Bhagwat puran skandh 6 chapter 17(भागवत पुराण षष्ठः स्कन्ध:अध्याय 17 चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप)
(संस्कृत श्लोक: -)
श्रीशुक उवाच
यतश्चान्तर्हितोऽनन्तस्तस्यै कृत्वा दिशे नमः । विद्याधरश्चित्रकेतुश्चचार गगनेचरः ।।१
स लक्षं वर्षलक्षाणामव्याहतबलेन्द्रियः । स्तूयमानो महायोगी मुनिभिः सिद्धचारणैः ।।२
कुलाचलेन्द्रद्रोणीषु नानासङ्कल्पसिद्धिषु । रेमे विद्याधरस्त्रीभिर्गापयन् हरिमीश्वरम् ।।३
एकदा स’ विमानेन विष्णुदत्तेन भास्वता । गिरिशं ददृशे गच्छन् परीतं सिद्धचारणैः ।।४
आलिङ्ग्याङ्कीकृतां देवीं बाहुना मुनिसंसदि । उवाच देव्याः शृण्वत्या जहासोच्चैस्तदन्तिके ।।५
चित्रकेतुरुवाच
एष लोकगुरुः साक्षाद्धर्मं वक्ता शरीरिणाम् । आस्ते मुख्यः सभायां वै मिथुनीभूय भार्यया ।।६
जटाधरस्तीव्रतपा ब्रह्मवादिसभापतिः । अङ्कीकृत्य स्त्रियं चास्ते गतह्रीः प्राकृतो यथा ।।७
प्रायशः प्राकृताश्चापि स्त्रियं रहसि बिभ्रति । अयं महाव्रतधरो बिभर्ति सदसि स्त्रियम् ।।८
अनुवाद: –
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! विद्याधर चित्रकेतु, जिस दिशामें भगवान् संकर्षण अन्तर्धान हुए थे, उसे नमस्कार करके आकाशमार्गसे स्वच्छन्द विचरने लगे ।।१।।
महायोगी चित्रकेतु करोड़ों वर्षोंतक सब प्रकारके संकल्पोंको पूर्ण करनेवाली सुमेरु पर्वतकी घाटियोंमें विहार करते रहे। उनके शरीरका बल और इन्द्रियोंकी शक्ति अक्षुण्ण रही।
बड़े-बड़े मुनि, सिद्ध, चारण उनकी स्तुति करते रहते। उनकी प्रेरणासे विद्याधरोंकी स्त्रियाँ उनके पास सर्वशक्तिमान् भगवान्के गुण और लीलाओंका गान करती रहतीं ।।२-३।।
एक दिन चित्रकेतु भगवान्के दिये हुए तेजोमय विमानपर सवार होकर कहीं जा रहे थे। इसी समय उन्होंने देखा कि भगवान् शङ्कर बड़े-बड़े मुनियोंकी सभामें सिद्ध-चारणोंके बीच बैठे हुए हैं और साथ ही भगवती पार्वतीको अपनी गोदमें बैठाकर एक हाथसे उन्हें आलिंगन किये हुए हैं, यह देखकर चित्रकेतु विमानपर चढ़े हुए ही उनके पास चले गये और भगवती पार्वतीको सुना-सुनाकर जोरसे हँसने और कहने लगे ।।४-५।।
चित्रकेतुने कहा-अहो ! ये सारे जगत्के धर्मशिक्षक और गुरुदेव हैं। ये समस्त प्राणियोंमें श्रेष्ठ हैं। इनकी यह दशा है कि भरी सभामें अपनी पत्नीको शरीरसे चिपकाकर बैठे हुए हैं ।।६।। जटाधारी, बहुत बड़े तपस्वी एवं ब्रह्मवादियोंके सभापति होकर भी साधारण पुरुषके समान निर्लज्जतासे गोदमें स्त्री लेकर बैठे हैं ।।७।।
प्रायः साधारण पुरुष भी एकान्तमें ही स्त्रियोंके साथ उठते-बैठते हैं, परन्तु ये इतने बड़े व्रतधारी होकर भी उसे भरी सभामें लिये बैठे हैं ।।८।।
(संस्कृत श्लोक: -)
श्रीशुक उवाच
भगवानपि तच्छ्रुत्वा प्रहस्यागाधधीनृप । तूष्णीं बभूव सदसि सभ्याश्च तदनुव्रताः ।।९
इत्यतद्वीर्यविदुषि ब्रुवाणे बह्वशोभनम् । रुषाऽऽह देवी धृष्टाय निर्जितात्माभिमानिने ।।१०
पार्वत्युवाच
अयं किमधुना लोके शास्ता दण्डधरः प्रभुः । अस्मद्विधानां दुष्टानां निर्लज्जानां च विप्रकृत् ।।११
न वेद धर्मं किल पद्मयोनि- र्न ब्रह्मपुत्रा भृगुनारदाद्याः ।
न वै कुमारः कपिलो मनुश्च ये नो निषेधन्त्यतिवर्तिनं हरम् ।।१२
एषामनुध्येयपदाब्जयुग्मं जगद्गुरुं मङ्गलमङ्गलं स्वयम् । यः क्षत्रबन्धुः परिभूय सूरीन् प्रशास्ति धृष्टस्तदयं हि दण्ड्यः ।।१३
नायमर्हति वैकुण्ठपादमूलोपसर्पणम् । सम्भावितमतिः स्तब्धः साधुभिः पर्युपासितम् ।।१४
अतः पापीयसीं योनिमासुरीं याहि दुर्मते । यथेह भूयो महतां न कर्ता पुत्र किल्बिषम् ।।१५
श्रीशुक उवाच
एवं शप्तश्चित्रकेतुर्विमानादवरुह्य सः । प्रसादयामास सतीं मूर्जा नम्रेण भारत ।।१६
अनुवाद: –
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! भागवान् शंकरकी बुद्धि अगाध है। चित्रकेतुका यह कटाक्ष सुनकर वे हँसने लगे, कुछ भी बोले नहीं। उस सभामें बैठे हुए उनके अनुयायी सदस्य भी चुप रहे।
चित्रकेतुको भगवान् शंकरका प्रभाव नहीं मालूम था। इसीसे वे उनके लिये बहुत कुछ बुरा-भला बक थे। उन्हें इस बातका घमण्ड हो गया था कि ‘मैं जितेन्द्रिय हूँ।’ पार्वतीजीने उनकी यह धृष्टता देखकर क्रोधसे कहा- ।।९-१०।।
पार्वतीजी बोलीं- अहो ! हम-जैसे दुष्ट और निर्लज्जोंका दण्डके बलपर शासन एवं तिरस्कार करनेवाला प्रभु इस संसारमें यही है क्या? ।।११।।
जान पड़ता है कि ब्रह्माजी, भृगु, नारद आदि उनके पुत्र, सनकादि परमर्षि, कपिलदेव और मनु आदि बड़े-बड़े महापुरुष धर्मका रहस्य नहीं जानते। तभी तो वे धर्ममर्यादाका उल्लंघन करनेवाले भगवान् शिवको इस कामसे नहीं रोकते ।।१२।।
ब्रह्मा आदि समस्त महापुरुष जिनके चरणकमलोंका ध्यान करते रहते हैं, उन्हीं मंगलोंको मंगल बनानेवाले साक्षात् जगद्गुरु भगवान्का और उनके अनुयायी महात्माओंका इस अधम क्षत्रियने तिरस्कार किया और शासन करनेकी चेष्टा की है। इसलिये यह ढीठ सर्वथा दण्डका पात्र है ।।१३।।
इसे अपने बड़प्पनका घमण्ड है। यह मूर्ख भगवान् श्रीहरिके उन चरणकमलोंमें रहनेयोग्य नहीं है, जिनकी उपासना बड़े-बड़े सत्पुरुष किया करते हैं ।।१४।।
[चित्रकेतुको सम्बोधन कर] अतः दुर्मते ! तुम पापमय असुरयोनिमें जाओ। ऐसा होनेसे बेटा! तुम फिर कभी किसी महापुरुषका अपराध नहीं कर सकोगे ।।१५।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! जब पार्वतीजीने इस प्रकार चित्रकेतुको शाप दिया,तब वे विमानसे उतर पड़े और सिर झुकाकर उन्हें प्रसन्न करने लगे ।।१६।।
(संस्कृत श्लोक: -)
चित्रकेतुरुवाच
प्रतिगृह्णामि ते शापमात्मनोऽञ्जलिनाम्बिके । देवैर्मर्त्याय यत्प्रोक्तं पूर्वदिष्टं हि तस्य तत् ।।१७
संसारचक्र एतस्मिञ्जन्तुरज्ञानमोहितः । भ्राम्यन् सुखं च दुःखं च भुक्ते सर्वत्र सर्वदा ।।१८
नैवात्मा न परश्चापि कर्ता स्यात् सुखदुःखयोः । कर्तारं मन्यतेऽप्राज्ञ आत्मानं परमेव च ।।१९
गुणप्रवाह एतस्मिन् कः शापः को न्वनुग्रहः । कः स्वर्गो नरकः को वा किं सुखं दुःखमेव वा ।।२०
एकः सृजति भूतानि भगवानात्ममायया । एषां बन्धं च मोक्षं च सुखं दुःखं च निष्कलः ।।२१
न तस्य कश्चिद्दयितः प्रतीपो न ज्ञातिबन्धुर्न परो न च स्वः । समस्य सर्वत्र निरञ्जनस्य सुखे न रागः कुत एव रोषः ।।२२
तथापि तच्छक्तिविसर्ग एषां सुखाय दुःखाय हिताहिताय । बन्धाय मोक्षाय च मृत्युजन्मनोः शरीरिणां संसृतयेऽवकल्पते ।।२३
अथ प्रसादये न त्वां शापमोक्षाय भामिनि । यन्मन्यसे असाधूक्तं मम तत्क्षम्यतां सति ।।२४श्रीशुक उवाच इति प्रसाद्य गिरिशौ चित्रकेतुररिन्दम ।जगाम स्वविमानेन पश्यतोः स्मयतोस्तयोः ।।२५
अनुवाद: –
चित्रकेतुने कहा-माता पार्वतीजी ! मैं बड़ी प्रसन्नतासे अपने दोनों हाथ जोड़कर आपका शाप स्वीकार करता हूँ। क्योंकि देवतालोग मनुष्योंके लिये जो कुछ कह देते हैं, वह उनके प्रारब्धानुसार मिलनेवाले फलकी पूर्वसूचनामात्र होती है ।।१७।।
देवि ! यह जीव अज्ञानसे मोहित हो रहा है और इसी कारण इस संसारचक्रमें भटकता रहता है तथा सदा-सर्वदा सर्वत्र सुख और दुःख भोगता रहता है ।।१८।।
माताजी ! सुख और दुःखको देनेवाला न तो अपना आत्मा है और न कोई दूसरा। जो अज्ञानी हैं, वे ही अपनेको अथवा दूसरेको सुख-दुःखका कर्ता माना करते हैं ।।१९।।
यह जगत् सत्त्व, रज आदि गुणोंका स्वाभाविक प्रवाह है। इसमें क्या शाप, क्या अनुग्रह, क्या स्वर्ग, क्या नरक और क्या सुख, क्या दुःख ।।२०।।
एकमात्र परिपूर्णतम भगवान् ही बिना किसीकी सहायताके अपनी आत्मस्वरूपिणी मायाके द्वारा समस्त प्राणियोंकी तथा उनके बन्धन, मोक्ष और सुख-दुःखकी रचना करते हैं ।।२१।।
माताजी ! भगवान् श्रीहरि सबमें सम और माया आदि मलसे रहित हैं। उनका कोई प्रिय-अप्रिय, जाति-बन्धु, अपना पराया नहीं है। जब उनका सुखमें राग ही नहीं है, तब उनमें रागजन्य क्रोध तो हो ही कैसे सकता है ।।२२।।
तथापि उनकी मायाशक्तिके कार्य पाप और पुण्य ही प्राणियोंके सुख-दुःख, हित- अहित, बन्ध-मोक्ष, मृत्यु-जन्म और आवागमनके कारण बनते हैं ।। २३ ।।
पतिप्राणा देवि ! मैं शापसे मुक्त होनेके लिये आपको प्रसन्न नहीं कर रहा हूँ। मैं तो यह चाहता हूँ कि आपको मेरी जो बात अनुचित प्रतीत हुई हो, उसके लिये क्षमा करें ।।२४।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! विद्याधर चित्रकेतु भगवान् शंकर और पार्वतीजीको इस प्रकार प्रसन्न करके उनके सामने ही विमानपर सवार होकर वहाँसे चले गये। इससे उन लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ ।।२५।।
(संस्कृत श्लोक: -)
ततस्तु भगवान् रुद्रो रुद्राणीमिदमब्रवीत् । देवर्षिदैत्यसिद्धानां पार्षदानां च शृण्वताम् ।।२६
श्रीरुद्र उवाच
दृष्टवत्यसि सुश्रोणि हरेरद्भुतकर्मणः । माहात्म्यं भृत्यभृत्यानां निःस्पृहाणां महात्मनाम् ।।२७
नारायणपराः सर्वे न कुतश्चन बिभ्यति । स्वर्गापवर्गनरकेष्वपि तुल्यार्थदर्शिनः ।।२८
देहिनां देहसंयोगाद् द्वन्द्वानीश्वरलीलया । सुखं दुःखं मृतिर्जन्म शापोऽनुग्रह एव च ।।२९
अविवेककृतः पुंसो ह्यर्थभेद इवात्मनि । गुणदोषविकल्पश्च भिदेव स्रजिवत्कृतः ।।३०
वासुदेवे भगवति भक्तिमुद्वहतां नृणाम् । ज्ञानवैराग्यवीर्याणां नेह कश्चिद् व्यपाश्रयः ।।३१
नाहं विरिञ्चो न कुमारनारदौ न ब्रह्मपुत्रा मुनयः सुरेशाः । विदाम यस्येहितमंशकांशका न तत्स्वरूपं पृथगीशमानिनः ।।३२
न ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियः स्वः परोऽपि वा । आत्मत्वात्सर्वभूतानां सर्वभूतप्रियो हरिः ।।३३
तस्य चायं महाभागश्चित्रकेतुः प्रियोऽनुगः । सर्वत्र समदृक् शान्तो ह्यहं चैवाच्युतप्रियः ।।३४
तस्मान्न विस्मयः कार्यः पुरुषेषु महात्मसु । महापुरुषभक्तेषु शान्तेषु समदर्शिषु ।।३५
अनुवाद: –
तब भगवान् शंकरने देवता, ऋषि, दैत्य, सिद्ध और पार्षदोंके सामने ही भगवती पार्वतीजीसे यह बात कही ।।२६।।
भगवान् शंकरने कहा- सुन्दरि ! दिव्यलीला-विहारी भगवान्के निःस्पृह और उदारहृदय दासानुदासोंकी महिमा तुमने अपनी आँखों देख ली ।। २७।।
जो लोग भगवान्के शरणागत होते हैं, वे किसीसे भी नहीं डरते। क्योंकि उन्हें स्वर्ग, मोक्ष और नरकोंमें भी एक ही वस्तुके-केवल भगवान्के ही समानभावसे दर्शन होते हैं ।।२८।।
जीवोंको भगवान्की लीलासे ही देहका संयोग होनेके कारण सुख-दुःख, जन्म- मरण और शाप-अनुग्रह आदि द्वन्द्व प्राप्त होते हैं ।। २९।।
जैसे स्वप्नमें भेद-भ्रमसे सुख-दुःख आदिकी प्रतीति होती है और जाग्रत्-अवस्थामें भ्रमवश मालामें ही सर्पबुद्धि हो जाती है- वैसे ही मनुष्य अज्ञानवश आत्मामें देवता, मनुष्य आदिका भेद तथा गुण-दोष आदिकी कल्पना कर लेता है ।। ३० ।।
जिनके पास ज्ञान और वैराग्यका बल है और जो भगवान् वासुदेवके चरणोंमें भक्तिभाव रखते हैं, उनके लिये इस जगत्में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है,जिसे वे हेय या उपादेय समझकर राग-द्वेष करें ।। ३१।।
मैं, ब्रह्माजी, सनकादि, नारद, ब्रह्माजीके पुत्र भृगु आदि मुनि और बड़े-बड़े देवता- कोई भी भगवान्की लीलाका रहस्य नहीं जान पाते। ऐसी अवस्थामें जो उनके नन्हे-से-नन्हे अंश हैं और अपनेको उनसे अलग ईश्वर मान बैठे हैं, वे उनके स्वरूपको जान ही कैसे सकते हैं? ।।३२।।
भगवान्को न कोई प्रिय है और न अप्रिय। उनका न कोई अपना है और न पराया। वे सभी प्राणियोंके आत्मा हैं, इसलिये सभी प्राणियोंके प्रियतम हैं ।। ३३ ।।
प्रिये ! यह परम भाग्यवान् चित्रकेतु उन्हींका प्रिय अनुचर, शान्त एवं समदर्शी है और मैं भी भगवान् श्रीहरिका ही प्रिय हूँ ।। ३४।।
इसलिये तुम्हें भगवान्के प्यारे भक्त, शान्त, समदर्शी, महात्मा पुरुषोंके सम्बन्धमें किसी प्रकारका आश्चर्य नहीं करना चाहिये ।।३५।।
(संस्कृत श्लोक: -)
श्रीशुक उवाच
इति श्रुत्वा भगवतः शिवस्योमाभिभाषितम् । बभूव शान्तधी राजन् देवी विगतविस्मया ।।३६इति भागवतो देव्याः प्रतिशप्तुमलन्तमः । मूर्ध्वा सञ्जगृहे शापमेतावत्साधुलक्षणम् ।। ३७
जज्ञे त्वष्टुर्दक्षिणाग्नौ दानवीं योनिमाश्रितः । वृत्र इत्यभिविख्यातो ज्ञानविज्ञानसंयुतः ।।३८एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि । वृत्रस्यासुरजातेश्च कारणं भगवन्मतेः ।।३९
इतिहासमिमं पुण्यं चित्रकेतोर्महात्मनः । माहात्म्यं विष्णुभक्तानां श्रुत्वा बन्धाद्विमुच्यते ।।४०य एतत्प्रातरुत्थाय श्रद्धया वाग्यतः पठेत् ।इतिहासं हरिं स्मृत्वा स याति परमां गतिम् ।।४१
अनुवाद: –
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! भगवान् शंकरका यह भाषण सुनकर भगवती पार्वतीकी चित्तवृत्ति शान्त हो गयी और उनका विस्मय जाता रहा ।। ३६ ।।
भगवान्के परमप्रेमी भक्त चित्रकेतु भी भगवती पार्वतीको बदलेमें शाप दे सकते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें शाप न देकर उनका शाप सिर चढ़ा लिया! यही साधु पुरुषका लक्षण है ।। ३७।।
यही विद्याधर चित्रकेतु दानवयोनिका आश्रय लेकर त्वष्टाके दक्षिणाग्निसे पैदा हुए। वहाँ इनका नाम वृत्रासुर हुआ और वहाँ भी ये भगवत्-स्वरूपके ज्ञान एवं भक्तिसे परिपूर्ण ही रहे ।। ३८।।
तुमने मुझसे पूछा था कि वृत्रासुरका दैत्ययोनिमें जन्म क्यों हुआ और उसे भगवान्की ऐसी भक्ति कैसे प्राप्त हुई। उसका पूरा-पूरा विवरण मैंने तुम्हें सुना दिया ।।३९।।
महात्मा चित्रकेतुका यह पवित्र इतिहास केवल उनका ही नहीं, समस्त विष्णुभक्तोंका माहात्म्य है; इसे जो सुनता है, वह समस्त बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है ।।४०।।
जो पुरुष प्रातःकाल उठकर मौन रहकर श्रद्धाके साथ भगवान्का स्मरण करते हुए इस इतिहासका पाठ करता है, उसे परमगतिकी प्राप्ति होती है ।।४१।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे चित्रकेतुशापो नाम सप्तदशोऽध्यायः ।।१७।।
१. प्रा० पा०- स्ववि०। २. प्रा० पा० – आर्यमुख्यः सत्सभायां ।
१. प्रा० पा० – श्रद्धावान् ।