Bhagwat puran skandh 7 chapter 15 (भागवत पुराण सप्तम: स्कन्ध:अध्याय 15 गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन)

Bhagwat puran skandh 7 chapter 15 (भागवत पुराण सप्तम: स्कन्ध:अध्याय 15 गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन)

(संस्कृत श्लोक: -)

 

नारद उवाच

कर्मनिष्ठा द्विजाः केचित् तपोनिष्ठा नृपापरे । स्वाध्यायेऽन्ये प्रवचने ये केचिज्ज्ञानयोगयोः ।।१

ज्ञाननिष्ठाय देयानि कव्यान्यानन्त्यमिच्छता । दैवे च तदभावे स्यादितरेभ्यो यथार्हतः ।।२

अनुवाद: –

 

नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर! कुछ ब्राह्मणोंकी निष्ठा कर्ममें, कुछकी तपस्यामें, कुछकी वेदोंके स्वाध्याय और प्रवचनमें, कुछकी आत्मज्ञानके सम्पादनमें तथा कुछकी योगमें होती है ।।१।।

गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि श्राद्ध अथवा देवपूजाके अवसरपर अपने कर्मका अक्षय फल प्राप्त करनेके लिये ज्ञाननिष्ठ पुरुषको ही हव्य-कव्यका दान करे। यदि वह न मिले तो योगी, प्रवचनकार आदिको यथायोग्य और यथाक्रम देना चाहिये ।।२।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा । भोजयेत् सुसमृद्धोऽपि श्राद्धे कुर्यान्न विस्तरम् ।।३

देशकालोचित श्रद्धाद्रव्यपात्रार्हणानि च । सम्यग् भवन्ति नैतानि विस्तरात् स्वजनार्पणात् ।।४

देशे काले च सम्प्राप्ते मुन्यन्नं हरिदैवतम् । श्रद्धया विधिवत् पात्रे न्यस्तं कामधुगक्षयम् ।।५

देवर्षिपितृभूतेभ्य आत्मने स्वजनाय च । अन्नं संविभजन्पश्येत् सर्वं तत् पुरुषात्मकम् ।।६

न दद्यादामिषं श्राद्धे न चाद्याद् धर्मतत्त्ववित् । मुन्यन्नैः स्यात्परा प्रीतिर्यथा न पशुहिंसया ।।७

नैतादृशः परो धर्मो नृणां सद्धर्ममिच्छताम् । न्यासो दण्डस्य भूतेषु मनोवाक्कायजस्य यः ।।८

एके कर्ममयान् यज्ञान् ज्ञानिनो यज्ञवित्तमाः । आत्मसंयमनेऽनीहा जुह्वति ज्ञानदीपिते ।।९

द्रव्ययज्ञैर्यक्ष्यमाणं दृष्ट्वा भूतानि बिभ्यति । एष माकरुणो हन्यादतज्ज्ञो ह्यसुतृब् ध्रुवम् ।।१०

तस्माद् दैवोपपन्नेन मुन्यन्नेनापि धर्मवित् । सन्तुष्टोऽहरहः कुर्यान्नित्यनैमित्तिकीः क्रियाः ।।११

विधर्मः परधर्मश्च आभास उपमा छलः । अधर्मशाखाः पञ्चेमा धर्मज्ञोऽधर्मवत् त्यजेत् ।।१२

अनुवाद: –

 

देवकार्यमें दो और पितृकार्यमें तीन अथवा दोनोंमें एक-एक ब्राह्मणको भोजन कराना चाहिये। अत्यन्त धनी होनेपर भी श्राद्धकर्ममें अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये ।।३।।

क्योंकि सगे-सम्बन्धी आदि स्वजनोंको देनेसे और विस्तार करनेसे देश-कालोचित श्रद्धा, पदार्थ, पात्र और पूजन आदि ठीक-ठीक नहीं हो पाते ।।४।।

देश और कालके प्राप्त होनेपर ऋषि-मुनियोंके भोजन करनेयोग्य शुद्ध हविष्यान्न भगवान्‌को भोग लगाकर श्रद्धासे विधिपूर्वक योग्य पात्रको देना चाहिये। वह समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और अक्षय होता है ।।५।।

देवता, ऋषि, पितर, अन्य प्राणी, स्वजन और अपने-आपको भी अन्नका विभाजन करनेके समय परमात्मस्वरूप ही देखे ।। ६ ।।

धर्मका मर्म जाननेवाला पुरुष श्राद्धमें मांसका अर्पण न करे और न स्वयं ही उसे खाय; क्योंकि पितरोंको ऋषि-मुनियोंके योग्य हविष्यान्नसे जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी पशु-हिंसासे नहीं होती ।।७।।

जो लोग सद्धर्मपालनकी अभिलाषा रखते हैं, उनके लिये इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है कि किसी भी प्राणीको मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकारका कष्ट न दिया जाय ।।८।।

इसीसे कोई-कोई यज्ञतत्त्वको जाननेवाले ज्ञानी ज्ञानके द्वारा प्रज्वलित आत्मसंयमरूप अग्निमें इन कर्ममय यज्ञोंका हवन कर देते हैं और बाह्य कर्म-कलापोंसे उपरत हो जाते हैं ।।९।।

जब कोई इन द्रव्यमय यज्ञोंसे यजन करना चाहता है, तब सभी प्राणी डर जाते हैं; वे सोचने लगते हैं कि यह अपने प्राणोंका पोषण करनेवाला निर्दयी मूर्ख मुझे अवश्य मार डालेगा ।।१०।।

इसलिये धर्मज्ञ मनुष्यको यही उचित है कि प्रतिदिन प्रारब्धके द्वारा प्राप्त मुनिजनोचित हविष्यान्नसे ही अपने नित्य और नैमित्तिक कर्म करे तथा उसीसे सर्वदा सन्तुष्ट रहे ।।११।।

अधर्मकी पाँच शाखाएँ हैं- विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल। धर्मज्ञ पुरुष अधर्मके समान ही इनका भी त्याग कर दे ।।१२।। धर्मबाधो विधर्मः स्यात् परधर्मोऽन्यचोदितः । उपधर्मस्तु पाखण्डो दम्भो वा शब्दभिच्छलः ।।१३

(संस्कृत श्लोक: -)

 

यस्त्विच्छया कृतः पुम्भिराभासो ह्याश्रमात् पृथक् । स्वभावविहितो धर्मः कस्य नेष्टः प्रशान्तये ।।१४

धर्मार्थमपि नेहेत यात्रार्थं वाधनो धनम् । अनीहानीहमानस्य महाहेरिव वृत्तिदा ।।१५

सन्तुष्टस्य निरीहस्य स्वात्मारामस्य यत् सुखम् । कुतस्तत् कामलोभेन धावतोऽर्थेहया दिशः ।।१६

सदा सन्तुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः । शर्कराकण्टकादिभ्यो यथोपानत्पदः शिवम् ।।१७

सन्तुष्टः केन वा राजन्न वर्तेतापि वारिणा । औपस्थ्यजैह्वयकार्पण्याद् गृहपालायते जनः ।।१८

असन्तुष्टस्य विप्रस्य तेजो विद्या तपो यशः । स्रवन्तीन्द्रियलौल्येन ज्ञानं चैवावकीर्यते ।।१९

कामस्यान्तं च क्षुत्तृड्भ्यां क्रोधस्यैतत्फलोदयात् । जनो याति न लोभस्य जित्वा भुक्त्वा दिशो भुवः ।।२०

अनुवाद: –

 

जिस कार्यको धर्मबुद्धिसे करनेपर भी अपने धर्ममें बाधा पड़े, वह ‘विधर्म’ है। किसी अन्यके द्वारा अन्य पुरुषके लिये उपदेश किया हुआ धर्म ‘परधर्म’ है। पाखण्ड या दम्भका नाम ‘उपधर्म’ अथवा ‘उपमा’ है। शास्त्रके वचनोंका दूसरे प्रकारका अर्थ कर देना ‘छल’ है ।।१३।।

मनुष्य अपने आश्रमके विपरीत स्वेच्छासे जिसे धर्म मान लेता है, वह ‘आभास’ है। अपने-अपने स्वभावके अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म हैं, वे भला किसे शान्ति नहीं देते ।।१४।।

धर्मात्मा पुरुष निर्धन होनेपर भी धर्मके लिये अथवा शरीर-निर्वाहके लिये धन प्राप्त करनेकी चेष्टा न करे। क्योंकि जैसे बिना किसी प्रकारकी चेष्टा किये अजगरकी जीविका चलती ही है, वैसे ही निवृत्ति-परायण पुरुषकी निवृत्ति ही उसकी जीविकाका निर्वाह कर देती है ।।१५।।

जो सुख अपनी आत्मामें रमण करनेवाले निष्क्रिय सन्तोषी पुरुषको मिलता है, वह उस मनुष्यको भला कैसे मिल सकता है, जो कामना और लोभसे धनके लिये हाय-हाय करता हुआ इधर-उधर दौड़ता फिरता है ।।१६।।

जैसे पैरोंमें जूता पहनकर चलनेवालेको कंकड़ और काँटोंसे कोई डर नहीं होता – वैसे ही जिसके मनमें सन्तोष है, उसके लिये सर्वदा और सब कहीं सुख-ही-सुख है, दुःख है ही नहीं ।।१७।।

युधिष्ठिर ! न जाने क्यों मनुष्य केवल जलमात्रसे ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवनका निर्वाह नहीं कर लेता। अपितु रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रियके फेरमें पड़कर यह बेचारा घरकी चौकसी करनेवाले कुत्तेके समान हो जाता है ।।१८।।

जो ब्राह्मण सन्तोषी नहीं है, इन्द्रियोंकी लोलुपताके कारण उसके तेज, विद्या, तपस्या और यश क्षीण हो जाते हैं और वह विवेक भी खो बैठता है ।।१९।।

भूख और प्यास मिट जानेपर खाने-पीनेकी कामनाका अन्त हो जाता है। क्रोध भी अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है। परन्तु यदि मनुष्य पृथ्वीकी समस्त दिशाओंको जीत ले और भोग ले, तब भी लोभका अन्त नहीं होता ।।२०।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

पण्डिता बहवो राजन्बहुज्ञाः संशयच्छिदः । सदसस्पतयोऽप्येके असन्तोषात् पतन्त्यधः ।।२१

असङ्कल्पाज्जयेत् कामं क्रोधं कामविवर्जनात् । अर्थानर्थेक्षया लोभं भयं तत्त्वावमर्शनात् ।।२२

आन्वीक्षिक्या शोकमोहौ दम्भं महदुपासया ।

योगान्तरायान् मौनेन हिंसां कायाद्यनीहया ।।२३

कृपया भूतजं दुःखं दैवं जह्यात् समाधिना । आत्मजं योगवीर्येण निद्रां सत्त्वनिषेवया ।।२४

रजस्तमश्च सत्त्वेन सत्त्वं चोपशमेन च । एतत् सर्वं गुरौ भक्त्या पुरुषो ह्यञ्जसा जयेत् ।।२५

यस्य साक्षाद् भगवति ज्ञानदीपप्रदे गुरौ । मर्त्यासद्धीः श्रुतं तस्य सर्वं कुञ्जरशौचवत् ।।२६

एष वै भगवान्साक्षात् प्रधानपुरुषेश्वरः । योगेश्वरैर्विमृग्या‌ङ्घ्रिर्लोको यं मन्यते नरम् ।।२७

षड्वर्गसंयमैकान्ताः सर्वा नियमचोदनाः । तदन्ता यदि नो योगानावहेयुः श्रमावहाः ।।२८

अनुवाद: –

 

अनेक विषयोंके ज्ञाता, शंकाओंका समाधान करके चित्तमें शास्त्रोक्त अर्थको बैठा देनेवाले और विद्वत्सभाओंके सभापति बड़े-बड़े विद्वान् भी असन्तोषके कारण गिर जाते हैं ।।२१।।

धर्मराज ! संकल्पोंके परित्यागसे कामको, कामनाओंके त्यागसे क्रोधको, संसारी लोग जिसे ‘अर्थ’ कहते हैं उसे अनर्थ समझकर लोभको और तत्त्वके विचारसे भयको जीत लेना चाहिये ।।२२।।

अध्यात्मविद्यासे शोक और मोहपर, संतोंकी उपासनासे दम्भपर, मौनके द्वारा योगके विघ्नोंपर और शरीर-प्राण आदिको निश्चेष्ट करके हिंसापर विजय प्राप्त करनी चाहिये ।।२३।।

आधिभौतिक दुःखको दयाके द्वारा, आधिदैविक वेदनाको समाधिके द्वारा और आध्यात्मिक दुःखको योगबलसे एवं निद्राको सात्त्विक भोजन, स्थान, संग आदिके सेवनसे जीत लेना चाहिये ।। २४ ।।

सत्त्वगुणके द्वारा रजोगुण एवं तमोगुणपर और उपरतिके द्वारा सत्त्वगुणपर विजय प्राप्त करनी चाहिये। श्रीगुरुदेवकी भक्तिके द्वारा साधक इन सभी दोषोंपर सुगमतासे विजय प्राप्त कर सकता है ।। २५।।

हृदयमें ज्ञानका दीपक जलानेवाले गुरुदेव साक्षात् भगवान् ही हैं। जो दुर्बुद्धि पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र-श्रवण हाथीके स्नानके समान व्यर्थ है ।। २६ ।।

बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरणकमलोंका अनुसन्धान करते रहते हैं, प्रकृति और पुरुषके अधीश्वर वे स्वयं भगवान् ही गुरुदेवके रूपमें प्रकट हैं। इन्हें लोग भ्रमसे मनुष्य मानते हैं ।। २७।।

शास्त्रोंमें जितने भी नियमसम्बन्धी आदेश हैं, उनका एकमात्र तात्पर्य यही है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- इन छः शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली जाय अथवा

पाँचों इन्द्रिय और मन- ये छः वशमें हो जायँ। ऐसा होनेपर भी यदि उन नियमोंके द्वारा भगवान्के ध्यान-चिन्तन आदिकी प्राप्ति नहीं होती, तो उन्हें केवल श्रम-ही-श्रम समझना चाहिये ।। २८ ।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

यथा वार्तादयो ह्यर्था योगस्यार्थं न बिभ्रति ।

अनर्थाय भवेयुस्ते पूर्तमिष्टं तथासतः ।।२९

यश्चित्तविजये यत्तः स्यान्निः सङ्गोऽपरिग्रहः ।

एको विविक्तशरणो भिक्षुर्भिक्षामिताशनः ।।३०

देशे शुचौ समे राजन्संस्थाप्यासनमात्मनः ।

स्थिरं समं सुखं तस्मिन्नासीतज्र्वङ्ग ओमिति ।।३१

प्राणापानौ सन्निरुन्ध्यात् पूरकुम्भकरेचकैः । यावन्मनस्त्यजेत् कामान् स्वनासाग्रनिरीक्षणः ।।३२

यतो यतो निःसरति मनः कामहतं भ्रमत् ।ततस्तत उपाहृत्य हृदि रुन्ध्याच्छनैर्बुधः ।।३३

एवमभ्यसतश्चित्तं कालेनाल्पीयसा यतेः । अनिशं तस्य निर्वाणं यात्यनिन्धनवह्निवत् ।।३४

कामादिभिरनाविद्धं प्रशान्ताखिलवृत्ति यत् । चित्तं ब्रह्मसुखस्पृष्टं नैवोत्तिष्ठेत कर्हिचित् ।।३५

यः प्रव्रज्य गृहात् पूर्वं त्रिवर्गावपनात् पुनः । यदि सेवेत तान्भिक्षुः स वै वान्ताश्यपत्रपः ।।३६

अनुवाद: –

 

जैसे खेती, व्यापार आदि और उनके फल भी योग साधनाके फल भगवत्प्राप्ति या मुक्तिको नहीं दे सकते – वैसे ही दुष्ट पुरुषके श्रौत-स्मार्त कर्म भी कल्याणकारी नहीं होते, प्रत्युत उलटा फल देते हैं ।।२९।।

जो पुरुष अपने मनपर विजय प्राप्त करनेके लिये उद्यत हो, वह आसक्ति और परिग्रहका त्याग करके संन्यास ग्रहण करे। एकान्तमें अकेला ही रहे और भिक्षा-वृत्तिसे शरीर- निर्वाहमात्रके लिये स्वल्प और परिमित भोजन करे ।। ३० ।।

युधिष्ठिर ! पवित्र और समान भूमिपर अपना आसन बिछाये और सीधे स्थिर-भावसे समान और सुखकर आसनसे उसपर बैठकर ॐ कारका जप करे ।।३१।।

जबतक मन संकल्प-विकल्पोंको छोड़ न दे, तबतक नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि जमाकर पूरक, कुम्भक और रेचकद्वारा प्राण तथा अपानकी गतिको रोके ।।३२।।

कामकी चोटसे घायल चित्त इधर-उधर चक्कर काटता हुआ जहाँ-जहाँ जाय, विद्वान्पु रुषको चाहिये कि वह वहाँ-वहाँसे उसे लौटा लाये और धीरे-धीरे हृदयमें रोके ।।३३।।

जब साधक निरन्तर इस प्रकारका अभ्यास करता है, तब ईंधनके बिना जैसे अग्नि बुझ जाती है, वैसे ही थोड़े समयमें उसका चित्त शान्त हो जाता है।। ३४।।

इस प्रकार जब काम-वासनाएँ चोट करना बंद कर देती हैं और समस्त वृत्तियाँ अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तब चित्त ब्रह्मानन्दके संस्पर्शमें मग्न हो जाता है और फिर उसका कभी उत्थान नहीं होता ।।३५।।

जो संन्यासी पहले तो धर्म, अर्थ और कामके मूल कारण गृहस्थाश्रमका परित्याग कर देता है और फिर उन्हींका सेवन करने लगता है, वह निर्लज्ज अपने उगले हुएको खानेवाला कुत्ता ही है ।। ३६ ।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

यैः स्वदेहः स्मृतो नात्मा मर्यो विट्कृमिभस्मसात् । त एनमात्मसात्कृत्वा श्लाघयन्ति ह्यसत्तमाः ।।३७

गृहस्थस्य क्रियात्यागो व्रतत्यागो वटोरपि । तपस्विनो ग्रामसेवा भिक्षोरिन्द्रियलोलता ।।३८

आश्रमापसदा होते खल्वाश्रमविडम्बकाः । देवमायाविमूढांस्तानुपेक्षेतानुकम्पया ।। ३९

आत्मानं चेद् विजानीयात् परं ज्ञानधुताशयः । किमिच्छन्कस्य वा हेतोर्देहं पुष्णाति लम्पटः ।।४०

आहुः शरीरं रथमिन्द्रियाणि हयानभीषून् मन इन्द्रियेशम् । वर्मानि मात्रा धिषणां च सूतं सत्त्वं बृहद् बन्धुरमीशसृष्टम् ।।४१

अक्षं दशप्राणमधर्मधर्मों चक्रेऽभिमानं रथिनं च जीवम् । धनुर्हि तस्य प्रणवं पठन्ति शरं तु जीवं परमेव लक्ष्यम् ।।४२

रागो द्वेषश्च लोभश्च शोकमोहौ भयं मदः । मानोऽवमानोऽसूया च माया हिंसा च मत्सरः ।।४३

रजः प्रमादः क्षुन्निद्रा शत्रवस्त्वेवमादयः । रजस्तमः प्रकृतयः सत्त्वप्रकृतयः क्वचित् ।।४४

यावन्नृकायरथमात्मवशोपकल्पं धत्ते गरिष्ठचरणार्चनया निशातम् ।

अनुवाद: –

 

जिन्होंने अपने शरीरको अनात्मा, मृत्युग्रस्त और विष्ठा, कृमि एवं राख समझ लिया था – वे ही मूढ़ फिर उसे आत्मा मानकर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं ।। ३७।।

कर्मत्यागी गृहस्थ, व्रतत्यागी ब्रह्मचारी, गाँवमें रहनेवाला तपस्वी (वानप्रस्थ) और इन्द्रियलोलुप संन्यासी- ये चारों आश्रमके कलंक हैं और व्यर्थ ही आश्रमोंका ढोंग करते हैं। भगवान्‌की मायासे विमोहित उन मूढ़ोंपर तरस खाकर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये ।।३८-३९।।

आत्मज्ञानके द्वारा जिसकी सारी वासनाएँ निर्मूल हो गयी हैं और जिसने अपने आत्माको परब्रह्मस्वरूप जान लिया है, वह किस विषयकी इच्छा और किस भोक्ताकी तृप्तिके लिये इन्द्रियलोलुप होकर अपने शरीरका पोषण करेगा? ।।४०।।

उपनिषदोंमें कहा गया है कि शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, इन्द्रियोंका स्वामी मन लगाम है, शब्दादि विषय मार्ग हैं, बुद्धि सारथि है, चित्त ही भगवान्‌के द्वारा निर्मित बाँधनेकी विशाल रस्सी है, दस प्राण धुरी हैं, धर्म और अधर्म पहिये हैं और इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है।

ॐ कार ही उस रथीका धनुष है, शुद्ध जीवात्मा बाण और परमात्मा लक्ष्य है। (इस ॐ कारके द्वारा अन्तरात्माको परमात्मामें लीन कर देना चाहिये) ।।४१-४२।।

राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, दूसरेके गुणोंमें दोष निकालना, छल, हिंसा, दूसरेकी उन्नति देखकर जलना, तृष्णा, प्रमाद, भूख और नींद-ये सब, और ऐसे ही जीवोंके और भी बहुत-से शत्रु हैं। उनमें रजोगुण और तमोगुणप्रधान वृत्तियाँ अधिक हैं, कहीं-कहीं कोई-कोई सत्त्वगुणप्रधान ही होती हैं ।।४३-४४।।

यह मनुष्य-शरीररूप रथ जबतक अपने वशमें है और इसके इन्द्रिय मन-आदि सारे साधन अच्छी दशामें विद्यमान हैं, तभीतक श्रीगुरुदेवके चरणकमलोंकी सेवा-पूजासे शान धरायी हुई ज्ञानकी तीखी तलवार लेकर भगवान्‌के आश्रयसे इन शत्रुओंका नाश करके अपने स्वाराज्य-सिंहासनपर विराजमान हो जाय और फिर अत्यन्त शान्तभावसे इस शरीरका भी परित्याग कर दे ।।४५।।

नहीं तो, तनिक भी प्रमाद हो जानेपर ये इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखनेवाला बुद्धिरूप सारथि रथके स्वामी जीवको उलटे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरोंके हाथोंमें डाल देंगे।

वे डाकू सारथि और घोड़ोंके सहित इस जीवको मृत्युसे अत्यन्त भयावने घोर अन्धकारमय संसारके कुएँमें गिरा देंगे ।।४६।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

ज्ञानासिमच्युतबलो दधदस्तशत्रुः स्वाराज्यतुष्ट उपशान्त ईदं विजह्यात् ।।४५

नो चेत् प्रमत्तमसदिन्द्रियवाजिसूता

नीत्वोत्पथं विषयदस्युषु निक्षिपन्ति ।

ते दस्यवः सहयसूतममुं तमोऽन्धे संसारकूप उरुमृत्युभये क्षिपन्ति ।।४६

प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम् । आवर्तेत प्रवृत्तेन निवृत्तेनाश्नुतेऽमृतम् ।।४७

हिंस्रं द्रव्यमयं काम्यमग्निहोत्राद्यशान्तिदम् ।

दर्शश्च पूर्णमासश्च चातुर्मास्यं पशुः सुतः ।।४८

एतदिष्टं प्रवृत्ताख्यं हुतं प्रहुतमेव च । पूर्त सुरालयारामकूपाजीव्यादिलक्षणम् ।।४९

द्रव्यसूक्ष्मविपाकश्च धूमो रात्रिरपक्षयः । अयनं दक्षिणं सोमो दर्श ओषधिवीरुधः ।।५०

अन्नं रेत इति क्ष्मेश पितृयानं पुनर्भवः । एकैकश्येनानुपूर्वं भूत्वा भूत्वेह जायते ।।५१

अनुवाद: –

 

वैदिक कर्म दो प्रकारके हैं- एक तो वे जो वृत्तियोंको उनके विषयोंकी ओर ले जाते हैं – प्रवृत्तिपरक और दूसरे वे जो वृत्तियोंको उनके विषयोंकी ओरसे लौटाकर शान्त एवं आत्म- साक्षात्कारके योग्य बना देते हैं- निवृत्तिपरक।

प्रवृत्तिपरक कर्ममार्गसे बार-बार जन्म- मृत्युकी प्राप्ति होती है और निवृत्तिपरक भक्तिमार्ग या ज्ञानमार्गके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति होती है ।।४७।।

श्येनयागादि हिंसामय कर्म, अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग, सोमयाग, वैश्वदेव, बलिहरण आदि द्रव्यमय कर्म ‘इष्ट’ कहलाते हैं और देवालय, बगीचा, कुआँ आदि बनवाना तथा प्याऊ आदि लगाना ‘पूर्त्तकर्म’ हैं। ये सभी प्रवृत्तिपरक कर्म हैं और सकामभावसे युक्त होनेपर अशान्तिके ही कारण बनते हैं ।।४८-४९।।

प्रवृत्तिपरायण पुरुष मरनेपर चरु-पुरोडाशादि यज्ञ-सम्बन्धी द्रव्योंके सूक्ष्मभागसे बना हुआ शरीर धारणकर धूमाभिमानी देवताओंके पास जाता है।

फिर क्रमशः रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायनके अभिमानी देवताओंके पास जाकर चन्द्रलोकमें पहुँचता है। वहाँसे भोग समाप्त होनेपर अमावस्याके चन्द्रमाके समान क्षीण होकर वृष्टिद्वारा क्रमशः ओषधि, लता, अन्न और वीर्यके रूपमें परिणत होकर पितृयान-मार्गसे पुनः संसारमें ही जन्म लेता है ।।५०-५१।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

निषेकादिश्मशानान्तैः संस्कारैः संस्कृतो द्विजः । इन्द्रियेषु क्रियायज्ञान् ज्ञानदीपेषु जुह्वति ।।५२

इन्द्रियाणि मनस्यूर्मो वाचि वैकारिकं मनः । वाचं वर्णसमाम्नाये तमोङ्‌ङ्कारे स्वरे न्यसेत् । ओ‌ङ्कारं बिन्दौ नादे तं तं तु प्राणे महत्यमुम् ।।५३

अग्निः सूर्यो दिवा प्राह्णः शुक्लो राकोत्तरं स्वराट् । विश्वश्च तैजसः प्राज्ञस्तुर्य आत्मा समन्वयात् ।।५४

देवयानमिदं प्राहुर्भूत्वा भूत्वानुपूर्वशः । आत्मयाज्युपशान्तात्मा ह्यात्मस्थो न निवर्तते ।।५५

य एते पितृदेवानामयने वेदनिर्मिते । शास्त्रेण चक्षुषा वेद जनस्थोऽपि न मुह्यति ।।५६

अनुवाद: –

 

युधिष्ठिर ! गर्भाधानसे लेकर अन्त्येष्टिपर्यन्त सम्पूर्ण संस्कार जिनके होते हैं, उनको ‘द्विज’ कहते हैं। (उनमेंसे कुछ तो पूर्वोक्त प्रवृत्तिमार्गका अनुष्ठान करते हैं और कुछ आगे कहे जानेवाले निवृत्तिमार्गका।) निवृत्तिपरायण पुरुष इष्ट, पूर्त्त आदि कर्मोंसे होनेवाले समस्त यज्ञोंको विषयोंका ज्ञान करानेवाले इन्द्रियोंमें हवन कर देता है ।। ५२ ।।

इन्द्रियोंको दर्शनादि- संकल्परूप मनमें, वैकारिक मनको परा वाणीमें और परा वाणीको वर्णसमुदायमें, वर्णसमुदायको ‘अ उ म्’ इन तीन स्वरोंके रूपमें रहनेवाले ॐ कारमें, ॐ कारको बिन्दुमें, बिन्दुको नादमें, नादको सूत्रात्मारूप प्राणमें तथा प्राणको ब्रह्ममें लीन कर देता है ।। ५३।।

वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमशः अग्नि, सूर्य, दिन, सायंकाल, शुक्लपक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायणके अभिमानी देवताओंके पास जाकर ब्रह्मलोकमें पहुँचता है और वहाँके भोग समाप्त होनेपर वह स्थूलोपाधिक ‘विश्व’ अपनी स्थूल उपाधिको सूक्ष्ममें लीन करके सूक्ष्मोपाधिक ‘तैजस’ हो जाता है।

फिर सूक्ष्म उपाधिको कारणमें लय करके कारणोपाधिक ‘प्राज्ञ’ रूपसे स्थित होता है; फिर सबके साक्षीरूपसे सर्वत्र अनुगत होनेके कारण साक्षीके ही स्वरूपमें कारणोपाधिका लय करके ‘तुरीय’ रूपसे स्थित होता है। इस प्रकार दृश्योंका लय हो जानेपर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है। यही मोक्षपद है ।। ५४।।

इसे ‘देवयान’ मार्ग कहते हैं। इस मार्गसे जानेवाला आत्मोपासक संसारकी ओरसे निवृत्त होकर क्रमशः एकसे दूसरे देवताके पास होता हुआ ब्रह्मलोकमें जाकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। वह प्रवृत्तिमार्गीक समान फिर जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ता ।।५५।।

ये पितृयान और देवयान दोनों ही वेदोक्त मार्ग हैं। जो शास्त्रीय दृष्टिसे इन्हें तत्त्वतः जान लेता है, वह शरीरमें स्थित रहता हुआ भी मोहित नहीं होता ।।५६।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

आदावन्ते जनानां सद् बहिरन्तः परावरम् । ज्ञानं ज्ञेयं वचो वाच्यं तमो ज्योतिस्त्वयं स्वयम् ।।५७

आबाधितोऽपि ह्याभासो यथा वस्तुतया स्मृतः । दुर्घटत्वादैन्द्रियकं तद्वदर्थविकल्पितम् ।।५८

क्षित्यादीनामिहार्थानां छाया न कतमापि हि । न संघातो विकारोऽपि न पृथङ्नान्वितो मृषा ।।५९

धातवोऽवयवित्वाच्च तन्मात्रावयवैर्विना । न स्युर्हासत्यवयविन्यसन्नवयवोऽन्ततः ।।६०

स्यात् सादृश्यभ्रमस्तावद् विकल्पे सति वस्तुनः । जाग्रत्स्वापौ यथा स्वप्ने तथा विधिनिषेधता ।। ६१

अनुवाद: –

 

पैदा होनेवाले शरीरोंके पहले भी कारणरूपसे और उनका अन्त हो जानेपर भी उनकी

अवधिरूपसे जो स्वयं विद्यमान रहता है, जो भोगरूपसे बाहर और भोक्तारूपसे भीतर है

तथा ऊँच और नीच, जानना और जाननेका विषय, वाणी और वाणीका विषय, अन्धकार

और प्रकाश आदि वस्तुओंके रूपमें जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब स्वयं यह

तत्त्ववेत्ता ही है। इसीसे मोह उसका स्पर्श नहीं कर सकता ।। ५७।।

दर्पण आदिमें दीख पड़नेवाला प्रतिबिम्ब विचार और युक्तिसे बाधित है, उसका उनमें अस्तित्व है नहीं; फिर भी

वस्तुके रूपमें तो वह दीखता ही है। वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा दीखनेवाला वस्तुओंका भेद-भाव

भी विचार, युक्ति और आत्मानुभवसे असम्भव होनेके कारण वस्तुतः न होनेपर भी सत्य-सा प्रतीत होता है ।।५८।।

पृथ्वी आदि पंचभूतोंसे इस शरीरका निर्माण नहीं हुआ है। वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो न तो वह उन पंचभूतोंका संघात है और न विकार या परिणाम ही।

क्योंकि यह अपने अवयवोंसे न तो पृथक् है और न उनमें अनुगत ही है, अतएव मिथ्या है ।।५९।।

इसी प्रकार शरीरके कारणरूप पंचभूत भी अवयवी होनेके कारण अपने अवयवों- सूक्ष्मभूतोंसे भिन्न नहीं हैं, अवयवरूप ही हैं।

जब बहुत खोज-बीन करनेपर भी अवयवोंके अतिरिक्त अवयवीका अस्तित्व नहीं मिलता- वह असत् ही सिद्ध होता है,

तब अपने-आप ही यह सिद्ध हो जाता है कि ये अवयव भी असत्य ही हैं ।। ६०।।

जबतक अज्ञानके कारण एक ही परमतत्त्वमें अनेक वस्तुओंके भेद मालूम पड़ते रहते हैं, तबतक यह भ्रम भी रह

सकता है कि जो वस्तुएँ पहले थीं, वे अब भी हैं और स्वप्नमें भी जिस प्रकार जाग्रत्, स्वप्न

आदि अवस्थाओंके अलग-अलग अनुभव होते ही हैं तथा उनमें भी विधि-निषेधके शास्त्र

रहते हैं- वैसे ही जबतक इन भिन्नताओंके अस्तित्वका मोह बना हुआ है, तबतक यहाँ भी विधि-निषेधके शास्त्र हैं ही ।। ६१।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

भावाद्वैतं क्रियाद्वैतं द्रव्याद्वैतं तथाऽऽत्मनः । वर्तयन्स्वानुभूत्येह त्रीन्स्वप्नान्धुनुते मुनिः ।।६२

कार्यकारणवस्त्वैक्यमर्शनं पटतन्तुवत् । अवस्तुत्वाद् विकल्पस्य भावाद्वैतं तदुच्यते ।। ६३

यद्‌ब्रह्मणि परे साक्षात् सर्वकर्मसमर्पणम् । मनोवाक्तनुभिः पार्थ क्रियाद्वैतं तदुच्यते ।।६४

आत्मजायासुतादीनामन्येषां सर्वदेहिनाम् । यत् स्वार्थकामयोरैक्यं द्रव्याद्वैतं तदुच्यते ।।६५

यद् यस्य वानिषिद्धं स्याद् येन यत्र यतो नृप । स तेनेहेत कर्माणि नरो नान्यैरनापदि ।। ६६

एतैरन्यैश्च वेदोक्तैर्वर्तमानः स्वकर्मभिः । गृहेऽप्यस्य गतिं यायाद् राजंस्तद्भक्तिभाड्नरः ।।६७

यथा हि यूयं नृपदेव दुस्त्यजा- दापद्गणादुत्तरतात्मनः प्रभोः । यत्पादपङ्केरुहसेवया भवा- नहार्षीन्निर्जितदिग्गजः क्रतून् ।।६८

अहं पुराभवं कश्चिद् गन्धर्व उपबर्हणः । नाम्नातीते महाकल्पे गन्धर्वाणां सुसम्मतः ।।६९

रूपपेशलमाधुर्यसौगन्ध्यप्रियदर्शनः । स्त्रीणां प्रियतमो नित्यं मत्तस्तु पुरुलम्पटः ।।७०

अनुवाद: –

 

जो विचारशील पुरुष स्वानुभूतिसे आत्माके त्रिविध अद्वैतका साक्षात्कार करते हैं- वे जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्यके भेदरूप स्वप्नको मिटा देते हैं। ये अद्वैत तीन प्रकारके हैं-भावाद्वैत, क्रियाद्वैत और द्रव्याद्वैत ।। ६२ ।।

जैसे वस्त्र सूतरूप ही होता है, वैसे ही कार्य भी कारणमात्र ही है। क्योंकि भेद तो वास्तवमें है नहीं। इस प्रकार सबकी एकताका विचार ‘भावाद्वैत’ है ।। ६३ ।।

युधिष्ठिर ! मन, वाणी और शरीरसे होनेवाले सब कर्म स्वयं परब्रह्म परमात्मामें ही हो रहे हैं, उसीमें अध्यस्त हैं- इस भावसे समस्त कर्मोंको समर्पित कर देना ‘क्रियाद्वैत’ है ।। ६४।।

स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धी एवं संसारके अन्य समस्त प्राणियोंके तथा अपने स्वार्थ और भोग एक ही हैं, उनमें अपने और परायेका भेद नहीं है- इस प्रकारका विचार ‘द्रव्याद्वैत’ है ।। ६५।।

युधिष्ठिर ! जिस पुरुषके लिये जिस द्रव्यको जिस समय जिस उपायसे जिससे ग्रहण करना शास्त्राज्ञाके विरुद्ध न हो, उसे उसीसे अपने सब कार्य सम्पन्न करने चाहिये; आपत्तिकालको छोड़कर इससे अन्यथा नहीं करना चाहिये ।। ६६।।

महाराज ! भगवद्भक्त मनुष्य वेदमें कहे हुए इन कर्मोंके तथा अन्यान्य स्वकर्मोंके अनुष्ठानसे घरमें रहते हुए भी श्रीकृष्णकी गतिको प्राप्त करता है ।। ६७।।

युधिष्ठिर ! जैसे तुम अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा और सहायतासे बड़ी-बड़ी कठिन विपत्तियोंसे पार हो गये हो और उन्हींके चरणकमलोंकी सेवासे समस्त भूमण्डलको जीतकर तुमने बड़े-बड़े राजसूय आदि यज्ञ किये हैं ।। ६८ ।।

पूर्वजन्ममें इसके पहलेके महाकल्पमें मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था उपबर्हण और गन्धर्वोंमें मेरा बड़ा सम्मान था ।। ६९ ।।

मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व थी। मेरे शरीरमेंसे सुगन्धि निकला करती और देखनेमें मैं बहुत अच्छा लगता। स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करतीं और मैं सदा प्रमादमें ही रहता। मैं अत्यन्त विलासी था ।।७०।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

एकदा देवसत्रे तु गन्धर्वाप्सरसां गणाः । उपहूता विश्वसृग्भिर्हरिगाथोपगायने ।।७१

अहंच गायंस्तद्विद्वान् स्त्रीभिः परिवृतो गतः । ज्ञात्वा विश्वसृजस्तन्मे हेलनं शेपुरोजसा । याहि त्वं शूद्रतामाशु नष्टश्रीः कृतहेलनः ।।७२

तावद्दास्यामहं जज्ञे तत्रापि ब्रह्मवादिनाम् । शुश्रूषयानुषङ्गेण प्राप्तोऽहं ब्रह्मपुत्रताम् ।।७३

धर्मस्ते गृहमेधीयो वर्णितः पापनाशनः । गृहस्थो येन पदवीमञ्जसा न्यासिनामियात् ।।७४

यूयं नृलोके बत भूरिभागा लोकं पुनाना मुनयोऽभियन्ति । येषां गृहानावसतीति साक्षाद् गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम् ।।७५

स वा अयं ब्रह्म महद्विमृग्यं कैवल्यनिर्वाणसुखानुभूतिः । प्रियः सुहृद् वः खलु मातुलेय आत्मार्हणीयो विधिकृद् गुरुश्च ।।७६

न यस्य साक्षा‌द्भवपद्मजादिभी रूपं धिया वस्तुतयोपवर्णितम् । मौनेन भक्त्योपशमेन पूजितः प्रसीदतामेष स सात्वतां पतिः ।।७७

अनुवाद: –

 

एक बार देवताओंके यहाँ ज्ञानसत्र हुआ। उसमें बड़े-बड़े प्रजापति आये थे। भगवान्‌की लीलाका गान करनेके लिये उन लोगोंने गन्धर्व और अप्सराओंको बुलाया ।। ७१।।

मैं जानता था कि वह संतोंका समाज है और वहाँ भगवान्‌की लीलाका ही गान होता है। फिर भी मैं स्त्रियोंके साथ लौकिक गीतोंका गान करता हुआ उन्मत्तकी तरह वहाँ जा पहुँचा। देवताओंने देखा कि यह तो हम लोगोंका अनादर कर रहा है। उन्होंने अपनी शक्तिसे मुझे शाप दे दिया कि ‘तुमने हमलोगोंकी अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौन्दर्य-सम्पत्ति नष्ट हो जाय और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ’ ।। ७२ ।।

उनके शापसे मैं दासीका पुत्र हुआ। किन्तु उस शूद्र- जीवनमें किये हुए महात्माओंके सत्संग और सेवा-शुश्रूषाके प्रभावसे मैं दूसरे जन्ममें ब्रह्माजीका पुत्र हुआ ।। ७३ ।।

संतोंकी अवहेलना और सेवाका यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है। संत-सेवासे ही भगवान् प्रसन्न होते हैं। मैंने तुम्हें गृहस्थोंका पापनाशक धर्म बतला दिया। इस धर्मके आचरणसे गृहस्थ भी अनायास ही संन्यासियोंको मिलनेवाला परमपद प्राप्त कर लेता है ।।७४।।

युधिष्ठिर ! इस मनुष्यलोकमें तुमलोगोंके भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं; क्योंकि तुम्हारे घरमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्यका रूप धारण करके गुप्तरूपसे निवास करते हैं। इसीसे सारे संसारको पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करनेके लिये चारों ओरसे तुम्हारे पास आया करते हैं ।। ७५।।

बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढते रहते हैं, जो मायाके लेशसे रहित परम शान्त परमानन्दानुभव-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं- वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं ।। ७६।।

शंकर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’ – इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम मौन, भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।। ७७ ।।

(संस्कृत श्लोक: -)

 

श्रीशुक उवाच

इति देवर्षिणा प्रोक्तं निशम्य भरतर्षभः । पूजयामास सुप्रीतः कृष्णं च प्रेमविह्वलः ।।७८

कृष्णपार्थावुपामन्त्र्य पूजितः प्रययौ मुनिः । श्रुत्वा कृष्णं परं ब्रह्म पार्थः परमविस्मितः ।।७९

इति दाक्षायणीनां ते पृथग्वंशाः प्रकीर्तिताः ।

देवासुरमनुष्याद्या लोका यत्र चराचराः ।।८०

अनुवाद: –

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित ! देवर्षि नारदका यह प्रवचन सुनकर राजा युधिष्ठिरको अत्यन्त आनन्द हुआ। उन्होंने प्रेम-विह्वल होकर देवर्षि नारद और भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की ।।७८।।

देवर्षि नारद भगवान् श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिरसे विदा लेकर और उनके द्वारा सत्कार पाकर चले गये। भगवान् श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं, यह सुनकर युधिष्ठिरके आश्चर्यकी सीमा न रही ।। ७९ ।।

परीक्षित् ! इस प्रकार मैंने तुम्हें दक्षपुत्रियोंके वंशोंका अलग-अलग वर्णन सुनाया। उन्हींके वंशमें देवता, असुर, मनुष्य आदि और सम्पूर्ण चराचरकी सृष्टि हुई है ।।८० ।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्रयां पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ।।१५।।

।। इति सप्तमः स्कन्धः समाप्तः ।। ।। हरिः ॐ तत्सत् ।।

१. प्रा० पा०- भूतानि । २. प्रा० पा०- मुच्यते दैवसङ्गतम्। ३. प्रा० पा०- क्कायकर्मभिः।

१. प्रा० पा०- शिवमया। २. प्रा० पा०- हि।

१. प्रा० पा०- उपशान्तमतिर्विजह्यात्। २. प्रा० पा० – आवर्तते। ३. प्रा० पा०-

पशुस्ततः।

१. प्रा० पा०-विश्वोऽथ। २. प्रा० पा० – तत्रस्थोऽपि।

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