Bhagwat puran skandh 8 chapter 15 (भागवत पुराण अष्टम: स्कन्ध:अध्याय:पंद्रह राजा बलिकी स्वर्गपर विजय)
(संस्कृत श्लोक:-)
राजोवाच
बलेः पदत्रयं भूमेः कस्माद्धरिरयाचत । भूत्वेश्वरः कृपणवल्लब्धार्थोऽपि बबन्ध तम् ।।१ एतद् वेदितुमिच्छामो महत् कौतूहलं हि नः । यज्ञेश्वरस्य पूर्णस्य बन्धनं चाप्यनागसः ।।२
श्रीशुक उवाच
पराजित श्रीरसुभिश्च हापितो हीन्द्रेण राजन्भृगुभिः स जीवितः ।
सर्वात्मना तानभजद् भृगून्बलिः
शिष्यो महात्मार्थनिवेदनेन ।।३
तं ब्राह्मणा भृगवः प्रीयमाणा अयाजयन्विश्वजिता त्रिणाकम् । जिगीषमाणं विधिनाभिषिच्य महाभिषेकेण महानुभावाः ।।४
ततो रथः काञ्चनपट्टनद्धो हयाश्च हर्यश्वतुरङ्गवर्णाः । ध्वजश्च सिंहेन विराजमानो हुताशनादास हविर्भिरिष्टात् ।।५
धनुश्च दिव्यं पुरटोपनद्धं तूणावरिक्तौ कवचं च दिव्यम् । पितामहस्तस्य ददौ च माला- मम्लानपुष्पां जलजं च शुक्रः ।।६
एवं स विप्रार्जितयोधनार्थ- स्तैः कल्पितस्वस्त्ययनोऽथ विप्रान् । प्रदक्षिणीकृत्य कृतप्रणामः
(अनुवाद: -)
प्रह्लादमामन्त्र्य नमश्चकार ।।७राजा परीक्षित्ने पूछा- भगवन्! श्रीहरि स्वयं ही सबके स्वामी हैं। फिर उन्होंने दीन- हीनकी भाँति राजा बलिसे तीन पग पृथ्वी क्यों माँगी? तथा जो कुछ वे चाहते थे, वह मिल जानेपर भी उन्होंने बलिको बाँधा क्यों? ।।१।।
मेरे हृदयमें इस बातका बड़ा कौतूहल है कि स्वयं परिपूर्ण यज्ञेश्वरभगवान्के द्वारा याचना और निरपराधका बन्धन- ये दोनों ही कैसे सम्भव हुए? हमलोग यह जानना चाहते हैं ।।२।।
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! जब इन्द्रने बलिको पराजित करके उनकी सम्पत्ति
छीन ली और उनके प्राण भी ले लिये, तब भृगुनन्दन शुक्राचार्यने उन्हें अपनी संजीवनी
विद्यासे जीवित कर दिया। इसपर शुक्राचार्यजीके शिष्य महात्मा बलिने अपना सर्वस्व उनके
चरणोंपर चढ़ा दिया और वे तन-मनसे गुरुजीके साथ ही समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणोंकी सेवा करने लगे ।।३।।
इससे प्रभावशाली भृगुवंशी ब्राह्मण उनपर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने स्वर्गपर
विजय प्राप्त करनेकी इच्छावाले बलिका महाभिषेककी विधिसे अभिषेक करके उनसे विश्वजित् नामका यज्ञ कराया ।।४।।
यज्ञकी विधिसे हविष्योंके द्वारा जब अग्निदेवताकी पूजा की गयी, तब यज्ञकुण्डमेंसे सोनेकी चद्दरसे मढ़ा हुआ एक बड़ा सुन्दर रथ निकला।
फिर इन्द्रके घोड़ों-जैसे हरे रंगके घोड़े और सिंहके चिह्नसे युक्त रथपर लगानेकी ध्वजा निकली ।।५।।
साथ ही सोनेके पत्रसे मढ़ा हुआ दिव्य धनुष, कभी खाली न होनेवाले दो अक्षय तरकश और दिव्य कवच भी प्रकट हुए। दादा प्रह्लादजीने उन्हें एक ऐसी माला दी,
जिसके फूल कभी कुम्हलाते न थे तथा शुक्राचार्यने एक शंख दिया ।।६।।
इस प्रकार ब्राह्मणोंकी कृपासे युद्धकी सामग्री प्राप्त करके उनके द्वारा स्वस्तिवाचन हो जानेपर राजा
बलिने उन ब्राह्मणोंकी प्रदक्षिणा की और नमस्कार किया। इसके बाद उन्होंने प्रह्लादजीसे सम्भाषण करके उनके चरणोंमें नमस्कार किया ।।७।।
(संस्कृत श्लोक:-)
अथारुह्य रथं दिव्यं भृगुदत्तं महारथः । सुस्रग्धरोऽथ संनह्य धन्वी खड्गी धृतेषुधिः ।।८
हेमाङ्गदलसद्बाहुः स्फुरन्मकरकुण्डलः ।रराज रथमारूढो धिष्ण्यस्थ इव हव्यवाट् ।।९तुल्यैश्वर्यबलश्रीभिः स्वयूथैर्दैत्ययूथपैः । पिबद्भिरिव खं दृग्भिर्दहद्भि परिधीनिव ।।१०
वृतो विकर्षन् महतीमासुरीं ध्वजिनीं विभुः ।ययाविन्द्रपुरीं स्वृद्धां कम्पयन्निव रोदसी ।।११
रम्यामुपवनोद्यानैः श्रीमद्भिर्नन्दनादिभिः । कूजद्विहङ्गमिथुनैर्गायन्मत्तमधुव्रतैः ।।१२
प्रवालफलपुष्पोरुभारशाखामरद्रुमैः । हंससारसचक्राह्वकारण्डवकुलाकुलाः । नलिन्यो यत्र क्रीडन्ति प्रमदाः सुरसेविताः ।।१३
आकाशगङ्गया देव्या वृतां परिखभूतया । प्राकारेणाग्निवर्णेन साट्टालेनोन्नतेन च ।।१४रुक्मपट्टकपाटैश्च द्वारैः स्फटिकगोपुरैः । जुष्टां विभक्तप्रपथां विश्वकर्मविनिर्मिताम् ।।१५
(अनुवाद: -)
फिर वे भृगुवंशी ब्राह्मणोंके दिये हुए दिव्य रथपर सवार हुए। जब महारथी राजा बलिने कवच धारण कर धनुष, तलवार, तरकश आदि शस्त्र ग्रहण कर लिये और दादाकी दी हुई सुन्दर माला धारण कर ली, तब उनकी बड़ी शोभा हुई ।।८।।
उनकी भुजाओंमें सोनेके बाजूबंद और कानोंमें मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। उनके कारण रथपर बैठे हुए वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो अग्निकुण्डमें अग्नि प्रज्वलित हो रही हो ।।९।।
उनके साथ उन्हींके समान ऐश्वर्य, बल और विभूतिवाले दैत्यसेनापति अपनी-अपनी सेना लेकर हो लिये। ऐसा जान पड़ता था मानो वे आकाशको पी जायँगे और अपने क्रोधभरे प्रज्वलित नेत्रोंसे समस्त दिशाओंको, क्षितिजको भस्म कर डालेंगे ।।१०।।
राजा बलिने इस बहुत बड़ी आसुरी सेनाको लेकर उसका युद्धके ढंगसे संचालन किया तथा आकाश और अन्तरिक्षको कँपाते हुए सकल ऐश्वर्योंसे परिपूर्ण इन्द्रपुरी अमरावतीपर चढ़ाई की ।।११।।
देवताओंकी राजधानी अमरावतीमें बड़े सुन्दर-सुन्दर नन्दन वन आदि उद्यान और उपवन हैं। उन उद्यानों और उपवनोंमें पक्षियोंके जोड़े चहकते रहते हैं। मधुलोभी भौरे मतवाले होकर गुनगुनाते रहते हैं ।।१२।।
लाल-लाल नये-नये पत्तों, फलों और पुष्पोंसे कल्पवृक्षोंकी शाखाएँ लदी रहती हैं। वहाँके सरोवरोंमें हंस, सारस, चकवे और बतखोंकी भीड़ लगी रहती है। उन्हींमें देवताओंके द्वारा सम्मानित देवांगनाएँ जलक्रीडा करती रहती हैं ।।१३।।
ज्योतिर्मय आकाशगंगाने खाईकी भाँति अमरावतीको चारों ओरसे घेर रखा है। उसके चारों ओर बहुत ऊँचा सोनेका परकोटा बना हुआ है, जिसमें स्थान-स्थानपर बड़ी-बड़ी अटारियाँ बनी हुई हैं ।।१४।।
सोनेके किवाड़ द्वार-द्वारपर लगे हुए हैं और स्फटिकमणिके गोपुर (नगरके बाहरी फाटक) हैं। उसमें अलग-अलग बड़े-बड़े राजमार्ग हैं। स्वयं विश्वकर्माने ही उस पुरीका निर्माण किया है ।।१५।।
(संस्कृत श्लोक:-)
सभाचत्वररथ्याढ्यां विमानैर्त्यर्बुदैर्युताम् । शृङ्गाटकैर्मणिमयैर्वज्रविद्रुमवेदिभिः ।।१६
यत्र नित्यवयोरूपाः श्यामा विरजवाससः ।
भ्राजन्ते रूपवन्नार्यो ह्यर्चिर्भिरिव वह्नयः ।।१७
सुरस्त्रीकेशविभ्रष्टनवसौगन्धिकस्रजाम् । यत्रामोदमुपादाय मार्ग आवाति मारुतः ।।१८
हेमजालाक्षनिर्गच्छद्धमेनागुरुगन्धिना । पाण्डुरेण प्रतिच्छन्नमार्गे यान्ति सुरप्रियाः ।।१९
मुक्तावितानैर्मणिहेमकेतुभि- र्नानापताकावल भीभिरावृताम् । शिखण्डिपारावतभृङ्गनादितां वैमानिकस्त्रीकलगीतमङ्गलाम् ।।२०
मृदङ्गशङ्खानकदुन्दुभिस्वनैः सतालवीणामुरजष्टिवेणुभिः । नृत्यैः सवाद्यैरुपदेवगीतकै- मनोरमां स्वप्रभया जितप्रभाम् ।।२१
यां न व्रजन्त्यधर्मिष्ठाः खला भूतद्रुहः शठाः । मानिनः कामिनो लुब्धा एभिर्तीना व्रजन्ति यत् ।।२२
तां देवधानीं स वरूथिनीपति- र्बहिः समन्ताद् रुरुधे पृतन्यया । आचार्यदत्तं जलजं महास्वनं दध्मौ प्रयुञ्जन्भयमिन्द्रयोषिताम् ।।२३
मघवांस्तमभिप्रेत्य बलेः परममुद्यमम् । सर्वदेवगणोपेतो गुरुमेतदुवाच ह ।।२४
(अनुवाद: -)
सभाके स्थान, खेलके चबूतरे और रथ चलनेके बड़े-बड़े मार्गोसे वह शोभायमान है। दस करोड़ विमान उसमें सर्वदा विद्यमान रहते हैं और मणियोंके बड़े-बड़े चौराहे एवं हीरे और मूँगेकी वेदियाँ बनी हुई हैं ।। १६ ।।
वहाँकी स्त्रियाँ सर्वदा सोलह वर्षकी-सी रहती हैं, उनका यौवन और सौन्दर्य स्थिर रहता है। वे निर्मल वस्त्र पहनकर अपने रूपकी छटासे इस प्रकार देदीप्यमान होती हैं, जैसे अपनी ज्वालाओंसे अग्नि ।। १७।।
देवांगनाओंके जूड़ेसे गिरे हुए नवीन सौगन्धित पुष्पोंकी सुगन्ध लेकर वहाँके मार्गोंमें मन्द-मन्द हवा चलती रहती है ।।१८।।
सुनहली खिड़कियोंमेंसे अगरकी सुगन्धसे युक्त सफेद धूआँ निकल-निकलकर वहाँके मार्गोंको ढक दिया करता है। उसी मार्गसे देवांगनाएँ जाती- आती हैं ।।१९।।
स्थान-स्थानपर मोतियोंकी झालरोंसे सजाये हुए चॅदोवे तने रहते हैं। सोनेकी मणिमय पताकाएँ फहराती रहती हैं। छज्जोंपर अनेकों झंडियाँ लहराती रहती हैं।
मोर, कबूतर और भौरे कलगान करते रहते हैं। देवांगनाओंके मधुर संगीतसे वहाँ सदा ही मंगल छाया रहता है ।।२०।।
मृदंग, शंख, नगारे, ढोल, वीणा, वंशी, मँजीरे और ऋष्टियाँ बजती रहती हैं। गन्धर्व बाजोंके साथ गाया करते हैं और अप्सराएँ नाचा करती हैं। इनसे अमरावती इतनी मनोहर जान पड़ती है, मानो उसने अपनी छटासे छटाकी अधिष्ठात्री देवीको भी जीत लिया है ।।२१।।
उस पुरीमें अधर्मी, दुष्ट, जीवद्रोही, ठग, मानी, कामी और लोभी नहीं जा सकते। जो इन दोषोंसे रहित हैं, वे ही वहाँ जाते हैं ।। २२ ।।
असुरोंकी सेनाके स्वामी राजा बलिने अपनी बहुत बड़ी सेनासे बाहरकी ओर सब ओरसे अमरावतीको घेर लिया और इन्द्रपत्नियोंके हृदयमें भयका संचार करते हुए उन्होंने शुक्राचार्यजीके दिये हुए महान् शंखको बजाया। उस शंखकी ध्वनि सर्वत्र फैल गयी ।।२३।।
इन्द्रने देखा कि बलिने युद्धकी बहुत बड़ी तैयारी की है। अतः सब देवताओंके साथ वे अपने गुरु बृहस्पतिजीके पास गये और उनसे बोले- ।।२४।।
(संस्कृत श्लोक:-)
भगवन्नुद्यमो भूयान्बलेर्नः पूर्ववैरिणः । अविषह्यमिमं मन्ये केनासीत्तेजसोर्जितः ।।२५
नैनं कश्चित् कुतो वापि प्रतिव्योढुमधीश्वरः । पिबन्निव मुखेनेदं लिहन्निव दिशो दश । दहन्निव दिशो दृग्भिः संवर्ताग्निरिवोत्थितः ।।२६
ब्रूहि कारणमेतस्य दुर्धर्षत्वस्य मद्रिपोः । ओजः सहो बलं तेजो यत एतत्समुद्यमः ।।२७
गुरुरुवाच
जानामि मघवञ्छत्रोरुन्नतेरस्य कारणम् । शिष्यायोपभृतं तेजो भृगुभिर्ब्रह्मवादिभिः ।।२८
भवद्विधो भवान्वापि वर्जयित्वेश्वरं हरिम् । नास्य शक्तः पुरः स्थातुं कृतान्तस्य यथा जनाः ।।२९
तस्मान्निलयमुत्सृज्य यूयं सर्वे त्रिविष्टपम् ।
यात कालं प्रतीक्षन्तो यतः शत्रोर्विपर्ययः ।।३०
एष विप्रबलोदर्कः सम्प्रत्यूर्जितविक्रमः । तेषामेवापमानेन सानुबन्धो विनक्ष्यति ।।३१
एवं सुमन्त्रितार्थास्ते गुरुणार्थानुदर्शिना । हित्वा त्रिविष्टपं जग्मुर्गीर्वाणाः कामरूपिणः ।।३२
देवेष्वथ निलीनेषु बलिर्वैरोचनः पुरीम् । देवधानीमधिष्ठाय वशं निन्ये जगत्त्रयम् ।।३३
(अनुवाद: -)
‘भगवन्! मेरे पुराने शत्रु बलिने इस बार युद्धकी बहुत बड़ी तैयारी की है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हमलोग उनका सामना नहीं कर सकेंगे। पता नहीं, किस शक्तिसे इनकी इतनी बढ़ती हो गयी है ।। २५।।
मैं देखता हूँ कि इस समय बलिको कोई भी किसी प्रकारसे रोक नहीं सकता। वे प्रलयकी आगके समान बढ़ गये हैं और जान पड़ता है, मुखसे इस विश्वको पी जायँगे, जीभसे दसों दिशाओंको चाट जायँगे और नेत्रोंकी ज्वालासे दिशाओंको भस्म कर देंगे ।।२६।।
आप कृपा करके मुझे बतलाइये कि मेरे शत्रुकी इतनी बढ़तीका, जिसे किसी प्रकार भी दबाया नहीं जा सकता, क्या कारण है? इसके शरीर, मन और इन्द्रियोंमें इतना बल और इतना तेज कहाँसे आ गया है कि इसने इतनी बड़ी तैयारी करके चढ़ाई की है’ ।। २७।।
देवगुरु बृहस्पतिजीने कहा- ‘इन्द्र ! मैं तुम्हारे शत्रु बलिकी उन्नतिका कारण जानता हूँ। ब्रह्मवादी भृगुवंशियोंने अपने शिष्य बलिको महान् तेज देकर शक्तियोंका खजाना बना दिया है ।। २८।।
सर्वशक्तिमान् भगवान्को छोड़कर तुम या तुम्हारे-जैसा और कोई भी बलिके सामने उसी प्रकार नहीं ठहर सकता, जैसे कालके सामने प्राणी ।। २९।।
इसलिये तुमलोग स्वर्गको छोड़कर कहीं छिप जाओ और उस समयकी प्रतीक्षा करो, जब तुम्हारे शत्रुका भाग्यचक्र पलटे ।।३०।।
इस समय ब्राह्मणोंके तेजसे बलिकी उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। उसकी शक्ति बहुत बढ़ गयी है। जब यह उन्हीं ब्राह्मणोंका तिरस्कार करेगा, तब अपने परिवार-परिकरके साथ नष्ट हो जायगा’ ।। ३१।।
बृहस्पतिजी देवताओंके समस्त स्वार्थ और परमार्थके ज्ञाता थे। उन्होंने जब इस प्रकार देवताओंको सलाह दी, तब वे स्वेच्छानुसार रूप धारण करके स्वर्ग छोड़कर चले गये ।। ३२ ।।
देवताओंके छिप जानेपर विरोचननन्दन बलिने अमरावतीपुरीपर अपना अधिकार कर लिया और फिर तीनों लोकोंको जीत लिया ।। ३३।।
(संस्कृत श्लोक:-)
तं विश्वजयिनं शिष्यं भृगवः शिष्यवत्सलाः । शतेन हयमेधानामनुव्रतमयाजयन् ।।३४
ततस्तदनुभावेन भुवनत्रयविश्रुताम् । कीर्ति दिक्षु वितन्वानः स रेज उडुराडिव ।।३५
बुभुजे च श्रियं स्वृद्धां द्विजदेवोपलम्भिताम् । कृतकृत्यमिवात्मानं मन्यमानो महामनाः ।।३६
(अनुवाद: -)
जब बलि विश्वविजयी हो गये, तब शिष्यप्रेमी भृगुवंशियोंने अपने अनुगत शिष्यसे सौ अश्वमेध यज्ञ करवाये ।। ३४।।
उन यज्ञोंके प्रभावसे बलिकी कीर्तिकौमुदी तीनों लोकोंसे बाहर भी दसों दिशाओंमें फैल गयी और वे नक्षत्रोंके राजा चन्द्रमाके समान शोभायमान हुए ।।३५।।
ब्राह्मण-देवताओंकी कृपासे प्राप्त समृद्ध राज्य लक्ष्मीका वे बड़ी उदारतासे उपभोग करने लगे और अपनेको कृतकृत्य-सा मानने लगे ।। ३६।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः ।।१५।।
१. प्रा० पा०- रीमृद्धां । २. प्रा० पा०- रम्यां नृप गृहोद्यानैः।
१. प्रा० पा०- धृतं। २. प्रा० पा०- मेवावमा०।