Bhagwat puran skandh 6 chapter 4(भागवत पुराण षष्ठः स्कन्ध:चतुर्थोऽध्यायः दक्षके द्वारा भगवान्की स्तुति और भगवान्का प्रादुर्भाव)
संस्कृत श्लोक:-
राजोवाच
देवासुरनृणां सर्गो नागानां मृगपक्षिणाम् । सामासिकस्त्वया प्रोक्तो यस्तु स्वायम्भुवेऽन्तरे ।।१
तस्यैव व्यासमिच्छामि ज्ञातुं ते भगवन् यथा । अनुसर्गं यया शक्त्या ससर्ज भगवान् परः ।।२
सूत उवाच
इति सम्प्रश्नमाकर्ण्य राजर्षेर्बादरायणिः । प्रतिनन्द्य महायोगी जगाद मुनिसत्तमाः ।।३
श्रीशुक उवाच
यदा प्रचेतसः पुत्रा दश प्राचीनबर्हिषः । अन्तः समुद्रादुन्मग्ना ददृशुर्गा द्रुमैर्वृताम् ।।४द्रुमेभ्यः क्रुध्यमानास्ते तपोदीपितमन्यवः । मुखतो वायुमग्निं च ससृजुस्तद्दिधक्षया ।।५ताभ्यां निर्दह्यमानांस्तानुपलभ्य कुरूद्वह । राजोवाच महान् सोमो मन्युं प्रशमयन्निव ।।६
मा द्रुमेभ्यो महाभागा दीनेभ्यो द्रोग्धुमर्हथ । विवर्धयिषवो यूयं प्रजानां पतयः स्मृताः ।।७अहो प्रजापतिपतिर्भगवान् हरिरव्ययः । वनस्पतीनोषधीश्च ससर्जोर्जमिषं विभुः ।।८
राजा परीक्षित्ने पूछा- भगवन् ! आपने संक्षेपसे (तीसरे स्कन्धमें) इस बातका वर्णन किया कि स्वायम्भुव मन्वन्तरमें देवता, असुर, मनुष्य, सर्प और पशु-पक्षी आदिकी सृष्टि कैसे हुई ।।१।।
अब मैं उसीका विस्तार जानना चाहता हूँ। प्रकृति आदि कारणोंके भी परम कारण भगवान् अपनी जिस शक्तिसे जिस प्रकार उसके बादकी सृष्टि करते हैं, उसे जाननेकी भी मेरी इच्छा है ।।२।।
सूतजी कहते हैं- शौनकादि ऋषियो ! परम योगी व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजीने राजर्षि परीक्षित्का यह सुन्दर प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन किया और इस प्रकार कहा ।।३।।
श्रीशुकदेवजीने कहा- राजा प्राचीनबर्हिके दस लड़के- जिनका नाम प्रचेता था-जब समुद्रसे बाहर निकले, तब उन्होंने देखा कि हमारे पिताके निवृत्तिपरायण हो जानेसे सारी पृथ्वी पेड़ोंसे घिर गयी है ।।४।।
उन्हें वृक्षोंपर बड़ा क्रोध आया। उनके तपोबलने तो मानो क्रोधकी आगमें आहुति ही डाल दी। बस, उन्होंने वृक्षोंको जला डालनेके लिये अपने मुखसे वायु और अग्निकी सृष्टि की ।।५।।
परीक्षित्! जब प्रचेताओंकी छोड़ी हुई अग्नि और वायु उन वृक्षोंको जलाने लगी, तब वृक्षोंके राजाधिराज चन्द्रमाने उनका क्रोध शान्त करते हुए इस प्रकार कहा ।।६।।
‘महाभाग्यवान् प्रचेताओ! ये वृक्ष बड़े दीन हैं। आपलोग इनसे द्रोह मत कीजिये; क्योंकि आप तो प्रजाकी अभिवृद्धि करना चाहते हैं और सभी जानते हैं कि आप प्रजापति हैं ।।७।।
महात्मा प्रचेताओ ! प्रजापतियोंके अधिपति अविनाशी भगवान् श्रीहरिने सम्पूर्ण वनस्पतियों और ओषधियोंको प्रजाके हितार्थ उनके खान-पानके लिये बनाया है ।।८।।
संस्कृत श्लोक:-
अन्नं चराणामचरा ह्यपदः पादचारिणाम् । अहस्ता हस्तयुक्तानां द्विपदां च चतुष्पदः ।।९
यूयं च पित्रान्वादिष्टा देवदेवेन चानघाः । प्रजासर्गाय हि कथं वृक्षान् निर्दग्धुमर्हथ ।।१०
आतिष्ठत सतां मार्ग कोपं यच्छत दीपितम् ।
पित्रा पितामहेनापि जुष्टं वः प्रपितामहैः ।।११
तोकानां पितरौ बन्धू दृशः पक्ष्म स्त्रियाः पतिः । पतिः प्रजानां भिक्षूणां गृह्यज्ञानां बुधः सुहृत् ।।१२
अन्तर्देहेषु भूतानामात्माऽऽस्ते हरिरीश्वरः । सर्वं तद्धिष्ण्यमीक्षध्वमेवं वस्तोषितो ह्यसौ ।।१३
यः समुत्पतितं देह आकाशान्मन्युमुल्बणम् । आत्मजिज्ञासया यच्छेत् स गुणानतिवर्तते ।।१४
अलं दग्धैर्दुमैर्दीनैः खिलानां शिवमस्तु वः । वार्धी ह्येषा वरा कन्या पत्नीत्वे प्रतिगृह्यताम् ।।१५
इत्यामन्त्र्य वरारोहां कन्यामाप्सरसीं नृप । सोमो राजा ययौ दत्त्वा ते धर्मेणोपयेमिरे ।।१६
संसारमें पाँखोंसे उड़नेवाले चर प्राणियोंके भोजन फल-पुष्पादि अचर पदार्थ हैं। पैरसे चलनेवालोंके घास-तृणादि बिना पैरवाले पदार्थ भोजन हैं;
हाथवालोंके वृक्ष-लता आदि बिना हाथवाले और दो पैरवाले मनुष्यादिके लिये धान, गेहूँ आदि अन्न भोजन हैं। चार पैरवाले बैल, ऊँट आदि खेती प्रभृतिके द्वारा अन्नकी उत्पत्तिमें सहायक हैं ।।९।।
निष्पाप प्रचेताओ ! आपके पिता और देवाधिदेव भगवान्ने आपलोगोंको यह आदेश दिया है कि प्रजाकी सृष्टि करो। ऐसी स्थितिमें आप वृक्षोंको जला डालें, यह कैसे उचित हो सकता है ।।१०।।
आपलोग अपना क्रोध शान्त करें और अपने पिता, पितामह, प्रपितामह आदिके द्वारा सेवित सत्पुरुषोंके मार्गका अनुसरण करें ।।११।।
जैसे माँ-बाप बालकोंकी, पलकें नेत्रोंकी, पति पत्नीकी, गृहस्थ भिक्षुकोंकी और ज्ञानी अज्ञानियोंकी रक्षा करते हैं और उनका हित चाहते हैं – वैसे ही प्रजाकी रक्षा और हितका उत्तरदायी राजा होता है ।।१२।।
प्रचेताओ ! समस्त प्राणियोंके हृदयमें सर्वशक्तिमान् भगवान् आत्माके रूपमें विराजमान हैं। इसलिये आपलोग सभीको भगवान्का निवासस्थान समझें। यदि आप ऐसा करेंगे तो भगवान्को प्रसन्न कर लेंगे ।।१३।।
जो पुरुष हृदयके उबलते हुए भयंकर क्रोधको आत्मविचारके द्वारा शरीरमें ही शान्त कर लेता है, बाहर नहीं निकलने देता, वह कालक्रमसे तीनों गुणोंपर विजय प्राप्त कर लेता है ।।१४।।
प्रचेताओ ! इन दीन-हीन वृक्षोंको और न जलाइये; जो कुछ बच रहे हैं, उनकी रक्षा कीजिये। इससे आपका भी कल्याण होगा। इस श्रेष्ठ कन्याका पालन इन वृक्षोंने ही किया है, इसे आपलोग पत्नीके रूपमें स्वीकार कीजिये’ ।।१५।।
परीक्षित् ! वनस्पतियोंके राजा चन्द्रमाने प्रचेताओंको इस प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें प्रम्लोचा अप्सराकी सुन्दरी कन्या दे दी और वे वहाँसे चले गये। प्रचेताओंने धर्मानुसार उसका पाणिग्रहण किया ।।१६।।
संस्कृत श्लोक:-
तेभ्यस्तस्यां समभवद्दक्षः प्राचेतसः किल । यस्य प्रजाविसर्गेण लोका आपूरितास्त्रयः ।।१७यथा ससर्ज भूतानि दक्षो दुहितृवत्सलः । रेतसा मनसा चैव तन्ममावहितः शृणु ।।१८
मनसैवासृजत्पूर्वं प्रजापतिरिमाः प्रजाः । देवासुरमनुष्यादीन्नभः स्थलजलौकसः ।।१९
तमबृंहितमालोक्य प्रजासर्गं प्रजापतिः । विन्ध्यपादानुपव्रज्य सोऽचरद् दुष्करं तपः ।।२०
तत्राघमर्षणं नाम तीर्थं पापहरं परम् । उपस्पृश्यानुसवनं तपसातोषयद्धरिम् ।।२१अस्तौषीद्धंसगुह्येन भगवन्तमधोक्षजम् । तुभ्यं तदभिधास्यामि कस्यातुष्यद् यतो हरिः ।।२२
प्रजापतिरुवाच
नमः परायावितथानुभूतये गुणत्रयाभासनिमित्तबन्धवे । अदृष्टधाम्ने गुणतत्त्वबुद्धिभि- र्निवृत्तमानाय दधे स्वयम्भुवे ।।२३
न यस्य सख्यं पुरुषोऽवैति सख्युः सखा वसन् संवसतः पुरेऽस्मिन् । गुणो यथा गुणिनो व्यक्तदृष्टे- स्तस्मै महेशाय नमस्करोमि ।।२४
उन्हीं प्रचेताओंके द्वारा उस कन्याके गर्भसे प्राचेतस् दक्षकी उत्पत्ति हुई। फिर दक्षकी प्रजा-सृष्टिसे तीनों लोक भर गये ।।१७।।
इनका अपनी पुत्रियोंपर बड़ा प्रेम था। इन्होंने जिस प्रकार अपने संकल्प और वीर्यसे विविध प्राणियोंकी सृष्टि की, वह मैं सुनाता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो ।।१८।।
परीक्षित् ! पहले प्रजापति दक्षने जल, थल और आकाशमें रहनेवाले देवता, असुर एवं मनुष्य आदि प्रजाकी सृष्टि अपने संकल्पसे ही की ।।१९।।
जब उन्होंने देखा कि वह सृष्टि बढ़ नहीं रही है, तब उन्होंने विन्ध्याचलके निकटवर्ती पर्वतोंपर जाकर बड़ी घोर तपस्या की ।। २० ।।
वहाँ एक अत्यन्त श्रेष्ठ तीर्थ है, उसका नाम है- अघमर्षण। वह सारे पापोंको धो बहाता है। प्रजापति दक्ष उस तीर्थमें त्रिकाल स्नान करते और तपस्याके द्वारा भगवान्की आराधना करते ।।२१।।
प्रजापति दक्षने इन्द्रियातीत भगवान्की ‘हंसगुह्य’ नामक स्तोत्रसे स्तुति की थी। उसीसे भगवान् उनपर प्रसन्न हुए थे। मैं तुम्हें वह स्तुति सुनाता हूँ ।।२२।।
दक्ष प्रजापतिने इस प्रकार स्तुति की – भगवन्! आपकी अनुभूति, आपकी चित्- शक्ति अमोघ है। आप जीव और प्रकृतिसे परे, उनके नियन्ता और उन्हें सत्तास्फूर्ति देनेवाले हैं।
जिन जीवोंने त्रिगुणमयी सृष्टिको ही वास्तविक सत्य समझ रखा है, वे आपके स्वरूपका साक्षात्कार नहीं कर सके हैं; क्योंकि आपतक किसी भी प्रमाणकी पहुँच नहीं है- आपकी कोई अवधि, कोई सीमा नहीं है। आप स्वयंप्रकाश और परात्पर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।२३।।
यों तो जीव और ईश्वर एक-दूसरेके सखा हैं तथा इसी शरीरमें इकट्ठे ही निवास करते हैं; परन्तु जीव सर्वशक्तिमान् आपके सख्यभावको नहीं जानता-ठीक वैसे ही, जैसे रूप, रस, गन्ध आदि विषय अपने प्रकाशित करनेवाली नेत्र, घ्राण आदि इन्द्रियवृत्तियोंको नहीं जानते। क्योंकि आप जीव और जगत्के द्रष्टा हैं, दृश्य नहीं। महेश्वर ! मैं आपके श्रीचरणोंमें नमस्कार करता हूँ ।।२४।।
संस्कृत श्लोक:-
देहोऽसवोऽक्षा मनवो भूतमात्रा नात्मानमन्यं च विदुः परं यत् । सर्वं पुमान् वेद गुणांश्च तज्ज्ञो न वेद सर्वज्ञमनन्तमीडे ।।२५
यदोपरामो मनसो नामरूप- रूपस्य दृष्टस्मृतिसम्प्रमोषात् ।
य ईयते केवलया स्वसंस्थया हंसाय तस्मै शुचिसद्मने नमः ।।२६
मनीषिणोऽन्तर्हदि संनिवेशितं स्वशक्तिभिर्नवभिश्च त्रिवृद्भिः । वह्नि यथा दारुणि पाञ्चदश्यं मनीषया निष्कर्षन्ति गूढम् ।।२७
स वै ममाशेषविशेषमाया- निषेधनिर्वाणसुखानुभूतिः । स सर्वनामा स च विश्वरूपः प्रसीदतामनिरुक्तात्मशक्तिः ।।२८
यद्यन्निरुक्तं वचसा निरूपितं
धियाक्षभिर्वा मनसा वोत यस्य । मा भूत् स्वरूपं गुणरूपं हि तत्तत् स वै गुणापायविसर्गलक्षणः ।।२९
देह, प्राण, इन्द्रिय, अन्तःकरणकी वृत्तियाँ, पंचमहाभूत और उनकी तन्मात्राएँ- ये सब जड होनेके कारण अपनेको और अपनेसे अतिरिक्तको भी नहीं जानते। परन्तु जीव इन सबको और इनके कारण सत्त्व, रज और तम – इन तीन गुणोंको भी जानता है।
परन्तु वह भी दृश्य अथवा ज्ञेयरूपसे आपको नहीं जान सकता। क्योंकि आप ही सबके ज्ञाता और अनन्त हैं। इसलिये प्रभो! मैं तो केवल आपकी स्तुति करता हूँ ।।२५।।
जब समाधिकालमें प्रमाण, विकल्प और विपर्ययरूप विविध ज्ञान और स्मरणशक्तिका लोप हो जानेसे इस नाम- रूपात्मक जगत्का निरूपन करनेवाला मन उपरत हो जाता है, उस समय बिना मनके भी केवल सच्चिदानन्दमयी अपनी स्वरूपस्थितिके द्वारा आप प्रकाशित होते रहते हैं। प्रभो ! आप शुद्ध हैं और शुद्ध हृदय-मन्दिर ही आपका निवासस्थान है। आपको मेरा नमस्कार है ।।२६।।
जैसे याज्ञिक लोग काष्ठमें छिपे हुए अग्निको ‘सामिधेनी’ नामके पन्द्रह मन्त्रोंके द्वारा प्रकट करते हैं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष अपनी सत्ताईस शक्तियोंके भीतर गूढभावसे छिपे हुए आपको अपनी शुद्ध बुद्धिके द्वारा हृदयमें ही ढूँढ़ निकालते हैं ।। २७।।
जगत्में जितनी भिन्नताएँ देख पड़ती हैं, वे सब मायाकी ही हैं। मायाका निषेध कर देनेपर केवल परम सुखके साक्षात्कारस्वरूप आप ही अवशेष रहते हैं। परन्तु जब विचार करने लगते हैं, तब आपके स्वरूपमें मायाकी उपलब्धि- निर्वचन नहीं हो सकता। अर्थात् माया भी आप ही हैं।
अतः सारे नाम और सारे रूप आपके ही हैं। प्रभो! आप मुझपर प्रसन्न होइये। मुझे आत्मप्रसादसे पूर्ण कर दीजिये ।। २८।।
प्रभो ! जो कुछ वाणीसे कहा जाता है अथवा जो कुछ मन, बुद्धि और इन्द्रियोंसे ग्रहण किया जाता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि वह तो गुणरूप है और आप गुणोंकी उत्पत्ति और प्रलयके अधिष्ठान हैं। आपमें केवल उनकी प्रतीतिमात्र है ।।२९।।
संस्कृत श्लोक:-
यस्मिन् यतो येन च यस्य यस्मै यद् यो यथा कुरुते कार्यते च । परावरेषां परमं प्राक् प्रसिद्धं तद् ब्रह्म तद्धेतुरनन्यदेकम् ।।३०
यच्छक्तयो वदतां वादिनां वै विवादसंवादभुवो भवन्ति । कुर्वन्ति चैषां मुहुरात्ममोहं तस्मै नमोऽनन्तगुणाय भूम्ने ।।३१
अस्तीति नास्तीति च वस्तुनिष्ठयो- रेकस्थयोर्भिन्नविरुद्धधर्मयोः ।अवेक्षितं किञ्चन योगसांख्ययोः समं परं ह्यनुकूलं बृहत्तत् ।।३२
योऽनुग्रहार्थं भजतां पादमूल- मनामरूपो भगवाननन्तः ।नामानि रूपाणि च जन्मकर्मभि- भेंजे स मह्यं परमः प्रसीदतु ।।३३
भगवन्! आपमें ही यह सारा जगत् स्थित है; आपसे ही निकला है और आपने-और किसीके सहारे नहीं-अपने-आपसे ही इसका निर्माण किया है। यह आपका ही है और आपके लिये ही है। इसके रूपमें बननेवाले भी आप हैं और बनानेवाले भी आप ही हैं।
बनने- बनानेकी विधि भी आप ही हैं। आप ही सबसे काम लेनेवाले भी हैं। जब कार्य और कारणका भेद नहीं था, तब भी आप स्वयंसिद्ध स्वरूपसे स्थित थे। इसीसे आप सबके कारण भी हैं। सच्ची बात तो यह है कि आप जीव-जगत्के भेद और स्वगतभेदसे सर्वथा रहित एक, अद्वितीय हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। आप मुझपर प्रसन्न हों ।। ३० ।।
प्रभो! आपकी ही शक्तियाँ वादी-प्रतिवादियोंके विवाद और संवाद (ऐकमत्य) का विषय होती हैं और उन्हें बार-बार मोहमें डाल दिया करती हैं। आप अनन्त अप्राकृत कल्याण-गुणगणोंसे युक्त एवं स्वयं अनन्त हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।। ३१।।
भगवन् ! उपासकलोग कहते हैं कि हमारे प्रभु हस्त-पादादिसे युक्त साकार-विग्रह हैं और सांख्यवादी कहते हैं कि भगवान् हस्त-पादादि विग्रहसे रहित-निराकार हैं। यद्यपि इस प्रकार वे एक ही वस्तुके दो परस्परविरोधी धर्मोंका वर्णन करते हैं, परन्तु फिर भी उसमें विरोध नहीं है। क्योंकि दोनों एक ही परम वस्तुमें स्थित हैं।
बिना आधारके हाथ-पैर आदिका होना सम्भव नहीं और निषेधकी भी कोई-न-कोई अवधि होनी ही चाहिये। आप वही आधार और निषेधकी अवधि हैं। इसलिये आप साकार, निराकार दोनोंसे ही अविरुद्ध सम परब्रह्म हैं ।। ३२ ।।
प्रभो! आप अनन्त हैं। आपका न तो कोई प्राकृत नाम है और न कोई प्राकृत रूप; फिर भी जो आपके चरणकमलोंका भजन करते हैं, उनपर अनुग्रह करनेके लिये आप अनेक रूपोंमें प्रकट होकर अनेकों लीलाएँ करते हैं तथा उन-उन रूपों एवं लीलाओंके अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हैं। परमात्मन् ! आप मुझपर कृपा-प्रसाद कीजिये ।। ३३।।
संस्कृत श्लोक:-
यः प्राकृतैर्ज्ञानपथैर्जनानां यथाशयं देहगतो विभाति । यथानिलः पार्थिवमाश्रितो गुणं स ईश्वरो मे कुरुतान्मनोरथम् ।।३४
श्रीशुक उवाच
इति स्तुतः संस्तुवतः स तस्मिन्नघमर्षणे । आविरासीत् कुरुश्रेष्ठ भगवान् भक्तवत्सलः ।।३५
कृतपादः सुपर्णांसे प्रलम्बाष्टमहाभुजः । चक्रशङ्खासिचर्मेषुधनुःपाशगदाधरः ।।३६
पीतवासा घनश्यामः प्रसन्नवदनेक्षणः । वनमालानिवीताङ्गो लसच्छ्रीवत्सकौस्तुभः ।।३७
महाकिरीटकटकः स्फुरन्मकरकुण्डलः । काञ्च्यङ्गुलीयवलयनूपुराङ्गदभूषितः ।।३८
त्रैलोक्यमोहनं रूपं बिभ्रत् त्रिभुवनेश्वरः । वृतो नारदनन्दाद्यैः पार्षदैः सुरयूथपैः ।।३९
स्तूयमानोऽनुगायद्भिः सिद्धगन्धर्वचारणैः । रूपं तन्महदाश्चर्यं विचक्ष्यागतसाध्वसः ।।४०
ननाम दण्डवद् भूमौ प्रहृष्टात्मा प्रजापतिः । न किञ्चनोदीरयितुमशकत् तीव्रया मुदा । आपूरितमनोद्वारैर्हदिन्य इव निर्झरैः ।।४१
तं तथावनतं भक्तं प्रजाकामं प्रजापतिम् । चित्तज्ञः सर्वभूतानामिदमाह जनार्दनः ।।४२
लोगोंकी उपासनाएँ प्रायः साधारण कोटिकी होती हैं। अतः आप सबके हृदयमें रहकर उनकी भावनाके अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओंके रूपमें प्रतीत होते रहते हैं-ठीक वैसे ही जैसे हवा गन्धका आश्रय लेकर सुगन्धित प्रतीत होती है;
परन्तु वास्तवमें सुगन्धित नहीं होती। ऐसे सबकी भावनाओंका अनुसरण करनेवाले प्रभु मेरी अभिलाषा पूर्ण करें ।। ३४।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! विन्ध्याचलके अघमर्षण तीर्थमें जब प्रजापति दक्षने इस प्रकार स्तुति की, तब भक्तवत्सल भगवान् उनके सामने प्रकट हुए ।। ३५।।
उस समय भगवान् गरुड़के कंधोंपर चरण रखे हुए थे। विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट आठ भुजाएँ थीं; उनमें चक्र, शंख, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, पाश और गदा धारण किये हुए थे ।। ३६ ।।
वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल शरीरपर पीताम्बर फहरा रहा था। मुखमण्डल प्रफुल्लित था। नेत्रोंसे प्रसादकी वर्षा हो रही थी। घुटनोंतक वनमाला लटक रही थी। वक्षःस्थलपर सुनहरी रेखा – श्रीवत्सचिह्न और गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही थी ।। ३७ ।।
बहुमूल्य किरीट, कंगन, मकराकृति कुण्डल, करधनी, अँगूठी, कड़े, नूपुर और बाजूबंद अपने-अपने स्थानपर सुशोभित थे ।।३८।।
त्रिभुवनपति भगवान्ने त्रैलोक्यविमोहन रूप धारण कर रखा था। नारद, नन्द, सुनन्द आदि पार्षद उनके चारों ओर खड़े थे। इन्द्र आदि देवेश्वरगण स्तुति कर रहे थे तथा सिद्ध, गन्धर्व और चारण भगवान्के गुणोंका गान कर रहे थे। यह अत्यन्त आश्चर्यमय और अलौकिक रूप देखकर दक्षप्रजापति कुछ सहम गये ।।३९-४०।।
प्रजापति दक्षने आनन्दसे भरकर भगवान्के चरणोंमें साष्टांग प्रणाम किया। जैसे झरनोंके जलसे नदियाँ भर जाती हैं, वैसे ही परमानन्दके उद्रेकसे उनकी एक-एक इन्द्रिय भर गयी और आनन्दपरवश हो जानेके कारण वे कुछ भी बोल न सके ।।४१।।
परीक्षित् ! प्रजापति दक्ष अत्यन्त नम्रतासे झुककर भगवान्के सामने खड़े हो गये। भगवान् सबके हृदयकी बात जानते ही हैं, उन्होंने दक्ष प्रजापतिकी भक्ति और प्रजावृद्धिकी कामना देखकर उनसे यों कहा ।।४२।।
संस्कृत श्लोक:-
श्रीभगवानुवाच
प्राचेतस महाभाग संसिद्धस्तपसा भवान् । यच्छ्रद्धया मत्परया मयि भावं परं गतः ।।४३
प्रीतोऽहं ते प्रजानाथ यत्तेऽस्योबृंहणं तपः । ममैष कामो भूतानां यद् भूयासुर्विभूतयः ।।४४
ब्रह्मा भवो भवन्तश्च मनवो विबुधेश्वराः । विभूतयो मम ह्येता भूतानां भूतिहेतवः ।।४५
तपो मे हृदयं ब्रह्मस्तनुर्विद्या क्रियाऽऽकृतिः । अङ्गानि क्रतवो जाता धर्म आत्मासवः सुराः ।।४६
अहमेवासमेवाग्रे नान्यत् किञ्चान्तरं बहिः । संज्ञानमात्रमव्यक्तं प्रसुप्तमिव विश्वतः ।।४७
मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतो गुणविग्रहः । यदाऽऽसीत् तत एवाद्यः स्वयम्भूः समभूदजः ।।४८
स वै यदा महादेवो मम वीर्योपबृंहितः ।
मेने खिलमिवात्मानमुद्यतः सर्गकर्मणि ।।४९
अथ मेऽभिहितो देवस्तपोऽतप्यत दारुणम् । नव विश्वसृजो युष्मान् येनादावसृजद्विभुः ।।५०एषा पञ्चजनस्याङ्ग दुहिता वै प्रजापतेः । असिक्नी नाम पत्नीत्वे प्रजेश प्रतिगृह्यताम् ।।५१
मिथुनव्यवायधर्मस्त्वं प्रजासर्गमिमं पुनः । मिथुनव्यवायधर्मिण्यां भूरिशो भावयिष्यसि ।।५२
त्वत्तोऽधस्तात् प्रजाः सर्वा मिथुनीभूय मायया । मदीयया भविष्यन्ति हरिष्यन्ति च मे बलिम् ।।५३
श्रीभगवान्ने कहा- परम भाग्यवान् दक्ष ! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी, क्योंकि मुझपर श्रद्धा करनेसे तुम्हारे हृदयमें मेरे प्रति परम प्रेमभावका उदय हो गया है ।।४३।।
प्रजापते ! तुमने इस विश्वकी वृद्धिके लिये तपस्या की है, इसलिये मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। क्योंकि यह मेरी ही इच्छा है कि जगत्के समस्त प्राणी अभिवृद्ध और समृद्ध हों ।।४४।।
ब्रह्मा, शंकर, तुम्हारे जैसे प्रजापति, स्वायम्भुव आदि मनु तथा इन्द्रादि देवेश्वर- ये सब मेरी विभूतियाँ हैं और सभी प्राणियोंकी अभिवृद्धि करनेवाले हैं ।।४५।।
ब्रह्मन् ! तपस्या मेरा हृदय है, विद्या शरीर है, कर्म आकृति है, यज्ञ अंग हैं, धर्म मन है और देवता प्राण हैं ।।४६।।
जब यह सृष्टि नहीं थी, तब केवल मैं ही था और वह भी निष्क्रियरूपमें। बाहर-भीतर कहीं भी और कुछ न था। न तो कोई द्रष्टा था और न दृश्य। मैं केवल ज्ञानस्वरूप और अव्यक्त था। ऐसा समझ लो, मानो सब ओर सुषुप्ति-ही-सुषुप्ति छा रही हो ।।४७।।
प्रिय दक्ष! मैं अनन्त गुणोंका आधार एवं स्वयं अनन्त हूँ। जब गुणमयी मायाके क्षोभसे यह ब्रह्माण्ड-शरीर प्रकट हुआ, तब इसमें अयोनिज आदिपुरुष ब्रह्मा उत्पन्न हुए ।।४८।।
जब मैंने उनमें शक्ति और चेतनाका संचार किया तब देवशिरोमणि ब्रह्मा सृष्टि करनेके लिये उद्यत हुए। परन्तु उन्होंने अपनेको सृष्टिकार्यमें असमर्थ-सा पाया ।।४९।।
उस समय मैंने उन्हें आज्ञा दी कि तप करो। तब उन्होंने घोर तपस्या की और उस तपस्याके प्रभावसे पहले-पहल तुम नौ प्रजापतियोंकी सृष्टि की ।।५०।।
प्रिय दक्ष ! देखो, यह पंचजन प्रजापतिकी कन्या असिक्नी है। इसे तुम अपनी पत्नीके रूपमें ग्रहण करो ।।५१।।
अब तुम गृहस्थोचित स्त्रीसहवासरूप धर्मको स्वीकार करो। यह असिक्नी भी उसी धर्मको स्वीकार करेगी। तब तुम इसके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न कर सकोगे ।। ५२ ।।
प्रजापते ! अबतक तो मानसी सृष्टि होती थी, परन्तु अब तुम्हारे बाद सारी प्रजा मेरी मायासे स्त्री-पुरुषके संयोगसे ही उत्पन्न होगी तथा मेरी सेवामें तत्पर रहेगी ।। ५३।।
संस्कृत श्लोक:-
श्रीशुक उवाच
इत्युक्त्वा मिषतस्तस्य भगवान् विश्वभावनः ।
स्वप्नोपलब्धार्थ इव तत्रैवान्तर्दधे हरिः ।।५४
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- विश्वके जीवनदाता भगवान् श्रीहरि यह कहकर दक्षके सामने ही इस प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे स्वप्नमें देखी हुई वस्तु स्वप्न टूटते ही लुप्त हो जाती है ।।५४।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ।।४।।
१. प्रा० पा० – यथायोगी। २. प्रा० पा० – वृक्षेभ्यः।
१. प्रा० पा०-त्वादिष्टा। २. प्रा० पा०- लोकानां पितरौ। ३. प्रा० पा०- भूतानां शास्तास्ते।
१. प्रा० पा०- स्वसंज्ञया।
१. प्रा० पा०- वा०।