Bhagwat puran skandh 7 chapter 5(भागवत पुराण सप्तम: स्कन्ध:पञ्चमोऽध्यायः हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रह्लादजीके वधका प्रयत्न)
संस्कृत श्लोक:-
नारद उवाच
पौरोहित्याय भगवान् वृतः काव्यः किलासुरैः । शण्डामर्को सुतौ तस्य दैत्यराजगृहान्तिके ।।१
तौ राज्ञा प्रापितं बालं प्रह्लादं नयकोविदम् । पाठयामासतुः पाठ्यानन्यांश्चासुरबालकान् ।।२
यत्तत्र गुरुणा प्रोक्तं शुश्रुवेऽनु पपाठ च । न साधु मनसा मेने स्वपरासद्ग्रहाश्रयम् ।।३
अनुवाद: –
नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! दैत्योंने भगवान् श्रीशुक्राचार्यजीको अपना पुरोहित बनाया था। उनके दो पुत्र थे-शण्ड और अमर्क।
वे दोनों राजमहलके पास ही रहकर हिरण्यकशिपुके द्वारा भेजे हुए नीतिनिपुण बालक प्रह्लादको और दूसरे पढ़ानेयोग्य दैत्य- बालकोंको राजनीति, अर्थनीति आदि पढ़ाया करते थे ।।१-२।।
प्रह्लाद गुरुजीका पढ़ाया हुआ पाठ सुन लेते थे और उसे ज्यों-का-त्यों उन्हें सुना भी दिया करते थे। किन्तु वे उसे मनसे अच्छा नहीं समझते थे। क्योंकि उस पाठका मूल आधार था अपने और परायेका झूठा आग्रह ।।३।।
संस्कृत श्लोक:-
एकदासुरराट् पुत्रमङ्कमारोप्य पाण्डव । पप्रच्छ कथ्यतां वत्स मन्यते साधु यद्भवान् ।।४
प्रह्लाद उवाच
तत्साधु मन्येऽसुरवर्य देहिनां सदा समुद्विग्नधियामसद्ग्रहात् ।
हित्वाऽऽत्मपातं गृहमन्धकूपं वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत ।।५
नारद उवाच
श्रुत्वा पुत्रगिरो दैत्यः परपक्षसमाहिताः । जहास बुद्धिर्बालानां भिद्यते परबुद्धिभिः ।।६
सम्यग्विधार्यतां बालो गुरुगेहे द्विजातिभिः । विष्णुपक्षैः प्रतिच्छन्नैर्न भिद्येतास्य धीर्यथा ।।७
गृहमानीतमाहूय प्रह्लादं दैत्ययाजकाः । प्रशस्य श्लक्ष्णया वाचा समपृच्छन्त सामभिः ।।८
वत्स प्रह्लाद भद्रं ते सत्यं कथय मा मृषा । बालानति कुतस्तुभ्यमेष बुद्धिविपर्ययः ।।९
बुद्धिभेदः परकृत उताहो ते स्वतोऽभवत् । भण्यतां श्रोतुकामानां गुरूणां कुलनन्दन ।।१०
प्रह्लाद उवाच
स्वः परश्चेत्यसद्ग्राहः पुंसां यन्मायया कृतः । विमोहितधियां दृष्टस्तस्मै भगवते नमः ।।११
स यदानुव्रतः पुंसां पशुबुद्धिर्विभिद्यते । अन्य एष तथान्योऽहमिति भेदगतासती ।।१२
अनुवाद: –
युधिष्ठिर ! एक दिन हिरण्यकशिपुने अपने पुत्र प्रह्लादको बड़े प्रेमसे गोदमें लेकर पूछा – ‘बेटा! बताओ तो सही, तुम्हें कौन-सी बात अच्छी लगती है?’ ।।४।।
प्रह्लादजीने कहा-पिताजी ! संसारके प्राणी ‘मैं’ और ‘मेरे’ के झूठे आग्रहमें पड़कर सदा ही अत्यन्त उद्विग्न रहते हैं। ऐसे प्राणियोंके लिये मैं यही ठीक समझता हूँ कि वे अपने अधःपतनके मूल कारण, घाससे ढके हुए अँधेरे कूऍके समान इस घरको छोड़कर वनमें चले जायँ और भगवान् श्रीहरिकी शरण ग्रहण करें ।।५।।
नारदजी कहते हैं- प्रह्लादजीके मुँहसे शत्रुपक्षकी प्रशंसासे भरी बात सुनकर हिरण्यकशिपु ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा- ‘दूसरोंके बहकानेसे बच्चोंकी बुद्धि यों ही बिगड़ जाया करती है ।।६।।
जान पड़ता है गुरुजीके घरपर विष्णुके पक्षपाती कुछ ब्राह्मण वेष बदलकर रहते हैं। बालककी भलीभाँति देख-रेख की जाय, जिससे अब इसकी बुद्धि बहकने न पाये ।।७।।
जब दैत्योंने प्रह्लादको गुरुजीके घर पहुँचा दिया, तब पुरोहितोंने उनको बहुत पुचकारकर और फुसलाकर बड़ी मधुर वाणीसे पूछा ।।८।।
बेटा प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। ठीक-ठीक बतलाना। देखो, झूठ न बोलना। यह तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी? और किसी बालककी बुद्धि तो ऐसी नहीं हुई ।।९।।
कुलनन्दन प्रह्लाद ! बताओ तो बेटा ! हम तुम्हारे गुरुजन यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारी बुद्धि स्वयं ऐसी हो गयी या किसीने सचमुच तुमको बहका दिया है? ।।१०।।
प्रह्लादजीने कहा- जिन मनुष्योंकी बुद्धि मोहसे ग्रस्त हो रही है, उन्हींको भगवान्की मायासे यह झूठा दुराग्रह होता देखा गया है कि यह ‘अपना’ है और यह ‘पराया’। उन मायापति भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ ।।११।।
वे भगवान् ही जब कृपा करते हैं, तब मनुष्योंकी पाशविक बुद्धि नष्ट होती है। इस पशुबुद्धिके कारण ही तो ‘यह मैं हूँ और यह मुझसे भिन्न है’ इस प्रकारका झूठा भेदभाव पैदा होता है ।।१२।।
संस्कृत श्लोक:-
स एष आत्मा स्वपरेत्यबुद्धिभि- र्दुरत्ययानुक्रमणो निरूप्यते । मुह्यन्ति यद्वर्त्मनि वेदवादिनो ब्रह्मादयो ह्येष भिनत्ति मे मतिम् ।।१३
यथा भ्राम्यत्ययो ब्रह्मन् स्वयमाकर्षसन्निधौ । तथा मे भिद्यते चेतश्चक्रपाणेर्यदृच्छया ।।१४
नारद उवाच
एतावद्ब्राह्मणायोक्त्वा विरराम महामतिः ।
तं निर्भर्त्याथ कुपितः स दीनो राजसेवकः ।।१५
आनीयतामरे वेत्रमस्माकमयशस्करः । कुलाङ्गारस्य दुर्बुद्धेश्चतुर्थोऽस्योदितो दमः ।।१६
दैतेयचन्दनवने जातोऽयं कण्टकद्रुमः । यन्मूलोन्मूलपरशोर्विष्णोर्नालायितोऽर्भकः २ ।।१७
इति तं विविधोपायैर्भीषयंस्तर्जनादिभिः । प्रह्लादं ग्राहयामास त्रिवर्गस्योपपादनम् ।।१८
तत एनं गुरुर्ज्ञात्वा ज्ञातज्ञेयचतुष्टयम् । दैत्येन्द्रं दर्शयामास मातृमृष्टमलङ्कृतम् ।।१९
पादयोः पतितं बालं प्रतिनन्द्याशिषासुरः । परिष्वज्य चिरं दोर्थ्यां परमामाप निर्वृतिम् ।।२०
अनुवाद: –
वही परमात्मा यह आत्मा है। अज्ञानीलोग अपने और परायेका भेद करके उसीका वर्णन किया करते हैं। उनका न जानना भी ठीक ही है; क्योंकि उसके तत्त्वको जानना बहुत कठिन है और ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े वेदज्ञ भी उसके विषयमें मोहित हो जाते हैं।
वही परमात्मा आपलोगोंके शब्दोंमें मेरी बुद्धि ‘बिगाड़’ रहा है ।।१३।। गुरुजी! जैसे चुम्बकके पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे ही चक्रपाणिभगवान्की स्वच्छन्द इच्छाशक्तिसे मेरा चित्त भी संसारसे अलग होकर उनकी ओर बरबस खिंच जाता है ।।१४।।
नारदजी कहते हैं- परमज्ञानी प्रह्लाद अपने गुरुजीसे इतना कहकर चुप हो गये। पुरोहित बेचारे राजाके सेवक एवं पराधीन थे। वे डर गये। उन्होंने क्रोधसे प्रह्लादको झिड़क दिया और कहा- ।।१५।।
‘अरे, कोई मेरा बेंत तो लाओ। यह हमारी कीर्तिमें कलंक लगा रहा है। इस दुर्बुद्धि कुलांगारको ठीक करनेके लिये चौथा उपाय दण्ड ही उपयुक्त होगा ।।१६।।
दैत्यवंशके चन्दनवनमें यह काँटेदार बबूल कहाँसे पैदा हुआ? जो विष्णु इस वनकी जड़ काटनेमें कुल्हाड़ेका काम करते हैं, यह नादान बालक उन्हींकी बेंट बन रहा है; सहायक हो रहा है ।।१७।।
इस प्रकार गुरुजीने तरह-तरहसे डॉट-डपटकर प्रह्लादको धमकाया और अर्थ, धर्म एवं कामसम्बन्धी शिक्षा दी ।। १८ ।।
कुछ समयके बाद जब गुरुजीने देखा कि प्रह्लादने साम, दान, भेद और दण्डके सम्बन्धकी सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी माके पास ले गये। माताने बड़े लाड़-प्यारसे उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने कपड़ोंसे सजा दिया। इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपुके पास ले गये ।।१९।।
प्रह्लाद अपने पिताके चरणोंमें लोट गये। हिरण्यकशिपुने उन्हें आशीर्वाद दिया और दोनों हाथोंसे उठाकर बहुत देरतक गलेसे लगाये रखा। उस समय दैत्यराजका हृदय आनन्दसे भर रहा था ।।२०।।
संस्कृत श्लोक:-
आरोप्याङ्कमवघ्राय मूर्धन्यश्रुकलाम्बुभिः । आसिञ्चन् विकसद्वक्त्रमिदमाह युधिष्ठिर ।।२१
हिरण्यकशिपुरुवाच प्रह्लादानूच्यतां तात स्वधीतं किञ्चिदुत्तमम् । कालेनैतावताऽऽयुष्मन् यदशिक्षद् गुरोर्भवान् ।।२२
प्रह्लाद उवाच
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।२३ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ।।२४
निशम्यैतत्सुतवचो हिरण्यकशिपुस्तदा । गुरुपुत्रमुवाचेदं रुषा प्रस्फुरिताधरः ।।२५
ब्रह्मबन्धो किमेतत्ते विपक्षं श्रयतासता । असारं ग्राहितो बालो मामनादृत्य दुर्मते ।।२६
सन्ति ह्यसाधवो लोके दुर्मैत्राश्छद्मवेषिणः । तेषामुदेत्यघं काले रोगः पातकिनामिव ।।२७
गुरुपुत्र उवाच
न मत्प्रणीतं न परप्रणीतं सुतो वदत्येष तवेन्द्रशत्रो । नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन् नियच्छ मन्युं कददाः स्म मा नः ।।२८
नारद उवाच
गुरुणैवं प्रतिप्रोक्तो भूय आहासुरः सुतम् । न चेद्गुरुमुखीयं ते कुतोऽभद्रासती मतिः ।।२९
अनुवाद: –
युधिष्ठिर ! हिरण्यकशिपुने प्रसन्नमुख प्रह्लादको अपनी गोदमें बैठाकर उनका सिर सूँघा। उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू गिर-गिरकर प्रह्लादके शरीरको भिगोने लगे। उसने अपने पुत्रसे पूछा ।।२१।।
हिरण्यकशिपुने कहा- चिरंजीव बेटा प्रह्लाद! इतने दिनोंमें तुमने गुरुजीसे जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमेंसे कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ ।।२२।।
प्रह्लादजीने कहा-पिताजी ! विष्णुभगवान्की भक्तिके नौ भेद हैं- भगवान्के गुण- लीला-नाम आदिका श्रवण, उन्हींका कीर्तन, उनके रूप-नाम आदिका स्मरण, उनके चरणोंकी सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। यदि भगवान्के प्रति समर्पणके भावसे यह नौ प्रकारकी भक्ति की जाय, तो मैं उसीको उत्तम अध्ययन समझता हूँ ।।२३-२४।।
प्रह्लादकी यह बात सुनते ही क्रोधके मारे हिरण्यकशिपुके ओठ फड़कने लगे। उसने गुरुपुत्रसे कहा- ।।२५।।
रे नीच ब्राह्मण ! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि ! तूने मेरी कुछ भी परवाह न करके इस बच्चेको कैसी निस्सार शिक्षा दे दी? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओंके आश्रित है ।। २६ ।।
संसारमें ऐसे दुष्टोंकी कमी नहीं है, जो मित्रका बाना धारणकर छिपे-छिपे शत्रुका काम करते हैं। परन्तु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करनेवालोंका पाप समयपर रोगके रूपमें प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है ।।२७।।
गुरुपुत्रने कहा- इन्द्रशत्रो! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसीके बहकानेसे नहीं कह रहा है। राजन् ! यह तो इसकी जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है। आप क्रोध शान्त कीजिये। व्यर्थमें हमें दोष न लगाइये ।। २८।।
नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब गुरुजीने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपुने फिर प्रह्लादसे पूछा- ‘क्यों रे! यदि तुझे ऐसी अहित करनेवाली खोटी बुद्धि गुरुमुखसे नहीं मिली तो बता, कहाँसे प्राप्त हुई?’ ।।२९।।
संस्कृत श्लोक:-
प्रह्लाद उवाच
मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् । अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ।।३०
न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुं दुराशया ये बहिरर्थमानिनः । अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना
वाचीशतन्त्यामुरुदाम्नि बद्धाः ।।३१
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रि स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः । महीयसां पादरजोऽभिषेकं निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ।।३२
इत्युक्त्वोपरतं पुत्रं हिरण्यकशिपू रुषा । अन्धीकृतात्मा स्वोत्सङ्गान्निरस्यत महीतले ।। ३३
आहामर्षरुषाविष्टः कषायीभूतलोचनः २ । वध्यतामाश्वयं वध्यो निःसारयत नैर्ऋताः ।।३४ अयं मे भ्रातृहा सोऽयं हित्वा स्वान् सुहृदोऽधमः । पितृव्यहन्तुर्यः पादौ विष्णोर्दासवदर्चति ।।३५
विष्णोर्वा साध्वसौ किं नु करिष्यत्यसमञ्जसः । सौहृदं दुस्त्यजं पित्रोरहाद्यः पञ्चहायनः ।।३६
अनुवाद: –
प्रह्लादजीने कहा-पिताजी ! संसारके लोग तो पिसे हुएको पीस रहे हैं, चबाये हुएको चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वशमें न होनेके कारण वे भोगे हुए विषयोंको ही फिर-फिर भोगनेके लिये संसाररूप घोर नरककी ओर जा रहे हैं।
ऐसे गृहासक्त पुरुषोंकी बुद्धि अपने- आप किसीके सिखानेसे अथवा अपने ही जैसे लोगोंके संगसे भगवान् श्रीकृष्णमें नहीं लगती ।।३०।।
जो इन्द्रियोंसे दीखनेवाले बाह्य विषयोंको परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धोंके पीछे अन्धोंकी तरह गड्ढेमें गिरनेके लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रस्सीके – काम्यकर्मोंके दीर्घ बन्धनमें बँधे हुए हैं, उनको यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान् विष्णु ही हैं- उन्हींकी प्राप्तिसे हमें सब पुरुषार्थोंकी प्राप्ति हो सकती है ।। ३१ ।।
जिनकी बुद्धि भगवान्के चरणकमलोंका स्पर्श कर लेती है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थका सर्वथा नाश हो जाता है। परन्तु जो लोग अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओंके चरणोंकी धूलमें स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मोंका पूरा सेवन करनेपर भी भगवच्चरणोंका स्पर्श नहीं कर सकती ।।३२।।
प्रह्लादजी इतना कहकर चुप हो गये। हिरण्यकशिपुने क्रोधके मारे अन्धा होकर उन्हें अपनी गोदसे उठाकर भूमिपर पटक दिया ।। ३३ ।।
प्रह्लादकी बातको वह सह न सका। रोषके मारे उसके नेत्र लाल हो गये। वह कहने लगा- ‘दैत्यो! इसे यहाँसे बाहर ले जाओ और तुरंत मार डालो। यह मार ही डालने योग्य है ।। ३४ ।।
देखो तो सही- जिसने इसके चाचाको मार डाला, अपने सुहृद्-स्वजनोंको छोड़कर यह नीच दासके समान उसी विष्णुके चरणोंकी पूजा करता है! हो-न-हो, इसके रूपमें मेरे भाईको मारनेवाला विष्णु ही आ गया है ।। ३५।।
अब यह विश्वासके योग्य नहीं है। पाँच बरसकी अवस्थामें ही जिसने अपने माता-पिताके दुस्त्यज वात्सल्यस्नेहको भुला दिया- वह कृतघ्न भला विष्णुका ही क्या हित करेगा ।।३६।।
संस्कृत श्लोक:-
परोऽप्यपत्यं हितकृद्यथौषधं स्वदेहजोऽप्यामयवत्सुतोऽहितः । छिन्द्यात्तदङ्गं यदुतात्मनोऽहितं शेषं सुखं जीवति यद्विवर्जनात् ।।३७
सर्वैरुपायैर्हन्तव्यः सम्भोजशयनासनैः । सुहल्लिङ्गधरः शत्रुर्मुनेर्दुष्टमिवेन्द्रियम् ।।३८
नैर्ऋतास्ते समादिष्टा भर्ना वै शूलपाणयः ।
तिग्मदंष्ट्रकरालास्यास्ताम्रश्मश्रुशिरोरुहाः ।। ३९
नदन्तो भैरवान्नादांश्छिन्धि भिन्धीति वादिनः । आसीनं चाहनन् शूलैः प्रह्रादं सर्वमर्मसु ।।४०
परे ब्रह्मण्यनिर्देश्ये भगवत्यखिलात्मनि । युक्तात्मन्यफला आसन्नपुण्यस्येव सत्क्रियाः ।।४१
प्रयासेऽपहते तस्मिन् दैत्येन्द्रः परिशङ्कितः । चकार तद्वधोपायान्निर्बन्धेन युधिष्ठिर ।।४२
दिग्गजैर्दन्दशूकैश्च अभिचारावपातनैः । मायाभिः संनिरोधैश्च गरदानैरभोजनैः ।।४३
अनुवाद: –
कोई दूसरा भी यदि औषधके समान भलाई करे तो वह एक प्रकारसे पुत्र ही है। पर यदि अपना पुत्र भी अहित करने लगे तो रोगके समान वह शत्रु है। अपने शरीरके ही किसी अंगसे सारे शरीरको हानि होती हो तो उसको काट डालना चाहिये। क्योंकि उसे काट देनेसे शेष शरीर सुखसे जी सकता है ।। ३७।।
यह स्वजनका बाना पहनकर मेरा कोई शत्रु ही आया है। जैसे योगीकी भोगलोलुप इन्द्रियाँ उसका अनिष्ट करती हैं, वैसे ही यह मेरा अहित करनेवाला है। इसलिये खाने, सोने, बैठने आदिके समय किसी भी उपायसे इसे मार डालो’ ।।३८।।
जब हिरण्यकशिपुने दैत्योंको इस प्रकार आज्ञा दी, तब तीखी दाढ़, विकराल वदन, लाल-लाल दाढ़ी-मूँछ एवं केशोंवाले दैत्य हाथोंमें त्रिशूल ले-लेकर ‘मारो, काटो’ – इस प्रकार बड़े जोरसे चिल्लाने लगे। प्रह्लाद चुपचाप बैठे हुए थे और दैत्य उनके सभी मर्मस्थानोंमें शूलसे घाव कर रहे थे ।।३९-४०।।
उस समय प्रह्लादजीका चित्त उन परमात्मामें लगा हुआ था, जो मन-वाणीके अगोचर, सर्वात्मा, समस्त शक्तियोंके आधार एवं परब्रह्म हैं। इसलिये उनके सारे प्रहार ठीक वैसे ही निष्फल हो गये, जैसे भाग्यहीनोंके बड़े-बड़े उद्योग-धंधे व्यर्थ होते हैं ।।४१।।
युधिष्ठिर ! जब शूलोंकी मारसे प्रह्लादके शरीरपर कोई असर नहीं हुआ, तब हिरण्यकशिपुको बड़ी शंका हुई। अब वह प्रह्लादको मार डालनेके लिये बड़े हठसे भाँति- भाँतिके उपाय करने लगा ।।४२।।
उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले हाथियोंसे कुचलवाया, विषधर साँपोंसे डॅसवाया, पुरोहितोंसे कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाड़की चोटीसे नीचे डलवा दिया, शम्बरासुरसे अनेकों प्रकारकी मायाका प्रयोग करवाया, अँधेरी कोठरियोंमें बंद करा दिया, विष पिलाया और खाना बंद कर दिया ।।४३।।
संस्कृत श्लोक:-
हिमवाय्वग्निसलिलैः पर्वताक्रमणैरपि । न शशाक यदा हन्तुमपापमसुरः सुतम् । चिन्तां दीर्घतमां प्राप्तस्तत्कर्तुं नाभ्यपद्यत ।।४४
एष मे बह्वसाधूक्तो वधोपायाश्च निर्मिताः । तैस्तैर्दो हैरसद्धर्मैर्मुक्तः स्वेनैव तेजसा ।।४५
वर्तमानोऽविदूरे वै बालोऽप्यजडधीरयम् । न विस्मरति मेऽनार्यं शुनःशेप इव प्रभुः ।।४६
अप्रमेयानुभावोऽयमकुतश्चिद्भयोऽमरः । नूनमेतद्विरोधेन मृत्युर्मे भविता न वा ।।४७
इति तं चिन्तया किञ्चिन्म्लानश्रियमधोमुखम् । शण्डामर्कावौशनसौ विविक्त इति होचतुः ।।४८
जितं त्वयैकेन जगत्त्रयं ध्रुवो- र्विजृम्भणत्रस्तसमस्तधिष्ण्यपम् ।
न तस्य चिन्त्यं तव नाथ चक्ष्महे न वै शिशूनां गुणदोषयोः पदम् ।।४९
अनुवाद: –
बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्रमें बारी-बारीसे डलवाया, आँधीमें छोड़ दिया तथा पर्वतोंके नीचे दबवा दिया; परन्तु इनमेंसे किसी भी उपायसे वह अपने पुत्र निष्पाप प्रह्लादका बाल भी बाँका न कर सका। अपनी विवशता देखकर हिरण्यकशिपुको बड़ी चिन्ता हुई। उसे प्रह्लादको मारनेके लिये और कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा ।।४४।।
वह सोचने लगा – ‘इसे मैंने बहुत कुछ बुरा-भला कहा, मार डालनेके बहुत-से उपाय किये। परन्तु यह मेरे द्रोह और दुर्व्यवहारोंसे बिना किसीकी सहायतासे अपने प्रभावसे ही बचता गया ।।४५।।
यह बालक होनेपर भी समझदार है और मेरे पास ही निःशंक भावसे रहता है। हो-न-हो इसमें कुछ सामर्थ्य अवश्य है। जैसे शुनःशेप अपने पिताकी करतूतोंसे उसका विरोधी हो गया था, वैसे ही यह भी मेरे किये अपकारोंको न भूलेगा ।।४६।।
न तो यह किसीसे डरता है और न इसकी मृत्यु ही होती है। इसकी शक्तिकी थाह नहीं है। अवश्य ही इसके विरोधसे मेरी मृत्यु होगी। सम्भव है, न भी हो’ ।।४७।।
इस प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्यके पुत्र शण्ड और अमर्कने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्तमें जाकर उससे यह बात कही- ।।४८।।
‘स्वामी! आपने अकेले ही तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त कर ली। आपके भौंहें टेढ़ी करनेपर ही सारे लोकपाल काँप उठते हैं। हमारे देखनेमें तो आपके लिये चिन्ताकी कोई बात नहीं है। भला, बच्चोंके खिलवाड़में भी भलाई- बुराई सोचनेकी कोई बात है ।।४९।।
संस्कृत श्लोक:-
इमं तु पाशैर्वरुणस्य बद्ध्वा निधेहि भीतो न पलायते यथा ।
बुद्धिश्च पुंसो वयसाऽऽर्यसेवया यावद् गुरुर्भार्गव आगमिष्यति ।।५०
तथेति गुरुपुत्रोक्तमनुज्ञायेदमब्रवीत् । धर्मा ह्यस्योपदेष्टव्या राज्ञां ये गृहमेधिनाम् ।।५१
धर्ममर्थं च कामं च नितरां चानुपूर्वशः । प्रह्लादायोचतू राजन् प्रश्रितावनताय च ।।५२
यथा त्रिवर्गं गुरुभिरात्मने उपशिक्षितम् । न साधु मेने तच्छिक्षां द्वन्द्वारामोपवर्णिताम् ।।५३
यदाऽऽचार्यः परावृत्तो गृहमेधीयकर्मसु वयस्यैर्बालकैस्तत्र सोपहूतः कृतक्षणैः ।।५४
अथ तान् श्लक्ष्णया वाचा प्रत्याहूय महाबुधः । उवाच विद्वांस्तन्निष्ठां कृपया प्रहसन्निव ।।५५
ते तु तद्गौरवात्सर्वे त्यक्तक्रीडापरिच्छदाः । बाला न दूषितधियो द्वन्द्वारामेरितेहितैः ।।५६
पर्युपासत राजेन्द्र तन्न्यस्तहृदयेक्षणाः । तानाह करुणो मैत्रो महाभागवतोऽसुरः ।।५७
अनुवाद: –
जबतक हमारे पिता शुक्राचार्यजी नहीं आ जाते, तबतक यह डरकर कहीं भाग न जाय।
इसलिये इसे वरुणके पाशोंसे बाँध रखिये। प्रायः ऐसा होता है कि अवस्थाकी वृद्धिके साथ-साथ और गुरुजनोंकी सेवासे बुद्धि सुधर जाया करती है’ ।।५०।।
हिरण्यकशिपुने ‘अच्छा, ठीक है’ कहकर गुरुपुत्रोंकी सलाह मान ली और कहा कि ‘इसे उन धर्मोंका उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं’ ।।५१।।
युधिष्ठिर ! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशालामें गये और क्रमशः धर्म, अर्थ और काम – इन तीन पुरुषार्थोंकी शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवककी भाँति रहते थे ।। ५२ ।।
परन्तु गुरुओंकी वह शिक्षा प्रह्लादको अच्छी न लगी। क्योंकि गुरुजी उन्हें केवल अर्थ, धर्म और कामकी ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगोंके लिये है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द्व और विषयभोगोंमें रस ले रहे हों ।। ५३ ।।
एक दिन गुरुजी गृहस्थीके कामसे कहीं बाहर चले गये थे। छुट्टी मिल जानेके कारण समवयस्क बालकोंने प्रह्लादजीको खेलनेके लिये पुकारा ।।५४।।
प्रह्लादजी परम ज्ञानी थे, उनका प्रेम देखकर उन्होंने उन बालकोंको ही बड़ी मधुर वाणिसे पुकारकर अपने पास बुला लिया। उनसे उनके जन्म-मरणकी गति भी छिपी नहीं थी। उनपर कृपा करके हँसते हुए-से उन्हें उपदेश करने लगे ।।५५।।
युधिष्ठिर! वे सब अभी बालक ही थे, इसलिये राग-द्वेषपरायण विषयभोगी पुरुषोंके उपदेशोंसे और चेष्टाओंसे उनकी बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई थी। इसीसे, और प्रह्लादजीके प्रति आदर-बुद्धि होनेसे उन सबने अपनी खेल-कूदकी सामग्रियोंको छोड़ दिया तथा प्रह्लादजीके पास जाकर उनके चारों ओर बैठ गये और उनके उपदेशमें मन लगाकर बड़े प्रेमसे एकटक उनकी ओर देखने लगे। भगवान्के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादका हृदय उनके प्रति करुणा और मैत्रीके भावसे भर गया तथा वे उनसे कहने लगे ।।५६-५७।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते
पञ्चमोऽध्यायः ।।५।।
१. प्रा० पा०-तं सुनिर्भर्त्य कु०। २. प्रा० पा० – तन्मू०। ३. प्रा० पा०- प्रणतं पादयोर्बालं।
१. प्रा० पा०- नानामवृणीत। २. प्रा० पा०- कषायीकृत ०।
१. प्रा० पा०-शूकेन्द्रैरभिचाराभिपात ०।
१. प्रा० पा०- विद्महे ।
* शुनःशेप अजीगर्तका मँझला पुत्र था। उसे पिताने वरुणके यज्ञमें बलि देनेके लिये हरिश्चन्द्रके पुत्र रोहिताश्वके हाथ बेच दिया था तब उसके मामा विश्वामित्रजीने उसकी रक्षा की; और वह अपने पितासे विरुद्ध होकर उनके विपक्षी विश्वामित्रजीके ही गोत्रमें हो गया। यह कथा आगे ‘नवम स्कन्ध’ के सातवें अध्यायमें आवेगी।