Bhagwat puran skandh 5 chapter 13( भागवत पुराण पञ्चमः स्कन्ध:त्रयोदशोऽध्यायःभवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश )

  Bhagwat puran skandh 5 chapter 13( भागवत पुराण पञ्चमः स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः

संस्कृत श्लोक: –

ब्राह्मण उवाच

दुरत्ययेऽध्वन्यजया निवेशितो रजस्तमः सत्त्वविभक्तकर्मदृक् । स एष सार्थोऽर्थपरः परिभ्रमन् भवाटवीं याति न शर्म विन्दति ।।१

हिन्दी अनुवाद: –

 

जडभरतने कहा- राजन् ! यह जीवसमूह सुखरूप धनमें आसक्त देश-देशान्तरमें घूम- फिरकर व्यापार करनेवाले व्यापारियोंके दलके समान है।

इसे मायाने दुस्तर प्रवृत्तिमार्गमें लगा दिया है; इसलिये इसकी दृष्टि सात्त्विक, राजस, तामस भेदसे नाना प्रकारके कर्मोंपर ही जाती है।

उन कर्मोंमें भटकता-भटकता यह संसाररूप जंगलमें पहुँच जाता है। वहाँ इसे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती ।।१।।

संस्कृत श्लोक: –

 

यस्यामिमे षण्नरदेव दस्यवः सार्थं विलुम्पन्ति कुनायकं बलात् । गोमायवो यत्र हरन्ति सार्थिकं प्रमत्तमाविश्य यथोरणं वृकाः ।।२ प्रभूतवीरुत्तृणगुल्मगह्वरे कठोरदंशैर्मशकैरुपद्रुतः । क्वचित्तु गन्धर्वपुरं प्रपश्यति क्वचित्क्वचिच्चाशुरयोल्मुकग्रहम् ।।३ निवासतोयद्रविणात्मबुद्धि- स्ततस्ततो धावति भो अटव्याम् । क्वचिच्च वात्योत्थितपांसुधूम्रा दिशो न जानाति रजस्वलाक्षः ।।४ अदृश्यझिल्लीस्वनकर्णशूल उलूकवाग्भिर्व्यथितान्तरात्मा । अपुण्यवृक्षान् श्रयते क्षुधार्दितो मरीचितोयान्यभिधावति क्वचित् ।।५ क्वचिद्वितोयाः सरितोऽभियाति परस्परं चालषते निरन्धः ।

आसाद्य दावं क्वचिदग्नितप्तो निर्विद्यते क्व च यक्षैर्हतासुः ।।६

शूरैर्हतस्वः क्व च निर्विण्णचेताः शोचन् विमुह्यन्नुपयाति कश्मलम् । क्वचिच्च गन्धर्वपुरं प्रविष्टः प्रमोदते निर्वृतवन्मुहूर्तम् ।।७ चलन् क्वचित्कण्टकशर्कराङ्घ्रि- र्नगारुरुक्षुर्विमना इवास्ते । पदे पदेऽभ्यन्तरवह्निनार्दितः कौटुम्बिकः क्रुध्यति वै जनाय ।।८

हिन्दी अनुवाद: –

 

महाराज ! उस जंगलमें छः डाकू हैं। इस वणिक्-समाजका नायक बड़ा दुष्ट है। उसके नेतृत्वमें जब यह वहाँ पहुँचता है, तब ये लुटेरे बलात् इसका सब माल-मत्ता लूट लेते हैं तथा भेड़िये जिस प्रकार भेड़ोंके झुंडमें घुसकर उन्हें खींच ले जाते हैं,

उसी प्रकार इसके साथ रहनेवाले गीदड़ ही इसे असावधान देखकर इसके धनको इधर-उधर खींचने लगते हैं ।।२।।

वह जंगल बहुत-सी लता, घास और झाड़-झंखाड़के कारण बहुत दुर्गम हो रहा है। उसमें तीव्र डाँस और मच्छर इसे चैन नहीं लेने देते। वहाँ इसे कभी तो गन्धर्वनगर दीखने लगता है और कभी-कभी चमचमाता हुआ अति चंचल अगिया-बेताल आँखोंके सामने आ जाता है ।।३।।

यह वणिक्-समुदाय इस वनमें निवासस्थान, जल और धनादिमें आसक्त होकार इधर-उधर भटकता रहता है। कभी बवंडरसे उठी हुई धूलके द्वारा जब सारी दिशाएँ धूमाच्छादित-सी हो जाती हैं और इसकी आँखोंमें भी धूल भर जाती है, तो इसे दिशाओंका ज्ञान भी नहीं रहता ।।४।।

कभी इसे दिखायी न देनेवाले झींगुरोंका कर्णकटु शब्द सुनायी देता है, कभी उल्लुओंकी बोलीसे इसका चित्त व्यथित हो जाता है।

कभी इसे भूख सताने लगती है तो यह निन्दनीय वृक्षोंका ही सहारा टटोलने लगता है और कभी प्याससे व्याकुल होकर मृगतृष्णाकी ओर दौड़ लगाता है ।।५।।

कभी जलहीन नदियोंकी ओर जाता है, कभी अन्न न मिलनेपर आपसमें एक-दूसरेसे भोजनप्राप्तिकी इच्छा करता है, कभी दावानलमें घुसकर अग्निसे झुलस जाता है और कभी यक्षलोग इसके प्राण खींचने लगते हैं तो यह खिन्न होने लगता है ।।६।।

कभी अपनेसे अधिक बलवान्‌लोग इसका धन छीन लेते हैं, तो यह दुःखी होकर शोक और मोहसे अचेत हो जाता है और कभी गन्धर्वनगरमें पहुँचकर घड़ीभरके लिये सब दुःख भूलकर खुशी मनाने लगता है ।।७।।

कभी पर्वतोंपर चढ़ना चाहता है तो काँटे और कंकड़ोंद्वारा पैर चलनी हो जानेसे उदास हो जाता है। कुटुम्ब बहुत बढ़ जाता है और उदरपूर्तिका साधन नहीं होता तो भूखकी ज्वालासे सन्तप्त होकर अपने ही बन्धु-बान्धवोंपर खीझने लगता है ।।८।।

संस्कृत श्लोक: –

 

 

क्वचिन्निगीर्णोऽजगराहिना जनो नावैति किञ्चिद्विपिनेऽपविद्धः ।दष्टः स्म शेते क्व च दन्दशूकै- रन्धोऽन्धकूपे पतितस्तमिस्रे ।।९

कर्हि स्म चित्क्षुद्ररसान् विचिन्वं- स्तन्मक्षिकाभिर्व्यथितो विमानः ।

तत्रातिकृच्छ्रात्प्रतिलब्धमानो बलाद्विलुम्पन्त्यथ तं ततोऽन्ये ।।१०

क्वचिच्च शीतातपवातवर्ष- प्रतिक्रियां कर्तुमनीश आस्ते । क्वचिन्मिथो विपणन् यच्च किञ्चिद् विद्वेषमृच्छत्युत वित्तशाठ्यात् ।।११

क्वचित्क्वचित्क्षीणधनस्तु तस्मिन् शय्यासनस्थानविहारहीनः ।

याचन् परादप्रतिलब्धकामः पारक्यदृष्टिर्लभतेऽवमानम् ।।१२

अन्योन्यवित्तव्यतिषङ्गवृद्ध- वैरानुबन्धो विवहन्मिथश्च । अध्वन्यमुष्मिन्नुरुकृच्छ्रवित्त- बाधोपसर्गेर्विहरन् विपन्नः ।।१३

तांस्तान् विपन्नान् स हि तत्र तत्र विहाय जातं परिगृह्य सार्थः । आवर्ततेऽद्यापि न कश्चिदत्र वीराध्वनः पारमुपैति योगम् ।।१४

हिन्दी अनुवाद: –

 

कभी अजगर सर्पका ग्रास बनकर वनमें फेंके हुए मुर्देके समान पड़ा रहता है। उस समय इसे कोई सुध-बुध नहीं रहती।

कभी दूसरे विषैले जन्तु इसे काटने लगते हैं तो उनके विषके प्रभावसे अंधा होकर किसी अंधे कुएँमें गिर पड़ता है और घोर दुःखमय अन्धकारमें बेहोश पड़ा रहता है ।।९।।

कभी मधु खोजने लगता है तो मक्खियाँ इसके नाकमें दम कर देती हैं और इसका सारा अभिमान नष्ट हो जाता है। यदि किसी प्रकार अनेकों कठिनाइयोंका सामना करके वह मिल भी गया तो बलात् दूसरे लोग उसे छीन लेते हैं ।।१०।।

कभी शीत, घाम, आँधी और वर्षासे अपनी रक्षा करनेमें असमर्थ हो जाता है। कभी आपसमें थोड़ा-बहुत व्यापार करता है, तो धनके लोभसे दूसरोंको धोखा देकर उनसे वैर ठान लेता है ।।११।।

कभी-कभी उस संसारवनमें इसका धन नष्ट हो जाता है तो इसके पास शय्या, आसन, रहनेके लिये स्थान और सैर-सपाटेके लिये सवारी आदि भी नहीं रहते।

तब दूसरोंसे याचना करता है; माँगनेपर भी दूसरेसे जब उसे अभिलषित वस्तु नहीं मिलती, तब परायी वस्तुओंपर अनुचित दृष्टि रखनेके कारण इसे बड़ा तिरस्कार सहना पड़ता है ।।१२।।

इस प्रकार व्यावहारिक सम्बन्धके कारण एक-दूसरेसे द्वेषभाव बढ़ जानेपर भी वह वणिक्-समूह आपसमें विवाहादि सम्बन्ध स्थापित करता है और फिर इस मार्गमें तरह- तरहके कष्ट और धनक्षय आदि संकटोंको भोगते-भोगते मृतकवत् हो जाता है ।।१३।।

साथियोंमेंसे जो-जो मरते जाते हैं, उन्हें जहाँ-का-तहाँ छोड़कर नवीन उत्पन्न हुओंको साथ लिये वह बनिजारोंका समूह बराबर आगे ही बढ़ता रहता है।

वीरवर ! उनमेंसे कोई भी प्राणी न तो आजतक वापस लौटा है और न किसीने इस संकटपूर्ण मार्गको पार करके परमानन्दमय योगकी ही शरण ली है ।।१४।।

संस्कृत श्लोक: –

 

मनस्विनो निर्जितदिग्गजेन्द्रा ममेति सर्वे भुवि बद्धवैराः ।

मृधे शयीरन्न तु तद्ब्रजन्ति यन्न्यस्तदण्डो गतवैरोऽभियाति ।।१५ प्रसज्जति क्वापि लताभुजाश्रय- स्तदाश्रयाव्यक्तपदद्विजस्पृहः । क्वचित्कदाचिद्धरिचक्रतस्त्रसन् सख्यं विधत्ते बककङ्कगृधैः ।।१६ तैर्वञ्चितो हंसकुलं समाविश-

न्नरोचयन् शीलमुपैति वानरान् । तज्जातिरासेन सुनिर्वृतेन्द्रियः परस्परोद्वीक्षणविस्मृतावधिः ।।१७ द्रुमेषु रंस्यन् सुतदारवत्सलो व्यवायदीनो विवशः स्वबन्धने । क्वचित्प्रमादागिरिकन्दरे पतन् वल्लीं गृहीत्वा गजभीत आस्थितः ।।१८ अतः कथञ्चित्स विमुक्त आपदः पुनश्च सार्थं प्रविशत्यरिन्दम । अध्वन्यमुष्मिन्नजया निवेशितो भ्रमञ्जनोऽद्यापि न वेद कश्चन ।।१९ रहूगण त्वमपि ह्यध्वनोऽस्य संन्यस्तदण्डः कृतभूतमैत्रः । असज्जितात्मा हरिसेवया शितं ज्ञानासिमादाय तरातिपारम् ।।२०

हिन्दी अनुवाद: –

 

जिन्होंने बड़े-बड़े दिक्पालोंको जीत लिया है, वे धीर-वीर पुरुष भी पृथ्वीमें ‘यह मेरी है’ ऐसा अभिमान करके आपसमें वैर ठानकर संग्रामभूमिमें जूझ जाते हैं।

तो भी उन्हें भगवान् विष्णुका वह अविनाशी पद नहीं मिलता, जो वैरहीन परमहंसोंको प्राप्त होता है ।।१५।।

इस भवाटवीमें भटकनेवाला यह बनिजारोंका दल कभी किसी लताकी डालियोंका आश्रय लेता है और उसपर रहनेवाले मधुरभाषी पक्षियोंके मोहमें फँस जाता है। कभी सिंहोंके समूहसे भय मानकर बगुला, कंक और गिद्धोंसे प्रीति करता है ।।१६।।

जब उनसे धोखा उठाता है, तब हंसोंकी पंक्तिमें प्रवेश करना चाहता है; किन्तु उसे उनका आचार नहीं सुहाता, इसलिये वानरोंमें मिलकर उनके जातिस्वभावके अनुसार दाम्पत्य सुखमें रत रहकर विषयभोगोंसे इन्द्रियोंको तृप्त करता रहता है और एक-दूसरेका मुख देखते-देखते अपनी आयुकी अवधिको भूल जाता है ।।१७।।

वहाँ वृक्षोंमें क्रीडा करता हुआ पुत्र और स्त्रीके स्नेहपाशमें बँध जाता है। इसमें मैथुनकी वासना इतनी बढ़ जाती है कि तरह-तरहके दुर्व्यवहारोंसे दीन होनेपर भी यह विवश होकर अपने बन्धनको तोड़नेका साहस नहीं कर सकता।

कभी असावधानीसे पर्वतकी गुफामें गिरने लगता है तो उसमें रहनेवाले हाथीसे डरकर किसी लताके सहारे लटका रहता है ।। १८ ।।

शत्रुदमन ! यदि किसी प्रकार इसे उस आपत्तिसे छुटकारा मिल जाता है, तो यह फिर अपने गोलमें मिल जाता है। जो मनुष्य मायाकी प्रेरणासे एक बार इस मार्गमें पहुँच जाता है, उसे भटकते-भटकते अन्ततक अपने परम पुरुषार्थका पता नहीं लगता ।।१९।।

रहूगण! तुम भी इसी मार्गमें भटक रहे हो, इसलिये अब प्रजाको दण्ड देनेका कार्य छोड़कर समस्त प्राणियोंके सुहृद् हो जाओ और विषयोंमें अनासक्त होकर भगवत्सेवासे तीक्ष्ण किया हुआ ज्ञानरूप खड्ग लेकर इस मार्गको पार कर लो ।।२०।।

संस्कृत श्लोक: –

 

राजोवाच

अहो नृजन्माखिलजन्मशोभनं किं जन्मभिस्त्वपरैरप्यमुष्मिन् ।

न यदृषीकेशयशःकृतात्मनां महात्मनां वः प्रचुरः समागमः ।।२१

न ह्यद्भुतं त्वच्चरणाब्जरेणुभि- र्हतांहसो भक्तिरधोक्षजेऽमला ।

मौहूर्तिकाद्यस्य समागमाच्च मे दुस्तर्कमूलोऽपहतोऽविवेकः ।।२२

नमो महद्भ्योऽस्तु नमः शिशुभ्यो नमो युवभ्यो नम आ वटुभ्यः ।

ये ब्राह्मणा गामवधूतलिङ्गा- श्चरन्ति तेभ्यः शिवमस्तु राज्ञाम् ।।२३

श्रीशुक उवाच

इत्येवमुत्तरामातः स वै ब्रह्मर्षिसुतः सिन्धुपतय आत्मसतत्त्वं विगणयतः परानुभावः परमकारुणिकतयोपदिश्य रहूगणेन सकरुणमभि-वन्दितचरण आपूर्णार्णव इव निभृतकरणो-र्याशयो धरणिमिमां विचचार ।।२४।। सौवीरपतिरपि सुजनसमवगतपरमात्मसतत्त्व आत्मन्यविद्याध्यारोपितां च देहात्ममतिं विससर्ज । एवं हि नृप भगवदाश्रिताश्रितानुभावः ।।२५।।

हिन्दी अनुवाद: –

 

राजा रहूगणने कहा- अहो ! समस्त योनियोंमें यह मनुष्यजन्म ही श्रेष्ठ है। अन्यान्य लोकोंमें प्राप्त होनेवाले देवादि उत्कृष्ट जन्मोंसे भी क्या लाभ है,

जहाँ भगवान् हृषीकेशके पवित्र यशसे शुद्ध अन्तःकरणवाले आप-जैसे महात्माओंका अधिकाधिक समागम नहीं मिलता ।। २१ ।।

आपके चरणकमलोंकी रजका सेवन करनेसे जिनके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये हैं, उन महानुभावोंको भगवान्‌की विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है। मेरा तो आपके दो घड़ीके सत्संगसे ही सारा कुतर्कमूलक अज्ञान नष्ट हो गया है ।।२२।।

ब्रह्मज्ञानियोंमें जो वयोवृद्ध हों, उन्हें नमस्कार है; जो शिशु हों, उन्हें नमस्कार है; जो युवा हों, उन्हें नमस्कार है। जो क्रीडारत बालक हों, उन्हें भी नमस्कार है। जो ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण अवधूतवेषसे पृथ्वीपर विचरते हैं, उनसे हम जैसे ऐश्वर्योन्मत्त राजाओंका कल्याण हो ।।२३।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – उत्तरानन्दन ! इस प्रकार उन परम प्रभावशाली ब्रह्मर्षिपुत्रने अपना अपमान करनेवाले सिन्धुनरेश रहूगणको भी अत्यन्त करुणावश आत्मतत्त्वका उपदेश दिया।

तब राजा रहूगणने दीनभावसे उनके चरणोंकी वन्दना की। फिर वे परिपूर्ण समुद्रके समान शान्तचित्त और उपरतेन्द्रिय होकर पृथ्वीपर विचरने लगे ।।२४।।

उनके सत्संगसे परमात्मतत्त्वका ज्ञान पाकर सौवीरपति रहूगणने भी अन्तःकरणमें अविद्यावश आरोपित देहात्मबुद्धिको त्याग दिया। राजन् !

जो लोग भगवदाश्रित अनन्य भक्तोंकी शरण ले लेते हैं, उनका ऐसा ही प्रभाव होता है- उनके पास अविद्या ठहर नहीं सकती ।।२५।।

राजोवाच

यो ह वा इह बहुविदा महाभागवत त्वयाभिहितः परोक्षेण वचसा जीवलोकभवाध्वा स ह्यार्यमनीषया कल्पितविषयो नाञ्जसाव्युत्पन्न-लोकसमधिगमः । अथ तदेवैतद्दुरवगमं समवेतानुकल्पेन निर्दिश्यतामिति ।।२६।।

राजा परीक्षित्ने कहा- महाभागवत मुनिश्रेष्ठ ! आप परम विद्वान् हैं। आपने रूपकादिके द्वारा अप्रत्यक्षरूपसे जीवोंके जिस संसाररूप मार्गका वर्णन किया है,

उस विषयकी कल्पना विवेकी पुरुषोंकी बुद्धिने की है; वह अल्पबुद्धिवाले पुरुषोंकी समझमें सुगमतासे नहीं आ सकता। अतः मेरी प्रार्थना है कि इस दुर्बोध विषयको रूपकका स्पष्टीकरण करनेवाले शब्दोंसे खोलकर समझाइये ।।२६।।

इति श्रीम‌द्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ।।१३।।

१. प्रा० पा०-तत्रातिकृच्छ्रं प्रति। २. प्रा० पा०- अन्योन्यकर्म । १. प्रा० पा०- सुनिर्जितेन्द्रियः। २. प्रा० पा०- मुष्मिन्नंजसा। १. प्रा० पा० – आत्मस्वतत्त्वं । २. प्रा० पा० – चरणः पूर्णार्णव इव। ३. प्रा० पा०- मिमां चचार। ४. प्रा० पा०- भगवदाश्रितानुभावः ।

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