीशुक उवाच

इत्याभाष्य सुरान्वेधाः सह देवैररिन्दम ।

अजितस्य पदं साक्षाज्जगाम तमसः परम् ।।२४

तत्रादृष्टस्वरूपाय श्रुतपूर्वाय वै विभो । स्तुतिमब्रूत दैवीभिर्गीर्भिस्त्ववहितेन्द्रियः ।।२५

ब्रह्मोवाच

अविक्रियं सत्यमनन्तमाद्यं गुहाशयं निष्कलमप्रतर्व्यम् ।

मनोऽग्रयानं वचसानिरुक्तं नमामहे देववरं वरेण्यम् ।।२६

विपश्चितं प्राणमनोधियात्मना- मर्थेन्द्रियाभासमनिद्रमव्रणम् ।

छायातपौ यत्र न गृध्रपक्षौ तमक्षरं खं त्रियुगं व्रजामहे ।।२७

अजस्य चक्रं त्वजयेर्यमाणं मनोमयं पञ्चदशारमाशु । त्रिणाभि विद्युच्चलमष्टनेमि यदक्षमाहुस्तमृतं प्रपद्ये ।।२८

(अनुवाद: -)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! देवताओंसे यह कहकर ब्रह्माजी देवताओंको साथ लेकर भगवान् अजितके निजधाम वैकुण्ठमें गये। वह धाम तमोमयी प्रकृतिसे परे है ।। २४।।

इन लोगोंने भगवान्‌के स्वरूप और धामके सम्बन्धमें पहलेसे ही बहुत कुछ सुन रखा था, परन्तु वहाँ जानेपर उन लोगोंको कुछ दिखायी न पड़ा। इसलिये ब्रह्माजी एकाग्र मनसे वेदवाणीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति करने लगे ।। २५।।

ब्रह्माजी बोले- भगवन्! आप निर्विकार, सत्य, अनन्त, आदिपुरुष, सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान, अखण्ड एवं अतर्क्स हैं। मन जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँ आप पहलेसे ही विद्यमान रहते हैं।

वाणी आपका निरूपण नहीं कर सकती। आप समस्त देवताओंके आराधनीय और स्वयंप्रकाश हैं। हम सब आपके चरणोंमें नमस्कार करते हैं ।।२६।।

आप प्राण, मन, बुद्धि और अहंकारके ज्ञाता हैं। इन्द्रियाँ और उनके विषय दोनों ही आपके द्वारा प्रकाशित होते हैं। अज्ञान आपका स्पर्श नहीं कर सकता। प्रकृतिके विकार मरने-जीनेवाले शरीरसे भी आप रहित हैं।

जीवके दोनों पक्ष-अविद्या और विद्या आपमें बिलकुल ही नहीं हैं। आप अविनाशी और सुखस्वरूप हैं। सत्ययुग, त्रेता और द्वापरमें तो आप प्रकटरूपसे ही विराजमान रहते हैं। हम सब आपकी शरण ग्रहण करते हैं ।। २७।।

यह शरीर जीवका एक मनोमय चक्र (रथका पहिया) है। दस इन्द्रिय और पाँच प्राण- ये पंद्रह इसके अरे हैं। सत्त्व, रज और तम – ये तीन गुण इसकी नाभि हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार-ये आठ इसमें नेमि (पहियेका घेरा) हैं।

स्वयं माया इसका संचालन करती है और यह बिजलीसे भी अधिक शीघ्रगामी है। इस चक्रके धुरे हैं स्वयं परमात्मा। वे ही एकमात्र सत्य हैं। हम उनकी शरणमें हैं ।। २८ ।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

य एकवर्णं तमसः परं त- दलोकमव्यक्तमनन्तपारम् । आसाञ्चकारोपसुपर्णमेन- मुपासते योगरथेन धीराः ।।२९

न यस्य कश्चातितितर्ति मायां यया जनो मुह्यति वेद नार्थम् । तं निर्जितात्मात्मगुणं परेशं नमाम भूतेषु समं चरन्तम् ।।३०

इमे वयं यत्प्रिययैव तन्वा सत्त्वेन सृष्टा बहिरन्तराविः । गतिं न सूक्ष्मामृषयश्च विद्महे कुतोऽसुराद्या इतरप्रधानाः ।।३१

पादौ महीयं स्वकृतैव यस्य चतुर्विधो यत्र हि भूतसर्गः ।

स वै महापूरुष आत्मतन्त्रः प्रसीदतां ब्रह्म महाविभूतिः ।।३२

अम्भस्तु यद्रेत उदारवीर्यं सिध्यन्ति जीवन्त्युत वर्धमानाः । लोकास्त्रयोऽथाखिललोकपालाः प्रसीदतां ब्रह्म महाविभूतिः ।।३३

सोमं मनो यस्य समामनन्ति दिवौकसां वै बलमन्ध आयुः ।

ईशो नगानां प्रजनः प्रजानां प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ।।३४

(अनुवाद: -)

 

जो एकमात्र ज्ञानस्वरूप, प्रकृतिसे परे एवं अदृश्य हैं; जो समस्त वस्तुओंके मूलमें स्थित अव्यक्त हैं और देश, काल अथवा वस्तुसे जिनका पार नहीं पाया जा सकता- वही प्रभु इस जीवके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान रहते हैं। विचारशील मनुष्य भक्तियोगके द्वारा उन्हींकी आराधना करते हैं ।। २९।।

जिस मायासे मोहित होकर जीव अपने वास्तविक लक्ष्य अथवा स्वरूपको भूल गया है, वह उन्हींकी है और कोई भी उसका पार नहीं पा सकता।

परन्तु सर्वशक्तिमान् प्रभु अपनी उस माया तथा उसके गुणोंको अपने वशमें करके समस्त प्राणियोंके हृदयमें समभावसे विचरण करते रहते हैं।

जीव अपने पुरुषार्थसे नहीं, उनकी कृपासे ही उन्हें प्राप्त कर सकता है। हम उनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं ।। ३०।।

यों तो हम देवता एवं ऋषिगण भी उनके परम प्रिय सत्त्वमय शरीरसे ही उत्पन्न हुए हैं, फिर भी उनके बाहर-भीतर एकरस प्रकट वास्तविक स्वरूपको नहीं जानते।

तब रजोगुण एवं तमोगुणप्रधान असुर आदि तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं? उन्हीं प्रभुके चरणोंमें हम नमस्कार करते हैं ।। ३१।।

उन्हींकी बनायी हुई यह पृथ्वी उनका चरण है। इसी पृथ्वीपर जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उ‌द्भिज्ज- ये चार प्रकारके प्राणी रहते हैं।

वे परम स्वतन्त्र, परम ऐश्वर्यशाली पुरुषोत्तम परब्रह्म हमपर प्रसन्न हों ।।३२।।

यह परम शक्तिशाली जल उन्हींका वीर्य है। इसीसे तीनों लोक और समस्त लोकोंके लोकपाल उत्पन्न होते, बढ़ते और जीवित रहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म हमपर प्रसन्न हों ।। ३३ ।।

श्रुतियाँ कहती हैं कि चन्द्रमा उस प्रभुका मन है। यह चन्द्रमा समस्त देवताओंका अन्न, बल एवं आयु है। वही वृक्षोंका सम्राट् एवं प्रजाकी वृद्धि करनेवाला है।

ऐसे मनको स्वीकार करनेवाले परम ऐश्वर्यशाली प्रभु हमपर प्रसन्न हों ।। ३४।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

अग्निर्मुखं यस्य तु जातवेदा जातः क्रियाकाण्डनिमित्तजन्मा । अन्तःसमुद्रेऽनुपचन् स्वधातून् प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ।।३५

यच्चक्षुरासीत् तरणिर्देवयानं त्रयीमयो ब्रह्मण एष धिष्ण्यम् । द्वारं च मुक्तेरमृतं च मृत्युः प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ।।३६

प्राणादभूद् यस्य चराचराणां प्राणः सहो बलमोजश्च वायुः । अन्वास्म सम्राजमिवानुगा वयं प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ।।३७

श्रोत्राद् दिशो यस्य हृदश्च खानि प्रजज्ञिरे खं पुरुषस्य नाभ्याः । प्राणेन्द्रियात्मासुशरीरकेतं प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ।।३८

बलान्महेन्द्रस्त्रिदशाः प्रसादा- न्मन्योर्गिरीशो धिषणाद् विरिञ्चः । खेभ्यश्च छन्दांस्पृषयो मेढ्रतः कः प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ।।३९

श्रीर्वक्षसः पितरश्छाययाऽऽसन् धर्मः स्तनादितरः पृष्ठतोऽभूत् । द्यौर्यस्य शीष्र्णोऽप्सरसो विहारात् प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ।।४०

(अनुवाद: -)

 

अग्नि प्रभुका मुख है। इसकी उत्पत्ति ही इसलिये हुई है कि वेदके यज्ञ-यागादि कर्मराण्ड पूर्णरूपसे सम्पन्न हो सकें।

यह अग्नि ही शरीरके भीतर जठराग्निरूपसे और समुद्रके भीतर बड़वानलके रूपसे रहकर उनमें रहनेवाले अन्न, जल आदि धातुओंका पाचन करता रहता है और समस्त द्रव्योंकी उत्पत्ति भी उसीसे हुई है। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।। ३५।।

जिनके द्वारा जीव देवयानमार्गसे ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है, जो वेदोंकी साक्षात् मूर्ति और भगवान्के ध्यान करनेयोग्य धाम हैं,

जो पुण्यलोकस्वरूप होनेके कारण मुक्तिके द्वार एवं अमृतमय हैं और कालरूप होनेके कारण मृत्यु भी हैं- ऐसे सूर्य जिनके नेत्र हैं, वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।। ३६।।

प्रभुके प्राणसे ही चराचरका प्राण तथा उन्हें मानसिक, शारीरिक और इन्द्रियसम्बन्धी बल देनेवाला वायु प्रकट हुआ है। वह चक्रवर्ती सम्राट् है, तो इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ-देवता हम सब उसके अनुचर। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।। ३७।।

जिनके कानोंसे दिशाएँ, हृदयसे इन्द्रियगोलक और नाभिसे वह आकाश उत्पन्न हुआ है, जो पाँचों प्राण (प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान), दसों इन्द्रिय, मन, पाँचों असु (नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय) एवं शरीरका आश्रय है- वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।। ३८।।

जिनके बलसे इन्द्र, प्रसन्नतासे समस्त देवगण, क्रोधसे शङ्कर, बुद्धिसे ब्रह्मा, इन्द्रियोंसे वेद और ऋषि तथा लिंगसे प्रजापति उत्पन्न हुए हैं- वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।। ३९।।

जिनके वक्षःस्थलसे लक्ष्मी, छायासे पितृगण, स्तनसे धर्म, पीठसे अधर्म, सिरसे आकाश और विहारसे अप्सराएँ प्रकट हुई हैं, वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।।४०।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

विप्रो मुखं ब्रह्म च यस्य गुह्यं राजन्य आसीद् भुजयोर्बलं च । ऊर्वोर्विडोजोऽ‌ङ्घ्रिरवेदशूद्रौ प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ।।४१लोभोऽधरात् प्रीतिरुपर्यभूद् द्युति- र्नस्तः पशव्यः स्पर्शन कामः ।

भुवोर्यमः पक्ष्मभवस्तु कालः प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ।।४२

द्रव्यं वयः कर्म गुणान्विशेषं यद्योगमायाविहितान्वदन्ति । यद् दुर्विभाव्यं प्रबुधापबाधं प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ।।४३

नमोऽस्तु तस्मा उपशान्तशक्तये स्वाराज्यलाभप्रतिपूरितात्मने । गुणेषु मायारचितेषु वृत्तिभि- र्न सज्जमानाय नभस्वदूतये ।।४४

स त्वं नो दर्शयात्मानमस्मत्करणगोचरम् । प्रपन्नानां दिदृक्षूणां सस्मितं ते मुखाम्बुजम् ।।४५

तैस्तैः स्वेच्छाधृतै रूपैः काले काले स्वयं विभो । कर्म दुर्विषहं यन्नो भगवांस्तत् करोति हि ।।४६

क्लेशभूर्यल्पसाराणि कर्माणि विफलानि वा । देहिनां विषयार्तानां न तथैवार्पितं त्वयि ।।४७

(अनुवाद: -)

 

जिनके मुखसे ब्राह्मण और अत्यन्त रहस्यमय वेद, भुजाओंसे क्षत्रिय और बल, जंघाओंसे वैश्य और उनकी वृत्ति-व्यापारकुशलता तथा चरणोंसे वेदबाह्य शूद्र और उनकी सेवा आदि वृत्ति प्रकट हुई है- वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।।४१।।

जिनके अधरसे लोभ और ओष्ठसे प्रीति, नासिकासे कान्ति, स्पर्शसे पशुओंका प्रिय काम, भौंहोंसे यम और नेत्रके रोमोंसे कालकी उत्पत्ति हुई है- वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।।४२।।

पंचभूत, काल, कर्म, सत्त्वादि गुण और जो कुछ विवेकी पुरुषोंके द्वारा बाधित किये जानेयोग्य निर्वचनीय या अनिर्वचनीय विशेष पदार्थ हैं, वे सब-के-सब भगवान्‌की योगमायासे ही बने हैं- ऐसा शास्त्र कहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।।४३।।

जो मायानिर्मित गुणोंमें दर्शनादि वृत्तियोंके द्वारा आसक्त नहीं होते, जो वायुके समान सदा-सर्वदा असंग रहते हैं, जिनमें समस्त शक्तियाँ शान्त हो गयी हैं- उन अपने आत्मानन्दके लाभसे परिपूर्ण आत्मस्वरूप भगवान्‌को हमारे नमस्कार हैं ।।४४।।

प्रभो ! हम आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त आपका मुखकमल अपने इन्हीं नेत्रोंसे देखें। आप कृपा करके हमें उसका दर्शन कराइये ।।४५।।

प्रभो! आप समय-समयपर स्वयं ही अपनी इच्छासे अनेकों रूप धारण करते हैं और जो काम हमारे लिये अत्यन्त कठिन होता है, उसे आप सहजमें ही कर देते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं, आपके लिये इसमें कौन-सी कठिनाई है ।।४६।।

विषयोंके लोभमें पड़कर जो देहाभिमानी दुःख भोग रहे हैं, उन्हें कर्म करनेमें परिश्रम और क्लेश तो बहुत अधिक होता है; परन्तु फल बहुत कम निकलता है।

अधिकांशमें तो उनके विफलता ही हाथ लगती है। परन्तु जो कर्म आपको समर्पित किये जाते हैं, उनके करनेके समय ही परम सुख मिलता है। वे स्वयं फलरूप ही हैं ।।४७।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

नावमः कर्मकल्पोऽपि विफलायेश्वरार्पितः । कल्पते पुरुषस्यैष स ह्यात्मा दयितो हितः १ ।।४८

यथा हि स्कन्धशाखानां तरोर्मूलावसेचनम् । एवमाराधनं विष्णोः सर्वेषामात्मनश्च हि ।।४९

नमस्तुभ्यमनन्ताय दुर्वितर्यात्मकर्मणे । निर्गुणाय गुणेशाय सत्त्वस्थाय च साम्प्रतम् ।।५०

(अनुवाद: -)

 

भगवान्को समर्पित किया हुआ छोटे-से-छोटा कर्माभास भी कभी विफल नहीं होता। क्योंकि भगवान् जीवके परम हितैषी, परम प्रियतम और आत्मा ही हैं ।।४८।।

जैसे वृक्षकी जड़को पानीसे सींचना उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं और छोटी-छोटी डालियोंको भी सींचना है, वैसे ही सर्वात्मा भगवान्‌की आराधना सम्पूर्ण प्राणियोंकी और अपनी भी आराधना है ।।४९।।

जो तीनों काल और उससे परे भी एकरस स्थित हैं, जिनकी लीलाओंका रहस्य तर्क-वितर्कके परे है, जो स्वयं गुणोंसे परे रहकर भी सब गुणोंके स्वामी हैं तथा इस समय सत्त्वगुणमें स्थित हैं- ऐसे आपको हम बार-बार नमस्कार करते हैं ।। ५०।।

इति श्रीम‌द्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धेऽमृतमथने पञ्चमोऽध्यायः ।।५।।

२. प्रा० पा०- राजंश्चरितमेतत्ते ।

* यह प्रसंग विष्णुपुराणमें इस प्रकार आया है। एक बार श्रीदुर्वासाजी वैकुण्ठलोकसे आ रहे थे। मार्गमें ऐरावतपर चढ़े देवराज इन्द्र मिले। उन्हें त्रिलोकाधिपति जानकर दुर्वासाजीने भगवान्‌के प्रसादकी माला दी; किन्तु इन्द्रने ऐश्वर्यके मदसे उसका कुछ भी आदर न कर उसे ऐरावतके मस्तकपर डाल दिया। ऐरावतने उसे सूँड़में लेकर पैरोंसे कुचल डाला। इससे दुर्वासाजीने क्रोधित होकर शाप दिया कि तू तीनों लोकोंसहित शीघ्र ही श्रीहीन हो जायगा। १. प्रा० पा०- नमामहे।

महा०। १. प्रा० पा०- यदेकवर्णं मनसः परं। २. प्रा० पा० – मन्नमायुः। ३. प्रा० पा०- ब्रह्म

शूद्रः ।

१. प्रा० पा०- ब्रह्म महा०। २. प्रा० पा०- र्गिरित्रो।

१. प्रा० पा०- मुखाद्। २. प्रा० पा०- करयो०। ३. प्रा० पा०- ऊर्वोर्विशोऽङ्ग्रेरभवच्च

१. प्रा० पा०-विभुः।

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