Bhagwat puran skandh 6 chapter 8(भागवत पुराण षष्ठः स्कन्ध:अथाष्टमोऽध्यायः नारायणकवचका उपदेश)

Bhagwat puran skandh 6 chapter 8(भागवत पुराण षष्ठः स्कन्ध: अथाष्टमोऽध्यायः नारायणकवचका उपदेश)

संस्कृत श्लोक: –

राजोवाच

यया गुप्तः सहस्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान् । क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम् ।।१ भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम् । यथाऽऽततायिनः शत्रून् येन गुप्तोऽजयन्मृधे ।।२

श्रीशुक उवाच

वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते । नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु ।।३

विश्वरूप उवाच

धौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ्‌मुखः । कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः ।।४

अनुवाद: –

 

राजा परीक्षित्ने पूछा- भगवन् ! देवराज इन्द्रने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओंकी चतुरंगिणी सेनाको खेल-खेलमें- अनायास ही जीतकर त्रिलोकीकी राजलक्ष्मीका उपभोग किया, आप उस नारायणकवचको मुझे सुनाइये और यह भी बतलाइये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमिमें किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओंपर विजय प्राप्त की ।।१-२।।

श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित् ! जब देवताओंने विश्वरूपको पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्रके प्रश्न करनेपर विश्वरूपने उन्हें नारायणकवचका उपदेश किया। तुम एकाग्रचित्तसे उसका श्रवण करो ।।३।।

विश्वरूपने कहा- देवराज इन्द्र ! भयका अवसर उपस्थित होनेपर नारायणकवच धारण करके अपने शरीरकी रक्षा कर लेनी चाहिये। उसकी विधि यह है कि पहले हाथ-पैर धोकर आचमन करे,

फिर हाथमें कुशकी पवित्री धारण करके उत्तर मुँह बैठ जाय। इसके बाद कवचधारणपर्यन्त और कुछ न बोलनेका निश्चय करके पवित्रतासे ‘ॐ नमो नारायणाय’ और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ – इन मन्त्रोंके द्वारा हृदयादि अंगन्यास तथा अंगुष्ठादि करन्यास करे।

पहले ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्रके ॐ आदि आठ अक्षरोंका क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिरमें न्यास करे। अथवा पूर्वोक्त मन्त्रके मकारसे लेकर ॐकारपर्यन्त आठ अक्षरोंका सिरसे आरम्भ करके उन्हीं आठ अंगोंमें विपरीत क्रमसे न्यास करे ।।४-६।।

संस्कृत श्लोक: –

 

नारायणमयं वर्म सन्नह्येद् भय आगते । पादयोर्जानुनोरूर्वोरुदरे हृद्यथोरसि ।।५

मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोङ्‌ङ्कारादीनि विन्यसेत् । ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा ।।६

करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया । प्रणवादियकारान्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु ।।७

न्यसेद्धृदय ओ‌ङ्कारं विकारमनु मूर्धनि । षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत् ।।८

वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु । मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः ।।९

सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत् । ॐ विष्णवे नम इति ।।१०

आत्मानं परमं ध्यायेद् ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम् । विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत् ।।११

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे । दरारिचर्मासिगदेषुचाप- पाशान् दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः ।।१२

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति- र्यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात् । स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ।।१३

 

अनुवाद: –

 

तदनन्तर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ – इस द्वादशाक्षर मन्त्रके ॐ आदि बारह अक्षरोंका दायीं तर्जनीसे बायीं तर्जनीतक दोनों हाथकी आठ अँगुलियों और दोनों अँगूठोंकी दो-दो गाँठोंमें न्यास करे ।।७।।

फिर ‘ॐ विष्णवे नमः’ इस मन्त्रके पहले अक्षर ‘ॐ’ का हृदयमें ‘वि’ का ब्रह्मरन्ध्रमें, ‘ष’ का भौंहोंके बीचमें, ‘ण’ का चोटीमें, ‘वे’ का दोनों नेत्रोंमें और ‘न’ का शरीरकी सब गाँठोंमें न्यास करे।

तदनन्तर ‘ॐ मः अस्त्राय फट्’ कहकर दिग्बन्ध करे। इस प्रकार न्यास करनेसे इस विधिको जाननेवाला पुरुष मन्त्रस्वरूप हो जाता है ।।८-१०।।

इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी ज्ञान और वैराग्यसे परिपूर्ण इष्टदेव भगवान्का ध्यान करे और अपनेको भी तद्रूप ही चिन्तन करे। तत्पश्चात् विद्या, तेज और तपःस्वरूप इस कवचका पाठ करे ।।११।।

‘भगवान् श्रीहरि गरुड़जीकी पीठपर अपने चरणकमल रखे हुए हैं। अणिमादि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं।

आठ हाथोंमें शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश (फंदा) धारण किये हुए हैं। वे ही ॐकारस्वरूप प्रभु सब प्रकारसे, सब ओरसे मेरी रक्षा करें ।।१२।।

मत्स्यमूर्ति भगवान् जलके भीतर जलजन्तुओंसे और वरुणके पाशसे मेरी रक्षा करें। मायासे ब्रह्मचारीका रूप धारण करनेवाले वामनभगवान् स्थलपर और विश्वरूप श्रीत्रिविक्रमभगवान् आकाशमें मेरी रक्षा करें ।।१३।।

संस्कृत श्लोक: –

 

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः ।विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्व्यपतंश्च गर्भाः ।।१४

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः । रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोऽव्याद् भरताग्रजोऽस्मान् ।।१५

मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादा- न्नारायणः पातु नरश्च हासात् । दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ।।१६

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा- द्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात् ।देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मा निरयादशेषात् ।।१७

अनुवाद: –

 

जिनके घोर अट्टहाससे सब दिशाएँ गूंज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियोंके गर्भ गिर गये थे, वे दैत्य-यूथपतियोंके शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानोंमें मेरी रक्षा करें ।।१४।।

अपनी दाढ़ोंपर पृथ्वीको धारण करनेवाले यज्ञमूर्ति वराहभगवान् मार्गमें, परशुरामजी पर्वतोंके शिखरोंपर और लक्ष्मणजीके सहित भरतके बड़े भाई भगवान् रामचन्द्र प्रवासके समय मेरी रक्षा करें ।।१५।।

भगवान् नारायण मारण-मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकारके प्रमादोंसे मेरी रक्षा करें। ऋषिश्रेष्ठ नर गर्वसे, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योगके विघ्नोंसे और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धनोंसे मेरी रक्षा करें ।।१६।।

परमर्षि सनत्कुमार कामदेवसे, हयग्रीवभगवान् मार्गमें चलते समय देवमूर्तियोंको नमस्कार आदि न करनेके अपराधसे, देवर्षि नारद सेवापराधोंसे और भगवान् कच्छप सब प्रकारके नरकोंसे मेरी रक्षा करें ।।१७।।

संस्कृत श्लोक: –

धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा । यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ।।१८ द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात् । कल्किः कलेः कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरुकृतावतारः ।।१९ मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः । नारायणः प्राह्न उदात्तशक्ति- र्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ।।२० देवोऽपराले मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम् । दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः ।।२१ श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः । दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ।।२२ चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम् । दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ।।२३ गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि ।कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो- भूतग्रहांश्चर्णय चूर्णयारीन् ।।२४

अनुवाद: –

 

भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्यसे, जितेन्द्रिय भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वोंसे, यज्ञभगवान् लोकापवादसे, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टोंसे और श्रीशेषजी क्रोधवश नामक सर्पोंके गणसे मेरी रक्षा करें ।। १८ ।।

भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी अज्ञानसे तथा बुद्धदेव पाखण्डियोंसे और प्रमादसे मेरी रक्षा करें। धर्मरक्षाके लिये महान् अवतार धारण करनेवाले भगवान् कल्कि पापबहुल कलिकालके दोषोंसे मेरी रक्षा करें ।।१९।।

प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ आनेपर भगवान् गोविन्द अपनी बाँसुरी लेकर, दोपहरके पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहरको भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ।। २० ।।

तीसरे पहरमें भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें। सायंकालमें ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्तके बाद हृषीकेश, अर्धरात्रिके पूर्व तथा अर्धरात्रिके समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।२१।।

रात्रिके पिछले प्रहरमें श्रीवत्सलांछन श्रीहरि, उषाकालमें खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदयसे पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओंमें कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ।। २२।।

‘सुदर्शन! आपका आकार चक्र (रथके पहिये) की तरह है। आपके किनारेका भाग प्रलयकालीन अग्निके समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान्‌की प्रेरणासे सब ओर घूमते रहते हैं। जैसे आग वायुकी सहायतासे सूखे घास-फूसको जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रु-सेनाको शीघ्र-से-शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ।। २३ ।।

कौमोदकी गदा ! आपसे छूटनेवाली चिनगारियोंका स्पर्श वज्रके समान असह्य है। आप भगवान् अजितकी प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ। इसलिये आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहोंको अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओंको चूर-चूर कर दीजिये ।।२४।।

संस्कृत श्लोक: –

 

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ- पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन् । दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेहृदयानि कम्पयन् ।।२५ त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य- मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि ।चक्षूषि चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ।।२६

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च । सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा ।।२७

सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपास्त्रकीर्तनात् । प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ।।२८ गरुडो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः । रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ।।२९ सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः । बुद्धीन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ।।३० यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत् । सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ।।३१ यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम् । भूषणायुधलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ।।३२ तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः । पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ।।३३ विदिक्षु दिक्षुर्ध्वमधः समन्ता- दन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः । प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः ।।३४

अनुवाद: –

 

शंखश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्णके फूँकनेसे भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओंका दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियोंको यहाँसे झटपट भगा दीजिये ।।२५।।

भगवान्‌की प्यारी तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है। आप भगवान्‌की प्रेरणासे मेरे शत्रुओंको छिन्न-भिन्न कर दीजिये। भगवान्‌की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं। आप पाप-दृष्टि पापात्मा शत्रुओंकी आँखें बंद कर दीजिये और उन्हें सदाके लिये अंधा बना दीजिये ।।२६।।

सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छलतारे) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु,दाढ़ोंवाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियोंसे हमें जो-जो भय हों और जो-जो हमारे मंगलके विरोधी हों- वे सभी भगवान्‌के नाम, रूप तथा आयुधोंका कीर्तन करनेसे तत्काल नष्ट हो जायँ ।। २७-२८।।

बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रोंसे जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरुड और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारणके प्रभावसे हमें सब प्रकरकी विपत्तियोंसे बचायें ।। २९।।

श्रीहरिके नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणोंको सब प्रकारकी आपत्तियोंसे बचायें ।। ३० ।।

‘जितना भी कार्य अथवा कारणरूप जगत् है, वह वास्तवमें भगवान् ही हैं’ – इस सत्यके प्रभावसे हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायँ ।। ३१ ।।

जो लोग ब्रह्म और आत्माकी एकताका अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टिमें भगवान्‌का स्वरूप समस्त विकल्पों – भेदोंसे रहित है; फिर भी वे अपनी माया-शक्तिके द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियोंको धारण करते हैं, यह बात निश्चितरूपसे सत्य है। इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा-सर्वत्र सब स्वरूपोंसे हमारी रक्षा करें ।। ३२-३३।।

जो अपने भयंकर अट्टाहाससे सब लोगेंके भयको भगा देते हैं और अपने तेजसे सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा-विदिशामें, नीचे-ऊपर, बाहर-भीतर-सब ओर हमारी रक्षा करें’ ।। ३४।।

संस्कृत श्लोक: –

 

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारायणात्मकम् । विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ।। ३५एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा । पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ।।३६

न कुतश्चिद् भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत् । राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ।।३७इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः । योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरुधन्वनि ।।३८

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा । ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः ।।३९गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक्शिराः । स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः । प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ।।४०

श्रीशुक उवाच

य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः । तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ।।४१एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः । त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान् ।।४२

अनुवाद: –

 

देवराज इन्द्र ! मैंने तुम्हें यह नारायणकवच सुना दिया। इस कवचसे तुम अपनेको सुरक्षित कर लो। बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य-यूथपतियोंको जीत लोगे ।। ३५।।

इस नारायणकवचको धारण करनेवाला पुरुष जिसको भी अपने नेत्रोंसे देख लेता अथवा पैरसे छू देता है, वह तत्काल समस्त भयोंसे मुक्त हो जाता है ।। ३६ ।।

जो इस वैष्णवी विद्याको धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत-पिशाचादि और बाघ आदि हिंसक जीवोंसे कभी किसी प्रकारका भय नहीं होता ।। ३७।।

देवराज ! प्राचीन कालकी बात है, एक कौशिकगोत्री ब्राह्मणने इस विद्याको धारण करके योगधारणासे अपना शरीर मरुभूमिमें त्याग दिया ।। ३८।।

जहाँ उस ब्राह्मणका शरीर पड़ा था, उसके ऊपरसे एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियोंके साथ विमानपर बैठकर निकले ।। ३९।।

वहाँ आते ही वे नीचेकी ओर सिर किये विमानसहित आकाशसे पृथ्वीपर गिर पड़े। इस घटनासे उनके आश्चर्यकी सीमा न रही।

जब उन्हें वालखिल्य मुनियोंने बतलाया कि यह नारायणकवच धारण करनेका प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देवताकी हड्डियोंको ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदीमें प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोकको गये ।।४०।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! जो पुरुष इस नारायणकवचको समयपर सुनता है और जो आदरपूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदरसे झुक जाते हैं और वह सब प्रकारके भयोंसे मुक्त हो जाता है ।।४१।।

परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्रने आचार्य विश्वरूपजीसे यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमिमें असुरोंको जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मीका उपभोग करने लगे ।।४२।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नारायणवर्मकथनं नामाष्टमोऽध्यायः ।।८।।

* बत्तीस प्रकारके सेवापराध माने गये हैं-१-सवारीपर चढ़कर अथवा पैरोंमें खड़ाऊँ पहनकर श्रीभगवान्के मन्दिरमें जाना। २-रथयात्रा, जन्माष्टमी आदि उत्सवोंका न करना या उनके दर्शन न करना। ३-श्रीमूर्तिके दर्शन करके प्रणाम न करना। ४-अशुचि-अवस्थामें दर्शन करना। ५-एक हाथसे प्रणाम करना। ६-परिक्रमा करते समय भगवान्‌के सामने आकर कुछ न रुककर फिर परिक्रमा करना अथवा केवल सामने ही परिक्रमा करते रहना। ७- श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने पैर पसारकर बैठना। ८- श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने दोनों घुटनोंको ऊँचा करके उनको हाथोंसे लपेटकर बैठ जाना। ९-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने सोना। १०-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने भोजन करना। ११-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने झूठ बोलना। १२-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने जोरसे बोलना। १३- श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने आपसमें बातचीत करना। १४-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने चिल्लाना। १५-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने कलह करना। १६-श्रीभगवान्के श्रीविग्रहके सामने किसीको पीड़ा देना। १७-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने किसीपर अनुग्रह करना। १८-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने किसीको निष्ठुर वचन बोलना। १९-

श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने कम्बलसे सारा शरीर ढक लेना। २०-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने दूसरेकी निन्दा करना। २१-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने दूसरेकी स्तुति करना। २२-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने अश्लील शब्द बोलना। २३-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने अधोवायुका त्याग करना। २४-शक्ति रहते हुए भी गौण अर्थात् सामान्य उपचारोंसे भगवान्‌की सेवा-पूजा करना। २५-श्रीभगवान्‌को निवेदित किये बिना किसी भी वस्तुका खाना-पीना। २६-जिस ऋतुमें जो फल हो, उसे सबसे पहले श्रीभगवान्‌को न चढ़ाना। २७-किसी शाक या फलादिके अगले भागको तोड़कर भगवान्‌के व्यंजनादिके लिये देना। २८-श्रीभगवान्के श्रीविग्रहको पीठ देकर बैठना। २९-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने दूसरे किसीको भी प्रणाम करना। ३०-गुरुदेवकी अभ्यर्थना, कुशल-प्रश्न और उनका स्तवन न करना और ३१-अपने मुखसे अपनी प्रशंसा करना। ३२-किसी भी देवताकी निन्दा करना।

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