Bhagwat puran skandh 8 chapter 24(भागवत पुराण अष्टम: स्कन्ध:अध्याय चौबीस भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा)
(संस्कृत श्लोक: -)
राजोवाच
भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि हरेरद्भुतकर्मणः । अवतारकथामाद्यां मायामत्स्यविडम्बनम् ।।१
यदर्थमदधाद् रूपं मात्स्यं लोकजुगुप्सितम् । तमः प्रकृति दुर्मर्ष कर्मग्रस्त इवेश्वरः ।।२
एतन्नो भगवन् सर्वं यथावद् वक्तुमर्हसि । उत्तमश्लोकचरितं सर्वलोकसुखावहम् ।।३
सूत उवाच
इत्युक्तो विष्णुरातेन भगवान् बादरायणिः । उवाच चरितं विष्णोर्मत्स्यरूपेण यत् कृतम् ।।४
राजा परीक्षित्ने पूछा- भगवान्के कर्म बड़े अद्भुत हैं। उन्होंने एक बार अपनी योगमायासे मत्स्यावतार धारण करके बड़ी सुन्दर लीला की थी, मैं उनके उसी आदि- अवतारकी कथा सुनना चाहता हूँ ।।१।।
भगवन्! मत्स्ययोनि एक तो यों ही लोकनिन्दित है, दूसरे तमोगुणी और असह्य परतन्त्रतासे युक्त भी है। सर्वशक्तिमान् होनेपर भी भगवान्ने कर्मबन्धनमें बँधे हुए जीवकी तरह यह मत्स्यका रूप क्यों धारण किया? ।।२।।
भगवन्! महात्माओंके कीर्तनीय भगवान्का चरित्र समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाला है। आप कृपा करके उनकी वह सब लीला हमारे सामने पूर्णरूपसे वर्णन कीजिये ।।३।।
सूतजी कहते हैं- शौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित्ने भगवान् श्रीशुकदेवजीसे यह प्रश्न किया, तब उन्होंने विष्णुभगवान्का वह चरित्र जो उन्होंने मत्स्यावतार धारण करके किया था, वर्णन किया ।।४।।
(संस्कृत श्लोक: -)
श्रीशुक उवाच
गोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि चेश्वरः । रक्षामिच्छंस्तनूर्धत्ते धर्मस्यार्थस्य चैव हि ।।५
उच्चावचेषु भूतेषु चरन् वायुरिवेश्वरः । नोच्चावचत्वं भजते निर्गुणत्वाद्धियो गुणैः ।।६
आसीदतीतकल्पान्ते ब्राह्मो नैमित्तिको लयः । समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भूरादयो नृप ।।७
कालेनागतनिद्रस्य धातुः शिशयिषोर्बली । मुखतो निःसृतान् वेदान् हयग्रीवोऽन्तिकेऽहरत् ।।८
ज्ञात्वा तद् दानवेन्द्रस्य हयग्रीवस्य चेष्टितम् । दधार शफरीरूपं भगवान् हरिरीश्वरः ।।९
तत्र राजऋषिः कश्चिन्नाम्ना सत्यव्रतो महान् । नारायणपरोऽतप्यत् तपः स सलिलाशनः ।।१०
योऽसावस्मिन् महाकल्पे तनयः स विवस्वतः । श्राद्धदेव इति ख्यातो मनुत्वे हरिणार्पितः ।।११
एकदा कृतमालायां कुर्वतो जलतर्पणम् । तस्याञ्जल्युदके काचिच्छफर्येकाभ्यपद्यत ।।१२
सत्यव्रतोऽञ्जलिगतां सह तोयेन भारत । उत्ससर्ज नदीतोये शफरीं द्रविडेश्वरः ।।१३
तमाह सातिकरुणं महाकारुणिकं नृपम् । यादोभ्यो ज्ञातिघातिभ्यो दीनां मां दीनवत्सल । कथं विसृजसे राजन् भीतामस्मिन् सरिज्जले ।।१४
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! यों तो भगवान् सबके एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म और अर्थकी रक्षाके लिये शरीर धारण किया करते हैं ।।५।।
वे सर्वशक्तिमान् प्रभु वायुकी तरह नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियोंमें अन्तर्यामीरूपसे लीला करते रहते हैं। परन्तु उन-उन प्राणियोंके बुद्धिगत गुणोंसे वे छोटे-बड़े या ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते। क्योंकि वे वास्तवमें समस्त प्राकृत गुणोंसे रहित – निर्गुण हैं ।।६।।
परीक्षित् ! पिछले कल्पके अन्तमें ब्रह्माजीके सो जानेके कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय भूर्लोक आदि सारे लोक समुद्रमें डूब गये थे ।।७।।
प्रलयकाल आ जानेके कारण ब्रह्माजीको नींद आ रही थी, वे सोना चाहते थे। उसी समय वेद उनके मुखसे निकल पड़े और उनके पास ही रहनेवाले हयग्रीव नामक बली दैत्यने उन्हें योगबलसे चुरा लिया ।।८।।
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिने दानवराज हयग्रीवकी यह चेष्टा जान ली। इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार ग्रहण किया ।।९।।
परीक्षित् ! उस समय सत्यव्रत नामके एक बड़े उदार एवं भगवत्परायण राजर्षि केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे ।।१०।।
वही सत्यव्रत वर्तमान महाकल्पमें विवस्वान् (सूर्य)-के पुत्र श्राद्धदेवके नामसे विख्यात हुए और उन्हें भगवान्ने वैवस्वत मनु बना दिया ।।११।।
एक दिन वे राजर्षि कृतमाला नदीमें जलसे तर्पण कर रहे थे। उसी समय उनकी अंजलिके जलमें एक छोटी-सी मछली आ गयी ।।१२।।
परीक्षित् ! द्रविडदेशके राजा सत्यव्रतने अपनी अंजलिमें आयी हुई मछलीको जलके साथ ही फिरसे नदीमें डाल दिया ।।१३।।
उस मछलीने बड़ी करुणाके साथ परम दयालु राजा सत्यव्रतसे कहा- ‘राजन् ! आप बड़े दीनदयालु हैं। आप जानते ही हैं कि जलमें रहनेवाले जन्तु अपनी जातिवालोंको भी खा डालते हैं। मैं उनके भयसे अत्यन्त व्याकुल हो रही हूँ। आप मुझे फिर इसी नदीके जलमें क्यों छोड़ रहे हैं? ।।१४।।
(संस्कृत श्लोक: -)
तमात्मनोऽनुग्रहार्थं प्रीत्या मत्स्यवपुर्धरम् । अजानन् रक्षणार्थाय शफर्याः स मनो दधे ।।१५
तस्या दीनतरं वाक्यमाश्रुत्य स महीपतिः । कलशाप्सु निधायैनां दयालुर्निन्य आश्रमम् ।।१६
सा तु तत्रैकरात्रेण वर्धमाना कमण्डलौ । अलब्ध्वाऽऽत्मावकाशं वा इदमाह महीपतिम् ।।१७
नाहं कमण्डलावस्मिन् कृच्छ्र वस्तुमिहोत्सहे । कल्पयौकः सुविपुलं यत्राहं निवसे सुखम् ।।१८
स एनां तत आदाय न्यधादौदञ्चनोदके ।
तत्र क्षिप्ता मुहूर्तेन हस्तत्रयमवर्धत ।।१९
न म एतदलं राजन् सुखं वस्तुमुदञ्चनम् । पृथु देहि पदं मह्यं यत् त्वाहं शरणं गता ।।२०
तत आदाय सा राज्ञा क्षिप्ता राजन् सरोवरे ।
तदावृत्यात्मना सोऽयं महामीनोऽन्ववर्धत ।।२१
नैतन्मे स्वस्तये राजन्नुदकं सलिलौकसः । निधेहि रक्षायोगेन ह्रदे मामविदासिनि ।।२२
इत्युक्तः सोऽनयन्मत्स्यं तत्र तत्राविदासिनि । जलाशये सम्मितं तं समुद्रे प्राक्षिपज्झषम् ।।२३
क्षिप्यमाणस्तमाहेदमिह मां मकरादयः । अदन्त्यतिबला वीर मां नेहोत्स्रष्टुमर्हसि ।।२४
राजा सत्यव्रतको इस बातका पता नहीं था कि स्वयं भगवान् मुझपर प्रसन्न होकर कृपा करनेके लिये मछलीके रूपमें पधारे हैं। इसलिये उन्होंने उस मछलीकी रक्षाका मन-ही-मन संकल्प किया ।।१५।।
राजा सत्यव्रतने उस मछलीकी अत्यन्त दीनतासे भरी बात सुनकर बड़ी दयासे उसे अपने पात्रके जलमें रख लिया और अपने आश्रमपर ले आये ।।१६।।
आश्रमपर लानेके बाद एक रातमें ही वह मछली उस कमण्डलुमें इतनी बढ़ गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा। उस समय मछलीने राजासे कहा ।।१७।।
‘अब तो इस कमण्डलुमें मैं कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती; अतः मेरे लिये कोई बड़ा-सा स्थान नियत कर दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ’ ।।१८।।
राजा सत्यव्रतने मछलीको कमण्डलुसे निकालकर एक बहुत बड़े पानीके मटकेमें रख दिया। परन्तु वहाँ डालनेपर वह मछली दो ही घड़ीमें तीन हाथ बढ़ गयी ।।१९।।
फिर उसने राजा सत्यव्रतसे कहा- ‘राजन्! अब यह मटका भी मेरे लिये पर्याप्त नहीं है। इसमें मैं सुखपूर्वक नहीं रह सकती। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ, इसलिये मेरे रहनेयोग्य कोई बड़ा-सा स्थान मुझे दो’ ।। २० ।।
परीक्षित् ! सत्यव्रतने वहाँसे उस मछलीको उठाकर एक सरोवरमें डाल दिया। परन्तु वह थोड़ी ही देरमें इतनी बढ़ गयी कि उसने एक महामत्स्यका आकार धारण कर उस सरोवरके जलको घेर लिया ।।२१।।
और कहा – ‘राजन्! मैं जलचर प्राणी हूँ। इस सरोवरका जल भी मेरे सुखपूर्वक रहनेके लिये पर्याप्त नहीं है।
इसलिये आप मेरी रक्षा कीजिये और मुझे किसी अगाध सरोवरमें रख दीजिये, ।।२२।।
मत्स्यभगवान्के इस प्रकार कहनेपर वे एक-एक करके उन्हें कई अटूट जलवाले सरोवरोंमें ले गये; परन्तु जितना बड़ा सरोवर होता, उतने ही बड़े वे बन जाते।
अन्तमें उन्होंने उन लीलामत्स्यको समुद्रमें छोड़ दिया ।। २३ ।।
समुद्रमें डालते समय मत्स्यभगवान्ने सत्यव्रतसे कहा- ‘वीर! समुद्रमें बड़े-बड़े बली मगर आदि रहते हैं, वे मुझे खा जायँगे, इसलिये आप मुझे समुद्रके जलमें मत छोड़िये’ ।। २४।।
(संस्कृत श्लोक: -)
एवं विमोहितस्तेन वदता वल्गुभारतीम् । तमाह को भवानस्मान् मत्स्यरूपेण मोहयन् ।। २५
नैवंवीर्यो जलचरो दृष्टोऽस्माभिः श्रुतोऽपि च । यो भवान् योजनशतमह्वाभिव्यानशे सरः ।।२६
नूनं त्वं भगवान् साक्षाद्धरिर्नारायणोऽव्ययः । अनुग्रहाय भूतानां धत्से रूपं जलौकसाम् ।। २७
नमस्ते पुरुषश्रेष्ठ स्थित्युत्पत्त्यप्ययेश्वर । भक्तानां नः प्रपन्नानां मुख्यो ह्यात्मगतिर्विभो ।।२८
सर्वे लीलावतारास्ते भूतानां भूतिहेतवः । ज्ञातुमिच्छाम्यदो रूपं यदर्थं भवता धृतम् ।।२९
न तेऽरविन्दाक्ष पदोपसर्पणं मृषा भवेत् सर्वसुहृत्प्रियात्मनः । यथेतरेषां पृथगात्मनां सता- मदीदृशो यद् वपुरद्भुतं हि नः ।।३०
श्रीशुक उवाच
इति ब्रुवाणं नृपतिं जगत्पतिः सत्यव्रतं मत्स्यवपुर्युगक्षये । विहर्तुकामः प्रलयार्णवेऽब्रवी- च्चिकीर्षुरकान्तजनप्रियः प्रियम् ।।३१
श्रीभगवानुवाच
सप्तमेऽद्यतनादूर्ध्वमहन्येतदरिन्दम । निमक्ष्यत्यप्ययाम्भोधौ त्रैलोक्यं भूर्भुवादिकम् ।।३२
त्रिलोक्यां लीयमानायां संवर्ताम्भसि वै तदा । उपस्थास्यति नौः काचिद् विशाला त्वां मयेरिता ।।३३
मत्स्यभगवान्की यह मधुर वाणी सुनकर राजा सत्यव्रत मोहमुग्ध हो गये। उन्होंने कहा – ‘मत्स्यका रूप धारण करके मुझे मोहित करनेवाले आप कौन हैं? ।। २५ ।।
आपने एक ही दिनमें चार सौ कोसके विस्तारका सरोवर घेर लिया। आजतक ऐसी शक्ति रखनेवाला जलचर जीव तो न मैंने कभी देखा था और न सुना ही था ।।२६।।
अवश्य ही आप साक्षात् सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं। जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही आपने जलचरका रूप धारण किया है ।। २७।।
पुरुषोत्तम ! आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके स्वामी हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभो! हम शरणागत भक्तोंके लिये आप ही आत्मा और आश्रय हैं ।। २८।।
यद्यपि आपके सभी लीलावतार प्राणियोंके अभ्युदयके लिये ही होते हैं, तथापि मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपने यह रूप किस उद्देश्यसे ग्रहण किया है ।। २९।।
कमलनयन प्रभो! जैसे देहादि अनात्मपदार्थोंमें अपनेपनका अभिमान करनेवाले संसारी पुरुषोंका आश्रय व्यर्थ होता है, उस प्रकार आपके चरणोंकी शरण तो व्यर्थ हो नहीं सकती; क्योंकि आप सबके अहैतुक प्रेमी, परम प्रियतम और आत्मा हैं। आपने इस समय जो रूप धारण करके हमें दर्शन दिया है, यह बड़ा ही अद्भुत है ।। ३०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! भगवान् अपने अनन्य प्रेमी भक्तोंपर अत्यन्त प्रेम करते हैं। जब जगत्पति मत्स्यभगवान्ने अपने प्यारे भक्त राजर्षि सत्यव्रतकी यह प्रार्थना सुनी तो उनका प्रिय और हित करनेके लिये, साथ ही कल्पान्तके प्रलयकालीन समुद्रमें विहार करनेके लिये उनसे कहा ।।३१।।
श्रीभगवान्ने कहा- सत्यव्रत ! आजसे सातवें दिन भूर्लोक आदि तीनों लोक प्रलयके समुद्रमें डूब जायँगे ।।३२।। उस समय जब तीनों लोक प्रलयकालकी जलराशिमें डूबने लगेंगे, तब मेरी प्रेरणासे तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आयेगी ।। ३३।।
(संस्कृत श्लोक: -)
त्वं तावदोषधीः सर्वा बीजान्युच्चावचानि च ।
सप्तर्षिभिः परिवृतः सर्वसत्त्वोपबृंहितः ।।३४
आरुह्य बृहतीं नावं विचरिष्यस्यविक्लवः ।
एकार्णवे निरालोके ऋषीणामेव वर्चसा ।।३५
दोधूयमानां तां नावं समीरेण बलीयसा ।
उपस्थितस्य मे शृङ्गे निबध्नीहि महाहिना ।। ३६
अहं त्वामृषिभिः साकं सहनावमुदन्वति ।
विकर्षन् विचरिष्यामि यावद् ब्राह्मी निशा प्रभो ।।३७
मदीयं महिमानं च परं ब्रह्मेति शब्दितम् । वेत्स्यस्यनुगृहीतं मे संप्रश्नैर्विवृतं हृदि ।।३८
इत्थमादिश्य राजानं हरिरन्तरधीयत ।सोऽन्ववैक्षत तं कालं यं हृषीकेश आदिशत् ।।३९
आस्तीर्य दर्भान् प्राक्कूलान् राजर्षिः प्रागुदङ्मुखः । निषसाद हरेः पादौ चिन्तयन् मत्स्यरूपिणः ।।४०
ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः प्लावयन् महीम् । वर्धमानो महामेधैर्वर्षद्भिः समदृश्यत ।।४१
ध्यायन् भगवदादेशं ददृशे नावमागताम् । तामारुरोह विप्रेन्द्रैरादायोषधिवीरुधः ।।४२
तमूचुर्मुनयः प्रीता राजन् ध्यायस्व केशवम् । स वै नः संकटादस्मादविता शं विधास्यति ।।४३
उस समय तुम समस्त प्राणियोंके सूक्ष्मशरीरोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उस नौकापर चढ़ जाना और समस्त धान्य तथा छोटे-बड़े अन्य प्रकारके बीजोंको साथ रख लेना ।।३४।।
उस समय सब ओर एकमात्र महासागर लहराता होगा। प्रकाश नहीं होगा। केवल ऋषियोंकी दिव्य ज्योतिके सहारे ही बिना किसी प्रकारकी विकलताके तुम उस बड़ी नावपर चढ़कर चारों ओर विचरण करना ।। ३५।।
जब प्रचण्ड आँधी चलनेके कारण नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं इसी रूपमें वहाँ आ जाऊँगा और तुम लोग वासुकिनागके द्वारा उस नावको मेरे सींगमें बाँध देना ।। ३६ ।।
सत्यव्रत! इसके बाद जबतक ब्रह्माजीकी रात रहेगी तबतक मैं ऋषियोंके साथ तुम्हें उस नावमें बैठाकर उसे खींचता हुआ समुद्रमें विचरण करूँगा ।। ३७।।
उस समय जब तुम प्रश्न करोगे तब मैं तुम्हें उपदेश दूँगा। मेरे अनुग्रहसे मेरी वास्तविक महिमा, जिसका नाम ‘परब्रह्म’ है, तुम्हारे हृदयमें प्रकट हो जायगी और तुम उसे ठीक-ठीक जान लोगे ।। ३८।।
भगवान् राजा सत्यव्रतको यह आदेश देकर अन्तर्धान हो गये। अतः अब राजा सत्यव्रत उसी समयकी प्रतीक्षा करने लगे, जिसके लिये भगवान्ने आज्ञा दी थी ।।३९।।
कुशोंका अग्रभाग पूर्वकी ओर करके राजर्षि सत्यव्रत उनपर पूर्वोत्तर मुखसे बैठ गये और मत्स्यरूप भगवान्के चरणोंका चिन्तन करने लगे ।।४०।।
इतनेमें ही भगवान्का बताया हुआ वह समय आ पहुँचा। राजाने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा छोड़कर बढ़ रहा है। प्रलयकालके भयङ्कर मेघ वर्षा करने लगे। देखते-ही-देखते सारी पृथ्वी डूबने लगी ।।४१।।
तब राजाने भगवान्की आज्ञाका स्मरण किया और देखा कि नाव भी आ गयी है। तब वे धान्य तथा अन्य बीजोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उसपर सवार हो गये ।।४२।।
सप्तर्षियोंने बड़े प्रेमसे राजा सत्यव्रतसे कहा- ‘राजन् ! तुम भगवान्का ध्यान करो। वे ही हमें इस संकटसे बचायेंगे और हमारा कल्याण करेंगे’ ।।४३।।
(संस्कृत श्लोक: -)
सोऽनुध्यातस्ततो राज्ञा प्रादुरासीन्महार्णवे । एकशृङ्गधरो मत्स्यो हैमो नियुतयोजनः ।।४४
निबध्य नावं तच्छृङ्गे यथोक्तो हरिणा पुरा । वरत्रेणाहिना तुष्टस्तुष्टाव मधुसूदनम् ।।४५
राजोवाच
अनाद्यविद्योपहतात्मसंविद- स्तन्मूलसंसारपरिश्रमातुराः ।
यदृच्छयेहोपसृता यमाप्नुयु- र्विमुक्तिदो नः परमो गुरुर्भवान् ।।४६
जनोऽबुधोऽयं निजकर्मबन्धनः सुखेच्छ्या कर्म समीहतेऽसुखम् । यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिं ग्रन्थिं स भिन्द्याद्धृदयं स नो गुरुः ।।४७
यत्सेवयाग्नेरिव रुद्ररोदनं पुमान् विजह्यान्मलमात्मनस्तमः । भजेत वर्णं निजमेष सोऽव्ययो भूयात् स ईशः परमो गुरोर्गुरुः ।।४८
न यत्प्रसादायुतभागलेश- मन्ये च देवा गुरवो जनाः स्वयम् । कर्तुं समेताः प्रभवन्ति पुंस-स्तमीश्वरं त्वां शरणं प्रपद्ये ।।४९
अचक्षुरन्धस्य यथाग्रणीः कृत- स्तथा जनस्याविदुषोऽबुधो गुरुः । त्वमर्कदृक् सर्वदृशां समीक्षणो वृतो गुरुर्नः स्वगतिं बुभुत्सताम् ।।५०
उनकी आज्ञासे राजाने भगवान्का ध्यान किया। उसी समय उस महान् समुद्रमें मत्स्यके रूपमें भगवान् प्रकट हुए। मत्स्यभगवान्का शरीर सोनेके समान देदीप्यमान था और शरीरकाविस्तार था चार लाख कोस। उनके शरीरमें एक बड़ा भारी सींग भी था ।।४४।।
भगवान्ने पहले जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार वह नौका वासुकिनागके द्वारा भगवान्के सींगमें बाँध दी गयी और राजा सत्यव्रतने प्रसन्न होकर भगवान्की स्तुति की ।।४५।।
राजा सत्यव्रतने कहा- प्रभो! संसारके जीवोंका आत्मज्ञान अनादि अविद्यासे ढक गया है। इसी कारण वे संसारके अनेकानेक क्लेशोंके भारसे पीड़ित हो रहे हैं।
जब अनायास ही आपके अनुग्रहसे वे आपकी शरणमें पहुँच जाते हैं तब आपको प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये हमें बन्धनसे छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देनेवाले परम गुरु आप ही हैं ।।४६।।
यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मोंसे बँधा हुआ है। वह सुखकी इच्छासे दुःखप्रद
कर्मोंका अनुष्ठान करता है। जिनकी सेवासे उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है वे ही मेरे परम
गुरु आप मेरे हृदयकी गाँठ काट दें ।। ४७।। जैसे अग्निमें तपानेसे सोने-चाँदीके मल दूर हो
जाते हैं और उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है, वैसे ही आपकी सेवासे जीव अपने
अन्तःकरणका अज्ञानरूप मल त्याग देता है और अपने वास्तविक स्वरूपमें स्थित हो जाता
है। आप सर्वशक्तिमान् अविनाशी प्रभु ही हमारे गुरुजनोंके भी परम गुरु हैं। अतः आप ही
हमारे भी गुरु बनें ।।४८।। जितने भी देवता, गुरु और संसारके दूसरे जीव हैं- वे सब यदि
स्वतन्त्ररूपसे एक साथ मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपाके दस हजारवें अंशके
अंशकी भी बराबरी नहीं कर सकते। प्रभो! आप ही सर्वशक्तिमान् हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण
करता हूँ ।।४९।। जैसे कोई अंधा अंधेको ही अपना पथप्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव
अज्ञानीको ही अपना गुरु बनाते हैं। आप सूर्यके समान स्वयंप्रकाश और समस्त इन्द्रियोंके
प्रेरक हैं। हम आत्मतत्त्वके जिज्ञासु आपको ही गुरुके रूपमें वरण करते हैं ।।५०।।
(संस्कृत श्लोक: -)
जनो जनस्यादिशतेऽसतीं मतिं यया प्रपद्येत दुरत्ययं तमः । त्वं त्वव्ययं ज्ञानममोघमञ्जसा प्रपद्यते येन जनो निजं पदम् ।।५१
त्वं सर्वलोकस्य सुहृत् प्रियेश्वरो ह्यात्मा गुरुर्जानमभीष्टसिद्धिः २ । तथापि लोको न भवन्तमन्धधी- र्जानाति सन्तं हृदि बद्धकामः ।।५२
तं त्वामहं देववरं वरेण्यं प्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय । छिन्ध्यर्थदीपैर्भगवन् वचोभि- ग्रन्थीन् हृदय्यान् विवृणु स्वमोकः ।।५३ श्रीशुक उवाच
इत्युक्तवन्तं नृपतिं भगवानादिपूरुषः । मत्स्यरूपी महाम्भोधौ विहरंस्तत्त्वमब्रवीत् ।।५४
पुराणसंहितां दिव्यां सांख्ययोगक्रियावतीम् । सत्यव्रतस्य राजर्षेरात्मगुह्यमशेषतः ।।५५
अश्रौषीदृषिभिः साकमात्मतत्त्वमसंशयम् । नाव्यासीनो भगवता प्रोक्तं ब्रह्म सनातनम् ।।५६
अतीतप्रलयापाय उत्थिताय स वेधसे । हत्वासुरं हयग्रीवं वेदान् प्रत्याहरद्धरिः ।।५७
अज्ञानी मनुष्य अज्ञानियोंको जिस ज्ञानका उपदेश करता है वह तो अज्ञान ही है। उसके द्वारा संसाररूप घोर अन्धकारकी अधिकाधिक प्राप्ति होती है।
परन्तु आप तो उस अविनाशी और अमोघ ज्ञानका उपदेश करते हैं जिससे मनुष्य अनायास ही अपने वास्तविक स्वरूपको प्राप्त कर लेता है ।। ५१ ।।
आप सारे लोकके सुहृद्, प्रियतम, ईश्वर और आत्मा हैं। गुरु, उसके द्वारा प्राप्त होनेवाला ज्ञान और अभीष्टकी सिद्धि भी आपका ही स्वरूप है।
फिर भी कामनाओंके बन्धनमें जकड़े जाकर लोग अंधे हो रहे हैं। उन्हें इस बातका पता ही नहीं है कि आप उनके हृदयमें ही विराजमान् हैं ।।५२।।
आप देवताओंके भी आराध्यदेव, परम पूजनीय परमेश्वर हैं। मैं आपसे ज्ञान प्राप्त करनेके लिये आपकी शरणमें आया हूँ।
भगवन्! आप परमार्थको प्रकाशित करनेवाली अपनी वाणीके द्वारा मेरे हृदयकी ग्रन्थि काट डालिये और अपने स्वरूपको प्रकाशित कीजिये ।। ५३ ।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! जब राजा सत्यव्रतने इस प्रकार प्रार्थना की; तब मत्स्यरूपधारी पुरुषोत्तमभगवान्ने प्रलयके समुद्रमें विहार करते हुए उन्हें आत्मतत्त्वका उपदेश किया ।।५४।।
भगवान्ने राजर्षि सत्यव्रतको अपने स्वरूपके सम्पूर्ण रहस्यका वर्णन करते हुए ज्ञान, भक्ति और कर्मयोगसे परिपूर्ण दिव्य पुराणका उपदेश किया, जिसको ‘मत्स्यपुराण’ कहते हैं ।।५५।।
सत्यव्रतने ऋषियोंके साथ नावमें बैठे हुए ही सन्देहरहित होकर भगवान्के द्वारा उपदिष्ट सनातन ब्रह्मस्वरूप आत्मतत्त्वका श्रवण किया ।।५६।।
इसके बाद जब पिछले प्रलयका अन्त हो गया और ब्रह्माजीकी नींद टूटी, तब भगवान्ने हयग्रीव असुरको मारकर उससे वेद छीन लिये और ब्रह्माजीको दे दिये ।।५७।।
(संस्कृत श्लोक: -)
स तु सत्यव्रतो राजा ज्ञानविज्ञानसंयुतः । विष्णोः प्रसादात् कल्पेऽस्मिन्नासीद् वैवस्वतो मनुः ।।५८
सत्यव्रतस्य राजर्षेर्मायामत्स्यस्य शाङ्गिणः । संवादं महदाख्यानं श्रुत्वा मुच्येत किल्बिषात् ।।५९
अवतारो हरेर्योऽयं कीर्तयेदन्वहं नरः । सङ्कल्पास्तस्य सिध्यन्ति स याति परमां गतिम् ।।६०
प्रलयपयसि धातुः सुप्तशक्तेर्मुखेभ्यः श्रुतिगणमपनीतं प्रत्युपादत्त हत्वा । दितिजमकथयद् यो ब्रह्म सत्यव्रतानां तमहमखिलहेतुं जिह्ममीनं नतोऽस्मि ।।६१
भगवान्की कृपासे राजा सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञानसे संयुक्त होकर इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए ।।५८।।
अपनी योगमायासे मत्स्यरूप धारण करनेवाले भगवान् विष्णु और राजर्षि सत्यव्रतका यह संवाद एवं श्रेष्ठ आख्यान सुनकर मनुष्य सब प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है ।।५९।।
जो मनुष्य भगवान्के इस अवतारका प्रतिदिन कीर्तन करता है, उसके सारे संकल्प सिद्ध हो जाते हैं और उसे परमगतिकी प्राप्ति होती है ।। ६० ।।
प्रलयकालीन समुद्रमें जब ब्रह्माजी सो गये थे, उनकी सृष्टिशक्ति लुप्त हो चुकी थी, उस समय उनके मुखसे निकली हुई श्रुतियोंको चुराकर हयग्रीव दैत्य पातालमें ले गया था।
भगवान्ने उसे मारकर वे श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लौटा दीं एवं सत्यव्रत तथा सप्तर्षियोंको ब्रह्मतत्त्वका उपदेश किया। उन समस्त जगत्के परम कारण लीलामत्स्यभगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ ।। ६१।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्रयां पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे मत्स्यावतारचरितानुवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ।।२४।।
१. प्रा० पा०- गतिं। २. प्रा० पा०- सिद्धिदः। ३. प्रा० पा० – देवदेवं । ४. प्रा० पा०-
समन्विताम्।
१. प्रा० पा०- सम्मतः।
।। इत्यष्टमः स्कन्धः समाप्तः ।।
।। हरिः ॐ तत्सत् ।।
।। श्रीहरिः ।।
[श्रीगोविन्ददामोदरस्तोत्रम्]
करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम् । वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ।।१।। श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ।।२।। विक्रेतुकामाखिलगोपकन्या मुरारिपादार्पितचित्तवृत्तिः । दध्यादिकं मोहवशादवोचद् गोविन्द दामोदर माधवेति ।।३।। गृहे गृहे गोपवधू-कदम्बाः सर्वे मिलित्वा समवाप्य योगम् । पुण्यानि नामानि पठन्ति नित्यं गोविन्द दामोदर माधवेति ।।४।। सुखं शयाना निलये निजेऽपि नामानि विष्णोः प्रवदन्ति मर्त्याः । ते निश्चितं तन्मयतां व्रजन्ति गोविन्द दामोदर माधवेति ।।५।। जिह्वे सदैवं भज सुन्दराणि नामानि कृष्णस्य मनोहराणि । समस्त-भक्तार्ति-विनाशनानि गोविन्द दामोदर माधवेति ।।६।। सुखावसाने इदमेव सारं दुःखावसाने इदमेव ज्ञेयम् । देहावसाने इदमेव जाप्यं गोविन्द दामोदर माधवेति ।।७।। जिह्वे रसज्ञे मधुर-प्रिये त्वं सत्यं हितं त्वां परमं वदामि । आवर्णयेथा मधुराक्षराणि गोविन्द दामोदर माधवेति ।।८।। त्वामेव याचे मम देहि जिह्वे समागते दण्डधरे कृतान्ते । वक्तव्यमेवं मधुरं सुभक्त्या गोविन्द दामोदर माधवेति ।।९।। श्रीकृष्ण राधावर गोकुलेश गोपाल गोवर्धन नाथ विष्णो । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ।।१०।।
षट्पदी
अविनयमपनय विष्णो दमय मनः शमय विषयमृगतृष्णाम् । भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरतः ।।१।।
दिव्यधुनीमकरन्दे परिमलपरिभोगसच्चिदानन्दे । श्रीपतिपदारविन्दे भवभयखेदच्छिदे वन्दे ।।२।। सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम् । सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः ।।३।। उद्धृतनग नगभिदनुज दनुजकुलामित्र मित्रशशिदृष्टे । दृष्टे भवति प्रभवति न भवति किं भवतिरस्कारः ।।४।। मत्स्यादिभिरवतारैरवतारवतावता सदा वसुधाम् । परमेश्वर परिपाल्यो भवता भवतापभीतोऽहम् ।।५।। दामोदर गुणमन्दिर सुन्दरवदनारविन्द गोविन्द । भवजलधिमथनमन्दर परमं दरमपनय त्वं मे ।।६।। नारायण करुणामय शरणं करवाणि तावकौ चरणौ । इति षट्पदी मदीये वदनसरोजे सदा वसतु ।।७।। इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं षट्पदीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
कैवल्याष्टकम्
मधुरं मधुरेभ्योऽपि मङ्गलेभ्योऽपि मङ्गलम् । पावनं पावनेभ्योऽपि हरेर्नामैव केवलम् ।।१।। आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मायामयं जगत् । सत्यं सत्यं पुनः सत्यं हरेर्नामैव केवलम् ।।२।। स गुरुः स पिता चापि सा माता बान्धवोऽपि सः । शिक्षयेच्चेत्सदा स्पर्तुं हरेर्नामैव केवलम् ।।३।। निःश्वासे न हि विश्वासः कदा रुद्धो भविष्यति । कीर्तनीयमतो बाल्याद्धरेर्नामैव केवलम् ।।४।। हरिः सदा वसेत्तत्र यत्र भागवता जनाः । गायन्ति भक्तिभावेन हरेर्नामैव केवलम् ।।५।। अहो दुःखं महादुःखं दुःखाद् दुःखतरं यतः । काचार्थं विस्मृतं रत्नं हरेर्नामैव केवलम् ।।६।। दीयतां दीयतां कर्णो नीयतां नीयतां वचः । गीयतां गीयतां नित्यं हरेर्नामैव केवलम् ।।७।।
तृणीकृत्य जगत्सर्वं राजते सकलोपरि । चिदानन्दमयं शुद्धं हरेर्नामैव केवलम् ।।८।। इति श्रीकैवल्याष्टकं सम्पूर्णम् ।
।। श्रीहरिः ।।
श्रीमद्भागवतकी आरती
आरति अतिपावन पुरानकी । धर्म-भक्ति-विज्ञान-खानकी ।। टेक ।। महापुरान भागवत निरमल । शुक-मुख-विगलित निगम-कल्प-फल । परमानन्द-सुधा-रसमय कल । लीला-रति-रस रसनिधानकी ।। आरति० ।। कलि-मल-मथनि त्रिताप-निवारिनि । जन्म-मृत्युमय भव-भय-हारिनि । सेवत सतत सकल सुख-कारिनि । सुमहौषधि हरि-चरित-गानकी ।। आरति ० ।।
विषय-विलास-विमोह-विनाशिनि । विमल विराग विवेक विकाशिनि । भगवत्-तत्त्व-रहस्य-प्रकाशिनि । परम ज्योति परमात्म-ज्ञानकी ।। आरति० ।।
परमहंस-मुनि-मन उल्लासिनि । रसिक-हृदय रस-रास विलासिनि । भुक्ति मुक्ति रति प्रेम सुदासिनि । कथा अकिञ्चनप्रिय सुजानकी ।। आरति ० ।।