Bhagwat puran skandh 7 chapter 8(भागवत पुराण सप्तम: स्कन्ध:अध्याय 8नृसिंहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध एवं ब्रह्मादि देवताओंद्वारा भगवान्की स्तुति)
(संस्कृत श्लोक: -)
नारद उवाच
अथ दैत्यसुताः सर्वे श्रुत्वा तदनुवर्णितम् । जगृहुर्निरवद्यत्वान्नैव गुर्वनुशिक्षितम् ।।१
अथाचार्यसुतस्तेषां बुद्धिमेकान्तसंस्थिताम् । आलक्ष्य भीतस्त्वरितो राज्ञ आवेदयद् यथा ।।२
श्रुत्वा तदप्रियं दैत्यो दुःसहं तनयानयम् । कोपावेशचलद्गात्रः पुत्रं हन्तुं मनो दधे ।।३
अनुवाद: –
नारदजी कहते है- प्रह्लादजीका प्रवचन सुनकर दैत्यबालकोंने उसी समयसे निर्दोष होनेके कारण, उनकी बात पकड़ ली। गुरुजीकी दूषित शिक्षाकी ओर उन्होंने ध्यान ही न दिया ।।१।।
जब गुरुजीने देखा कि उन सभी विद्यार्थियोंकी बुद्धि एकमात्र भगवान्में स्थिर हो रही है, तब वे बहुत घबराये और तुरंत हिरण्यकशिपुके पास जाकर निवेदन किया ।।२।।
अपने पुत्र प्रह्लादकी इस असह्य और अप्रिय अनीतिको सुनकर क्रोधके मारे उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। अन्तमें उसने यही निश्चय किया कि प्रह्लादको अब अपने ही हाथसे मार डालना चाहिये ।।३।।
(संस्कृत श्लोक: -)
क्षिप्त्वा परुषया वाचा प्रह्लादमतदर्हणम् । आहेक्षमाणः पापेन तिरश्चीनेन चक्षुषा ।।४
प्रश्रयावनतं दान्तं बद्धाञ्जलिमवस्थितम् । सर्पः पदाहत इव श्वसन्प्रकृतिदारुणः ।।५
हे दुर्विनीत मन्दात्मन्कुलभेदकराधम । स्तब्धं मच्छासनोद्धृतं नेष्ये त्वाद्य यमक्षयम् ।।६
क्रुद्धस्य यस्य कम्पन्ते त्रयो लोकाः सहेश्वराः ।तस्य मेऽभीतवन्मूढ शासनं किम्बलोऽत्यगाः ।।७
प्रह्लाद उवाच
न केवलं मे भवतश्च राजन् स वै बलं बलिनां चापरेषाम् ।परेऽवरेऽमी स्थिरजङ्गमा ये ब्रह्मादयो येन वशं प्रणीताः ।।८
स ईश्वरः काल उरुक्रमोऽसा- वोजः सहः सत्वबलेन्द्रियात्मा । स एव विश्वं परमः स्वशक्तिभिः सृजत्यवत्यत्ति गुणत्रयेशः ।।९
जह्यासुरं भावमिमं त्वमात्मनः समं मनो धत्स्व न सन्ति विद्विषः । ऋतेऽजितादात्मन उत्पथस्थितात् तद्धि ह्यनन्तस्य महत् समर्हणम् ।।१०
दस्यून्पुरा षण्ण विजित्य लुम्पतो मन्यन्त एके स्वजिता दिशो दश । जितात्मनो ज्ञस्य समस्य देहिनां साधोः स्वमोहप्रभवाः कुतः परे ।।११
अनुवाद: –
मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले प्रह्लादजी बड़ी नम्रतासे हाथ जोड़कर चुपचाप हिरण्यकशिपुके सामने खड़े थे और तिरस्कारके सर्वथा अयोग्य थे। परन्तु हिरण्यकशिपु स्वभावसे ही क्रूर था।
वह पैरकी चोट खाये हुए साँपकी तरह फुफकारने लगा। उसने उनकी ओर पापभरी टेढ़ी नजरसे देखा और कठोर वाणीसे डाँटते हुए कहा- ।।४-५।।
‘मूर्ख ! तू बड़ा उद्दण्ड हो गया है। स्वयं तो नीच है ही, अब हमारे कुलके और बालकोंको भी फोड़ना चाहता है! तूने बड़ी ढिठाईसे मेरी आज्ञाका उल्लंघन किया है। आज ही तुझे यमराजके घर भेजकर इसका फल चखाता हूँ ।।६।।
मैं तनिक-सा क्रोध करता हूँ तो तीनों लोक और उनके लोकपाल काँप उठते हैं। फिर मूर्ख ! तूने किसके बल-बूतेपर निडरकी तरह मेरी आज्ञाके विरुद्ध काम किया है?’ ।।७।।
प्रह्लादजीने कहा- दैत्यराज ! ब्रह्मासे लेकर तिनकेतक सब छोटे-बड़े, चर-अचर जीवोंको भगवान्ने ही अपने वशमें कर रखा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसारकेसमस्त बलवानोंके बल भी केवल वही हैं ।।८।।
वे ही महापराक्रमी सर्वशक्तिमान प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियोंके इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वही हैं। वही परमेश्वर अपनी शक्तियोंके द्वारा इस विश्वकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणोंके स्वामी हैं ।।९।।
आप अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये। अपने मनको सबके प्रति समान बनाइये। इस संसारमें अपने वशमें न रहनेवाले कुमार्गगामी मनके अतिरिक्त और कोई शत्रु नहीं है। मनमें सबके प्रति समताका भाव लाना ही भगवान्की सबसे बड़ी पूजा है ।।१०।।
जो लोग अपना सर्वस्व लूटनेवाले इन छः इन्द्रियरूपी डाकुओंपर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और ऐसा मानने लगते हैं कि हमने दसों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख हैं। हाँ, जिस ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय महात्माने समस्त प्राणियोंके प्रति समताका भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञानसे पैदा होनेवाले काम-क्रोधादि शत्रु भी मर-मिट जाते हैं; फिर बाहरके शत्रु तो रहें ही कैसे ।।११।।
(संस्कृत श्लोक: -)
हिरण्यकशिपुरुवाच
व्यक्तं त्वं मर्तुकामोऽसि योऽतिमात्रं विकत्थसे । मुमूर्षणां हि मन्दात्मन् ननु स्युर्विप्लवा गिरः ।।१२
यस्त्वया मन्दभाग्योक्तो मदन्यो जगदीश्वरः । क्वासौ यदि स सर्वत्र कस्मात् स्तम्भे न दृश्यते ।।१३
सोऽहं विकत्थमानस्य शिरः कायाद्धरामि ते ।गोपायेत हरिस्त्वाद्य यस्ते शरणमीप्सितम् ।।१४एवं दुरुक्तैर्मुहुरर्दयनुषा सुतं महाभागवतं महासुरः ।खड्गं प्रगृह्योत्पतितो वरासनात् स्तम्भं तताडातिबलः स्वमुष्टिना ।।१५
तदैव तस्मिन् निनदोऽतिभीषणो बभूव येनाण्डकटाहमस्फुटत् । यं वै स्वधिष्ण्योपगतं त्वजादयः श्रुत्वा स्वधामाप्ययमङ्ग मेनिरे ।।१६
स विक्रमन् पुत्रवधेप्सुरोजसा निशम्य निर्हादमपूर्वमद्भुतम् !अन्तः सभायां न ददर्श तत्पदं वितत्रसुर्येन सुरारियूथपाः ।।१७
सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः ।अदृश्यतात्यद्भुत रूपमुद्वहन् स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम् ।।१८
अनुवाद: –
हिरण्यकशिपुने कहा- रे मन्दबुद्धि ! तेरे बहकनेकी भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी बेसिर-पैरकी बातें बका करते हैं ।।१२।।
अभागे ! तूने मेरे सिवा जो और किसीको जगत्का स्वामी बतलाया है, सो देखूँ तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है। अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है? तो इस खंभेमें क्यों नहीं दीखता? ।।१३ ।।
अच्छा, तुझे इस खंभेमें भी दिखायी देता है! अरे, तू क्यों इतनी डींग हाँक रहा है? मैं अभी-अभी तेरा सिर धड़से अलग किये देता हूँ। देखता हूँ तेरा वह सर्वस्व हरि, जिसपर तुझे इतना भरोसा है, तेरी कैसे रक्षा करता है ।।१४।।
इस प्रकार वह अत्यन्त बलवान् महादैत्य भगवान्के परम प्रेमी प्रह्लादको बार-बार झिड़कियाँ देता और सताता रहा। जब क्रोधके मारे वह अपनेको रोक न सका, तब हाथमें खड्ग लेकर सिंहासनसे कूद पड़ा और बड़े जोरसे उस खंभेको एक घूँसा मारा ।।१५ ।।
उसी समय उस खंभेमें एक बड़ा भयंकर शब्द हुआ। ऐसा जान पड़ा मानो यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकपालोंके लोकमें पहुँची, तब उसे सुनकर ब्रह्मादिको ऐसा जान पड़ा, मानो उनके लोकोंका प्रलय हो रहा हो ।। १६ ।।
हिरण्यकशिपु प्रह्लादको मार डालनेके लिये बड़े जोरसे झपटा था; परन्तु दैत्यसेनापतियोंको भी भयसे कँपा देनेवाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्दको सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह शब्द करनेवाला कौन है? परन्तु उसे सभाके भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा ।।१७।।
इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्माकी वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थोंमें अपनी व्यापकता दिखानेके लिये सभाके भीतर उसी खंभेमें बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान् प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंहका ही था और न मनुष्यका ही ।।१८।।
(संस्कृत श्लोक: -)
स सत्त्वमेनं परितोऽपि पश्यन् स्तम्भस्य मध्यादनु निर्जिहानम् । नायं मृगो नापि नरो विचित्र- महो किमेतन्नृमृगेन्द्ररूपम् ।।११
मीमांसमानस्य समुत्थितोऽग्रतो नृसिंहरूपस्तदलं भयानकम् !प्रतप्तचामीकरचण्डलोचनं स्फुरत्सटाकेसरजृम्भिताननम् ।।२०
करालदंष्ट्रं करवालचञ्चल- क्षुरान्तजिह्व भुकुटीमुखोल्बणम् ।स्तब्धोर्ध्वकर्णं गिरिकन्दराद्भुत- व्यात्तास्यनासं हनुभेदभीषणम् ।।२१
दिविस्पृशत्कायमदीर्घपीवर- ग्रीवोरुवक्षःस्थलमल्पमध्यमम् ।चन्द्रांशुगौरैश्छुरितं तनूरुहै- विष्वग्भुजानीकशतं नखायुधम् ।।२२
दुरासदं सर्वनिजेतरायुध- प्रवेकविद्रावितदैत्यदानवम् ।प्रायेण मेऽयं हरिणोरुमायिना वधः स्मृतोऽनेन समुद्यतेन किम् ।।२३
एवं ब्रुवंस्त्वभ्यपतद् गदायुधो नदन् नृसिंहं प्रति दैत्यकुञ्चरः । अलक्षितोऽग्नौ पतितः पतङ्गमो यथा नृसिंहौजसि सोऽसुरस्तदा ।।२४
अनुवाद: –
जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करनेवालोकी इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभेके भीतरसे निकलते हुए उस अद्भुत प्राणीको उसने देखा। वह सोचने लगा- अहो, यह न तो मनुष्य और न पशु; फिर यह नृसिंहके रूपमें कौन-सा अलौकिक जीव है! ।।१९।।
जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुनमें लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंहभगवान् खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था। तपाये हुए सोनेके समान पीली-पीली भयानक आँखें थीं। जँभाई लेनेसे गरदनके बाल इधर-उधर लहरा रहे थे ।।२०।।
दाढ़ें बड़ी विकराल थीं। तलवारकी तरह लपलपाती हुई छूरेकी धारके समान तीखी जीभ थी। टेढ़ी भौंहोंसे उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊपरकी ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुँह पहाड़की गुफाके समान अद्भुत जान पड़ता था। फटे हुए जबड़ोंसे उसकी भयंकरता बहुत बढ़ गयी थी ।।२१।।
विशाल शरीर स्वर्गका स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी। छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चन्द्रमाकी किरणोंके समान सफेद रोएँ सारे शरीरपर चमक थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुधका काम देते थे ।।२२।।
उनके पास फटकनेतकका साहस किसीको न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रोंके द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवोंको भगा दिया। हिरण्यकशिपु सोचने लगा-हो-न-हो महामायादेवी विष्णुने ही मुझे मार डालनेके लिये यह ढंग रचा है; परन्तु इसकी इन चालोंसे हो ही क्या सकता है ।। २३।।
इस प्रकार कहता और सिंहनाद करता हुआ दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथमें गदा लेकर नृसिंहभगवान्पर टूट पड़ा। परन्तु जैसे पतिंगा आगमें गिरकर अदृश्य हो जाता है, वैसे ही वह दैत्य भगवान्के तेजके भीतर जाकर लापता हो गया ।।२४।।
(संस्कृत श्लोक: -)
न तद् विचित्रं खलु सत्त्वधामनि स्वतेजसा यो नु पुरापिबत् तमः । ततोऽभिपद्याभ्यहनन्महासुरो रुषा नृसिंहं गदयोरुवेगया ।।२५
तं विक्रमन्तं सगदं गदाधरो महोरगं तार्क्ष्यसुतो यथाग्रहीत् । स तस्य हस्तोत्कलितस्तदासुरो विक्रीडतो यद्वदहिर्गरुत्मतः ।।२६
असाध्वमन्यन्त हृतौकसोऽमरा घनच्छदा भारत सर्वधिष्ण्यपाः । तं मन्यमानो निजवीर्यशङ्कितं यद्धस्तमुक्तो नृहरिं महासुरः । पुनस्तमासज्जत खड्गचर्मणी प्रगृह्य वेगेन जितश्रमो मृधे ।।२७
तं श्येनवेगं शतचन्द्रवत्र्मभि- श्चरन्तमच्छिद्रमुपर्यधो हरिः । कृत्वाट्टहासं खरमुत्स्वनोल्बणं निमीलिताक्षं जगृहे महाजवः ।।२८
विष्वक् स्फुरन्तं ग्रहणातुरं हरि- व्र्व्यालो यथाऽऽखुं कुलिशाक्षतत्वचम् । द्वार्युर आपात्य ददार लीलया नखैर्यथाहिं गरुडो महाविषम् ।। २९
अनुवाद: –
समस्त शक्ति और तेजके आश्रय भगवान्के सम्बन्धमें ऐसी घटना कोई आश्चर्यजनक नहीं है; क्योंकि सृष्टिके प्रारम्भमें उन्होंने अपने तेजसे प्रलयके निमित्तभूत तमोगुणरूपी घोर अन्धकारको भी पी लिया था। तदनन्तर वह दैत्य बड़े क्रोधसे लपका और अपनी गदाको बड़े जोरसे घुमाकर उसने नृसिंहभगवान्पर प्रहार किया ।।२५।।
प्रहार करते समय ही-जैसे गरुड़ साँपको पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान्ने गदासहित उस दैत्यको पकड़ लिया। वे जब उसके साथ खिलवाड़ करने लगे, तब वह दैत्य उनके हाथसे वैसे ही निकल गया, जैसे क्रीडा करते हुए गरुड़के चंगुलसे साँप छूट जाय ।।२६।।
युधिष्ठिर ! उस समय सब-के-सब लोकपाल बादलोंमें छिपकर इस युद्धको देख रहे थे। उनका स्वर्ग तो हिरण्यकशिपुने पहले ही छीन लिया था। जब उन्होंने देखा कि वह भगवान्के हाथसे छूट गया, तब वे और भी डर गये।
हिरण्यकशिपुने भी यही समझा कि नृसिंहने मेरे बलवीर्यसे डरकर ही मुझे अपने हाथसे छोड़ दिया है। इस विचारसे उसकी थकान जाती रही और वह युद्धके लिये ढाल-तलवार लेकर फिर उनकी ओर दौड़ पड़ा ।। २७।।
उस समय वह बाजकी तरह बड़े वेगसे ऊपर-नीचे उछल- कूदकर इस प्रकार ढाल-तलवारके पैंतरे बदलने लगा कि जिससे उसपर आक्रमण करनेका अवसर ही न मिले।
तब भगवान्ने बड़े ऊँचे स्वरसे प्रचण्ड और भयंकर अट्टहास किया, जिससे हिरण्यकशिपुकी आँखें बंद हो गयीं। फिर बड़े वेगसे झपटकर भगवान्ने उसे वैसे ही पकड़ लिया, जैसे साँप चूहेको पकड़ लेता है। जिस हिरण्यकशिपुके चमड़ेपर वज्रकी चोटसे भी खरोंच नहीं आयी थी, वही अब उनके पंजेसे निकलनेके लिये जोरसे छटपटा रहा था।
भगवान्ने सभाके दरवाजेपर ले जाकर उसे अपनी जाँघोंपर गिरा लिया और खेल-खेलमें अपने नखोंसे उसे उसी प्रकार फाड़ डाला, जैसे गरुड़ महाविषधर साँपको चीर डालते हैं ।।२८-२९।।
(संस्कृत श्लोक: -)
संरम्भदुष्प्रेक्ष्यकराललोचनो व्यात्ताननान्तं विलिहन्स्वजिह्वया ।असृग्लवाक्तारुणकेसराननो यथान्त्रमाली द्विपहत्यया हरिः ।।३०
नखाङ्कुरोत्पाटितहत्सरोरुहं विसृज्य तस्यानुचरानुदायुधान् ।अहन् समन्तान्नखशस्त्रपाष्णिभि- दर्दोर्दण्डयूथोऽनुपथान् सहस्रशः ।।३१
सटावधूता जलदाः परापतन् ग्रहाश्च तदृष्टिविमुष्टरोचिषः ।अम्भोधयः श्वासहता विचुक्षुभु- र्निर्हादभीता दिगिभा विचुक्रुशुः ।।३२
द्योस्तत्सटोत्क्षिप्तविमानसकुला प्रोत्सर्पत क्ष्मा च पदातिपीडिता ।शैलाः समुत्पेतुरमुष्य रंहसा तत्तेजसा खं ककुभो न रेजिरे ।।३३
ततः सभायामुपविष्टमुत्तमे नृपासने संभृततेजसं विभुम् ।अलक्षितद्वैरथमत्यमर्षणं प्रचण्डवक्त्रं न बभाज कश्चन ।।३४
निशम्य लोकत्रयमस्तकज्वरं तमादिदैत्यं हरिणा हतं मृधे ।प्रहर्षवेगोत्कलितानना मुहुः प्रसूनवर्षेर्ववृषुः सुरस्त्रियः ।।३५
अनुवाद: –
उस समय उनकी क्रोधसे भरी विकराल आँखोंकी ओर देखा नहीं जाता था। वे अपनी लपलपाती हुई जीभसे फैले हुए मुँहके दोनों कोने चाट रहे थे। खूनके छींटोंसे उनका मुँह और गरदनके बाल लाल हो थे। हाथीको मारकर गलेमें आँतोंकी माला पहने हुए मृगराजके समान उनकी शोभा हो रही थी ।। ३० ।।
उन्होंने अपने तीखे नखोंसे हिरण्यकशिपुका कलेजा फाड़कर उसे जमीनपर पटक दिया। उस समय हजारों दैत्य-दानव हाथोंमें शस्त्र लेकर भगवान्पर प्रहार करनेके लिये आये। पर भगवान्ने अपनी भुजारूपी सेनासे, लातोंसे और नखरूपी शस्त्रोंसे चारों ओर खदेड़-खदेड़कर उन्हें मार डाला ।। ३१।।
युधिष्ठिर ! उस समय भगवान् नृसिंहके गरदनके बालोंकी फटकारसे बादल तितर-बितर होने लगे। उनके नेत्रोंकी ज्वालासे सूर्य आदि ग्रहोंका तेज फीका पड़ गया। उनके श्वासके धक्केसे समुद्र क्षुब्ध हो गये। उनके सिंहनादसे भयभीत होकर दिग्गज चिग्घाड़ने लगे ।।३२।।
उनके गरदनके बालोंसे टकराकर देवताओंके विमान अस्त-व्यस्त हो गये। स्वर्ग डगमगा गया। उनके पैरोंकी धमकसे भूकम्प आ गया, वेगसे पर्वत उड़ने लगे और उनके तेजकी चकाचौंधसे आकाश तथा दिशाओंका दीखना बंद हो गया ।। ३३।।
इस समय नृसिंहभगवान्का सामना करनेवाला कोई दिखायी न पड़ता था। फिर भी उनका क्रोध अभी बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपुकी राजसभामें ऊँचे सिंहासनपर जाकर विराज गये। उस समय उनके अत्यन्त तेजपूर्ण और क्रोधभरे भयंकर चेहरेको देखकर किसीका भी साहस न हुआ कि उनके पास जाकर उनकी सेवा करे ।। ३४ ।।
युधिष्ठिर ! जब स्वर्गकी देवियोंको यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकोंके सिरकी पीड़ाका मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्धमें भगवान्के हाथों मार डाला गया, तब आनन्दके उल्लाससे उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवान्पर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं ।। ३५।।
(संस्कृत श्लोक: -)
तदा विमानावलिभिर्नभस्तलं दिदृक्षतां सङ्कलमास नाकिनाम् । सुरानका दुन्दुभयोऽथ जघ्निरे गन्धर्वमुख्या ननृतुर्जगुः स्त्रियः ।।३६
तत्रोपव्रज्य विबुधा ब्रह्मेन्द्रगिरिशादयः । ऋषयः पितरः सिद्धा विद्याधरमहोरगाः ।। ३७
मनवः प्रजानां पतयो गन्धर्वाप्सरचारणाः । यक्षा किम्पुरुषास्तात वेतालाः सिद्धकिन्नराः ।।३८
ते विष्णुपार्षदाः सर्वे सुनन्दकुमुदादयः । मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिपुटा आसीनं तीव्रतेजसम् । ईडिरे नरशार्दूलं नातिदूरचराः पृथक् ।।३९
ब्रह्मोवाच
नतोऽस्म्यनन्ताय दुरन्तशक्तये विचित्रवीर्याय पवित्रकर्मणे । विश्वस्य सर्गस्थितिसंयमान् गुणैः स्वलीलया संदधतेऽव्ययात्मने ।।४०
श्रीरुद्र उवाच
कोपकालो युगान्तस्ते हतोऽयमसुरोऽल्पकः । तत्सुतं पाद्युपसृतं भक्तं ते भक्तवत्सल ।।४१
इन्द्र उवाच
प्रत्यानीताः परम भवता त्रायता नः स्वभागा दैत्याक्रान्तं हृदयकमलं त्वद्गृहं प्रत्यबोधि । कालग्रस्तं कियदिदमहो नाथ शुश्रूषतां ते मुक्तिस्तेषां न हि बहुमता नारसिंहापरैः किम् ।।४२
अनुवाद: –
आकाशमें विमानोंसे आये हुए भगवान्के दर्शनार्थी देवताओंकी भीड़ लग गयी। देवताओंके ढोल और नगारे बजने लगे। गन्धर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं ।। ३६।।
तात ! इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, किन्नर और सुनन्द-कुमुद आदि भगवान्के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगोंने सिरपर अंजलि बाँधकर सिंहासनपर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंहभगवान्की थोड़ी दूरसे अलग-अलग स्तुति की ।।३७-३९।।
ब्रह्माजीने कहा- प्रभो! आप अनन्त हैं। आपकी शक्तिका कोई पार नहीं पा सकता। आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं। यद्यपि गुणोंके द्वारा आप लीलासे ही सम्पूर्ण विश्वकी उत्पत्ति, पालन और प्रलय यथोचित ढंगसे करते हैं- फिर भी आप उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।४०।।
श्रीरुद्रने कहा- आपके क्रोध करनेका समय तो कल्पके अन्तमें होता है। यदि इस तुच्छ दैत्यको मारनेके लिये ही आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका। उसका पुत्र आपकी शरणमें आया है। भक्तवत्सल प्रभो! आप अपने इस भक्तकी रक्षा कीजिये ।।४१।।
इन्द्रने कहा- पुरुषोत्तम ! आपने हमारी रक्षा की है। आपने हमारे जो यज्ञभाग लौटाये हैं, वे वास्तवमें आप (अन्तर्यामी) के ही हैं। दैत्योंके आतंकसे संकुचित हमारे हृदयकमलको आपने प्रफुल्लित कर दिया। वह भी आपका ही निवासस्थान है।
यह जो स्वर्गादिका राज्य हमलोगोंको पुनः प्राप्त हुआ है, यह सब कालका ग्रास है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है ही क्या? स्वामिन् ! जिन्हें आपकी सेवाकी चाह है, वे मुक्तिका भी आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगोंकी तो उन्हें आवश्यकता ही क्या ।।४२।।
(संस्कृत श्लोक: -)
ऋषय ऊचुः
त्वं नस्तपः परममात्थ यदात्मतेजो येनेदमादिपुरुषात्मगतं ससर्ज । तद् विप्रलुप्तममुनाद्य शरण्यपाल रक्षागृहीतवपुषा पुनरन्वमंस्थाः ।।४३
पितर ऊचुः
श्राद्धानि नोऽधिबुभुजे प्रसभं तनूजै- र्दत्तानि तीर्थसमयेऽप्यपिबत् तिलाम्बु । तस्योदरान्नखविदीर्णवपाद् य आच्छेत् तस्मै नमो नृहरयेऽखिलधर्मगोप्त्रे ।।४४
सिद्धा ऊचुः
यो नो गतिं योगसिद्धामसाधु- रहारषीद् योगतपोबलेन । नानादर्प तं नखैर्निर्ददार तस्मै तुभ्यं प्रणताः स्मो नृसिंह ।।४५
विद्याधरा ऊचुः
विद्यां पृथग्धारणयानुराद्धां न्यषेधदज्ञो बलवीर्यदृप्तः ।
स येन संख्ये पशुवद्धतस्तं मायानृसिंहं प्रणताः स्म नित्यम् ।।४६
नागा ऊचुः
येन पापेन रत्नानि स्त्रीरत्नानि हृतानि नः । तद्वक्षः पाटनेनासां दत्तानन्द नमोऽस्तु ते ।।४७
अनुवाद: –
ऋषियोंने कहा- पुरुषोत्तम ! आपने तपस्याके द्वारा ही अपनेमें लीन हुए जगत्की फिरसे रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेजः स्वरूप श्रेष्ठ तपस्याका उपदेश आपने हमारे लिये भी किया था।
इस दैत्यने उसी तपस्याका उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल ! उस तपस्याकी रक्षाके लिये अवतार ग्रहण करके आपने हमारे लिये फिरसे उसी उपदेशका अनुमोदन किया है ।।४३।।
पितरोंने कहा- प्रभो ! हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था। जब वे पवित्र तीर्थमें या संक्रान्ति आदिके अवसरपर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलांजलि देते, तब उसे भी यह पी जाता।
आज आपने अपने नखोंसे उसका पेट फाड़कर वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे दिया। आप समस्त धर्मोंके एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव ! हम आपको नमस्कार करते हैं ।।४४।।
सिद्धोंने कहा- नृसिंहदेव! इस दुष्टने अपने योग और तपस्याके बलसे हमारी योगसिद्ध गति छीन ली थी। अपने नखोंसे आपने उस घमंडीको फाड़ डाला है। हम आपके चरणोंमें विनीतभावसे नमस्कार करते हैं ।।४५।।
विद्याधरोंने कहा-यह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने बल और वीरताके घमंडमें चूर था। यहाँतक कि हम लोगोंने विविध धारणाओंसे जो विद्या प्राप्त की थी, उसे इसने व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्धमें यज्ञपशुकी तरह इसको नष्ट कर दिया। अपनी लीलासे नृसिंह बने हुए आपको हम नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं ।।४६।।
नागोंने कहा- इस पापीने हमारी मणियों और हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर स्त्रियोंको भी छीन लिया था। आज उसकी छाती फाड़कर आपने हमारी पत्नियोंको बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो ! हम आपको नमस्कार करते हैं ।।४७।।
(संस्कृत श्लोक: -)
मनव ऊचुः
मनवो वयं तव निदेशकारिणो दितिजेन देव परिभूतसेतवः । भवता खलः स उपसंहृतः प्रभो करवाम ते किमनुशाधि किङ्करान् ।।४८
प्रजापतय ऊचुः
प्रजेशा वयं ते परेशाभिसृष्टा न येन प्रजा वै सृजामो निषिद्धाः । स एष त्वया भिन्नवक्षा नु शेते जगन्मङ्गलं सत्त्वमूर्तेऽवतारः ।।४९
गन्धर्वा ऊचुः
वयं विभो ते नटनाट्यगायका येनात्मसाद् वीर्यबलौजसा कृताः ।स एष नीतो भवता दशामिमां किमुत्पथस्थः कुशलाय कल्पते ।।५०
चारणा ऊचुः
हरे तवाङ्घ्रिपङ्कजं भवापवर्गमाश्रिताः । यदेष साधुहृच्छयस्त्वयासुरः समापितः ।।५१
यक्षा ऊचुः
वयमनुचरमुख्याः कर्मभिस्ते मनोज्ञै- स्तरे इह दितिसुतेन प्रापिता वाहकत्वम् । स तु जनपरितापं तत्कृतं जानता ते नरहर उपनीतः पञ्चतां पञ्चविंश ।।५२
किम्पुरुषा ऊचुः
वयं किम्पुरुषास्त्वं तु महापुरुष ईश्वरः ।अयं कुपुरुषो नष्टो धिक्कृतः साधुभिर्यदा ।।५३
अनुवाद: –
मनुओंने कहा- देवाधिदेव ! हम आपके आज्ञाकारी मनु हैं। इस दैत्यने हमलोगोंकी धर्ममर्यादा भंग कर दी थी। आपने उस दुष्टको मारकर बड़ा उपकार किया है। प्रभो ! हम आपके सेवक हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें? ।।४८।।
प्रजापतियोंने कहा-परमेश्वर ! आपने हमें प्रजापति बनाया था। परन्तु इसके रोक देनेसे हम प्रजाकी सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इसकी छाती फाड़ डाली और यह जमीनपर सर्वदाके लिये सो गया। सत्त्वमय मूर्ति धारण करनेवाले प्रभो! आपका यह अवतार संसारके कल्याणके लिये है ।।४९।।
गन्धर्वोंने कहा- प्रभो ! हम आपके नाचनेवाले, अभिनय करनेवाले और संगीत सुनानेवाले सेवक हैं। इस दैत्यने अपने बल, वीर्य और पराक्रमसे हमें अपना गुलाम बना रखा था। उसे आपने इस दशाको पहुँचा दिया। सच है, कुमार्गसे चलनेवालेका भी क्या कभी कल्याण हो सकता है? ।।५०।।
चारणोंने कहा- प्रभो! आपने सज्जनोंके हृदयको पीड़ा पहुँचानेवाले इस दुष्टको समाप्त कर दिया। इसलिये हम आपके उन चरणकमलोंकी शरणमें हैं, जिनके प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्रसे छुटकारा मिल जाता है ।।५१।।
यक्षोंने कहा- भगवन्! अपने श्रेष्ठ कर्मोंके कारण हमलोग आपके सेवकोंमें प्रधान गिने जाते थे। परन्तु हिरण्यकशिपुने हमें अपनी पालकी ढोनेवाला कहार बना लिया। प्रकृतिके नियामक परमात्मा। इसके कारण होनेवाले अपने निजजनोंके कष्ट जानकर ही आपने इसे मार डाला है ।। ५२।।
किम्पुरुषोंने कहा- हमलोग अत्यन्त तुच्छ किम्पुरुष हैं और आप सर्वशक्तिमान् महापुरुष हैं। जब सत्पुरुषोंने इसका तिरस्कार किया- इसे धिक्कारा, तभी आज आपने इस कुपुरुष – असुराधमको नष्ट कर दिया ।।५३।।
(संस्कृत श्लोक: -)
वैतालिका ऊचुः
सभासु सत्रेषु तवामलं यशो गीत्वा सपर्या महतीं लभामहे । यस्तां व्यनैषीद् भृशमेष दुर्जनो दिष्ट्या हतस्ते भगवन्यथाऽऽमयः ।।५४
किन्नरा ऊचुः
वयमीश किन्नरगणास्तवानुगा दितिजेन विष्टिममुनानु कारिताः ।भवता हरे स वृजिनोऽवसादितो नरसिंह नाथ विभवाय नो भव ।।५५
विष्णुपार्षदा ऊचुः
अद्यैतद्धरिनररूपमद्भुतं ते दृष्टं नः शरणद सर्वलोकशर्म । सोऽयं ते विधिकर ईश विप्रशप्त- स्तस्येदं निधनमनुग्रहाय विद्मः ।।५६
अनुवाद: –
वैतालिकोंने कहा- भगवन् ! बड़ी-बड़ी सभाओं और ज्ञानयज्ञोंमें आपके निर्मल यशका
गान करके हम बड़ी प्रतिष्ठा-पूजा प्राप्त करते थे। इस दुष्टने हमारी वह आजीविका ही नष्ट कर दी थी। बड़े सौभाग्यकी बात है कि महारोगके समान इस दुष्टको आपने जड़मूलसे उखाड़ दिया ।।५४।।
किन्नरोंने कहा- हम किन्नरगण आपके सेवक हैं। यह दैत्य हमसे बेगारमें ही काम लेता था । भगवन्! आपने कृपा करके आज इस पापीको नष्ट कर दिया। प्रभो! आप इसी प्रकार हमारा अभ्युदय करते रहें ।। ५५।।
भगवान्के पार्षदोंने कहा- शरणागतवत्सल ! सम्पूर्ण लोकोंको शान्ति प्रदान करनेवाला आपका यह अलौकिक नृसिंहरूप हमने आज ही देखा है। भगवन्। यह दैत्य आपका वही आज्ञाकारी सेवक था, जिसे सनकादिने शाप दे दिया था। हम समझते हैं, आपने कृपा करके इसके उद्धारके लिये ही इसका वध किया है ।। ५६।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते दैत्यराजवधे नृसिंहस्तवो नामाष्टमोऽध्यायः ।।८।।
१. प्रा० पा०- सोऽतिक्रमन्। २. प्रा० पा०- सुस्तत्र ।
१. प्रा० पा० – वंश्चभ्य० । १. प्रा० पा०-हामनाः। २. प्रा० पा०- खरकेसरोल्बणो।
१. प्रा० पा०- पि तिलाम्बुमिश्रम्। २. प्रा० पा०- नुरुद्धां ।
१. प्रा० पा०- एव। २. प्रा० पा०- रिह च दिति०। ३. प्रा० पा०-भिः सदा।
१. प्रा० पा०- पारिषदा।