Bhagwat puran skandh 8 chapter 20 (भागवत पुराण अष्टम: स्कन्ध:अध्याय बीस भगवान् वामनजीका विरारूप होकर दो ही पगसे पृथ्वी और स्वर्गको नाप लेना)

Bhagwat puran skandh 8 chapter 20 (भागवत पुराण अष्टम: स्कन्ध:अध्याय बीस भगवान् वामनजीका विरारूप होकर दो ही पगसे पृथ्वी और स्वर्गको नाप लेना)

(संस्कृत श्लोक: -)

 

श्रीशुक उवाच

बलिरेवं गृहपतिः कुलाचार्येण भाषितः । तूष्णीं भूत्वा क्षणं राजन्नुवाचावहितो गुरुम् ।।१

बलिरुवाच

सत्यं भगवता प्रोक्तं धर्मोऽयं गृहमेधिनाम् । अर्थ कामं यशो वृत्तिं यो न बाधेत कर्हिचित् ।।२

स चाहं वित्तलोभेन प्रत्याचक्षे कथं द्विजम् । प्रतिश्रुत्य ददामीति प्राह्रादिः कितवो यथा ।।३

न ह्यसत्यात् परोऽधर्म इति होवाच भूरियम् । सर्वं सोढुमलं मन्ये ऋतेऽलीकपरं नरम् ।।४

नाहं बिभेमि निरयान्नाधन्यादसुखार्णवात् । न स्थानच्यवनान्मृत्योर्यथा विप्रप्रलम्भनात् ।।५

यद् यद्धास्यति लोकेऽस्मिन्संपरेतं धनादिकम् । तस्य त्यागे निमित्तं किं विप्रस्तुष्येन्न तेन चेत् ।।६

श्रेयः कुर्वन्ति भूतानां साधवो दुस्त्यजासुभिः । दध्य‌ङ्क्षिबिप्रभृतयः को विकल्पो धरादिषु ।।७

यैरियं बुभुजे ब्रह्मन्दैत्येन्द्रैरनिवर्तिभिः । तेषां कालोऽग्रसील्लोकान् न यशोऽधिगतं भुवि ।।८

अनुवाद: –

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- राजन् ! जब कुलगुरु शुक्राचार्यने इस प्रकार कहा, तब आदर्श गृहस्थ राजा बलिने एक क्षण चुप रहकर बड़ी विनय और सावधानीसे शुक्राचार्यजीके प्रति यों कहा ।।१।।

राजा बलिने कहा- भगवन्! आपका कहना सत्य है। गृहस्थाश्रममें रहनेवालोंके लिये वही धर्म है जिससे अर्थ, काम, यश और आजीविकामें कभी किसी प्रकार बाधा न पड़े ।।२।।

परन्तु गुरुदेव ! मैं प्रह्लादजीका पौत्र हूँ और एक बार देनेकी प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। अतः अब मैं धनके लोभसे ठगकी भाँति इस ब्राह्मणसे कैसे कहूँ कि ‘मैं तुम्हें नहीं दूँगा’ ।।३।।

इस पृथ्वीने कहा है कि ‘असत्यसे बढ़कर कोई अधर्म नहीं है। मैं सब कुछ सहनेमें समर्थ हूँ, परन्तु झूठे मनुष्यका भार मुझसे नहीं सहा जाता’ ।।४।।

मैं नरकसे, दरिद्रतासे, दुःखके समुद्रसे, अपने राज्यके नाशसे और मृत्युसे भी उतना नहीं डरता, जितना ब्राह्मणसे प्रतिज्ञा करके उसे धोखा देनेसे डरता हूँ ।।५।।

इस संसारमें मर जानेके बाद धन आदि जो-जो वस्तुएँ साथ छोड़ देती हैं, यदि उनके द्वारा दान आदिसे ब्राह्मणोंको भी सन्तुष्ट न किया जा सका, तो उनके त्यागका लाभ ही क्या रहा? ।।६।।

दधीचि, शिबि आदि महापुरुषोंने अपने परम प्रिय दुस्त्यज प्राणोंका दान करके भी प्राणियोंकी भलाई की है। फिर पृथ्वी आदि वस्तुओंको देनेमें सोच-विचार करनेकी क्या आवश्यकता है? ।।७।।

ब्रह्मन् ! पहले युगमें बड़े-बड़े दैत्यराजोंने इस पृथ्वीका उपभोग किया है। पृथ्वीमें उनका सामना करनेवाला कोई नहीं था। उनके लोक और परलोकको तो काल खा गया, परन्तु उनका यश अभी पृथ्वीपर ज्यों-का-त्यों बना हुआ है ।।८।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

सुलभा युधि विप्रर्षे ह्यनिवृत्तास्तनुत्यजः ।

न तथा तीर्थ आयाते श्रद्धया ये धनत्यजः ।।९

मनस्विनः कारुणिकस्य शोभनं

यदर्थिकामोपनयेन दुर्गतिः । कुतः पुनर्ब्रह्मविदां भवादृशां ततो वटोरस्य ददामि वाञ्छितम् ।।१०

यजन्ति यज्ञक्रतुभिर्यमादृता भवन्त आम्नायविधानकोविदाः । स एव विष्णुर्वरदोऽस्तु वा परो दास्याम्यमुष्मै क्षितिमीप्सितां मुने ।।११

यदप्यसावधर्मेण मां बध्नीयादनागसम् । तथाप्येनं न हिंसिष्ये भीतं ब्रह्मतनुं रिपुम् ।।१२

एष वा उत्तमश्लोको न जिहासति यद् यशः । हत्वा मैनां हरेद् युद्धे शयीत निहतो मया ।।१३

श्रीशुक उवाच

एवमश्रद्धितं शिष्यमनादेशकरं गुरुः । शशाप दैवप्रहितः सत्यसन्धं मनस्विनम् ।।१४

दृढं पण्डितमान्यज्ञः स्तब्धोऽस्यस्मदुपेक्षया । मच्छासनातिगो यस्त्वमचिराद् भ्रश्यसे श्रियः ।।१५

एवं शप्तः स्वगुरुणा सत्यान्न चलितो महान् । वामनाय ददावेनामर्चित्वोदकपूर्वकम् ।।१६

अनुवाद: –

 

गुरुदेव ! ऐसे लोग संसारमें बहुत हैं, जो युद्धमें पीठ न दिखाकर अपने प्राणोंकी बलि चढ़ा देते हैं; परन्तु ऐसे लोग बहुत दुर्लभ हैं, जो सत्पात्रके प्राप्त होनेपर श्रद्धाके साथ धनका दान करें ।।९।।

गुरुदेव ! यदि उदार और करुणाशील पुरुष अपात्र याचककी कामना पूर्ण करके दुर्गति भोगता है, तो वह दुर्गति भी उसके लिये शोभाकी बात होती है।

फिर आप-जैसे ब्रह्मवेत्ता पुरुषोंको दान करनेसे दुःख प्राप्त हो तो उसके लिये क्या कहना है। इसलिये मैं इस ब्रह्मचारीकी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा ।।१०।।

महर्षे ! वेदविधिके जाननेवाले आपलोग बड़े आदरसे यज्ञ-यागादिके द्वारा जिनकी आराधना करते हैं- वे वरदानी विष्णु ही इस रूपमें हों अथवा कोई दूसरा हो, मैं इनकी इच्छाके अनुसार इन्हें पृथ्वीका दान करूँगा ।।११।।

यदि मेरे अपराध न करनेपर भी ये अधर्मसे मुझे बाँध लेंगे, तब भी मैं इनका अनिष्ट नहीं चाहूँगा। क्योंकि मेरे शत्रु होनेपर भी इन्होंने भयभीत होकर ब्राह्मणका शरीर धारण किया है ।।१२।।

यदि ये पवित्रकीर्ति भगवान् विष्णु ही हैं तो अपना यश नहीं खोना चाहेंगे (अपनी माँगी हुई वस्तु लेकर ही रहेंगे)’। मुझे युद्धमें मारकर भी पृथ्वी छीन सकते हैं और यदि कदाचित् ये कोई दूसरे ही हैं, तो मेरे बाणोंकी चोटसे सदाके लिये रणभूमिमें सो जायँगे ।।१३।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- जब शुक्राचार्यजीने देखा कि मेरा यह शिष्य गुरुके प्रति अश्रद्धालु है तथा मेरी आज्ञाका उल्लंघन कर रहा है, तब दैवकी प्रेरणासे उन्होंने राजा बलिको शाप दे दिया- यद्यपि वे सत्यप्रतिज्ञ और उदार होनेके कारण शापके पात्र नहीं थे ।।१४।।

शुक्राचार्यजीने कहा- ‘मूर्ख! तू है तो अज्ञानी, परन्तु अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानता है। तू मेरी उपेक्षा करके गर्व कर रहा है। तूने मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन किया है। इसलिये शीघ्र ही तू अपनी लक्ष्मी खो बैठेगा’ ।।१५।।

राजा बलि बड़े महात्मा थे। अपने गुरुदेवके शाप देनेपर भी वे सत्यसे नहीं डिगे। उन्होंने वामनभगवान्‌की विधिपूर्वक पूजा की और हाथमें जल लेकर तीन पग भूमिका सङ्कल्प कर दिया ।।१६।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

विन्ध्यावलिस्तदाऽऽगत्य पत्नी जालकमालिनी । आनिन्ये कलशं हैममवनेजन्यपां भृतम् ।।१७ यजमानः स्वयं तस्य श्रीमत् पादयुगं मुदा । अवनिज्यावहन्मूर्ध्नि तदपो विश्वपावनीः ।।१८

तदाऽसुरेन्द्रं दिवि देवतागणा गन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणाः । तत्कर्म सर्वेऽपि गृणन्त आर्जवं प्रसूनवर्षेर्ववृषुर्मुदान्विताः ।।१९

नेदुर्मुहुर्दुन्दुभयः सहस्रशो गन्धर्वकिम्पुरुषकिन्नरा जगुः । मनस्विनानेन कृतं सुदुष्करं विद्वानदाद् यद् रिपवे जगत्त्रयम् ।।२०

तद् वामनं रूपमवर्धता‌द्भुतं हरेरनन्तस्य गुणत्रयात्मकम् । भूः खं दिशो द्यौर्विवराः पयोधय- स्तिर्यङ्ग्देवा ऋषयो यदासत ।।२१

काये बलिस्तस्य महाविभूतेः सहर्विगाचार्यसदस्य एतत् । ददर्श विश्वं त्रिगुणं गुणात्मके भूतेन्द्रियार्थाशयजीवयुक्तम् ।।२२

रसामचष्टा‌ङ्ङ्घितलेऽथ पादयो- र्महीं महीध्रान्पुरुषस्य जङ्घयोः । पतत्त्रिणो जानुनि विश्वमूर्ते- रूर्वोर्गणं मारुतमिन्द्रसेनः ।।२३

सन्ध्यां विभोर्वाससि गुह्य ऐक्षत् प्रजापतीञ्जघने आत्ममुख्यान् । नाभ्यां नभः कुक्षिषु सप्तसिन्धू- नुरुक्रमस्योरसि चर्क्षमालाम् ।।२४

अनुवाद: –

 

उसी समय राजा बलिकी पत्नी विन्ध्यावली, जो मोतियोंके गहनोंसे सुसज्जित थी, वहाँ आयी। उसने अपने हाथों वामनभगवान्‌के चरण पखारनेके लिये जलसे भरा सोनेका कलश लाकर दिया ।।१७।।

बलिने स्वयं बड़े आनन्दसे उनके सुन्दर-सुन्दर युगल चरणोंको धोया और उनके चरणोंका वह विश्वपावन जल अपने सिरपर चढ़ाया ।।१८।।

उस समय आकाशमें स्थित देवता, गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध, चारण- सभी लोग राजा बलिके इस अलौकिक कार्य तथा सरलताकी प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्दसे उनके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ।।१९।।

एक साथ ही हजारों दुन्दुभियाँ बार-बार बजने लगीं। गन्धर्व, किम्पुरुष और किन्नर गान करने लगे- ‘अहो धन्य है! इन उदारशिरोमणि बलिने ऐसा काम कर दिखाया, जो दूसरोंके लिये अत्यन्त कठिन है। देखो तो सही, इन्होंने जान-बूझकर अपने शत्रुको तीनों लोकोंका दान कर दिया!’ ।।२०।।

इसी समय एक बड़ी अद्भुत घटना घट गयी। अनन्त भगवान्‌का वह त्रिगुणात्मक वामनरूप बढ़ने लगा। वह यहाँतक बढ़ा कि पृथ्वी, आकाश, दिशाएँ, स्वर्ग, पाताल, समुद्र, पशु-पक्षी, मनुष्य, देवता और ऋषि-सब-के-सब उसीमें समा गये ।।२१।।

ऋत्विज्, आचार्य और सदस्योंके साथ बलिने समस्त ऐश्वर्योंके एकमात्र स्वामी भगवान्के उस त्रिगुणात्मक शरीरमें पंचभूत, इन्द्रिय, उनके विषय, अन्तःकरण और जीवोंके साथ वह सम्पूर्ण त्रिगुणमय जगत् देखा ।।२२।।

राजा बलिने विश्वरूपभगवान्‌के चरणतलमें रसातल, चरणोंमें पृथ्वी, पिंडलियोंमें पर्वत, घुटनोंमें पक्षी और जाँघोंमें मरुद्‌गणको देखा ।।२३।।

इसी प्रकार भगवान्के वस्त्रोंमें सन्ध्या, गुह्यस्थानोंमें प्रजापतिगण, जघनस्थलमें अपनेसहित समस्त असुरगण, नाभिमें आकाश, कोखमें सातों समुद्र और वक्षःस्थलमें नक्षत्रसमूह देखे ।।२४।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

हृद्यङ्ग धर्म स्तनयोर्मुरारे- ऋतं च सत्यं च मनस्यथेन्दुम् । श्रियं च वक्षस्यरविन्दहस्तां कण्ठे च सामानि समस्तरेफान् ।।२५

इन्द्रप्रधानानमरान्भुजेषु तत्कर्णयोः ककुभो द्यौश्च मूर्ध्नि ।

केशेषु मेघाञ्छ्वसनं नासिकाया- मक्ष्णोश्च सूर्यं वदने च वह्निम् ।।२६

वाण्यां च छन्दांसि रसे जलेशं ध्रुवोर्निषेधं च विधिं च पक्ष्मसु । अहश्च रात्रिं च परस्य पुंसो मन्युं ललाटेऽधर एव लोभम् ।। २७

स्पर्शे च कामं नृप रेतसोऽम्भः पृष्ठे त्वधर्म क्रमणेषु यज्ञम् ।

छायासु मृत्युं हसिते च मायां

तनूरुहेष्वोषधिजातयश्च ।।२८

नदीश्च नाडीषु शिला नखेषु बुद्धावजं देवगणानृषींश्च ।

प्राणेषु गात्रे स्थिरजङ्गमानि सर्वाणि भूतानि ददर्श वीरः ।।२९

सर्वात्मनीदं भुवनं निरीक्ष्य सर्वेऽसुराः कश्मलमापुरङ्ग ।

सुदर्शनं चक्रमसह्यतेजो धनुश्च शार्ङ्ग स्तनयित्नुघोषम् ।।३०

पर्जन्यघोषो जलजः पाञ्चजन्यः कौमोदकी विष्णुगदा तरस्विनी ।

विद्याधरोऽसिः शतचन्द्रयुक्त- स्तूणोत्तमावक्षयसायकौ च ।। ३१

सुनन्दमुख्या उपतस्थुरीशं पार्षदमुख्याः सहलोकपालाः । स्फुरत्किरीटाङ्गदमीनकुण्डल- श्रीवत्सरत्नोत्तममेखलाम्बरैः ।।३२

अनुवाद: –

 

उन लोगोंको भगवान्‌के हृदयमें धर्म, स्तनोंमें ऋत (मधुर) और सत्य वचन, मनमें चन्द्रमा, वक्षःस्थलपर हाथोंमें कमल लिये लक्ष्मीजी, कण्ठमें सामवेद और सम्पूर्ण शब्दसमूह उन्हें दीखे ।।२५।।

बाहुओंमें इन्द्रादि समस्त देवगण, कानोंमें दिशाएँ, मस्तकमें स्वर्ग, केशोंमें मेघमाला, नासिकामें वायु, नेत्रोंमें सूर्य और मुखमें अग्नि दिखायी पड़े ।। २६ ।।

वाणीमें वेद, रसनामें वरुण, भौंहोंमें विधि और निषेध, पलकोंमें दिन और रात।विश्वरूपके ललाटमें क्रोध और नीचेके ओठमें लोभके दर्शन हुए ।। २७।।

परीक्षित् ! उनके स्पर्शमें काम, वीर्यमें जल, पीठमें अधर्म, पदविन्यासमें यज्ञ, छायामें मृत्यु, हँसीमें माया और शरीरके रोमोंमें सब प्रकारकी ओषधियाँ थीं ।। २८।।

उनकी नाड़ियोंमें नदियाँ, नखोंमें शिलाएँ और बुद्धिमें ब्रह्मा, देवता एवं ऋषिगण दीख पड़े। इस प्रकार वीरवर बलिने भगवान्‌की इन्द्रियों और शरीरमें सभी चराचर प्राणियोंका दर्शन किया ।। २९।।

परीक्षित्! सर्वात्मा भगवान्में यह सम्पूर्ण जगत् देखकर सब-के-सब दैत्य अत्यन्त भयभीत हो गये। इसी समय भगवान्‌के पास असह्य तेजवाला सुदर्शन चक्र, गरजते हुए मेघके समान भयंकर टंकार करनेवाला शार्ङ्गधनुष,

बादलकी तरह गम्भीर शब्द करनेवाला पांचजन्य शंख, विष्णुभगवान्‌की अत्यन्त वेगवती कौमोदकी गदा, सौ चन्द्राकार चिह्नोंवाली ढाल और विद्याधर नामकी तलवार,

अक्षय बाणोंसे भरे दो तरकश तथा लोकपालोंके सहित भगवान्के सुनन्द आदि पार्षदगण सेवा करनेके लिये उपस्थित हो गये। उस समय भगवान्‌की बड़ी शोभा हुई।

मस्तकपर मुकुट, बाहुओंमें बाजूबंद, कानोंमें मकराकृति कुण्डल, वक्षःस्थलपर श्रीवत्सचिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि, कमरमें मेखला और कंधेपर पीताम्बर शोभायमान हो रहा था ।।३०-३२।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

मधुव्रतस्रग्वनमालया वृतो रराज राजन्भगवानुरुक्रमः । क्षितिं पदैकेन बलेर्विचक्रमे नभः शरीरेण दिशश्च बाहुभिः ।।३३ पदं द्वितीयं क्रमतस्त्रिविष्टपं न वै तृतीयाय तदीयमण्वपि । उरुक्रमस्याङ्घ्रिरुपर्युपर्यथो महर्जनाभ्यां तपसः परं गतः ।।३४

अनुवाद: –

 

वे पाँच प्रकारके पुष्पोंकी बनी वनमाला धारण किये हुए थे, जिसपर मधुलोभी भौरे गुंजार कर रहे थे। उन्होंने अपने एक पगसे बलिकी सारी पृथ्वी नाप ली, शरीरसे आकाश और भुजाओंसे दिशाएँ घेर लीं; दूसरे पगसे उन्होंने स्वर्गको भी नाप लिया।

तीसरा पैर रखनेके लिये बलिकी तनिक-सी भी कोई वस्तु न बची। भगवान्‌का वह दूसरा पग ही ऊपरकी ओर जाता हुआ महर्लोक, जनलोक और तपलोकसे भी ऊपर सत्यलोकमें पहुँच गया ।।३३-३४।।

इति श्रीम‌द्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे विश्वरूपदर्शनं नाम विंशतितमोऽध्यायः ।।२०।।

१. प्रा० पा०- वृत्तिलोभेन ।

१. प्रा० पा०- र्वविद्याधरकिन्न०। २. प्रा० पा०-चर्षि०।

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