Bhagwat puran skandh 6 chapter 10(भागवत पुराण षष्ठः स्कन्ध:दशमोऽध्यायःदेवताओंद्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र-निर्माण और वृत्रासुरकी सेनापर आक्रमण)

Bhagwat puran skandh 6 chapter 10(भागवत पुराण षष्ठः स्कन्ध: दशमोऽध्यायःदेवताओंद्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र-निर्माण और वृत्रासुरकी सेनापर आक्रमण)

संस्कृत श्लोक: –

 

श्रीशुक उवाच

इन्द्रमेवं समादिश्य भगवान् विश्वभावनः । पश्यतामनिमेषाणां तत्रैवान्तर्दधे हरिः ।।१

तथाभियाचितो देवैर्ऋषिराथर्वणो महान् । मोदमान उवाचेदं प्रहसन्निव भारत ।।२

अपि वृन्दारका यूयं न जानीथ शरीरिणाम् । संस्थायां यस्त्वभिद्रोहो दुःसहश्चेतनापहः ।।३

जिजीविषूणां जीवानामात्मा प्रेष्ठ इहेप्सितः । क उत्सहेत तं दातुं भिक्षमाणाय विष्णवे ।।४

देवा ऊचुः

किं नु तद् दुस्त्यजं ब्रह्मन् पुंसां भूतानुकम्पिनाम् । भवद्विधानां महतां पुण्यश्लोकेड्यकर्मणाम् ।।५

ननु स्वार्थपरो लोको न वेद परसंकटम् । यदि वेद न याचेत नेति नाह यदीश्वरः ।।६

अनुवाद: –

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! विश्वके जीवनदाता श्रीहरि इन्द्रको इस प्रकार आदेश देकर देवताओंके सामने वहीं-के-वहीं अन्तर्धान हो गये ।।१।।

अब देवताओंने उदारशिरोमणि अथर्ववेदी दधीचि ऋषिके पास जाकर भगवान्‌के आज्ञानुसार याचना की। देवताओंकी याचना सुनकर दधीचि ऋषिको बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने हँसकर देवताओंसे कहा- ।।२।।

‘देवताओ ! आपलोगोंको सम्भवतः यह बात नहीं मालूम है कि मरते समय प्राणियोंको बड़ा कष्ट होता है। उन्हें जबतक चेत रहता है, बड़ी असह्य पीड़ा सहनी पड़ती है और अन्तमें वे मूर्च्छित हो जाते हैं ।।३।।

जो जीव जगत्में जीवित रहना चाहते हैं, उनके लिये शरीर बहुत ही अनमोल, प्रियतम एवं अभीष्ट वस्तु है।ऐसी स्थितिमें स्वयं विष्णुभगवान् भी यदि जीवसे उसका शरीर माँगें तो कौन उसे देनेका साहस करेगा ।।४।।

देवताओंने कहा- ब्रह्मन् ! आप-जैसे उदार और प्राणियोंपर दया करनेवाले महापुरुष, जिनके कर्मोंकी बड़े-बड़े यशस्वी महानुभाव भी प्रशंसा करते हैं, प्राणियोंकी भलाईके लिये कौन-सी वस्तु निछावर नहीं कर सकते ।।५।।

भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि माँगनेवाले लोग स्वार्थी होते हैं। उनमें देनेवालोंकी कठिनाईका विचार करनेकी बुद्धि नहीं होती। यदि उनमें इतनी समझ होती तो वे माँगते ही क्यों। इसी प्रकार दाता भी माँगनेवालेकी विपत्ति नहीं जानता। अन्यथा उसके मुँहसे कदापि नाहीं न निकलती (इसलिये आप हमारी विपत्ति समझकर हमारी याचना पूर्ण कीजिये।) ।।६।।

संस्कृत श्लोक: –

 

ऋषिरुवाच

धर्म वः श्रोतुकामेन यूयं मे प्रत्युदाहृताः । एष वः प्रियमात्मानं त्यजन्तं संत्यजाम्यहम् ।।७

योऽध्रुवेणात्मना नाथा न धर्म न यशः पुमान् । ईहेत भूतदयया स शोच्यः स्थावरैरपि ।।८

एतावानव्ययो धर्मः पुण्यश्लोकैरुपासितः । यो भूतशोकहर्षाभ्यामात्मा शोचति हृष्यति ।।९

अहो दैन्यमहो कष्टं पारक्यैः क्षणभङ्गुरैः । यन्नोपकुर्यादस्वार्थैर्मर्त्यः स्वज्ञातिविग्रहैः ।।१०

श्रीशुक उवाच

एवं कृतव्यवसितो दध्यङाथर्वणस्तनुम् । परे भगवति ब्रह्मण्यात्मानं सन्नयञ्जहौ ।।११यताक्षासुमनोबुद्धिस्तत्त्वदृग् ध्वस्तबन्धनः ।आस्थितः परमं योगं न देहं बुबुधे गतम् ।।१२

अथेन्द्रो वज्रमुद्यम्य निर्मितं विश्वकर्मणा । मुनेः शुक्तिभिरुत्सिक्तो भगवत्तेजसान्वितः ।।१३

वृतो देवगणैः सर्वैर्गजेन्द्रोपर्यशोभत । स्तूयमानो मुनिगणैस्त्रैलोक्यं हर्षयन्निव ।।१४वृत्रमभ्यद्रवच्छेत्तुमसुरानीकयूथपैः । पर्यस्तमोजसा राजन् क्रुद्धो रुद्र इवान्तकम् ।।१५

अनुवाद: –

 

दधीचि ऋषिने कहा-देवताओ ! मैंने आपलोगोंके मुँहसे धर्मकी बात सुननेके लिये ही आपकी माँगके प्रति उपेक्षा दिखलायी थी। यह लीजिये, मैं अपने प्यारे शरीरको आप लोगोंके लिये अभी छोड़े देता हूँ। क्योंकि एक दिन यह स्वयं ही मुझे छोड़नेवाला है ।।७।।

देवशिरोमणियो ! जो मनुष्य इस विनाशी शरीरसे दुःखी प्राणियोंपर दया करके मुख्यतः धर्म और गौणतः यशका सम्पादन नहीं करता, वह जड़ पेड़-पौधोंसे भी गया-बीता है ।।८।।

बड़े- बड़े महात्माओंने इस अविनाशी धर्मकी उपासना की है। उसका स्वरूप बस, इतना ही है कि मनुष्य किसी भी प्राणीके दुःखमें दुःखका अनुभव करे और सुखमें सुखका ।।९।।

जगत्के धन, जन और शरीर आदि पदार्थ क्षणभंगुर हैं। ये अपने किसी काम नहीं आते, अन्तमें दूसरोंके ही काम आयेंगे। ओह! यह कैसी कृपणता है, कितने दुःखकी बात है कि यह मरणधर्मा मनुष्य इनके द्वारा दूसरोंका उपकार नहीं कर लेता ।।१०।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! अथर्ववेदी महर्षि दधीचिने ऐसा निश्चय करके अपनेको परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान्में लीन करके अपना स्थूल शरीर त्याग दिया ।।११।।

उनके इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि संयत थे, दृष्टि तत्त्वमयी थी, उनके सारे बन्धन कट चुके थे। अतः जब वे भगवान्से अत्यन्त युक्त होकर स्थित हो गये, तब उन्हें इस बातका पता ही न चला कि मेरा शरीर छूट गया ।।१२।।

भगवान्‌की शक्ति पाकर इन्द्रका बल-पौरुष उन्नतिकी सीमापर पहुँच गया। अब विश्वकर्माजीने दधीचि ऋषिकी हड्डियोंसे वज्र बनाकर उन्हें दिया और वे उसे हाथमें लेकर ऐरावत हाथीपर सवार हुए।

उनके साथ-साथ सभी देवतालोग तैयार हो गये। बड़े-बड़े ऋषि- मुनि देवराज इन्द्रकी स्तुति करने लगे।

अब उन्होंने त्रिलोकीको हर्षित करते हुए वृत्रासुरका वध करनेके लिये उसपर पूरी शक्ति लगाकर धावा बोल दिया- ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् रुद्र क्रोधित होकर स्वयं कालपर ही आक्रमण कर रहे हों। परीक्षित् ! वृत्रासुर भी दैत्य- सेनापतियोंकी बहुत बड़ी सेनाके साथ मोर्चेपर डटा हुआ था ।।१३-१५।।

संस्कृत श्लोक: –

 

ततः सुराणामसुरै रणः परमदारुणः । त्रेतामुखे नर्मदायामभवत् प्रथमे युगे ।।१६ रुद्रैर्वसुभिरादित्यैरश्विभ्यां पितृवह्निभिः । मरु‌द्भिऋभुभिः साध्यैर्विश्वेदेवैर्मरुत्पतिम् ।।१७ दृष्ट्वा वज्रधरं शक्रं रोचमानं स्वया श्रिया । नामृष्यन्नसुरा राजन् मृधे वृत्रपुरःसराः ।।१८

नमुचिः शम्बरोऽनर्वा द्विमूर्धा ऋषभोऽम्बरः ।

हयग्रीवः शङ्कुशिरा विप्रचित्तिरयोमुखः ।।१९ पुलोमा वृषपर्वा च प्रहेतिर्हतिरुत्कलः । दैतेया दानवा यक्षा रक्षांसि च सहस्रशः ।।२० सुमालिमालिप्रमुखाः कार्तस्वरपरिच्छदाः । प्रतिषिध्येन्द्रसेनाग्रं मृत्योरपि दुरासदम् ।।२१ अभ्यर्दयन्नसंभ्रान्ताः सिंहनादेन दुर्मदाः । गदाभिः परिधैर्बाणैः प्रासमुद्गरतोमरैः ।।२२ शूलैः परश्वधैः खड्गैः शतघ्नीभिर्भुशुण्डिभिः । सर्वतोऽवाकिरन् शस्त्रैरस्त्रैश्च विबुधर्षभान् ।।२३ न तेऽदृश्यन्त संछन्नाः शरजालैः समन्ततः । पुङ्खानुपुङ्खपतितैज्र्योतींषीव नभोघनैः ।।२४ न ते शस्त्रास्त्रवर्षोंघा ह्यासेदुः सुरसैनिकान् । छिन्नाः सिद्धपथे देवैर्लघुहस्तैः सहस्रधा ।।२५ अथ क्षीणास्त्रशस्त्रौघा गिरिशृङ्गद्रुमोपलैः । अभ्यवर्षन् सुरबलं चिच्छिदुस्तांश्च पूर्ववत् ।।२६ तानक्षतान् स्वस्तिमतो निशाम्य शस्त्रास्त्रपूगैरथ वृत्रनाथाः । द्रुमैर्दृष‌द्भिर्विविधाद्रिशृङ्गै- रविक्षतांस्तत्रसुरिन्द्रसैनिकान् ।।२७

अनुवाद: –

 

जो वैवस्वत मन्वन्तर इस समय चल रहा है, इसकी पहली चतुर्युगीका त्रेतायुग अभी आरम्भ ही हुआ था। उसी समय नर्मदातटपर देवताओंका दैत्योंके साथ यह भयंकर संग्राम हुआ ।।१६।।

उस समय देवराज इन्द्र हाथमें वज्र लेकर रुद्र, वसु, आदित्य, दोनों अश्विनीकुमार, पितृगण, अग्नि, मरुद्गण, ऋभुगण, साध्यगण और विश्वेदेव आदिके साथ अपनी कान्तिसे शोभायमान हो रहे थे। वृत्रासुर आदि दैत्य उनको अपने सामने आया देख और भी चिढ़ गये ।।१७-१८।।

तब नमुचि, शम्बर, अनर्वा, द्विमूर्धा, ऋषभ, अम्बर, हयग्रीव, शंकुशिरा, विप्रचित्ति, अयोमुख, पुलोमा, वृषपर्वा, प्रहेति, हेति, उत्कल, सुमाली, माली आदि हजारों दैत्य-दानव एवं यक्ष-राक्षस स्वर्णके साज-सामानसे सुसज्जित होकर देवराज इन्द्रकी सेनाको आगे बढ़नेसे रोकने लगे। परीक्षित ! उस समय देवताओंकी सेना स्वयं मृत्युके लिये भी अजेय थी ।।१९-२१।।

वे घमंडी असुर सिंहनाद करते हुए बड़ी सावधानीसे देवसेनापर प्रहार करने लगे। उन लोगोंने गदा, परिघ, बाण, प्रास, मुद्गर, तोमर, शूल, फरसे, तलवार, शतघ्नी (तोप), भुशुण्डि आदि अस्त्र-शस्त्रोंकी बौछारसे देवताओंको सब ओरसे ढक दिया ।।२२-२३।।

एक-पर-एक इतने बाण चारों ओरसे आ रहे थे कि उनसे ढक जानेके कारण देवता दिखलायी भी नहीं पड़ते थे-जैसे बादलोंसे ढक जानेपर आकाशके तारे नहीं दिखायी देते ।।२४।।

परीक्षित् ! वह शस्त्रों और अस्त्रोंकी वर्षा देवसैनिकोंको छूतक न सकी। उन्होंने अपने हस्तलाघवसे आकाशमें ही उनके हजार-हजार टुकड़े कर दिये ।।२५।।

जब असुरोंके अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गये, तब वे देवताओंकी सेनापर पर्वतोंके शिखर, वृक्ष और पत्थर बरसाने लगे। परन्तु देवताओंने उन्हें पहलेकी ही भाँति काट गिराया ।।२६।।

परीक्षित् ! जब वृत्रासुरके अनुयायी असुरोंने देखा कि उनके असंख्य अस्त्र-शस्त्र भी देव-सेनाका कुछ न बिगाड़ सके – यहाँतक कि वृक्षों, चट्टानों और पहाड़ोंके बड़े-बड़े शिखरोंसे भी उनके शरीरपर खरोंचतक नहीं आयी, सब-के-सब सकुशल हैं- तब तो वे बहुत डर गये !

दैत्यलोग देवताओंको पराजित करनेके लिये जो-जो प्रयत्न करते, वे सब-के-सब निष्फल हो जाते-ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित भक्तोंपर क्षुद्र मनुष्योंके कठोर और अमंगलमय दुर्वचनोंका कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।। २७-२८।।

संस्कृत श्लोक: –

 

सर्वे प्रयासा अभवन् विमोघाः कृताः कृता देवगणेषु दैत्यैः । कृष्णानुकूलेषु यथा महत्सु क्षुद्रैः प्रयुक्ता रुशती रूक्षवाचः ।।२८

ते स्वप्रयासं वितथं निरीक्ष्य हरावभक्ता हतयुद्धदर्पाः ।पलायनायाजिमुखे विसृज्य पतिं मनस्ते दधुरात्तसाराः ।।२९

वृत्रोऽसुरांस्ताननुगान् मनस्वी प्रधावतः प्रेक्ष्य बभाष एतत् ।पलायितं प्रेक्ष्य बलं च भग्नं भयेन तीव्रेण विहस्य वीरः ।।३०

कालोपपन्नां रुचिरां मनस्विना-मुवाच वाचं पुरुषप्रवीरः । हे विप्रचित्ते नमुचे पुलोमन् मयानर्वञ्छम्बर मे शृणुध्वम् ।।३१

जातस्य मृत्युध्रुव एष सर्वतः प्रतिक्रिया यस्य न चेह क्लृप्ता ।लोको यशश्चाथ ततो यदि ह्यमुं को नाम मृत्युं न वृणीत युक्तम् ।।३२द्वौ संमताविह मृत्यू दुरापौ यद् ब्रह्मसंधारणया जितासुः । कलेवरं योगरतो विजह्याद् यदग्रणीर्वीरशयेऽनिवृत्तः ।।३३

अनुवाद: –

 

भगवद्विमुख असुर अपना प्रयत्न व्यर्थ देखकर उत्साहरहित हो गये। उनका वीरताका घमंड जाता रहा। अब वे अपने सरदार वृत्रासुरको युद्धभूमिमें ही छोड़कर भाग खड़े हुए; क्योंकि देवताओंने उनका सारा बल-पौरुष छीन लिया था ।।२९।।

जब धीर-वीर वृत्रासुरने देखा कि मेरे अनुयायी असुर भाग रहे हैं और अत्यन्त भयभीत होकर मेरी सेना भी तहस-नहस और तितर-बितर हो रही है, तब वह हँसकर कहने लगा ।।३०।।

वीरशिरोमणि वृत्रासुरने समयानुसार वीरोचित वाणीसे विप्रचित्ति, नमुचि, पुलोमा, मय, अनर्वा, शम्बर आदि दैत्योंको सम्बोधित करके कहा- ‘असुरो ! भागो मत, मेरी एक बात सुन लो ।।३१।।

इसमें सन्देह नहीं कि जो पैदा हुआ है, उसे एक-न-एक दिन अवश्य मरना पड़ेगा। इस जगत्में विधाताने मृत्युसे बचनेका कोई उपाय नहीं बताया है। ऐसी स्थितिमें यदि मृत्युके द्वारा स्वर्गादि लोक और सुयश भी मिल रहा हो तो ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उस उत्तम मृत्युको न अपनायेगा ।।३२।।

संसारमें दो प्रकारकी मृत्यु परम दुर्लभ और श्रेष्ठ मानी गयी है-एक तो योगी पुरुषका अपने प्राणोंको वशमें करके ब्रह्मचिन्तनके द्वारा शरीरका परित्याग और दूसरा युद्धभूमिमें सेनाके आगे रहकर बिना पीठ दिखाये जूझ मरना (तुमलोग भला, ऐसा शुभ अवसर क्यों खो रहे हो)’ ।।३३।।

इति श्रीम‌द्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे इन्द्रवृत्रासुरयुद्धवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ।।१०।।

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