Bhagwat puran skandh 5 chapter 25(भागवत पुराण पञ्चमः स्कन्ध:अध्याय श्रीसङ्कर्षणदेवका विवरण और स्तुति)
संस्कृत श्लोक: –
श्रीशुक उवाच
तस्य मूलदेशे त्रिंशद्योजनसहस्रान्तर आस्ते या वै कला भगवतस्तामसी समाख्या- तानन्त इति सात्वतीया द्रष्टृदृश्ययोः सङ्कर्षणमहमित्यभिमानलक्षणं यं सङ्कर्षण- मित्याचक्षते ।।१।।
यस्येदं क्षितिमण्डलं भगवतोऽनन्तमूर्तेः सहस्रशिरस एकस्मिन्नेव शीर्षणि ध्रियमाणं सिद्धार्थ इव लक्ष्यते ।।२।। यस्य ह वा इदं कालेनोपसंजिहीर्षतोऽमर्षविरचितरुचिर-भ्रमद्भुवोरन्तरेण साङ्कर्षणो नाम रुद्र एकादशव्यूहस्त्र्यक्षस्त्रिशिखं शूलमुत्तम्भयन् उदतिष्ठत् ।।३।। यस्याङ्ग्रिङ्कमलयुगलारुण-विशदनखमणिषण्डमण्डलेष्वहिपतयः सह सात्वतर्षभैरेकान्त भक्तियोगेनावनमन्तः स्व-वदनानि परिस्फुरत्कुण्डलप्रभामण्डित- गण्डस्थलान्यतिमनोहराणि प्रमुदितमनसः खलु विलोकयन्ति ।।४।। यस्यैव हि नागराजकुमार्य आशिष आशासाना-श्चवार्वङ्गवलयविलसितविशदविपुलधवल- सुभगरुचिर भुजरजतस्तम्भेष्वगुरुचन्दनकुङ्कुम- पङ्कानुलेपेनावलिम्पमानास्तदभिमर्शनोन्मथित
हृदयमकरध्वजावेशरुचिरललितस्मितास्तद- नुरागमदमुदितमदविघूर्णितारुणकरुणावलोक-नयनवदनारविन्दं विलोकयन्ति ।।५।। सव्रीडं किल
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- राजन् ! पाताललोकके नीचे तीस हजार योजनकी दूरीपर अनन्त नामसे विख्यात भगवान्की तामसी नित्य कला है। यह अहंकाररूपा होनेसे द्रष्टा और दृश्यको खींचकर एक कर देती है, इसलिये पांचरात्र आगमके अनुयायी भक्तजन इसे ‘संकर्षण’ कहते हैं ।।१।।
इन भगवान् अनन्तके एक हजार मस्तक हैं। उनमेंसे एकपर रखा हुआ यह सारा भूमण्डल सरसोंके दानेके समान दिखायी देता है ।।२।।
प्रलयकाल उपस्थित होनेपर जब इन्हें इस विश्वका उपसंहार करनेकी इच्छा होती है, तब इनकी क्रोधवश घूमती हुई मनोहर भुकुटियोंके मध्यभागसे संकर्षण नामक रुद्र प्रकट होते हैं।
उनकी व्यूहसंख्या ग्यारह है। वे सभी तीन नेत्रोंवाले होते हैं और हाथमें तीन नोकोंवाले शूल लिये रहते हैं ।।३।।
भगवान् संकर्षणके चरणकमलोंके गोल-गोल स्वच्छ और अरुणवर्ण नख मणियोंकी पंक्तिके समान देदीप्यमान हैं। जब अन्य प्रधान-प्रधान भक्तोंके सहित अनेकों नागराज अनन्य भक्तिभावसे उन्हें प्रणाम करते हैं, तब उन्हें उन नखमणियोंमें
अपने कुण्डलकान्तिमण्डित कमनीय कपोलोंवाले मनोहर मुखारविन्दोंकी मनमोहिनी झाँकी होती है और उनका मन आनन्दसे भर जाता है ।।४।।
अनेकों नागराजोंकी कन्याएँ विविध कामनाओंसे उनके अंगमण्डलपर चाँदीके खम्भोंके समान सुशोभित उनकी वलयविलसित लंबी-लंबी श्वेतवर्ण सुन्दर भुजाओंपर अरगजा, चन्दन और कुंकुमपंकका लेप करती हैं।
उस समय अंगस्पर्शसे मथित हुए उनके हृदयमें कामका संचार हो जाता है। तब वे उनके मदविह्वल सकरुण अरुण नयनकमलोंसे सुशोभित तथा प्रेममदसे मुदित मुखारविन्दकी ओर मधुर मनोहर मुसकानके साथ सलज्जभावसे निहारने लगती हैं ।।५।।
वे अनन्त गुणोंके सागर आदिदेव भगवान् अनन्त अपने अमर्ष (असहनशीलता) और रोषके वेगको रोके हुए वहाँ समस्त लोकोंके कल्याणके लिये विराजमान हैं ।।६।।
स एव भगवाननन्तोऽनन्तगुणार्णव आदिदेव उपसंहृतामर्षरोषवेगो लोकानां स्वस्तय आस्ते ।।६।।
ध्यायमानः मुनिगणैरनवरतमदमुदितविकृतविह्वललोचनः सुरासुरोरगसिद्धगन्धर्वविद्याधर- सुललितमुखरिकामृतेनाप्यायमानः स्वपार्षद-विबुधयूथपतीनपरिम्लानरागनवतुलसिका-मोदमध्वासवेन माद्यन्मधुकरव्रातमधुरगीतश्रियं वैजयन्तीं स्वां वनमालां नीलवासा एककुण्डलो हलककुदि कृतसुभगसुन्दरभुजो भगवान्माहेन्द्रो वारणेन्द्र इव काञ्चनीं कक्षामुदारलीलो बिभर्ति ।।७।।
य एष एवमनुश्रुतो ध्यायमानो मुमुक्षू- णामनादिकालकर्मवासनाग्रथितमविद्यामयं हृदयग्रन्थिं सत्त्वरजस्तमोमयमन्तहृदयं गत आशु निर्भिनत्ति तस्यानुभावान् भगवान् स्वायम्भुवो नारदः सह तुम्बुरुणा सभायां ब्रह्मणः संश्लोकयामास ।।८।।
उत्पत्तिस्थितिलयहेतवोऽस्य कल्पाः सत्त्वाद्याः प्रकृतिगुणा यदीक्षयाऽऽसन् । यद्रूपं ध्रुवमकृतं यदेकमात्मन् नानाधात्कथमु ह वेद तस्य वर्म ।।९
देवता, असुर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर और मुनिगण भगवान् अनन्तका ध्यान किया करते हैं। उनके नेत्र निरन्तर प्रेममदसे मुदित, चंचल और विह्वल रहते हैं। वे सुललित वचनामृतसे अपने पार्षद और देवयूथपोंको सन्तुष्ट करते रहते हैं। उनके अंगपर नीलाम्बर और कानोंमें केवल एक कुण्डल जगमगाता रहता है तथा उनका सुभग और सुन्दर हाथ हलकी मूठपर रखा रहता है। वे उदारलीलामय भगवान् संकर्षण गलेमें वैजयन्ती माला धारण किये रहते हैं, जो साक्षात् इन्द्रके हाथी ऐरावतके गलेमें पड़ी हुई सुवर्णकी शृंखलाके समान जान पड़ती है। जिसकी कान्ति कभी फीकी नहीं पड़ती, ऐसी नवीन तुलसीकी गन्ध औरमधुर मकरन्दसे उन्मत्त हुए भौरे निरन्तर मधुर गुंजार करके उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं ।।७।।
परीक्षित् ! इस प्रकार भगवान् अनन्त माहात्म्य-श्रवण और ध्यान करनेसे मुमुक्षुओंके हृदयमें आविर्भूत होकर उनकी अनादिकालीन कर्मवासनाओंसे ग्रथित सत्त्व, रज और तमोगुणात्मक अविद्यामयी हृदयग्रन्थिको तत्काल काट डालते हैं। उनके गुणोंका एक बार ब्रह्माजीके पुत्र भगवान् नारदने तुम्बुरु गन्धर्वके साथ ब्रह्माजीकी सभामें इस प्रकार गान किया था ।।८।।
जिनकी दृष्टि पड़नेसे ही जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके हेतुभूत सत्त्वादि प्राकृत गुण अपने-अपने कार्यमें समर्थ होते हैं, जिनका स्वरूप ध्रुव (अनन्त) और अकृत (अनादि) है तथा जो अकेले होते हुए ही इस नानात्मक प्रपंचको अपनेमें धारण किये हुए हैं- उन भगवान् संकर्षणके तत्त्वको कोई कैसे जान सकता है ।।९।।
संस्कृत श्लोक: –
मूर्ति नः पुरुकृपया बभार सत्त्वं संशुद्धं सदसदिदं विभाति यत्र । यल्लीलां मृगपतिराददेऽनवद्या- मादातुं स्वजनमनांस्युदारवीर्यः ।।१०यन्नाम श्रुतमनुकीर्तयेदकस्मा- दार्तो वा यदि पतितः प्रलम्भनाद्वा । हन्त्यंहः सपदि नृणामशेषमन्यं कं शेषाद्भगवत आश्रयेन्मुमुक्षुः ।।११
मूर्धन्यर्पितमणुवत्सहस्रमूर्धो भूगोलं सगिरिसरित्समुद्रसत्त्वम् । आनन्त्यादनिमितविक्रमस्य भूम्नः को वीर्याण्यधिगणयेत्सहस्रजिह्वः ।।१२एवम्प्रभावो भगवाननन्तो दुरन्तवीर्योरुगुणानुभावः । मूले रसायाः स्थित आत्मतन्त्रो यो लीलया क्ष्मां स्थितये बिभर्ति ।।१३
एता होवेह नृभिरुपगन्तव्या गतयो यथाकर्मविनिर्मिता यथोपदेशमनुवर्णिताः कामान् कामयमानैः ।।१४।। एतावतीर्हि राजन् पुंसः प्रवृत्तिलक्षणस्य धर्मस्य विपाकगतय उच्चावचा विसदृशा यथाप्रश्नं व्याचख्ये किमन्यत्कथयाम इति ।।१५।।
जिनमें यह कार्य-कारणरूप सारा प्रपंच भास रहा है तथा अपने निजजनोंका चित्त आकर्षित करनेके लिये की हुई जिनकी वीरतापूर्ण लीलाको परम पराक्रमी सिंहने आदर्श मानकर अपनाया है, उन उदारवीर्य संकर्षण भगवान्ने हमपर बड़ी कृपा करके यह विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप धारण किया है ।।१०।।
जिनके सुने-सुनाये नामका कोई पीड़ित पतित पुरुष अकस्मात् अथवा हँसीमें भी उच्चारण कर लेता है ता है तो वह पुरुष दूसरे मनुष्योंके भी सारे पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है-ऐसे शेषभगवान्को छोड़कर मुमुक्षु पुरुष और किसका आश्रय ले सकता है? ।।११।।
यह पर्वत, नदी और समुद्रादिसे पूर्ण सम्पूर्ण भूमण्डल उन सहस्रशीर्षा भगवान्के एक मस्तकपर एक रजः कणके समान रखा हुआ है। वे अनन्त हैं, इसलिये उनके पराक्रमका कोई परिमाण नहीं है। किसीके हजार जीभें हों, तो भी उन सर्वव्यापक भगवान्के पराक्रमोंकी गणना करनेका साहस वह कैसे कर सकता है? ।।१२।।
वास्तवमें उनके वीर्य, अतिशय गुण और प्रभाव असीम हैं। ऐसे प्रभावशाली भगवान् अनन्त रसातलके मूलमें अपनी ही महिमामें स्थित स्वतन्त्र हैं और सम्पूर्ण लोकोंकी स्थितिके लिये लीलासे ही पृथ्वीको धारण किये हुए हैं ।।१३।।
राजन् ! भोगोंकी कामनावाले पुरुषोंकी अपने कर्मोंके अनुसार प्राप्त होनेवाली भगवान्की रची हुई ये ही गतियाँ हैं। इन्हें जिस प्रकार मैंने गुरुमुखसे सुना था, उसी प्रकार तुम्हें सुना दिया ।।१४।।
मनुष्यको प्रवृत्तिरूप धर्मके परिणाममें प्राप्त होनेवाली जो परस्पर विलक्षण ऊँची-नीची गतियाँ हैं, वे इतनी ही हैं; इन्हें तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने सुना दिया। अब बताओ और क्या सुनाऊँ ? ।।१५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भूविवरविध्युपवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ।।२५।।
१. प्रा० पा०- मनुश्रुतोऽभिध्याय०। २. प्रा० पा०- कर्मणां वा०। ३. प्रा० पा०- भावमुद्वहन् भग०।