Bhagwat puran skandh 5 chapter 16(भागवत पुराण पञ्चमः स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः भुवनकोशका वर्णन)

Bhagwat puran skandh 5 chapter 16(भागवत पुराण पञ्चमः स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः भुवनकोशका वर्णन)

अथ षोडशोऽध्यायः

संस्कृत श्लोक: –

 

राजोवाच

उक्तस्त्वया भूमण्डलायामविशेषो यावदादित्यस्तपति यत्र चासौ ज्योतिषां गणैश्चन्द्रमा वा सह दृश्यते ।।१।। तत्रापि प्रियव्रतरथचरणपरिखातैः सप्तभिः सप्त सिन्धव उपक्लृप्ता यत एतस्याः सप्तद्वीपविशेष-विकल्पस्त्वया भगवन् खलु सूचित एतदेवाखिलमहं मानतो लक्षणतश्च सर्वं विजिज्ञासामि ।।२।। भगवतो गुणमये स्थूलरूप आवेशितं मनो ह्यगुणेऽपि सूक्ष्मतम आत्मज्योतिषि परे ब्रह्मणि भगवति वासुदेवाख्ये क्षममावेशितुं तदु हैतद् गुरोऽर्हस्यनुवर्णयितुमिति ।।३।।

ऋषिरुवाच

न वै महाराज भगवतो मायागुणविभूतेः काष्ठां मनसा वचसा वाधिगन्तुमलं विबुधायुषापि पुरुषस्तस्मात्प्राधान्येनैव भूगोलकविशेषं नामरूपमानलक्षणतो व्याख्यास्यामः ।।४।। यो वायं द्वीपः कुवलयकमलकोशाभ्यन्तरकोशो नियुत- योजनविशालः समवर्तुलो यथा पुष्करपत्रम् ।।५।। यस्मिन्नव वर्षाणि नवयोजनसहस्रायामानि अष्टभिर्मर्यादागिरिभिः सुविभक्तानि भवन्ति ।।६।। एषां मध्ये इलावृतं नामाभ्यन्तरवर्ष यस्य नाभ्यामवस्थितः सर्वतः सौवर्णः कुलगिरिराजो मेरुर्दीपायामसमुन्नाहः कर्णिकाभूतः कुवलय-कमलस्य मूर्धनि द्वात्रिंशत् सहस्रयोजनविततो मूले षोडशसहस्रं तावतान्तर्भूम्यां प्रविष्टः ।।७।।

राजा परीक्षित्ने कहा- मुनिवर ! जहाँतक सूर्यका प्रकाश है और जहाँतक तारागणके सहित चन्द्रदेव दीख पड़ते हैं, वहाँतक आपने भूमण्डलका विस्तार बतलाया है ।।१।।

उसमें भी आपने बतलाया कि महाराज प्रियव्रतके रथके पहियोंकी सात लीकोंसे सात समुद्र बन गये थे, जिनके कारण इस भूमण्डलमें सात द्वीपोंका विभाग हुआ।

अतः भगवन् ! अब मैं इन सबका परिमाण और लक्षणोंके सहित पूरा विवरण जानना चाहता हूँ ।।२।।

क्योंकि जो मन भगवान्के इस गुणमय स्थूल विग्रहमें लग सकता है, उसीका उनके वासुदेवसंज्ञक स्वयंप्रकाश निर्गुण ब्रह्मरूप सूक्ष्मतम स्वरूपमें भी लगना सम्भव है। अतः गुरुवर! इस विषयका विशदरूपसे वर्णन करनेकी कृपा कीजिये ।।३।।

श्रीशुकदेवजी बोले- महाराज ! भगवान्‌की मायाके गुणोंका इतना विस्तार है कि यदि कोई पुरुष देवताओंके समान आयु पा ले, तो भी मन या वाणीसे इसका अन्त नहीं पा सकता।

इसलिये हम नाम, रूप, परिमाण और लक्षणोंके द्वारा मुख्य मुख्य बातोंको लेकर ही इस भूमण्डलकी विशेषताओंका वर्णन करेंगे ।।४।।

यह जम्बूद्वीप – जिसमें हम रहते हैं, भूमण्डलरूप कमलके कोशस्थानीय जो सात द्वीप हैं, उनमें सबसे भीतरका कोश है। इसका विस्तार एक लाख योजन है और यह कमलपत्रके समान गोलाकार है ।।५।।

इसमें नौ-नौ हजार योजन विस्तारवाले नौ वर्ष हैं, जो इनकी सीमाओंका विभाग करनेवाले आठ पर्वतोंसे बँटे हुए हैं ।।६।।

इनके बीचो-बीच इलावृत नामका दसवाँ वर्ष है, जिसके मध्यमें कुलपर्वतोंका राजा मेरुपर्वत है। वह मानो भूमण्डलरूप कमलकी कर्णिका ही है।

वह ऊपरसे नीचेतक सारा-का-सारा सुवर्णमय है और एक लाख योजन ऊँचा है। उसका विस्तार शिखरपर बत्तीस हजार और तलैटीमें सोलह हजार योजन है तथा सोलह हजार योजन ही वह भूमिके भीतर घुसा हुआ है अर्थात् भूमिके बाहर उसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है ।।७।।

संस्कृत श्लोक: –

 

उत्तरोत्तरेणेलावृतं नीलः श्वेतः शृङ्गवानिति त्रयो रम्यकहिरण्मयकुरूणां वर्षाणां मर्यादागिरयः प्रागायता उभयतः क्षारोदावधयो द्विसहस्रपृथव एकैकशः पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तर उत्तरो दशांशाधिकांशेन दैर्ध्य एव ह्रसन्ति ।।८।।

एवं दक्षिणेनेलावृतं निषधो हेमकूटो हिमालय इति प्रागायता यथा नीलादयोऽयुतयोजनोत्सेधा हरिवर्षकिम्पुरुषभारतानां यथासंख्यम् तथैवेलावृतमपरेण पूर्वेण च माल्यवद्गन्ध-मादनावानीलनिषधायतौ द्विसहस्रं पप्रथतुः केतुमालभद्राश्वयोः सीमानं विदधाते ।।१०।। मन्दरो मेरुमन्दरः सुपार्श्वः कुमुद इत्ययुतयोजन-विस्तारोन्नाहा मेरोश्चतुर्दिशमवष्टम्भगिरय उपक्लृप्ताः ।।११।। चतुष्र्वतेषु चूतजम्बू-कदम्बन्यग्रोधाश्चत्वारः पादपप्रवराः पर्वत-केतव इवाधिसहस्रयोजनोन्नाहास्तावद् विटप-विततयः शतयोजनपरिणाहाः ।।१२।। हृदाश्चत्वारः पयोमध्विक्षुरसमृष्टजला यद् उपस्पर्शिन उपदेवगणा योगैश्वर्याणि स्वाभावि-कानि भरतर्षभ धारयन्ति ।।१३।। देवोद्यानानि च भवन्ति चत्वारि नन्दनं चैत्ररथं वैभ्राजकं सर्वतोभद्रमिति ।।१४।। येष्वमरपरिवृढाः सुरललनाललामयूथपतय उपदेवगणैरुपगीय-मानमहिमानः किल विहरन्ति ।।१५।। सह

इलावृतवर्षके उत्तरमें क्रमशः नील, श्वेत और शृंगवान् नामके तीन पर्वत हैं- जो रम्यक, हिरण्मय और कुरु नामके वर्षोंकी सीमा बाँधते हैं। वे पूर्वसे पश्चिमतक खारे पानीके समुद्रतक फैले हुए हैं।

उनमेंसे प्रत्येककी चौड़ाई दो हजार योजन है तथा लम्बाईमें पहलेकी अपेक्षा पिछला क्रमशः दशमांशसे कुछ अधिक कम है, चौड़ाई और ऊँचाई तो सभीकी समान है ।।८।।

इसी प्रकार इलावृतके दक्षिणकी ओर एकके बाद एक निषध, हेमकूट और हिमालय नामके तीन पर्वत हैं। नीलादि पर्वतोंके समान ये भी पूर्व-पश्चिमकी ओर फैले हुए हैं और दस- दस हजार योजन ऊँचे हैं।

इनसे क्रमशः हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारतवर्षकी सीमाओंका विभाग होता है ।।९।। इलावृतके पूर्व और पश्चिमकी ओर – उत्तरमें नील पर्वत और दक्षिणमें निषध पर्वततक फैले हुए गन्धमादन और माल्यवान् नामके दो पर्वत हैं।

इनकी चौड़ाई दो-दो हजार योजन है और ये भद्राश्व एवं केतुमाल नामक दो वर्षोंकी सीमा निश्चित करते हैं ।।१०।। इनके सिवा मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्श्व और कुमुद- ये चार दस-दस हजार योजन ऊँचे और उतने ही चौड़े पर्वत मेरु पर्वतकी आधारभूता थूनियोंके समान बने हुए हैं ।।११।।

इन चारोंके ऊपर इनकी ध्वजाओंके समान क्रमशः आम, जामुन, कदम्ब और बड़के चार पेड़ हैं। इनमेंसे प्रत्येक ग्यारह सौ योजन ऊँचा है और इतना ही इनकी शाखाओंका विस्तार है। इनकी मोटाई सौ-सौ योजन है ।।१२।।

भरतश्रेष्ठ ! इन पर्वतोंपर चार सरोवर भी हैं- जो क्रमशः दूध, मधु, ईखके रस और मीठे जलसे भरे हुए हैं। इनका सेवन करनेवाले यक्ष-किन्नरादि उपदेवोंको स्वभावसे ही योगसिद्धियाँ प्राप्त हैं ।।१३।।

इनपर क्रमशः नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राजक और सर्वतोभद्र नामके चार दिव्य उपवन भी हैं ।।१४।। इनमें प्रधान-प्रधान देवगण अनेकों सुरसुन्दरियोंके नायक बनकर साथ-साथ विहार करते हैं। उस समय गन्धर्वादि उपदेवगण इनकी महिमाका बखान किया करते हैं ।।१५।।

संस्कृत श्लोक: –

 

 

मन्दरोत्सङ्ग एकादशशतयोजनोत्तुङ्गदेवचूत-शिरसो फलान्यमृतकल्पानि गिरिशिखरस्थूलानि पतन्ति ।।१६।। तेषां विशीर्यमाणानामतिमधुर- सुरभिसुगन्धिबहुलारुणरसोदेनारुणोदा नाम नदी मन्दरगिरिशिखरान्निपतन्ती पूर्वेणेलावृत-मुपप्लावयति ।।१७।। यदुपजोषणाद्भवान्या अनुचरीणां पुण्यजनवधूनामवयवस्पर्शसुगन्धवातो दशयोजनं समन्तादनुवासयति ।।१८।। एवं जम्बूफलानामत्युच्चनिपातविशीर्णानाम् अनस्थि-प्रायाणामिभकायनिभानां रसेन जम्बू नाम नदी मेरुमन्दरशिखरादयुतयोजनादवनितले निपतन्ती दक्षिणेनात्मानं यावदिलावृत-मुपस्यन्दयति ।।१९।। तावदुभयोरपि रोधसोर्या मृत्तिका तद्रसेनानुविध्यमाना वाय्वर्कसंयोग-विपाकेन सदामरलोकाभरणं जाम्बूनदं नाम सुवर्ण भवति ।।२०।। यदु ह वाव विबुधादयः सह युवतिभिर्मुकुट कटककटिसूत्राद्याभरणरूपेण खलु धारयन्ति ।।२१।।

यस्तु महाकदम्बः सुपार्श्वनिरूढे यास्तस्य कोटरेभ्यो विनिःसृताः पञ्चायामपरिणाहाः पञ्च मधुधाराःसुपार्श्वशिखरात्पतन्त्योऽपरेणात्मान मिलावृतमनुमोदयन्तिः ।।२२।। या ह्युपयुञ्जानानां मुखनिर्वासितो वायुः समन्ताच्छतयोजनमनुवासयति !!

मन्दराचलकी गोदमें जो ग्यारह सौ योजन ऊँचा देवताओंका आम्रवृक्ष है, उससे गिरिशिखरके समान बड़े-बड़े और अमृतके समान स्वादिष्ट फल गिरते हैं ।।१६।।

वे जब फटते हैं, तब उनसे बड़ा सुगन्धित और मीठा लाल-लाल रस बहने लगता है। वही अरुणोदा नामकी नदीमें परिणत हो जाता है। यह नदी मन्दराचलके शिखरसे गिरकर अपने जलसे इलावृत वर्षके पूर्वी-भागको सींचती है ।।१७।।

श्रीपार्वतीजीकी अनुचरी यक्षपत्नियाँ इस जलका सेवन करती हैं। इससे उनके अंगोंसे ऐसी सुगन्ध निकलती है कि उन्हें स्पर्श करके बहनेवाली वायु उनके चारों ओर दस-दस योजनतक सारे देशको सुगन्धसे भर देती है ।।१८।।

इसी प्रकार जामुनके वृक्षसे हाथीके समान बड़े-बड़े प्रायः बिना गुठलीके फल गिरते हैं। बहुत ऊँचेसे गिरनेके कारण वे फट जाते हैं। उनके रससे जम्बू नामकी नदी प्रकट होती है, जो मेरुमन्दर पर्वतके दस हजार योजन ऊँचे शिखरसे गिरकर इलावृतके दक्षिण भू-भागको सींचती है ।।१९।।

उस नदीके दोनों किनारोंकी मिट्टी उस रससे भीगकर जब वायु और सूर्यके संयोगसे सूख जाती है, तब वही देवलोकको विभूषित करनेवाला जाम्बूनद नामका सोना बन जाती है ।।२०।।

इसे देवता और गन्धर्वादि अपनी तरुणी स्त्रियोंके सहित मुकुट, कंकण और करधनी आदि आभूषणोंके रूपमें धारण करते हैं ।। २१ ।।

सुपार्श्व पर्वतपर जो विशाल कदम्बवृक्ष है, उसके पाँच कोटरोंसे मधुकी पाँच धाराएँ निकलती हैं; उनकी मोटाई पाँच पुरसे जितनी है। ये सुपार्श्वके शिखरसे गिरकर इलावृतवर्षके पश्चिमी भागको अपनी सुगन्धसे सुवासित करती हैं ।। २२।।

जो लोग इनका मधुपान करते हैं, उनके मुखसे निकली हुई वायु अपने चारों ओर सौ-सौ योजनतक इसकी महक फैला देती है ।।२३।।

संस्कृत श्लोक: –

 

एवं कुमुदनिरूढो यः शतवल्शो नाम वटस्तस्य स्कन्धेभ्यो नीचीनाः पयोदधिमधुघृत-गुडान्नाद्यम्बरशय्यासनाभरणादयः सर्व एव कामदुधा नदाः कुमुदाग्रात्पतन्तस्तमुत्तरे-णेलावृतमुपयोजयन्ति कदाचिदपि प्रजानां ।।२४।। यानुपजुषाणानां न वलीपलितक्लमस्वेद- दौर्गन्ध्यजरामयमृत्युशीतोष्णवैवर्योपसर्गादय-स्तापविशेषा भवन्ति यावज्जीवं सुखं निरतिशयमेव ।। २५।।

कुरङ्गकुररकुसुम्भवैकङ्कत्रिकूटशिशिर- पतङ्गरुचकनिषधशिनीवासकपिलशङ्खवैदूर्य-

जारुधिहंसर्षभनागकालञ्जरनारदादयो विंशति-गिरयो मेरोः कर्णिकाया इव केसरभूता मूलदेशे परित उपक्लृप्ताः ।।२६।। जठरदेवकूटौ मेरुं पूर्वेणाष्टादशयोजनसहस्रमुदगायतौ द्विसहस्रं पृथुतुङ्गौ भवतः । एवमपरेण पवनपारियात्रौ दक्षिणेन कैलासकरवीरौ प्रागायतावेवमुत्तरतस्त्रिशृङ्गमकरावष्टभिरेतैः परिस्तृतोऽग्निरिव परितश्चकास्ति काञ्चनगिरिः ।। २७।। मेरोर्मूर्धनि भगवत आत्म- योनेर्मध्यत उपक्लृप्तां पुरीमयुतयोजनसाहस्रीं समचतुरस्रां शातकौम्भीं वदन्ति ।।२८।। तामनु परितो लोकपालानामष्टानां यथादिशं यथारूपं तुरीयमानेन पुरोऽष्टावुपक्लृप्ताः ।।२९।।

इसी प्रकार कुमुद पर्वतपर जो शतवल्श नामका वटवृक्ष है, उसकी जटाओंसे नीचेकी ओर बहनेवाले अनेक नद निकलते हैं, वे सब इच्छानुसार भोग देनेवाले हैं। उनसे दूध, दही, मधु, घृत, गुड़, अन्न, वस्त्र, शय्या, आसन और आभूषण आदि सभी पदार्थ मिल सकते हैं।

ये सब कुमुदके शिखरसे गिरकर इलावृतके उत्तरी भागको सींचते हैं ।। २४।। इनके दिये हुए पदार्थोंका उपभोग करनेसे वहाँकी प्रजाकी त्वचामें झुर्रियाँ पड़ जाना, बाल पक जाना, थकान होना,

शरीरमें पसीना आना तथा दुर्गन्ध निकलना, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, सर्दी-गरमीकी पीड़ा, शरीरका कान्तिहीन हो जाना तथा अंगोंका टूटना आदि कष्ट कभी नहीं सताते और उन्हें जीवनपर्यन्त पूरा-पूरा सुख प्राप्त होता है ।।२५।।

राजन्! कमलकी कर्णिकाके चारों ओर जैसे केसर होता है-उसी प्रकार मेरुके मूलदेशमें उसके चारों ओर कुरंग, कुरर, कुसुम्भ, वैकंक, त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शंख, वैदूर्य, जारुधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालंजर और नारद आदि बीस पर्वत और हैं ।।२६।।

इनके सिवा मेरुके पूर्वकी ओर जठर और देवकूट नामके दो पर्वत हैं, जो अठारह-अठारह हजार योजन लंबे तथा दो-दो हजार योजन चौड़े और ऊँचे हैं।

इसी प्रकार पश्चिमकी ओर पवन और पारियात्र, दक्षिणकी ओर कैलास और करवीर तथा उत्तरकी ओर त्रिशृंग और मकर नामके पर्वत हैं। इन आठ पहाड़ोंसे चारों ओर घिरा हुआ सुवर्णगिरि मेरु अग्निके समान जगमगाता रहता है ।। २७ ।।

कहते हैं, मेरुके शिखरपर बीचोबीच भगवान् ब्रह्माजीकी सुवर्णमयी पुरी है- जो आकारमें समचौरस तथा करोड़ योजन विस्तारवाली है ।। २८ ।।

उसके नीचे पूर्वादि आठ दिशा और उपदिशाओंमें उनके अधिपति इन्द्रादि आठ लोकपालोंकी आठ पुरियाँ हैं। वे अपने-अपने स्वामीके अनुरूप उन्हीं उन्हीं दिशाओंमें हैं तथा परिमाणमें ब्रह्माजीकी पुरीसे चौथाई हैं ।। २९।।

इति श्रीम‌द्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भुवनकोशवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ।।१६।।

१. प्रा० पा०- मनुमादयन्ति। २. प्रा० पा० – यो ह्युप। ३. प्रा० पा० – मुखनिःश्वसितो।

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