Bhagwat puran skandh 7 chapter 9(भागवत पुराण सप्तम: स्कन्ध:अध्याय 9 प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति )
(संस्कृत श्लोक: -)
नारद उवाच
एवं सुरादयः सर्वे ब्रह्मरुद्रपुरःसराः । नोपैतुमशकन्मन्यूसंरम्भं सुदुरासदम् ।।१
साक्षाच्छ्रीः प्रेषिता देवैर्दृष्ट्वा तन्महदद्भुतम् । अदृष्टाश्रुतपूर्वत्वात् सा नोपेयाय शङ्किता ।।२
अनुवाद: –
नारदजी कहते हैं- इस प्रकार ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवगण नृसिंहभगवान्के क्रोधावेशको शान्त न कर सके और न उनके पास जा सके। किसीको उसका ओर-छोर नहीं दीखता था ।।१।।
देवताओंने उन्हें शान्त करनेके लिये स्वयं लक्ष्मीजीको भेजा। उन्होंने जाकर जब नृसिंहभगवान्का वह महान् अद्भुत रूप देखा, तब भयवश वे भी उनके पासतक न जा सकीं। उन्होंने ऐसा अनूठा रूप न कभी देखा और न सुना ही था ।।२।।
(संस्कृत श्लोक: -)
प्रह्लादं प्रेषयामास ब्रह्मावस्थितमन्तिके । तात प्रशमयोपेहि स्वपित्रे कुपितं प्रभुम् ।।३
तथेति शनकै राजन्महाभागवतोऽर्भकः । उपेत्य भुवि कायेन ननाम विधृताञ्जलिः ।।
स्वपादमूले पतितं तमर्भकं विलोक्य देवः कृपया परिप्लुतः । उत्थाप्य तच्छीष्र्ण्यदधात् कराम्बुजं कालाहिवित्रस्तधियां कृताभयम् ।।५
स तत्करस्पर्शधुताखिलाशुभः सपद्यभिव्यक्तपरात्मदर्शनः । तत्पादपद्म हृदि निर्वृतो दधौ हृष्यत्तनुः क्लिन्नहृदश्रुलोचनः ।।६
अस्तौषीद्धरिमेकाग्रमनसा सुसमाहितः । प्रेमगद्गदया वाचा तन्न्यस्तहृदयेक्षणः ।।७
प्रह्लाद उवाच
ब्रह्मादयः सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धाः सत्त्वैकतानमतयो वचसां प्रवाहैः । नाराधितुं पुरुगुणैरधुनापि पिप्रुः किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजातेः ।।८
मन्ये धनाभिजनरूपतपः श्रुतौज- स्तेजःप्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः ३ । नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो भक्त्या तुतोष भगवान्गजयूथपाय ।।९
अनुवाद: –
तब ब्रह्माजीने अपने पास ही खड़े प्रह्लादको यह कहकर भेजा कि ‘बेटा! तुम्हारे पितापर ही तो भगवान् कुपित हुए थे। अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो’ ।।३।।
भगवान्के परम प्रेमी प्रह्लाद ‘जो आज्ञा’ कहकर और धीरेसे भगवान्के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वीपर साष्टांग लोट गये ।।४।।
नृसिंहभगवान्ने देखा कि नन्हा-सा बालक मेरे चरणोंके पास पड़ा हुआ है। उनका हृदय दयासे भर गया। उन्होंने प्रह्लादको उठाकर उनके सिरपर अपना वह करकमल रख दिया, जो कालसर्पसे भयभीत पुरुषोंको अभयदान करनेवाला है ।।५।।
भगवान्के करकमलोंका स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये। तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार हो गया। उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्दमें मग्न होकर भगवान्के चरणकमलोंको अपने हृदयमें धारण किया। उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदयमें प्रेमकी धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रोंसे आनन्दाश्रु झरने लगे ।।६।।
प्रह्लादजी भावपूर्ण हृदय और निर्निमेष नयनोंसे भगवान्को देख रहे थे। भावसमाधिसे स्वयं एकाग्र हुए मनके द्वारा उन्होंने भगवान्के गुणोंका चिन्तन करते हुए प्रेमगद्गद वाणीसे स्तुति की ।।७।।
प्रह्लादजीने कहा-ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषोंकी बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुणमें ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणोंसे आपको अबतक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके।
फिर मैं तो घोर असुर-जातिमें उत्पन्न हुआ हूँ! क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं? ।।८।।
मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग- ये सभी गुण परमपुरुष भगवान्को सन्तुष्ट करनेमें समर्थ नहीं हैं- परन्तु भक्तिसे तो भगवान् गजेन्द्रपर भी सन्तुष्ट हो गये थे ।।९।।
(संस्कृत श्लोक: -)
विप्राद् द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ- पादारविन्दविमुखाच्छवपचं वरिष्ठम् ।
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ- प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ।।१०
नैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभपूर्णो मानं जनादविदुषः करुणो वृणीते । यद् यज्जनो भगवते विदधीत मानं तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः ।।११
तस्मादहं विगतविक्लव ईश्वरस्य सर्वात्मना महि गृणामि यथामनीषम् । नीचोऽजया गुणविसर्गमनुप्रविष्टः पूयेत येन हि पुमाननुवर्णितेन ।।१२
सर्वे ह्यमी विधिकरास्तव सत्त्वधाम्नो ब्रह्मादयो वयमिवेश न चोद्विजन्तः । क्षेमाय भूतय उतात्मसुखाय चास्य विक्रीडितं भगवतो रुचिरावतारैः ।।१३
तद् यच्छ मन्यूमसुरश्च हतस्त्वयाद्य मोदेत साधुरपि वृश्चिकसर्पहत्या । लोकाश्च निर्वृतिमिताः प्रतियन्ति सर्वे रूपं नृसिंह विभयाय जनाः स्मरन्ति ।।१४
अनुवाद: –
मेरी समझसे इन बारह गुणोंसे युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभके चरणकमलोंसे विमुख हो तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान्के चरणोंमें समर्पित कर रखे हैं;
क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुलतकको पवित्र कर देता है और बड़प्पनका अभिमान रखनेवाला वह ब्राह्मण अपनेको भी पवित्र नहीं कर सकता ।।१० ।।
सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने स्वरूपके साक्षात्कारसे ही परिपूर्ण हैं। उन्हें अपने लिये क्षुद्र पुरुषोंसे पूजा ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है। वे करुणावश ही भोले भक्तोंके हितके लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं।
जैसे अपने मुखका सौन्दर्य दर्पणमें दीखनेवाले प्रतिबिम्बको भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान्के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है ।।११।।
इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होनेपर भी मैं बिना किसी शंकाके अपनी बुद्धिके अनुसार सब प्रकारसे भगवान्की महिमाका वर्णन कर रहा हूँ।
इस महिमाके गानका ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसारचक्रमें पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है ।।१२।।
भगवन्! आप सत्त्वगुणके आश्रय हैं। ये ब्रह्मा आदि सभी देवता आपके आज्ञाकारी भक्त हैं। ये हम दैत्योंकी तरह आपसे द्वेष नहीं करते। प्रभो! आप बड़े-बड़े सुन्दर-सुन्दर अवतार ग्रहण करके इस जगत्के कल्याण एवं अभ्युदयके लिये तथा उसे आत्मानन्दकी प्राप्ति करानेके लिये अनेकों प्रकारकी लीलाएँ करते हैं ।।१३।।
जिस असुरको मारनेके लिये आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका। अब आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। जैसे बिच्छू और साँपकी मृत्युसे सज्जन भी सुखी ही होते हैं,
वैसे ही इस दैत्यके संहारसे सभी लोगोंको बड़ा सुख मिला है। अब सब आपके शान्त स्वरूपके दर्शनकी बाट जोह रहे हैं। नृसिंहदेव ! भयसे मुक्त होनेके लिये भक्तजन आपके इस रूपका स्मरण करेंगे ।।०४।।
(संस्कृत श्लोक: -)
नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य- जिह्वार्कनेत्र भ्रुकुटीरभसोग्रदंष्ट्रात् । आन्त्रस्रजः क्षतजकेसरशङ्कुकर्णा- न्निर्हादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात् ।।१५
त्रस्तोऽस्म्यहं कृपणवत्सल दुःसहोग्र- संसारचक्रकदनाद् ग्रसतां प्रणीतः ।
बद्धः स्वकर्मभिरुशत्तम तेऽङ्घ्रिमूलं प्रीतोऽपवर्गशरणं ह्वयसे कदा नु ।।१६यस्मात् प्रियाप्रियवियोगसयोगजन्म-शोकाग्निना सकलयोनिषु दह्यमानः । दुःखौषधं तदपि दुःखमतद्धियाहं भूमन्भ्रमामि वद मे तव दास्ययोगम् ।।१७
सोऽहं प्रियस्य सुहृदः परदेवताया लीलाकथास्तव नृसिंह विरिञ्चगीताः ।अञ्चस्तितर्म्यनुगृणन्गुणविप्रमुक्तो दुर्गाणि ते पदयुगालयहंससङ्गः ।।१८
बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह नार्तस्य चागदमुदन्वति मञ्जतो नौः ।तप्तस्य तत्प्रतिविधिर्य इहाज्जसेष्ट- स्तावद् विभो तनुभृतां त्वदुपेक्षितानाम् ।।१९
अनुवाद: –
परमात्मन्! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आँखें सूर्यके समान हैं। भौंहें चढ़ी हुई हैं। बड़ी पैनी दाढ़े हैं।
आँतोंकी माला, खूनसे लथपथ गरदनके बाल, बर्छकी तरह सीधे खड़े कान और दिग्गजोंको भी भयभीत कर देनेवाला सिंहनाद एवं शत्रुओंको फाड़ डालनेवाले आपके इन नखोंको देखकर मैं तनिक भी भयभीत नहीं हुआ हूँ ।।१५।।
दीनबन्धो ! मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उग्र संसारचक्रमें पिसनेसे। मैं अपने कर्मपाशोंसे बँधकर इन भयंकर जन्तुओंके बीचमें डाल दिया गया हूँ।
मेरे स्वामी! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलोंमें बुलायेंगे, जो समस्त जीवोंकी एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं? ।।१६।।
अनन्त ! मैं जिन-जिन योनियोंमें गया, उन सभी योनियोंमें प्रियके वियोग और अप्रियके संयोगसे होनेवाले शोककी आगमें झुलसता रहा। उन दुःखोंको मिटानेकी जो दवा है, वह भी दुःखरूप ही है।
मैं न जाने कबसे अपनेसे अतिरिक्त वस्तुओंको आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त कर सकूँ ।।१७।।
प्रभो! आप हमारे प्रिय हैं। अहेतुक हितैषी सुहृद हैं। आप ही वास्तवमें सबके परमाराध्य हैं। मैं ब्रह्माजीके द्वारा गायी हुई आपकी लीला- कथाओंका गान करता हुआ बड़ी सुगमतासे रागादि प्राकृत गुणोंसे मुक्त होकर इस संसारकी कठिनाइयोंको पार कर जाऊँगा; क्योंकि आपके चरणयुगलोंमें रहनेवाले भक्त परमहंस महात्माओंका संग तो मुझे मिलता ही रहेगा ।।१८।।
भगवान् नृसिंह ! इस लोकमें दुःखी जीवोंका दुःख मिटानेके लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करनेपर एक क्षणके लिये ही होता है। यहाँतक कि मा-बाप बालककी रक्षा नहीं कर सकते, ओषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्रमें डूबते हुएको नौका नहीं बचा सकती ।।१९ ।।
(संस्कृत श्लोक: -)
यस्मिन्यतो यर्ती येन च यस्य यस्माद् यस्मै यथा यदुत यस्त्वपरः परो वा । भावः करोति विकरोति पृथक्स्वभावः सञ्चोदितस्तदखिलं भवतः स्वरूपम् ।।२०
माया मनः सृजति कर्ममयं बलीयः कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंसः । छन्दोमयं यदजयार्पितषोडशारं संसारचक्रमज कोऽतितरेत् त्वदन्यः ।।२१
स त्वं हि नित्यविजितात्मगुणः स्वधाम्ना कालो वशीकृतविसृज्यविसर्गशक्तिः ।
चक्रे विसृष्टमजयेश्वर षोडशारे निष्पीड्यमानमुपकर्ष विभो प्रपन्नम् ।।२२
दृष्टा मया दिवि विभोऽखिलधिष्ण्यपाना- मायुः श्रियो विभव इच्छति याञ्जनोऽयम् । येऽस्मत्पितुः कुपितहासविजृम्भितभू- विस्फूर्जितेन लुलिताः स तु ते निरस्तः ।।२३
तस्मादमूस्तनुभृतामहमाशिषो ज्ञ आयुः श्रियं विभवमैन्द्रियमाविरिञ्चात् । नेच्छामि ते विलुलितानुरुविक्रमेण कालात्मनोपनय मां निजभृत्यपार्श्वम् ।।२४
अनुवाद: –
सत्त्वादि गुणोंके कारण भिन्न-भिन्न स्वभावके जितने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं, उनको प्रेरित करनेवाले आप ही हैं।
वे आपकी प्रेरणासे जिस आधारमें स्थित होकर जिस निमित्तसे जिन मिट्टी आदि उपकरणोंसे जिस समय जिन साधनोंके द्वारा जिस अदृष्ट आदिकी सहायतासे जिस प्रयोजनके उद्देश्यसे जिस विधिसे जो कुछ उत्पन्न करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है ।।२०।।
पुरुषकी अनुमतिसे कालके द्वारा गुणोंमें क्षोभ होनेपर माया मनःप्रधान लिंगशरीरका निर्माण करती है। यह लिंगशरीर बलवान्, कर्ममय एवं अनेक नाम-रूपोंमें आसक्त- छन्दोमय है।
यही अविद्याके द्वारा कल्पित मन, दस इन्द्रिय और पाँच तन्मात्रा- इन सोलह विकाररूप अरोंसे युक्त संसार- चक्र है। जन्मरहित प्रभो! आपसे भिन्न रहकर ऐसा कौन पुरुष है, जो इस मनरूप संसारचक्रको पार कर जाय? ।।२१।।
सर्वशक्तिमान् प्रभो ! माया इस सोलह अरोंवाले संसारचक्रमें डालकर ईखके समान मुझे पेर रही है। आप अपनी चैतन्यशक्तिसे बुद्धिके समस्त गुणोंको सर्वदा पराजित रखते हैं और कालरूपसे सम्पूर्ण साध्य और साधनोंको अपने अधीन रखते हैं।
मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप मुझे इससे बचाकर अपनी सन्निधिमें खींच लीजिये ।। २२ ।।
भगवन्! जिनके लिये संसारीलोग बड़े लालायित रहते हैं, स्वर्गमें मिलनेवाली समस्त लोकपालोंकी वह आयु लक्ष्मी और ऐश्वर्य मैंने खूब देख लिये।
जिस समय मेरे पिता तनिक क्रोध करके हँसते थे और उससे उनकी भौंहें थोड़ी टेढ़ीं हो जाती थीं, तब उन स्वर्गकी सम्पत्तियोंके लिये कहीं ठिकाना नहीं रह जाता था, वे लुटती फिरती थीं। किन्तु आपने मेरे उन पिताको भी मार डाला ।। २३ ।।
इसलिये मैं ब्रह्मलोकतककी आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य और वे इन्द्रियभोग, जिन्हें संसारके प्राणी चाहा करते हैं, नहीं चाहता; क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यन्त शक्तिशाली कालका रूप धारण करके आपने उन्हें ग्रस रखा है। इसलिये मुझे आप अपने दासोंकी सन्निधिमें ले चलिये ।। २४।।
(संस्कृत श्लोक: -)
कुत्राशिषः श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपाः क्वेदं कलेवरमशेषरुजां विरोहः १ । निर्विद्यते न तु जनो यदपीति विद्वान् कामानलं मधुलवैः शमयन्दुरापैः ।।२५क्वाहं रजः प्रभव ईश तमोऽधिकेऽस्मिन् जातः सुरेतरकुले क्व तवानुकम्पा । न ब्रह्मणो न तु भवस्य न वै रमाया यन्मेऽर्पितः शिरसि पद्मकरः प्रसादः ।।२६
नैषा परावरमतिर्भवतो ननु स्या- ज्जन्तोर्यथाऽऽत्मसुहृदो जगतस्तथापि । संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसादः सेवानुरूपमुदयो न परावरत्वम् ।। २७
एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसङ्गात् । कृत्वाऽऽत्मसात् सुरर्षिणा भगवन् गृहीतः सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम् ।।२८
मत्याणरक्षणमनन्त पितुर्वधश्च मन्ये स्वभृत्यऋषिवाक्यमृतं विधातुम् ।
खड्गं प्रगृह्य यदवोचदसद्विधित्सु – स्त्वामीश्वरो मदपरोऽवतु कं हरामि ।।२९
अनुवाद: –
विषयभोगकी बातें सुननेमें ही अच्छी लगती हैं, वास्तवमें वे मृगतृष्णाके जलके समान नितान्त असत्य हैं और यह शरीर भी, जिससे वे भोग भोगे जाते हैं, अगणित रोगोंका उद्गमस्थान है।
कहाँ वे मिथ्या विषयभोग और कहाँ यह रोगयुक्त शरीर ! इन दोनोंकी क्षणभंगुरता और असारता जानकर भी मनुष्य इनसे विरक्त नहीं होता।
वह कठिनाईसे प्राप्त होनेवाले भोगके नन्हें-नन्हें मधुविन्दुओंसे अपनी कामनाकी आग बुझानेकी चेष्टा करता है! ।।२५।।
प्रभो ! कहाँ तो इस तमोगुणी असुरवंशमें रजोगुणसे उत्पन्न हुआ मैं, और कहाँ आपकी अनन्त कृपा! धन्य है! आपने अपना परम प्रसादस्वरूप और सकलसन्तापहारी वह करकमल मेरे सिरपर रखा है, जिसे आपने ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मीजीके सिरपर भी कभी नहीं रखा ।। २६।।
दूसरे संसारी जीवोंके समान आपमें छोटे-बड़ेका भेदभाव नहीं है; क्योंकि आप सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं। फिर भी कल्पवृक्षके समान आपका कृपा-प्रसाद भी सेवन-भजनसे ही प्राप्त होता है। सेवाके अनुसार ही जीवोंपर आपकी कृपाका उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है ।। २७ ।।
भगवन् ! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, जिसमें कालरूप सर्प डॅसनेके लिये सदा तैयार रहता है। विषय-भोगोंकी इच्छावाले पुरुष उसीमें गिरे हुए हैं।
मैं भी संगवश उसके पीछे उसीमें गिरने जा रहा था। परन्तु भगवन् ! देवर्षि नारदने मुझे अपनाकर बचा लिया। तब भला, मैं आपके भक्तजनोंकी सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ ।। २८ ।।
अनन्त ! जिस समय मेरे पिताने अन्याय करनेके लिये कमर कसकर हाथमें खड़ग ले लिया और वह कहने लगा कि ‘यदि मेरे सिवा कोई और ईश्वर है तो तुझे बचा ले,
मैं तेरा सिर काटता हूँ’, उस समय आपने मेरे प्राणोंकी रक्षा की और मेरे पिताका वध किया। मैं तो समझता हूँ कि आपने अपने प्रेमी भक्त सनकादि ऋषियोंका वचन सत्य करनेके लिये ही वैसा किया था ।।२९।।
(संस्कृत श्लोक: -)
एकस्त्वमेव जगदेतदमुष्य यत् त्व- माद्यन्तयोः पृथगवस्यसि मध्यतश्च । सृष्ट्वा गुणव्यतिकरं निजमाययेदं नानेव तैरवसितस्तदनुप्रविष्टः ।।३०
त्वां वा इदं सदसदीश भवांस्ततोऽन्यो माया यदात्मपरबुद्धिरियं ह्यपार्था । यद् यस्य जन्म निधनं स्थितिरीक्षणं च तद् वै तदेव वसुकालवदष्टितर्वोः ।।३१
न्यस्येदमात्मनि जगद् विलयाम्बुमध्ये शेषेऽऽत्मना निजसुखानुभवो निरीहः । योगेन मीलितदृगात्मनिपीतनिद्र- स्तुर्ये स्थितो न तु तमो न गुणांश्च युद्धे ।।३२
तस्यैव ते वपुरिदं निजकालशक्त्या सञ्चोदितप्रकृतिधर्मण आत्मगूढम् । अम्भस्यनन्तशयनाद् विरमत्समाधे- र्नाभेरभूत् स्वकणिकावटवन्महाब्जम् ।।३३
तत्सम्भवः कविरतोऽन्यदपश्यमान- स्त्वां बीजमात्मनि ततं स्वबहिर्विचिन्त्य । नाविन्ददब्दशतमप्सु निमज्जमानो जातेऽङ्कुरे कथमु होपलभेत बीजम् ।।३४
अनुवाद: –
भगवन्! यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र आप ही हैं। क्योंकि इसके आदिमें आप ही
कारणरूपसे थे, अन्तमें आप ही अवधिके रूपमें रहेंगे और बीचमें इसकी प्रतीतिके रूपमें भी
केवल आप ही हैं। आप अपनी मायासे गुणोंके परिणाम स्वरूप इस जगत्की सृष्टि करके
इसमें पहलेसे विद्यमान रहनेपर भी प्रवेशकी लीला करते हैं और उन गुणोंसे युक्त होकर
अनेक मालूम पड़ रहे हैं ।। ३० ।। भगवन् ! यह जो कुछ कार्य-कारणके रूपमें प्रतीत हो रहा है, वह सब आप ही हैं और इससे भिन्न भी आप ही हैं। अपने परायेका भेद-भाव तो अर्थहीन शब्दोंकी माया है;
क्योंकि जिससे जिसका जन्म, स्थिति, लय और प्रकाश होता है, वह उसका स्वरूप ही होता है-जैसे बीज और वृक्ष कारण और कार्यकी दृष्टिसे भिन्न-भिन्न हैं, तो भी गन्ध-तन्मात्रकी दृष्टिसे दोनों एक ही हैं ।। ३१।।
भगवन्! आप इस सम्पूर्ण विश्वको स्वयं अपनेमें समेटकर आत्मसुखका अनुभव करते निष्क्रिय होकर प्रलयकालीन जलमें शयन करते हैं।
उस समय अपने स्वयं-सिद्ध योगके द्वारा बाह्य दृष्टिको बंद कर आप अपने स्वरूपके प्रकाशमें निद्राको विलीन कर लेते हैं और तुरीय ब्रह्मपदमें छ रहते हैं। उस समय आप न तो तमोगुणसे ही युक्त होते और न तो विषयोंको ही स्वीकार करते हैं ।।३२।।
आप अपनी कालशक्तिसे प्रकृतिके गुणोंको प्रेरित करते हैं, इसलिये यह ब्रह्माण्ड आपका ही शरीर है। पहले यह आपमें ही लीन था।
जब प्रलयकालीन जलके भीतर शेषशय्यापर शयन करनेवाले आपने योगनिद्राकी समाधि त्याग दी, तब वटके बीजसे विशाल वृक्षके समान आपकी नाभिसे ब्रह्माण्डकमल उत्पन्न हुआ ।।३३।।
उसपर सूक्ष्मदर्शी ब्रह्माजी प्रकट हुए। जब उन्हें कमलके सिवा और कुछ भी दिखायी न पड़ा, तब अपनेमें बीजरूपसे व्याप्त आपको वे न जान सके और आपको अपनेसे बाहर समझकर जलके भीतर घुसकर सौ वर्षतक ढूँढ़ते रहे।
परन्तु वहाँ उन्हें कुछ नहीं मिला। यह ठीक ही है, क्योंकि अंकुर उग आनेपर उसमें व्याप्त बीजको कोई बाहर अलग कैसे देख सकता है ।।३४।।
(संस्कृत श्लोक: -)
स त्वात्मयोनिरतिविस्मित आस्थितोऽब्जं कालेन तीव्रतपसा परिशुद्धभावः । त्वामात्मनीश भुवि गन्धमिवातिसूक्ष्मं
भूतेन्द्रियाशयमये विततं ददर्श ।। ३५
एवं सहस्रवदनाङ्घ्रिशिरः करोरु- नासास्यकर्णनयनाभरणायुधाढ्यम् । मायामयं सदुपलक्षितसंनिवेशं दृष्ट्वा महापुरुषमाप मुदं विरिञ्चः ।।३६
तस्मै भवान्हयशिरस्तनुवं च बिभ्रद् वेदद्रुहावतिबलौ मधुकैटभाख्यौ । हत्वाऽऽनयच्छ्रुतिगणांस्तु रजस्तमश्च सत्त्वं तव प्रियतमां तनुमामनन्ति ।।३७
इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारै- र्लोकान् विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान् ।
धर्म महापुरुष पासि युगानुवृत्तं छन्नः कलौ यदभवस्त्रियुगोऽथ स त्वम् ।।३८ नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ सम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम् ।
कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्तं तस्मिन्कथं तव गतिं विमृशामि दीनः ।।३९जिद्वैकतोऽच्युत विकर्षति मावितृप्ता शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित् ।
अनुवाद: –
ब्रह्माको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे हारकर कमलपर बैठ गये। बहुत समय बीतनेपर तीव्र तपस्या करनेसे जब उनका हृदय शुद्ध हो गया, तब उन्हें भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप अपने शरीरमें ही ओत-प्रोतरूपसे स्थित आपके सूक्ष्मरूपका साक्षात्कार हुआ-ठीक वैसे ही जैसे पृथ्वीमें व्याप्त उसकी अति सूक्ष्म तन्मात्रा गन्धका होता है ।।३५।।
विराट् पुरुष सहस्रों मुख, चरण, सिर, हाथ, जंघा, नासिका, मुख, कान, नेत्र, आभूषण और आयुधोंसे सम्पन्न था। चौदहों लोक उसके विभिन्न अंगोंके रूपमें शोभायमान थे। वह भगवान्की एक लीलामयी मूर्ति थी। उसे देखकर ब्रह्माजीको बड़ा आनन्द हुआ ।।३६।।
रजोगुण और तमोगुणरूप मधु और कैटभ नामके दो बड़े बलवान् दैत्य थे। जब वे वेदोंको चुराकर ले गये, तब आपने हयग्रीव अवतार ग्रहण किया और उन दोनोंको मारकर सत्त्वगुणरूप श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लोटा दीं।
वह सत्त्वगुण ही आपका अत्यन्त प्रिय शरीर है- महात्मालोग इस प्रकार वर्णन करते हैं ।। ३७ ।।
पुरुषोत्तम ! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि, देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकोंका पालन तथा विश्वके द्रोहियोंका संहार करते हैं।
इन अवतारोंके द्वारा आप प्रत्येक युगमें उसके धर्मोंकी रक्षा करते हैं। कलियुगमें आप छिपकर गुप्तरूपसे ही रहते हैं, इसीलिये आपका एक नाम ‘त्रियुग’ भी है ।। ३८ ।।
वैकुण्ठनाथ! मेरे मनकी बड़ी दुर्दशा है। वह पाप-वासनाओंसे तो कलुषित है ही, स्वयं भी अत्यन्त दुष्ट है।
वह प्रायः ही कामनाओंके कारण आतुर रहता है और हर्ष-शोक, भय एवं लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुत्र आदिकी चिन्ताओंसे व्याकुल रहता है।
इसे आपकी लीला- कथाओंमें तो रस ही नहीं मिलता। इसके मारे मैं दीन हो रहा हूँ। ऐसे मनसे मैं आपके स्वरूपका चिन्तन कैसे करूँ ? ।। ३९ ।।
अच्युत ! यह कभी न अघानेवाली जीभ मुझे स्वादिष्ट रसोंकी ओर खींचती रहती है। जननेन्द्रिय सुन्दरी स्त्रीकी ओर, त्वचा सुकोमल स्पर्शकी ओर, पेट भोजनकी ओर, कान मधुर संगीतकी ओर, नासिका भीनी-भीनी सुगन्धकी ओर और ये चपल नेत्र सौन्दर्यकी ओर मुझे खींचते रहते हैं।
इनके सिवा कर्मेन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयोंकी ओर ले जानेको जोर लगाती ही रहती हैं। मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुषकी बहुत-सी पत्नियाँ उसे अपने-अपने शयनगृहमें ले जानेके लिये चारों ओरसे घसीट रही हों ।।४०।।
इस प्रकार यह जीव अपने कर्मोंके बन्धनमें पड़कर इस संसाररूप वैतरणी नदीमें गिरा हुआ है। जन्मसे मृत्यु, मृत्युसे जन्म और दोनोंके द्वारा कर्मभोग करते-करते यह भयभीत हो गया है।
यह अपना है, यह पराया है- इस प्रकारके भेद- भावसे युक्त होकर किसीसे मित्रता करता है तो किसीसे शत्रुता। आप इस मूढ़ जीव-जातिकी यह दुर्दशा देखकर करुणासे द्रवित हो जाइये। इस भव-नदीसे सर्वदा पार रहनेवाले भगवन्! इन प्राणियोंको भी अब पार लगा दीजिये ।।४१।।
जगद्गुरो ! आप इस सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति तथा पालन करनेवाले हैं। ऐसी अवस्थामें इन जीवोंको इस भव-नदीके पार उतार देनेमें आपको क्या प्रयास है? दीनजनोंके परमहितैषी प्रभो ! भूले-भटके मूढ़ ही महान् पुरुषोंके विशेष अनुग्रहपात्र होते हैं।
हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि हम आपके प्रियजनोंकी सेवामें लगे रहते हैं, इसलिये पार जानेकी हमें कभी चिन्ता ही नहीं होती ।।४२।।
परमात्मन् ! इस भव-वैतरणीसे पार उतरना दूसरे लोगोंके लिये अवश्य ही कठिन है, परन्तु मुझे तो इससे तनिक भी भय नहीं है। क्योंकि मेरा चित्त इस वैतरणीमें नहीं, आपकी उन लीलाओंके गानमें मग्न रहता है, जो स्वर्गीय अमृतको भी तिरस्कृत करनेवाली – परमामृतस्वरूप हैं।
मैं उन मूढ़ प्राणियोंके लिये शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगानसे विमुख रहकर इन्द्रियोंके विषयोंका मायामय झूठा सुख प्राप्त करनेके लिये अपने सिरपर सारे संसारका भार ढोते रहते हैं ।।४३।।
मेरे स्वामी! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्रायः अपनी मुक्तिके लिये निर्जन वनमें जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं। वे दुसरोंकी भलाईके लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते।
परन्तु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय गरीबोंको छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता। और इन भटकते हुए प्राणियोंके लिये आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखायी पड़ता ।।४४।।
(संस्कृत श्लोक: -)
घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्ति- र्बह्वयः सपत्नय इव गेहपतिं लुनन्ति ।।४०
एवं स्वकर्मपतितं भववैतरण्या-
मन्योन्यजन्ममरणाशनभीतभीतम् । पश्यञ्जनं स्वपरविग्रहवैरमैत्रं हन्तेति पारचर पीपृहि मूढमद्य ।।४१
को न्वत्र तेऽखिलगुरो भगवन्प्रयास उत्तारणेऽस्य भवसम्भवलोपहेतोः ।
मूढेषु वै महदनुग्रह आर्तबन्धो किं तेन ते प्रियजनाननुसेवतां नः ।।४२
नैवोद्विजे पर दुरत्ययवैतरण्या- स्त्वद्वीर्यगायनमहामृतमग्नचित्तः ।
शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रियार्थ- मायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान् ।।४३ प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तिकामा मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः । नैतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्ष एको नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ।।४४
यन्मैथुनादि गृहमेधिसुखं हि तुच्छं कण्डूयनेन करयोरिव दुःखदुःखम् । तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदुःखभाजः कण्डूतिवन्मनसिजं विषहेत धीरः ।।४५
मौनव्रतश्रुततपोऽध्ययनस्वधर्म- व्याख्यारहोजपसमाधय आपवर्याः । प्रायः परं पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणां वार्ता भवन्त्युत न वात्र तु दाम्भिकानाम् ।।४६
रूपे इमे सदसती तव वेदसृष्टे बीजाङ्कराविव न चान्यदरूपकस्य । युक्ताः समक्षमुभयत्र विचिन्वते त्वां योगेन वह्निमिव दारुषु नान्यतः स्यात् ।।४७
त्वं वायुरग्निरवनिर्वियदम्बुमात्राः प्राणेन्द्रियाणि हृदयं चिदनुग्रहश्च । सर्वं त्वमेव सगुणो विगुणश्च भूमन् नान्यत् त्वदस्त्यपि मनोवचसा निरुक्तम् ।।४८
नैते गुणा न गुणिनो महदादयो ये सर्वे मनः प्रभृतयः सहदेवमर्त्याः । आद्यन्तवन्त उरुगाय विदन्ति हि त्वा- मेवं विमृश्य सुधियो विरमन्ति शब्दात् ।।४९
अनुवाद: –
घरमें फँसे हुए लोगोंको जो मैथुन आदिका सुख मिलता है, वह अत्यन्त तुच्छ एवं दुःखरूप ही है- जैसे कोई दोनों हाथोंसे खुजला रहा हो तो उस खुजलीमें पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालुम पड़ता है, परन्तु पीछेसे दुःख-ही-दुःख होता है।
किंतु ये भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दुःख भोगनेपर भी इन विषयोंसे अघाते नहीं। इसके विपरीत धीर पुरुष जैसे खुजलाहटको सह लेते हैं, वैसे ही कामादि वेगोंको भी सह लेते हैं। सहनेसे ही उनका नाश होता है ।।४५।।
पुरुषोत्तम ! मोक्षके दस साधन प्रसिद्ध हैं- मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियोंसे शास्त्रोंकी व्याख्या, एकान्तसेवन, जप और समाधि। परन्तु जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं उनके लिये ये सब जीविकाके साधन- व्यापारमात्र रह जाते हैं।
और दम्भियोंके लिये तो जबतक उनकी पोल खुलती नहीं, तभीतक ये जीवननिर्वाहके साधन रहते हैं और भंडाफोड़ हो जानेपर वह भी नहीं ।।४६।।
वेदोंने बीज और अंकुरके समान आपके दो रूप बताये हैं- कार्य और कारण। वास्तवमें आप प्राकृत रूपसे रहित हैं। परन्तु इन कार्य और कारणरूपोंको छोड़कर आपके ज्ञानका कोई और साधन भी नहीं है।
काष्ठ-मन्थनके द्वारा जिस प्रकार अग्नि प्रकट की जाती है, उसी प्रकार योगीजन भक्तियोगकी साधनासे आपको कार्य और कारण दोनोंमें ही ढूँढ़ निकालते हैं। क्योंकि वास्तवमें ये दोनों आपसे पृथक् नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं ।।४७।।
अनन्त प्रभो ! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पंचतन्मात्राएँ, प्राण, इन्द्रिय, मन, चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत् एवं सगुण और निर्गुण- सब कुछ केवल आप ही हैं। और तो क्या, मन और वाणीके द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे पृथक् नहीं है ।।४८।।
समग्र कीर्तिक आश्रय भगवन् ! ये सत्त्वादि गुण और इन गुणोंके परिणाम महत्तत्त्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप जाननेमें समर्थ नहीं है; क्योंकि ये सब आदि-अन्तवाले हैं और आप अनादि एवं अनन्त हैं। ऐसा विचार करके ज्ञानीजन शब्दोंकी मायासे उपरत हो जाते हैं ।।४९।।
(संस्कृत श्लोक: -)
तत् तेऽर्हत्तम नमः स्तुतिकर्मपूजाः कर्म स्मृतिश्चरणयोः श्रवणं कथायाम् ।
संसेवया त्वयि विनेति षडङ्गया किं भक्तिं जनः परमहंसगतौ लभेत ।।५०
नारद उवाच
एतावद्वर्णितगुणो भक्त्या भक्तेन निर्गुणः । प्रह्लादं प्रणतं प्रीतो यतमन्यूरभाषत ।।५१
श्रीभगवानुवाच
प्रह्लाद भद्र भद्रं ते प्रीतोऽहं तेऽसुरोत्तम । वरं वृणीष्वाभिमतं कामपूरोऽस्म्यहं नृणाम् ।।५२
मामप्रीणत आयुष्मन्दर्शनं दुर्लभं हि मे । दृष्ट्वा मां न पुनर्जन्तुरात्मानं तप्तुमर्हति ।।५३
प्रीणन्ति ह्यथ मां धीराः सर्वभावेन साधवः । श्रेयस्कामा महाभागाः सर्वासामाशिषां पतिम् ।।५४
एवं प्रलोभ्यमानोऽपि वरैर्लोकप्रलोभनैः । एकान्तित्वाद् भगवति नैच्छत् तानसुरोत्तमः ।।५५
अनुवाद: –
परम पूज्य ! आपकी सेवाके छः अंग हैं- नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मोंका समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलोंका चिन्तन और लीला-कथाका श्रवण। इस षडंगसेवाके बिना आपके चरणकमलोंकी भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है?
और भक्तिके बिना आपकी प्राप्ति कैसे होगी? प्रभो! आप तो अपने परम प्रिय भक्तजनोंके, परमहंसोंके ही सर्वस्व हैं ।।५०।।
नारदजी कहते हैं- इस प्रकार भक्त प्रह्लादने बड़े प्रेमसे प्रकृति और प्राकृत गुणोंसे रहित भगवान्के स्वरूपभूत गुणोंका वर्णन किया। इसके बाद वे भगवान्के चरणोंमें सिर झुकाकर चुप हो गये। नृसिंहभगवान्का क्रोध शान्त हो गया और वे बड़े प्रेम तथा प्रसन्नतासे बोले ।। ५१ ।।
श्रीनृसिंहभगवान्ने कहा- परम कल्याण-स्वरूप प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। दैत्यश्रेष्ठ ! मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं जीवोंकी इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला हूँ ।।५२।।
आयुष्मन् ! जो मुझे प्रसन्न नहीं कर लेता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत ही कठिन है। परन्तु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब फिर प्राणीके हृदयमें किसी प्रकारकी जलन नहीं रह जाती ।।५३।।
मैं समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला हूँ। इसलिये सभी कल्याणकामी परम भाग्यवान् साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियोंसे मुझे प्रसन्न करनेका ही यत्न करते हैं ।।५४।।
असुरकुलभूषण प्रह्लादजी भगवान्के अनन्य प्रेमी थे। इसलिये बड़े-बड़े लोगोंको प्रलोभनमें डालनेवाले वरोंके द्वारा प्रलोभित किये जानेपर भी उन्होंने उनकी इच्छा नहीं की ।।५५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते भगवत्स्तवो नाम नवमोऽध्यायः ।।९।।
१. प्रा० पा० – उत्पत्य। २. प्रा० पा०- हिनिर्दष्टधि०। ३. प्रा० पा०- प्रताप०। १. प्रा० पा०- स्म्यलं । २. प्रा० पा०- गहनाद्। १. प्रा० पा०- विमोहः। २. प्रा० पा० – दसून् बिभित्सु०।