Bhagwat puran skandh 6 chapter 5( भागवत पुराण षष्ठः स्कन्ध:पञ्चमोऽध्यायः श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा नारदजीको दक्षका शाप)

Bhagwat puran skandh 6 chapter 5( भागवत पुराण षष्ठः स्कन्ध:पञ्चमोऽध्यायः श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा नारदजीको दक्षका शाप)

संस्कृत श्लोक: –

श्रीशुक उवाच

तस्यां स पाञ्चजन्यां वै विष्णुमायोपबृंहितः । हर्यश्वसंज्ञानयुतं पुत्रानजनयद् विभुः ।।१

अपृथग्धर्मशीलास्ते सर्वे दाक्षायणा नृप । पित्रा प्रोक्ताः प्रजासर्गे प्रतीचीं प्रययुर्दिशम् ।।२

तत्र नारायणसरस्तीर्थं सिन्धुसमुद्रयोः । सङ्गमो यत्र सुमहन्मुनिसिद्धनिषेवितम् ।।३

तदुपस्पर्शनादेव विनिर्धूतमलाशयाः । धर्मे पारमहंस्ये च प्रोत्पन्नमतयोऽप्युत ।।४

तेपिरे तप एवोग्रं पित्रादेशेन यन्त्रिताः । प्रजाविवृद्धये यत्तान् देवर्षिस्तान् ददर्श ह ।।५

उवाच चाथ हर्यश्वाः कथं स्रक्ष्यथ वै प्रजाः । अदृष्ट्वान्तं भुवो यूयं बालिशा बत पालकाः ।।६

तथैकपुरुषं राष्ट्र बिलं चादृष्टनिर्गमम् । बहुरूपां स्त्रियं चापि पुमांसं पुंश्चलीपतिम् ।।७

अनुवाद:-

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! भगवान्‌के शक्तिसंचारसे दक्ष प्रजापति परम समर्थ हो गये थे। उन्होंने पंचजनकी पुत्री असिक्नीसे हर्यश्व नामके दस हजार पुत्र उत्पन्न किये ।।१।।

राजन् ! दक्षके ये सभी पुत्र एक आचरण और एक स्वभावके थे। जब उनके पिता दक्षने उन्हें सन्तान उत्पन्न करनेकी आज्ञा दी, तब वे तपस्या करनेके विचारसे पश्चिम दिशाकी ओर गये ।।२।।

पश्चिम दिशामें सिन्धुनदी और समुद्रके संगमपर नारायण-सर नामका एक महान्ती र्थ है। बड़े-बड़े मुनि और सिद्ध पुरुष वहाँ निवास करते हैं ।।३।।

नारायण-सर में स्नान करते ही हर्यश्वोंके अन्तःकरण शुद्ध हो गये, उनकी बुद्धि भागवतधर्ममें लग गयी। फिर भी अपने पिता दक्षकी आज्ञासे बँधे होनेके कारण वे उग्र तपस्या ही करते रहे। जब देवर्षि नारदने देखा कि भागवतधर्ममें रुचि होनेपर भी ये प्रजावृद्धिके लिये ही तत्पर हैं, तब उन्होंने उनके पास आकर कहा- ‘अरे हर्यश्वो !

तुम प्रजापति हो तो क्या हुआ। वास्तवमें तो तुमलोग मूर्ख ही हो। बतलाओ तो, जब तुमलोगोंने पृथ्वीका अन्त ही नहीं देखा, तब सृष्टि कैसे करोगे? बड़े खेदकी बात है! ।।४-६।।

देखो-एक ऐसा देश है, जिसमें एक ही पुरुष है। एक ऐसा बिल है, जिससे बाहर निकलनेका रास्ता ही नहीं है। एक ऐसी स्त्री है, जो बहुरूपिणी है।

एक ऐसा पुरुष है, जो व्यभिचारिणीका पति है। एक ऐसी नदी है, जो आगे-पीछे दोनों ओर बहती है। एक ऐसा विचित्र घर है, जो पचीस पदार्थोंसे बना है। एक ऐसा हंस है, जिसकी कहानी बड़ी विचित्र है। एक ऐसा चक्र है, जो छुरे एवं वज्रसे बना हुआ है और अपने-आप घूमता रहता है।

मूर्ख हर्यश्वो! जबतक तुमलोग अपने सर्वज्ञ पिताके उचित आदेशको समझ नहीं लोगे और इन उपर्युक्त वस्तुओंको देख नहीं लोगे, तबतक उनके आज्ञानुसार सृष्टि कैसे कर सकोगे?’ ।।७-९।।

संस्कृत श्लोक: –

 

नदीमुभयतोवाहां पञ्चपञ्चाद्भुतं गृहम् । क्वचिद्वंसं चित्रकथं क्षौरपव्यं स्वयं भ्रमिम् ।।८

कथं स्वपितुरादेशमविद्वांसो विपश्चितः । अनुरूपमविज्ञाय अहो सर्गं करिष्यथ ।।९

श्रीशुक उवाच

तन्निशम्याथ हर्यश्वा औत्पत्तिकमनीषया ।

वाचःकूटं तु देवर्षेः स्वयं विममृशुर्धिया ।।१०

भूः क्षेत्रं जीवसंज्ञं यदनादि निजबन्धनम् ।

अदृष्ट्वा तस्य निर्वाणं किमसत्कर्मभिर्भवेत् ।।११

एक एवेश्वरस्तुर्यो भगवान् स्वाश्रयः परः । तमदृष्ट्वाभवं पुंसः किमसत्कर्मभिर्भवेत् ।।१२

पुमान् नैवैति यद् गत्वा बिलस्वर्गं गतो यथा । प्रत्यग्धामाविद इह किमसत्कर्मभिर्भवेत् ।।१३

नानारूपाऽऽत्मनो बुद्धिः स्वैरिणीव गुणान्विता । तन्निष्ठामगतस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत् ।।१४

अनुवाद:-

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! हर्यश्व जन्मसे ही बड़े बुद्धिमान् थे। वे देवर्षि नारदकी यह पहेली, ये गूढ़ वचन सुनकर अपनी बुद्धिसे स्वयं ही विचार करने लगे – ।।१०।।

‘(देवर्षि नारदका कहना तो सच है) यह लिंगशरीर ही जिसे साधारणतः जीव कहते हैं, पृथ्वी है और यही आत्माका अनादि बन्धन है। इसका अन्त (विनाश) देखे बिना मोक्षके अनुपयोगी कर्मोंमें लगे रहनेसे क्या लाभ है? ।।११।।

सचमुच ईश्वर एक ही है। वह जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं और उनके अभिमानियोंसे भिन्न, उनका साक्षी तुरीय है। वही सबका आश्रय है, परन्तु उसका आश्रय कोई नहीं है। वही भगवान् हैं। उस प्रकृति आदिसे अतीत, नित्यमुक्त परमात्माको देखे बिना भगवान्के प्रति असमर्पित कर्मोंसे जीवको क्या लाभ है? ।।१२।।

जैसे मनुष्य बिलरूप पातालमें प्रवेश करके वहाँसे नहीं लौट पाता- वैसे ही जीव जिसको प्राप्त होकर फिर संसारमें नहीं लौटता, जो स्वयं अन्तर्योतिः स्वरूप है, उस परमात्माको जाने बिना विनाशवान् स्वर्ग आदि फल देनेवाले कर्मोंको करनेसे क्या लाभ है? ।।१३।।

यह अपनी बुद्धि ही बहुरूपिणी और सत्त्व, रज आदि गुणोंको धारण करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्रीके समान है। इस जीवनमें इसका अन्त जाने बिना – विवेक प्राप्त किये बिना अशान्तिको अधिकाधिक बढ़ानेवाले कर्म करनेका प्रयोजन ही क्या है? ।।१४।।

यह बुद्धि ही कुलटा स्त्रीके समान है। इसके संगसे जीवरूप पुरुषका ऐश्वर्य- इसकी स्वतन्त्रता नष्ट हो गयी है। इसीके पीछे-पीछे वह कुलटा स्त्रीके पतिकी भाँति न जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा है। इसकी विभिन्न गतियों, चालोंको जाने बिना ही विवेकरहित कर्मोंसे क्या सिद्धि मिलेगी? ।।१५।।

संस्कृत श्लोक: –

 

तत्सङ्गभ्रंशितैश्वर्यं संसरन्तं कुभार्यवत् । तद्गतीरबुधस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत् ।।१५सृष्ट्यप्ययकरीं मायां वेलाकूलान्तवेगिताम् । मत्तस्य तामविज्ञस्य किमसत्कर्मभिर्भवेत् ।।१६

पञ्चविंशतितत्त्वानां पुरुषोऽद्भुतदर्पणम् । अध्यात्ममबुधस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत् ।।१७ऐश्वरं शास्त्रमुत्सृज्य बन्धमोक्षानुदर्शनम् । विविक्तपदमज्ञाय किमसत्कर्मभिर्भवेत् ।।१८कालचक्रं भ्रमिस्तीक्ष्णं सर्वं निष्कर्षयज्जगत् । स्वतन्त्रमबुधस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत् ।।१९

अनुवाद:-

 

माया ही दोनों ओर बहनेवाली नदी है। यह सृष्टि भी करती है और प्रलय भी। जो लोग इससे निकलनेके लिये तपस्या, विद्या आदि तटका सहारा लेने लगते हैं,

उन्हें रोकनेके लिये क्रोध, अहंकार आदिके रूपमें वह और भी वेगसे बहने लगती है। जो पुरुष उसके वेगसे विवश एवं अनभिज्ञ है, वह मायिक कर्मोंसे क्या लाभ उठावेगा? ।।१६।।

ये पचीस तत्त्व ही एक अद्भुत घर है। पुरुष उनका आश्चर्यमय आश्रय है। वही समस्त कार्य-कारणात्मक जगत्‌का अधिष्ठाता है। यह बात न जानकर सच्चा स्वातन्त्र्य प्राप्त किये बिना झूठी स्वतन्त्रतासे किये जानेवाले कर्म व्यर्थ ही हैं ।।१७।।

भगवान्का स्वरूप बतलानेवाला शास्त्र हंसके समान नीर-क्षीर-विवेकी है। वह बन्ध- मोक्ष, चेतन और जडको अलग-अलग करके दिखा देता है। ऐसे अध्यात्मशास्त्ररूप हंसका आश्रय छोड़कर उसे जाने बिना बहिर्मुख बनानेवाले कर्मोंसे लाभ ही क्या है? ।।१८।।

यह काल ही एक चक्र है। यह निरन्तर घूमता रहता है। इसकी धार छुरे और वज्रके समान तीखी है और यह सारे जगत्‌को अपनी ओर खींच रहा है। इसको रोकनेवाला कोई नहीं, यह परम स्वतन्त्र है।

यह बात न जानकर कर्मोंके फलको नित्य समझकर जो लोग सकामभावसे उनका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उन अनित्य कर्मोंसे क्या लाभ होगा? ।।१९।।

संस्कृत श्लोक: –

 

शास्त्रस्य पितुरादेशं यो न वेद निवर्तकम् । कथं तदनुरूपाय गुणविश्रम्भ्युपक्रमेत् ।।२०इति व्यवसिता राजन् हर्यश्वा एकचेतसः । प्रययुस्तं परिक्रम्य पन्थानमनिवर्तनम् ।।२१

स्वरब्रह्मणि निर्भातहृषीकेशपदाम्बुजे । अखण्डं चित्तमावेश्य लोकाननुचरन्मुनिः ।।२२नाशं निशम्य पुत्राणां नारदाच्छीलशालिनाम् । अन्वतप्यत कः शोचन् सुप्रजस्त्वं शुचां पदम् ।। २३

स’ भूयः पाञ्चजन्यायामजेन परिसान्त्वितः । पुत्रानजनयद् दक्षः शबलाश्वान् सहस्रशः ।।२४तेऽपि पित्रा समादिष्टाः प्रजासर्गे धृतव्रताः ।नारायणसरो जग्मुर्यत्र सिद्धाः स्वपूर्वजाः ।।२५

तदुपस्पर्शनादेव विनिर्धूतमलाशयाः । जपन्तो ब्रह्म परमं तेपुस्तेऽत्र महत् तपः ।।२६अब्भक्षाः कतिचिन्मासान् कतिचिद्वायुभोजनाः । आराधयन् मन्त्रमिममभ्यस्यन्त इडस्पतिम् ।। २७ॐ नमो नारायणाय पुरुषाय महात्मने । विशुद्धसत्त्वधिष्ण्याय महाहंसाय धीमहि ।।२८

अनुवाद:-

 

शास्त्र ही पिता है; क्योंकि दूसरा जन्म शास्त्रके द्वारा ही होता है और उसका आदेश

कर्मोंमें लगना नहीं, उनसे निवृत्त होना है। इसे जो नहीं जानता, वह गुणमय शब्द आदि

विषयोंपर विश्वास कर लेता है। अब वह कर्मोंसे निवृत्त होनेकी आज्ञाका पालन भला कैसे कर सकता है?’ ।।२०।।

परीक्षित् ! हर्यश्वोंने एक मतसे यही निश्चय किया और नारदजीकी परिक्रमा करके वे उस मोक्षपथके पथिक बन गये, जिसपर चलकर फिर लौटना नहीं पड़ता ।।२१।।

इसके बाद देवर्षि नारद स्वरब्रह्ममे – संगीतलहरीमें अभिव्यक्त हुए, भगवान्श्री कृष्णचन्द्रके चरणकमलोंमें अपने चित्तको अखण्डरूपसे स्थिर करके लोक-लोकान्तरोंमें विचरने लगे ।। २२ ।।

परीक्षित्! जब दक्षप्रजापतिको मालूम हुआ कि मेरे शीलवान् पुत्र नारदके उपदेशसे कर्तव्यच्युत हो गये हैं, तब वे शोकसे व्याकुल हो गये। उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ। सचमुच अच्छी सन्तानका होना भी शोकका ही कारण है ।।२३।।

ब्रह्माजीने दक्षप्रजापतिको बड़ी सान्त्वना दी। तब उन्होंने पंचजन-नन्दिनी असिक्नीके गर्भसे एक हजार पुत्र और उत्पन्न किये। उनका नाम था शबलाश्व ।। २४।।

वे भी अपने पिता दक्षप्रजापतिकी आज्ञा पाकर प्रजासृष्टिके उद्देश्यसे तप करनेके लिये उसी नारायणसरोवरपर गये, जहाँ जाकर उनके बड़े भाइयोंने सिद्धि प्राप्त की थी ।।२५।।

शबलाश्वोंने वहाँ जाकर उस सरोवरमें स्नान किया। स्नानमात्रसे ही उनके अन्तःकरणके सारे मल धुल गये। अब वे परब्रह्मस्वरूप प्रणवका जप करते हुए महान् तपस्यामें लग गये ।। २६ ।।

कुछ महीनोंतक केवल जल और कुछ महीनोंतक केवल हवा पीकर ही उन्होंने ‘हम नमस्कारपूर्वक ओंकारस्वरूप भगवान् नारायणका ध्यान करते हैं, जो विशुद्धचित्तमें निवास करते हैं सबके अन्तर्यामी हैं तथा सर्वव्यापक एवं परमहंसस्वरूप हैं।’ – इस मन्त्रका अभ्यास करते हुए मन्त्राधिपति भगवान्‌की आराधना की ।।२७-२८।।

संस्कृत श्लोक: –

 

इति तानपि राजेन्द्र प्रतिसर्गधियो मुनिः । उपेत्य नारदः प्राह वाचः कूटानि पूर्ववत् ।।२९

दाक्षायणाः संशृणुत गदतो निगमं मम । अन्विच्छतानुपदवीं भ्रातॄणां भ्रातृवत्सलाः ।।३०

भ्रातृणां प्रायणं भ्राता योऽनुतिष्ठति धर्मवित् । स पुण्यबन्धुः पुरुषो मरुद्भिः सह मोदते ।। ३१

एतावदुक्त्वा प्रययौ नारदोऽमोघदर्शनः । तेऽपि चान्वगमन्मार्ग भ्रातृणामेव मारिष ।।३२

सध्रीचीनं प्रतीचीनं परस्यानुपथं गताः । नाद्यापि ते निवर्तन्ते पश्चिमा यामिनीरिव ।।३३

एतस्मिन् काल उत्पातान् बहून् पश्यन् प्रजापतिः । पूर्ववन्नारदकृतं पुत्रनाशमुपाशृणोत् ।।३४

चुक्रोध नारदायासौ पुत्रशोकविमूर्च्छितः । देवर्षिमुपलभ्याह रोषाद्विस्फुरिताधरः ।।३५

दक्ष उवाच

अहो असाधो साधूनां साधुलिङ्गेन नस्त्वया । असाध्वकार्यर्भकाणां भिक्षोर्मार्गः प्रदर्शितः ।।३६

ऋणैस्त्रिभिरमुक्तानाममीमांसितकर्मणाम् । विघातः श्रेयसः पाप लोकयोरुभयोः कृतः ।।३७

अनुवाद:-

 

परीक्षित् ! इस प्रकार दक्षके पुत्र शबलाश्व प्रजासृष्टिके लिये तपस्यामें संलग्न थे। उनके पास भी देवर्षि नारद आये और उन्होंने पहलेके समान ही कूट वचन कहे ।। २९।।

उन्होंने कहा- ‘दक्षप्रजापतिके पुत्रो ! मैं तुमलोगोंको जो उपदेश देता हूँ, उसे सुनो। तुमलोग तो अपने भाइयोंसे बड़ा प्रेम करते हो। इसलिये उनके मार्गका अनुसन्धान करो ।। ३० ।।

जो धर्मज्ञ भाई अपने बड़े भाइयोंके श्रेष्ठ मार्गका अनुसरण करता है, वही सच्चा भाई है! वह पुण्यवान् पुरुष परलोकमें मरुद्गणोंके साथ आनन्द भोगता है ।। ३१।।

परीक्षित् ! शबलाश्वोंको इस प्रकार उपदेश देकर देवर्षि नारद वहाँसे चले गये और उन लोगोंने भी अपने भाइयोंके मार्गका ही अनुगमन किया; क्योंकि नारदजीका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता ।।३२।।

वे उस पथके पथिक बने, जो अन्तर्मुखी वृत्तिसे प्राप्त होनेयोग्य, अत्यन्त सुन्दर और भगवत्प्राप्तिके अनुकूल है। वे बीती हुई रात्रियोंके समान न तो उस मार्गसे अबतक लौटे हैं और न आगे लौटेंगे ही ।। ३३ ।।

दक्षप्रजापतिने देखा कि आजकल बहुत-से अशकुन हो रहे हैं। उनके चित्तमें पुत्रोंके अनिष्टकी आशंका हो आयी। इतनेमें ही उन्हें मालूम हुआ कि पहलेकी भाँति अबकी बार भी नारदजीने मेरे पुत्रोंको चौपट कर दिया ।। ३४।।

उन्हें अपने पुत्रोंकी कर्तव्यच्युतिसे बड़ा शोक हुआ और वे नारदजीपर बड़े क्रोधित हुए। उनके मिलनेपर क्रोधके मारे दक्षप्रजापतिके होठ फड़कने लगे और वे आवेशमें भरकर नारदजीसे बोले ।। ३५।।

दक्षप्रजापतिने कहा-ओ दुष्ट ! तुमने झूठमूठ साधुओंका बाना पहन रखा है। हमारे भोले-भाले बालकोंको भिक्षुकोंका मार्ग दिखाकर तुमने हमारा बड़ा अपकार किया है ।। ३६।।

अभी उन्होंने ब्रह्मचर्यसे ऋषि-ऋण, यज्ञसे देव-ऋण और पुत्रोत्पत्तिसे पितृ ऋण नहीं उतारा था। उन्हें अभी कर्मफलकी नश्वरताके सम्बन्धमें भी कुछ विचार नहीं था। परन्तु पापात्मन् ! तुमने उनके दोनों लोकोंका सुख चौपट कर दिया ।। ३७।।

संस्कृत श्लोक: –

 

एवं त्वं निरनुक्रोशो बालानां मतिभिद्धरेः । पार्षदमध्ये चरसि यशोहा निरपत्रपः ।।३८

ननु भागवता नित्यं भूतानुग्रहकातराः । ऋते त्वां सौहृदघ्नं वै वैरङ्करमवैरिणाम् ।।३९

नेत्थं पुंसां विरागः स्यात् त्त्वया केवलिना मृषा । मन्यसे यद्युपशमं स्नेहपाशनिकृन्तनम् ।।४०

नानुभूय न जानाति पुमान् विषयतीक्ष्णताम् । निर्विद्येत स्वयं तस्मान्न तथा भिन्नधीः परैः ।।४१

यन्नस्त्वं कर्मसन्धानां साधूनां गृहमेधिनाम् । कृतवानसि दुर्मर्ष विप्रियं तव मर्षितम् ।।४२

तन्तुकृन्तन यन्नस्त्वमभद्रमचरः पुनः । तस्माल्लोकेषु ते मूढ न भवेद् भ्रमतः पदम् ।।४३

श्रीशुक उवाच

प्रतिजग्राह तद्वाढं नारदः साधुसम्मतः । एतावान् साधुवादो हि तितिक्षेतेश्वरः स्वयम् ।।४४

अनुवाद:-

 

सचमुच तुम्हारे हृदयमें दयाका नाम भी नहीं है। तुम इस प्रकार बच्चोंकी बुद्धि बिगाड़ते फिरते हो। तुमने भगवान्‌के पार्षदोंमें रहकर उनकी कीर्तिमें कलंक ही लगाया। सचमुच तुम बड़े निर्लज्ज हो ।। ३८।।

मैं जानता हूँ कि भगवान्‌के पार्षद सदा-सर्वदा दुःखी प्राणियोंपर दया करनेके लिये व्यग्र रहते हैं। परन्तु तुम प्रेमभावका विनाश करनेवाले हो। तुम उन लोगोंसे भी वैर करते हो, जो किसीसे वैर नहीं करते ।। ३९।।

यदि तुम ऐसा समझते हो कि वैराग्यसे ही स्नेहपाश – विषयासक्तिका बन्धन कट सकता है, तो तुम्हारा यह विचार ठीक नहीं है; क्योंकि तुम्हारे जैसे झूठमूठ वैराग्यका स्वाँग भरनेवालोंसे किसीको वैराग्य नहीं हो सकता ।।४०।।

नारद ! मनुष्य विषयोंका अनुभव किये बिना उनकी कटुता नहीं जान सकता। इसलिये उनकी दुःखरूपताका अनुभव होनेपर स्वयं जैसा वैराग्य होता है, वैसा दूसरोंके बहकानेसे नहीं होता ।।४१।।

हमलोग सद्गृहस्थ हैं, अपनी धर्ममर्यादाका पालन करते हैं। एक बार पहले भी तुमने हमारा असह्य अपकार किया था। तब हमने उसे सह लिया ।।४२।।

तुम तो हमारी वंशपरम्पराका उच्छेद करनेपर ही उतारू हो रहे हो। तुमने फिर हमारे साथ वही दुष्टताका व्यवहार किया। इसलिये मूढ़! जाओ, लोक-लोकान्तरोंमें भटकते रहो। कहीं भी तुम्हारे लिये ठहरनेको ठौर नहीं होगी ।।४३।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! संतशिरोमणि देवर्षि नारदने ‘बहुत अच्छा’ कहकर दक्षका शाप स्वीकार कर लिया। संसारमें बस, साधुता इसीका नाम है कि बदला लेनेकी शक्ति रहनेपर भी दूसरेको किया हुआ अपकार सह लिया जाय ।।४४।।

इति श्रीम‌द्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नारदशापो नाम पञ्चमोऽध्यायः ।।५।।

१. प्रा० पा०- तद्वाचः कूटं देवर्षेः। २. प्रा० पा०- किं नु स्यात्कर्म०। ३. प्रा० पा०- बिलं सर्ग।

१. प्रा० पा० – तदविज्ञस्य। २. प्रा० पा० – दर्शनम्। ३. प्रा० पा०- रूपम०। १. प्रा० पा०- ततः स पाञ्च०।

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