Bhagwat puran skandh 7 chapter 2(भागवत पुराण सप्तम: स्कन्ध:द्वितीयोऽध्यायः हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता और कुटुम्बियोंको समझाना)

Bhagwat puran skandh 7 chapter 2(भागवत पुराण सप्तम: स्कन्ध:द्वितीयोऽध्यायः हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता और कुटुम्बियोंको समझाना)

(संस्कृत श्लोक:-)

 

नारद उवाच

भ्रातर्येवं विनिहते हरिणा क्रोडमूर्तिना । हिरण्यकशिपू राजन् पर्यतप्यद्रुषा शुचा ।।१

आह चेदं रुषा घूर्णः सन्दष्टदशनच्छदः । कोपोज्ज्वलद्भ्यां चक्षुर्थ्यां निरीक्षन् धूम्रमम्बरम् ।।२

करालदंष्ट्रोग्रदृष्ट्या दुष्प्रेक्ष्यभ्रुकुटीमुखः ३ । शूलमुद्यम्य सदसि दानवानिदमब्रवीत् ।।३

भो भो दानवदैतेया द्विमूर्धरूयक्ष शम्बर । शतबाहो हयग्रीव नमुचे पाक इल्वल ।।४

विप्रचित्ते मम वचः पुलोमन् शकुनादयः । शृणुतानन्तरं सर्वे क्रियतामाशु मा चिरम् ।।५

सपत्नैर्घातितः क्षुद्रैर्भाता मे दयितः सुहृत् । पाणिग्राहेण हरिणा समेनाप्युपधावनैः ४ ।।६

तस्य त्यक्तस्वभावस्य घृणेर्मायावनौकसः । भजन्तं भजमानस्य बालस्येवास्थिरात्मनः ।।७

मच्छूलभिन्नग्रीवस्य भूरिणा रुधिरेण वै । रुधिरप्रियं तर्पयिष्ये भ्रातरं मे गतव्यथः ।।८

तस्मिन् कूटेऽहिते नष्टे कृत्तमूले वनस्पतौ । विटपा इव शुष्यन्ति विष्णुप्राणा दिवौकसः ।।९

अनुवाद: –

 

नारदजीने कहा- युधिष्ठिर ! जब भगवान्ने वराहावतार धारण करके हिरण्याक्षको मार डाला, तब भाईके इस प्रकार मारे जानेपर हिरण्यकशिपु रोषसे जल-भुन गया और शोकसे सन्तप्त हो उठा ।।१।।

वह क्रोधसे काँपता हुआ अपने दाँतोंसे बार-बार होठ चबाने लगा। क्रोधसे दहकती हुई आँखोंकी आगके धूएँसे धूमिल हुए आकाशकी ओर देखता हुआ वह कहने लगा ।।२।।

उस समय विकराल दाढ़ों, आग उगलनेवाली उग्र दृष्टि और चढ़ी हुई भौंहोंके कारण उसका मुँह देखा न जाता था। भरी सभामें त्रिशूल उठाकर उसने द्विमूर्धा, त्र्यक्ष, शम्बर, शतबाहु, हयग्रीव, नमुचि, पाक, इल्वल, विप्रचित्ति, पुलोमा और शकुन आदिको सम्बोधन करके कहा- ‘दैत्यो और दानवो! तुम सब लोग मेरी बात सुनो और उसके बाद जैसे मैं कहता हूँ, वैसे करो ।। ३-५।।

तुम्हें यह ज्ञात है कि मेरे क्षुद्र शत्रुओंने मेरे परम प्यारे और हितैषी भाईको विष्णुसे मरवा डाला है। यद्यपि वह देवता और दैत्य दोनोंके प्रति समान है, तथापि दौड़-धूप और अनुनय-विनय करके देवताओंने उसे अपने पक्षमें कर लिया है ।।६।।

यह विष्णु पहले तो बड़ा शुद्ध और निष्पक्ष था। परन्तु अब मायासे वराह आदि रूप धारण करने लगा है और अपने स्वभावसे च्युत हो गया है। बच्चेकी तरह जो उसकी सेवा करे, उसीकी ओर हो जाता है। उसका चित्त स्थिर नहीं है ।।७।।

अब मैं अपने इस शूलसे उसका गला काट डालूँगा और उसके खूनकी धारासे अपने रुधिरप्रेमी भाईका तर्पण करूँगा। तब कहीं मेरे हृदयकी पीड़ा शान्त होगी ।।८।।

उस मायावी शत्रुके नष्ट होनेपर, पेड़की जड़ कट जानेपर डालियोंकी तरह सब देवता अपने-आप सूख जायँगे। क्योंकि उनका जीवन तो विष्णु ही है ।।९।।

(संस्कृत श्लोक:-)

 

तावद्यात भुवं यूयं विप्रक्षत्रसमेधिताम् । सूदयध्वं तपोयज्ञस्वाध्यायव्रतदानिनः ।।१०विष्णुर्द्विजक्रियामूलो यज्ञो धर्ममयः पुमान् । देवर्षिपितृभूतानां धर्मस्य च परायणम् ।।११

यत्र यत्र द्विजा गावो वेदा वर्णाश्रमाः क्रियाः । तं तं जनपदं यात सन्दीपयत वृश्चत ।।१२

इति ते भर्तृनिर्देशमादाय शिरसाऽऽदृताः । तथा प्रजानां कदनं विदधुः कदनप्रियाः ।।१३

पुरग्रामव्रजोद्यान क्षेत्रासमाश्रमाकरान् । खेटखर्वटघोषांश्च ददहुः पत्तनानि च ।।१४

केचित्खनित्रैर्बिभिदुः सेतुप्राकारगोपुरान् ।आजीव्यांश्चिच्छिदुर्वृक्षान् केचित्परशुपाणयः । प्रादहन् शरणान्यन्ये प्रजानां ज्वलितोल्मुकैः ।।१५

एवं विप्रकृते लोके दैत्येन्द्रानुचरैर्मुहुः । दिवं देवाः परित्यज्य भुवि चेरुरलक्षिताः ।।१६

हिरण्यकशिपुर्भातुः सम्परेतस्य दुःखितः । कृत्वा कटोदकादीनि भ्रातृपुत्रानसान्त्वयत् ।।१७

शकुनिं शम्बरं धृष्टं भूतसन्तापनं वृकम् । कालनाभं महानाभं हरिश्मश्रुमथोत्कचम् ।।१८

तन्मातरं रुषाभानुं दितिं च जननीं गिरा । श्लक्ष्णया देशकालज्ञ इदमाह जनेश्वर ।।१९

अनुवाद: –

 

इसलिये तुमलोग इसी समय पृथ्वीपर जाओ। आजकल वहाँ ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी बहुत बढ़ती हो गयी है। वहाँ जो लोग तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और दानादि शुभ कर्म कर रहे हों, उन सबको मार डालो ।।१०।।

विष्णुकी जड़ है द्विजातियोंका धर्म-कर्म; क्योंकि यज्ञ और धर्म ही उसके स्वरूप हैं। देवता, ऋषि, पितर, समस्त प्राणी और धर्मका वही परम आश्रय है ।।११।।

जहाँ-जहाँ ब्राह्मण, गाय, वेद, वर्णाश्रम और धर्म-कर्म हों, उन-उन देशोंमें तुमलोग जाओ, उन्हें जला दो, उजाड़ डालो’ ।।१२।।

दैत्य तो स्वभावसे ही लोगोंको सताकर सुखी होते हैं। दैत्यराज हिरण्यकशिपुकी आज्ञा उन्होंने बड़े आदरसे सिर झुकाकर स्वीकार की और उसीके अनुसार जनताका नाश करने लगे ।।१३।।

उन्होंने नगर, गाँव, गौओंके रहनेके स्थान, बगीचे, खेत, टहलनेके स्थान, ऋषियोंके आश्रम, रत्न आदिकी खानें, किसानोंकी बस्तियाँ, तराईके गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ और व्यापारके केन्द्र बड़े-बड़े नगर जला डाले ।।१४।।

कुछ दैत्योंने खोदनेके शस्त्रोंसे बड़े-बड़े पुल, परकोटे और नगरके फाटकोंको तोड़-फोड़ डाला तथा दूसरोंने कुल्हाड़ियोंसे फले-फूले, हरे-भरे पेड़ काट डाले। कुछ दैत्योंने जलती हुई लकड़ियोंसे लोगोंके घर जला दिये ।।१५।।

इस प्रकार दैत्योंने निरीह प्रजाका बड़ा उत्पीड़न किया। उस समय देवतालोग स्वर्ग छोड़कर छिपे रूपसे पृथ्वीमें विचरण करते थे ।।१६।।

युधिष्ठिर ! भाईकी मृत्युसे हिरण्यकशिपुको बड़ा दुःख हुआ था। जब उसने उसकी अन्त्येष्टि क्रियासे छुट्टी पा ली, तब शकुनि, शम्बर, धृष्ट, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु और उत्कच अपने इन भतीजोंको सान्त्वना दी ।।१७-१८।।

उनकी माता रुषाभानुको और अपनी माता दितिको देश-कालके अनुसार मधुर वाणीसे समझाते हुए कहा ।।१९।।

(संस्कृत श्लोक:-)

 

हिरण्यकशिपुरुवाच

अम्बाम्ब हे वधूः पुत्रा वीरं मार्हथ शोचितुम् । रिपोरभिमुखे श्लाघ्यः शूराणां वध ईप्सितः ।।२०

भूतानामिह संवासः प्रपायामिव सुव्रते । दैवेनैकत्र नीतानामुन्नीतानां स्वकर्मभिः ।।२१

नित्य आत्माव्ययः शुद्धः सर्वगः सर्ववित्परः । धत्तेऽसावात्मनो लिङ्गं मायया विसृजन्गुणान् ।।२२

यथाम्भसा प्रचलता तरवोऽपि चला इव । चक्षुषा भ्राम्यमाणेन दृश्यते चलतीव भूः ।।२३

एवं गुणैर्भाम्यमाणे मनस्यविकलः पुमान् । याति तत्साम्यतां भद्रे ह्यलिङ्गो लिङ्गवानिव ।।२४

एष आत्मविपर्यासो ह्यलिङ्गे लिङ्गभावना । एष प्रियाप्रियैर्योगो वियोगः कर्मसंसृतिः ।।२५

सम्भवश्च विनाशश्च शोकश्च विविधः स्मृतः । अविवेकश्च चिन्ता च विवेकास्मृतिरेव च ।। २६

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् । यमस्य प्रेतबन्धूनां संवादं तं निबोधता ।। २७

उशीनरेष्वभूद्राजा सुयज्ञ इति विश्रुतः । सपत्नैर्निहतो युद्धे ज्ञातयस्तमुपासत ।।२८

अनुवाद: –

 

हिरण्यकशिपुने कहा- मेरी प्यारी माँ, बहू और पुत्रो ! तुम्हें वीर हिरण्याक्षके लिये किसी

प्रकारका शोक नहीं करना चाहिये। वीर पुरुष तो ऐसा चाहते ही हैं कि लड़ाईके मैदानमें अपने शत्रुके सामने उसके दाँत खट्टे करके प्राण त्याग करें; वीरोंके लिये ऐसी ही मृत्यु श्लाघनीय होती है ।।२०।।

देवि! जैसे प्याऊपर बहुत-से लोग इकट्ठे हो जाते हैं, परन्तु उनका मिलना-जुलना थोड़ी देरके लिये ही होता है- वैसे ही अपने कर्मोंके फेरसे दैववश जीव भी मिलते और बिछुड़ते हैं ।। २१।।

वास्तवमें आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, सर्वगत, सर्वज्ञ और देह-इन्द्रिय आदिसे पृथक् है। वह अपनी अविद्यासे ही देह आदिकी सृष्टि करके भोगोंके साधन सूक्ष्मशरीरको स्वीकार करता है ।।२२।।

जैसे हिलते हुए पानीके साथ उसमें प्रतिबिम्बित होनेवाले वृक्ष भी हिलते-से जान पड़ते हैं और घुमायी जाती हुई आँखके साथ सारी पृथ्वी ही घूमती-सी दिखायी देती है, कल्याणी!

वैसे ही विषयोंके कारण मन भटकने लगता है और वास्तवमें निर्विकार होनेपर भी उसीके समान आत्मा भी भटकता हुआ-सा जान पड़ता है। उसका स्थूल और सूक्ष्म शरीरोंसे कोई भी सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह सम्बन्धी-सा जान पड़ता है ।। २३-२४।।

सब प्रकारसे शरीररहित आत्माको शरीर समझ लेना – यही तो अज्ञान है। इसीसे प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुओंका मिलना और बिछुड़ना होता है। इसीसे कर्मोंके साथ सम्बन्ध हो जानेके कारण संसारमें भटकना पड़ता है ।।२५।।

जन्म, मृत्यु, अनेकों प्रकारके शोक, अविवेक, चिन्ता और विवेककी विस्मृति-सबका कारण यह अज्ञान ही है ।।२६।।

इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास मरे हुए मनुष्यके सम्बन्धियोंके साथ यमराजकी बातचीत है। तुमलोग ध्यानसे उसे सुनो ।। २७।।

उशीनर देशमें एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका नाम था सुयज्ञ। लड़ाईमें शत्रुओंने उसे मार डाला। उस समय उसके भाई-बन्धु उसे घेरकर बैठ गये ।। २८ ।।

(संस्कृत श्लोक:-)

 

विशीर्णरत्नकवचं विभ्रष्टाभरणस्रजम् । शरनिर्भिन्नहृदयं शयानमसृगाविलम् ।।२९

प्रकीर्णकेशं ध्वस्ताक्षं रभसा दष्टदच्छदम् । रजः कुण्ठमुखाम्भोजं छिन्नायुधभुजं मृधे ।।३०

उशीनरेन्द्रं विधिना तथा कृतं पतिं महिष्यः प्रसमीक्ष्य दुःखिताः ।

हताः स्म नाथेति करैरुरो भृशं घ्नन्त्यो मुहुस्तत्पदयोरुपापतन् ।।३१

रुदत्य उच्चैर्दयिताङ्ग्रिङ्घ्रपङ्कजं सिञ्चन्त्य अत्रैः कुचकुङ्कुमारुणैः ।

विस्रस्तकेशाभरणाः शुचं नृणां सृजन्त्य आक्रन्दनया विलेपिरे ।।३२

अहो विधात्राकरुणेन नः प्रभो भवान् प्रणीतो दृगगोचरां दशाम् । उशीनराणामसि वृत्तिदः पुरा कृतोऽधुना येन शुचां विवर्धनः ।। ३३

त्वया कृतज्ञेन वयं महीपते कथं विना स्याम सुहृत्तमेन ते । तत्रानुयानं तव वीर पादयोः शुश्रूषतीनां दिश’ यत्र यास्यसि ।। ३४

एवं विलपतीनां वै परिगृह्य मृतं पतिम् । अनिच्छतीनां निर्हारमर्कोऽस्तं संन्यवर्तत ।।३५

तत्र ह प्रेतबन्धूनामाश्रुत्य परिदेवितम् । आह तान् बालको भूत्वा यमः स्वयमुपागतः ।।३६

अनुवाद: –

 

उसका जड़ाऊ कवच छिन्न-भिन्न हो गया था। गहने और मालाएँ तहस-नहस हो गयी थीं। बाणोंकी मारसे कलेजा फट गया था। शरीर खूनसे लथपथ था। बाल बिखर गये थे।

आँखें धँस गयी थीं। क्रोधके मारे दाँतोंसे उसके होठ दबे हुए थे। कमलके समान मुख धूलसे ढक गया था। युद्धमें उसके शस्त्र और बाँहें कट गयी थीं ।। २९-३०।।

रानियोंको दैववश अपने पतिदेव उशीनर नरेशकी यह दशा देखकर बड़ा दुःख हुआ। वे ‘हा नाथ ! हम अभागिनें तो बेमौत मारी गयीं।’ यों कहकर बार-बार जोरसे छाती पीटती हुई अपने स्वामीके चरणोंके पास गिर पड़ीं ।। ३१।।

वे जोर-जोरसे इतना रोने लगीं कि उनके कुच-कुंकुमसे मिलकर बहते हुए लाल-लाल आँसुओंने प्रियतमके पादपद्म पखार दिये। उनके केश और गहने इधर-उधर बिखर गये। वे करुण-क्रन्दनके साथ विलाप कर रही थीं, जिसे सुनकर मनुष्योंके हृदयमें शोकका संचार हो जाता था ।।३२।।

‘हाय! विधाता बड़ा क्रूर है। स्वामिन् ! उसीने आज आपको हमारी आँखोंसे ओझल कर दिया। पहले तो आप समस्त देशवासियोंके जीवनदाता थे। आज उसीने आपको ऐसा बना दिया कि आप हमारा शोक बढ़ा रहे हैं ।। ३३ ।।

पतिदेव ! आप हमसे बड़ा प्रेम करते थे, हमारी थोड़ी-सी सेवाको भी बड़ी करके मानते थे। हाय! अब आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी। हम आपके चरणोंकी चेरी हैं। वीरवर ! आप जहाँ जा रहे हैं, वहीं चलनेकी हमें भी आज्ञा दीजिये’ ।।३४।।

वे अपने पतिकी लाश पकड़कर इसी प्रकार विलाप करती रहीं। उस मुर्देको वहाँसे दाहके लिये जाने देनेकी उनकी इच्छा नहीं होती थी। इतनेमें ही सूर्यास्त हो गया ।। ३५।।

उस समय उशीनरराजाके सम्बन्धियोंने जो विलाप किया था, उसे सुनकर वहाँ स्वयं यमराज बालकके वेषमें आये और उन्होंने उन लोगोंसे कहा- ।।३६।।

(संस्कृत श्लोक:-)

 

यम उवाच

अहो अमीषां वयसाधिकानां विपश्यतां लोकविधिं विमोहः ।

यत्रागतस्तत्र गतं मनुष्यं स्वयं सधर्मा अपि शोचन्त्यपार्थम् ।।३७

अहो वयं धन्यतमा यदत्र त्यक्ताः पितृभ्यां न विचिन्तयामः ।

अभक्ष्यमाणा अबला वृकादिभिः स रक्षिता रक्षति यो हि गर्भे ।। ३८

य इच्छयेशः सृजतीदमव्ययो य एव रक्षत्यवलुम्पते च यः । तस्याबलाः क्रीडनमाहुरीशितु- श्चराचरं निग्रहस‌ङ्ग्रहे प्रभुः ।।३९

पथि च्युतं तिष्ठति दिष्टरक्षितं गृहे स्थितं तद्विहतं विनश्यति । जीवत्यनाथोऽपि तदीक्षितो वने गृहेऽपि गुप्तोऽस्य हतो न जीवति ।।४०

भूतानि तैस्तैर्निजयोनिकर्मभि- र्भवन्ति काले न भवन्ति सर्वशः । न तत्र हात्मा प्रकृतावपि स्थित- स्तस्या गुणैरन्यतमो निबध्यते ।।४१

इदं शरीरं पुरुषस्य मोहजं यथा पृथग्भौतिकमीयते गृहम् । यथौदकैः पार्थिवतैजसैर्जनः कालेन जातो विकृतो विनश्यति ।।४२

अनुवाद: –

 

यमराज बोले-बड़े आश्चर्यकी बात है! ये लोग तो मुझसे सयाने हैं। बराबर लोगोंका मरना-जीना देखते हैं, फिर भी इतने मूढ़ हो रहे हैं। अरे! यह मनुष्य जहाँसे आया था, वहीं चला गया। इन लोगोंको भी एक-न-एक दिन वहीं जाना है। फिर झूठमूठ ये लोग इतना शोक क्यों करते हैं? ।। ३७।।

हम तो तुमसे लाखगुने अच्छे हैं, परम धन्य हैं; क्योंकि हमारे माँ-बापने हमें छोड़ दिया है। हमारे शरीरमें पर्याप्त बल भी नहीं है, फिर भी हमें कोई चिन्ता नहीं है। भेड़िये आदि हिंसक जन्तु हमारा बाल भी बाँका नहीं कर पाते। जिसने गर्भमें रक्षा की थी, वही इस जीवनमें भी हमारी रक्षा करता रहता है ।। ३८ ।।

देवियो ! जो अविनाशी ईश्वर अपनी मौजसे इस जगत्‌को बनाता है, रखता है और बिगाड़ देता है-उस प्रभुका यह एक खिलौनामात्र है। वह इस चराचर जगत्‌को दण्ड या पुरस्कार देनेमें समर्थ है ।। ३९।।

भाग्य अनुकूल हो तो रास्ते में गिरी हुई वस्तु भी ज्यों-की-त्यों पड़ी रहती है। परन्तु भाग्यके प्रतिकूल होनेपर घरके भीतर तिजोरीमें रखी हुई वस्तु भी खो जाती है। जीव बिना किसी सहारेके दैवकी दयादृ‌ष्टिसे जंगलमें भी बहुत दिनोंतक जीवित रहता है, परंतु दैवके विपरीत होनेपर घरमें सुरक्षित रहनेपर भी मर जाता है ।।४०।।

रानियो ! सभी प्राणियोंकी मृत्यु अपने पूर्वजन्मोंकी कर्मवासनाके अनुसार समयपर होती है और उसीके अनुसार उनका जन्म भी होता है। परन्तु आत्मा शरीरसे अत्यन्त भिन्न है, इसलिये वह उसमें रहनेपर भी उसके जन्म-मृत्यु आदि धर्मोंसे अछूता ही रहता है ।।४१।।

जैसे मनुष्य अपने मकानको अपनेसे अलग और मिट्टीका समझता है, वैसे ही यह शरीर भी अलग और मिट्टीका है। मोहवश वह इसे अपना समझ बैठता है। जैसे बुलबुले आदि पानीके विकार, घड़े आदि मिट्टीके विकार और गहने आदि स्वर्णके विकार समयपर बनते हैं, रूपान्तरित होते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही इन्हीं तीनोंके विकारसे बना हुआ यह शरीर भी समयपर बान-बिगड़ जाता है ।।४२।।

(संस्कृत श्लोक:-)

 

यथानलो दारुषु भिन्न ईयते यथानिलो देहगतः पृथक् स्थितः । यथा नभः सर्वगतं न सज्जते तथा पुमान् सर्वगुणाश्रयः परः ।।४३

सुयज्ञो नन्वयं शेते मूढा यमनुशोचथ । यः श्रोता योऽनुवक्तेह स न दृश्येत कर्हिचित् ।।४४

न श्रोता नानुवक्तायं मुख्योऽप्यत्र महानसुः । यस्त्विहेन्द्रियवानात्मा स चान्यः प्राणदेहयोः ।।४५

भूतेन्द्रियमनोलिङ्गान् देहानुच्चावचान् विभुः । भजत्युत्सृजति ह्यन्यस्तच्चापि स्वेन तेजसा ।।४६

यावल्लिङ्गान्वितो ह्यात्मा तावत् कर्म निबन्धनम् । ततो विपर्ययः क्लेशो मायायोगोऽनुवर्तते ।।४७ वितथाभिनिवेशोऽयं यद् गुणेष्वर्थदृग्वचः । यथा मनोरथः स्वप्नः सर्वमैन्द्रियकं मृषा ।।४८

अनुवाद: –

 

जैसे काठमें रहनेवाली व्यापक अग्नि स्पष्ट ही उससे अलग है, जैसे देहमें रहनेपर भी वायुका उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, जैसे आकाश सब जगह एक-सा रहनेपर भी किसीके दोष-गुणसे लिप्त नहीं होता- वैसे ही समस्त देहेन्द्रियोंमें रहनेवाला और उनका आश्रय आत्मा भी उनसे अलग और निर्लिप्त है ।।४३।।

मूर्खा! जिसके लिये तुम सब शोक कर रहे हो, वह सुयज्ञ नामका शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है। तुमलोग इसीको देखते थे। इसमें जो सुननेवाला और बोलनेवाला था, वह तो कभी किसीको नहीं दिखायी पड़ता था। फिर आज भी नहीं दिखायी दे रहा है, तो शोक क्यों? ।।४४।।

(तुम्हारी यह मान्यता कि ‘प्राण ही बोलने या सुननेवाला था, सो निकल गया’ मूर्खतापूर्ण है; क्योंकि सुषुप्तिके समय प्राण तो रहता है, पर न वह बोलता है न सुनता है।) शरीरमें सब इन्द्रियोंकी चेष्टाका हेतुभूत जो महाप्राण है, वह प्रधान होनेपर भी बोलने या सुननेवाला नहीं है; क्योंकि वह जड है। देह और इन्द्रियोंके द्वारा सब पदार्थोंका द्रष्टा जो आत्मा है, वह शरीर और प्राण दोनोंसे पृथक् है ।।४५।।

यद्यपि वह परिच्छिन्न नहीं है, व्यापक है-फिर भी पंचभूत, इन्द्रिय और मनसे युक्त नीचे-ऊँचे (देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) शरीरोंको ग्रहण करता और अपने विवेकबलसे मुक्त भी हो जाता है। वास्तवमें वह इन सबसे अलग है ।।४६।।

जबतक वह पाँच प्राण, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और मन – इन सत्रह तत्त्वोंसे बने हुए लिंगशरीरसे युक्त रहता है, तभीतक कर्मोंसे बँधा रहता है और इस बन्धनके कारण ही मायासे होनेवाले मोह और क्लेश बराबर उसके पीछे पड़े रहते हैं ।।४७।।

प्रकृतिके गुणों और उनसे बनी हुई वस्तुओंको सत्य समझना अथवा कहना झूठमूठका दुराग्रह है। मनोरथके समयकी कल्पित और स्वप्नके समयकी दीख पड़नेवाली वस्तुओंके समान इन्द्रियोंके द्वारा जो कुछ ग्रहण किया जाता है, सब मिथ्या है ।।४८ ।।

(संस्कृत श्लोक:-)

 

अथ नित्यमनित्यं वा नेह शोचन्ति तद्विदः । नान्यथा शक्यते कर्तुं स्वभावः शोचतामिति ।।४९

लुब्धको विपिने कश्चित्पक्षिणां निर्मितोऽन्तकः । वितत्य जालं विदधे तत्र तत्र प्रलोभयन् ।।५०

कुलिङ्गमिथुनं तत्र विचरत्समदृश्यत । तयोः कुलिङ्गी सहसा लुब्धकेन प्रलोभिता ।।५१

सासज्जत शिचस्तन्त्यां महिषी कालयन्त्रिता । कुलिङ्गस्तां तथाऽऽपन्नां निरीक्ष्य भृशदुःखितः । स्नेहादकल्पः कृपणः कृपणां पर्यदेवयत् ।।५२ अहो अकरुणो देवः स्त्रियाऽऽकरुणया विभुः । कृपणं मानुशोचन्त्या दीनया किं करिष्यति ।।५३

कामं नयतु मां देवः किमर्थेनात्मनो हि मे । दीनेन जीवता दुःखमनेन विधुरायुषा ।।५४

कथं त्वजातपक्षांस्तान् मातृहीनान् बिभर्म्यहम् । मन्दभाग्याः प्रतीक्षन्ते नीडे मे मातरं प्रजाः ।।५५

एवं कुलिङ्गं विलपन्तमारात् प्रियावियोगातुरमश्रुकण्ठम् । स एव तं शाकुनिकः शरेण विव्याध कालप्रहितो विलीनः ।।५६

एवं यूयमपश्यन्त्य आत्मापायमबुद्धयः । नैनं प्राप्स्यथ शोचन्त्यः पतिं वर्षशतैरपि ।। ५७

अनुवाद: –

 

इसलिये शरीर और आत्माका तत्त्व जाननेवाले पुरुष न तो अनित्य शरीरके लिये शोक करते हैं और न नित्य आत्माके लिये ही। परन्तु ज्ञानकी दृढ़ता न होनेके कारण जो लोग शोक करते रहते हैं, उनका स्वभाव बदलना बहुत कठिन है ।।४९।।

किसी जंगलमें एक बहेलिया रहता था। वह बहेलिया क्या था, विधाताने मानो उसे पक्षियोंके कालरूपमें ही रच रखा था। जहाँ-कहीं भी वह जाल फैला देता और ललचाकर चिड़ियोंको फँसा लेता ।। ५० ।।

एक दिन उसने कुलिंग पक्षीके एक जोड़ेको चारा चुगते देखा। उनमेंसे उस बहेलियेने मादा पक्षीको तो शीघ्र ही फँसा लिया ।।५१।।

कालवश वह जालके फंदोंमें फँस गयी। नर पक्षीको अपनी मादाकी विपत्तिको देखकर बड़ा दुःख हुआ। वह बेचारा उसे छुड़ा तो सकता न था, स्नेहसे उस बेचारीके लिये विलाप करने लगा ।। ५२।।

उसने कहा – ‘यों तो विधाता सब कुछ कर सकता है। परन्तु है वह बड़ा निर्दयी। यह मेरी सहचरी एक तो स्त्री है, दूसरे मुझ अभागेके लिये शोक करती हुई बड़ी दीनतासे छटपटा रही है। इसे लेकर वह करेगा क्या ।।५३।।

उसकी मौज हो तो मुझे ले जाय। इसके बिना मैं अपना यह अधूरा विधुर जीवन, जो दीनता और दुःखसे भरा हुआ है, लेकर क्या करूँगा ।।५४।।

अभी मेरे अभागे बच्चोंके पर भी नहीं जमे हैं। स्त्रीके मर जानेपर उन मातृहीन बच्चोंको मैं कैसे पालूँगा? ओह! घोंसलेमें वे अपनी माँकी बाट देख रहे होंगे’ ।। ५५।।

इस तरह वह पक्षी बहुत-सा विलाप करने लगा। अपनी सहचरीके वियोगसे वह आतुर हो रहा था। आँसुओंके मारे उसके गला रुँध गया था। तबतक एक कालकी प्रेरणासे पास पास ही छिपे हुए उसी बहेलियेने ऐसा बाण मारा कि वह भी वहींपर लोट गया ।। ५६ ।।

मूर्ख रानियो ! तुम्हारी भी यही दशा होनेवाली है। तुम्हें अपनी मृत्यु तो दीखती नहीं और इसके लिये रो-पीट रही हो ! यदि तुमलोग सौ बरसतक इसी तरह शोकवश छाती पीटती रहो, तो भी अब तुम इसे नहीं पा सकोगी ।।५७।।

(संस्कृत श्लोक:-)

 

हिरण्यकशिपुरुवाच

बाल एवं प्रवदति सर्वे विस्मितचेतसः । ज्ञातयो मेनिरे सर्वमनित्यमयथोत्थितम् ।।५८

यम एतदुपाख्याय तत्रैवान्तरधीयत । ज्ञातयोऽपि सुयज्ञस्य चक्रुर्यत्साम्परायिकम् ।।५९ ततः २ शोचत मा यूयं परं चात्मानमेव च । क आत्मा कः परो वात्र स्वीयः पारक्य एव वा । स्वपराभिनिवेशेन विनाज्ञानेन देहिनाम् ।।६०

नारद उवाच

इति दैत्यपतेर्वाक्यं दितिराकर्ण्य सस्नुषा । पुत्रशोकं क्षणात्त्यक्त्वा तत्त्वे चित्तमधारयत् ।।६१

अनुवाद: –

 

हिरण्यकशिपुने कहा- उस छोटेसे बालककी ऐसी ज्ञानपूर्ण बातें सुनकर सब-के-सब दंग रह गये। उशीनर-नरेशके भाई-बन्धु और स्त्रियोंने यह बात समझ ली कि समस्त संसार और इसके सुख-दुःख अनित्य एवं मिथ्या हैं ।। ५८ ।।

यमराज यह उपाख्यान सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। भाई-बन्धुओंने भी सुयज्ञकी अन्त्येष्टि-क्रिया की ।।५९।।

इसलिये तुमलोग भी अपने लिये या किसी दूसरेके लिये शोक मत करो। इस संसारमें कौन अपना है और कौन अपनेसे भिन्न? क्या अपना है और क्या पराया? प्राणियोंको अज्ञानके कारण ही यह अपने- परायेका दुराग्रह हो रहा है, इस भेद-बुद्धिका और कोई कारण नहीं है ।। ६० ।।

नारदजीने कहा-युधिष्ठिर ! अपनी पुत्रवधूके साथ दितिने हिरण्यकशिपुकी यह बात सुनकर उसी क्षण पुत्रशोकका त्याग कर दिया और अपना चित्त परमतत्त्वस्वरूप परमात्मामें लगा दिया ।। ६१।।

इति श्रीम‌द्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे दितिशोकापनयनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ।।२।।

१. प्रा० पा०- रूपिणा। २. प्रा० पा०- निरीक्ष्य धू०। ३. प्रा० पा०- क्ष्यो भ्रु०।४. प्रा० पा०-पधारितैः।

१. प्रा० पा०- नृणां शुचं। २. प्रा० पा०- दिशि। ३. प्रा० पा०- प्रति । १. प्रा० पा०- काल। २. प्रा० पा०- अतः। ३. प्रा० पा०- परमात्मानमेव च।

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