Bhagwat puran skandh 5 chapter 11(भागवत पुराण पञ्चमः स्कन्ध:अथैकादशोऽध्यायः राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश)
संस्कृत श्लोक: –
ब्राह्मण उवाच
अकोविदः कोविदवादवादान् वदस्यथो नातिविदां वरिष्ठः ।
न सूरयो हि व्यवहारमेनं तत्त्वावमर्शेन सहामनन्ति ।।१
तथैव राजन्नुरुगार्हमेध- वितानविद्योरुविजृम्भितेषु ।
न वेदवादेषु हि तत्त्ववादः प्रायेण शुद्धो नु चकास्ति साधुः ।।२
न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षाद् वरीयसीरपि वाचः समासन् ।
स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधिसौख्यं न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात् ।।३
हिन्दी अनुवाद: –
जडभरतने कहा- राजन् ! तुम अज्ञानी होनेपर भी पण्डितोंके समान ऊपर-ऊपरकी तर्क-वितर्कयुक्त बात कह रहे हो।
इसलिये श्रेष्ठ ज्ञानियोंमें तुम्हारी गणना नहीं हो सकती। तत्त्वज्ञानी पुरुष इस अविचारसिद्ध स्वामी-सेवक आदि व्यवहारको तत्त्वविचारके समय सत्यरूपसे स्वीकार नहीं करते ।। १ ।।
लौकिक व्यवहारके समान ही वैदिक व्यवहार भी सत्य नहीं है, क्योंकि वेदवाक्य भी अधिकतर गृहस्थजनोचित यज्ञविधिके विस्तारमें ही व्यस्त हैं, राग-द्वेषादि दोषोंसे रहित विशुद्ध तत्त्वज्ञानकी पूरी-पूरी अभिव्यक्ति प्रायः उनमें भी नहीं हुई है ।।२।।
जिसे गृहस्थोचित यज्ञादि कर्मोंसे प्राप्त होनेवाला स्वर्गादि सुख स्वप्नके समान हेय नहीं जान पड़ता, उसे तत्त्वज्ञान करानेमें साक्षात् उपनिषद्-वाक्य भी समर्थ नहीं है ।।३।।
संस्कृत श्लोक: –
यावन्मनो रजसा पूरुषस्य सत्त्वेन वा तमसा वानुरुद्धम् । चेतोभिराकृतिभिरातनोति निरङ्कुशं कुशलं चेतरं वा ।।४ स वासनात्मा विषयोपरक्तो गुणप्रवाहो विकृतः षोडशात्मा ।
बिभ्रत्पृथङ्नामभि रूपभेद- मन्तर्बहिष्ट्वं च पुरैस्तनोति ।।५दुःखं सुखं व्यतिरिक्तं च तीव्र कालोपपन्नं फलमाव्यनक्ति ।आलिङ्ग्य मायारचितान्तरात्मा स्वदेहिनं संसृतिचक्रकूटः ।।६तावानयं व्यवहारः सदाविः क्षेत्रज्ञसाक्ष्यो भवति स्थूलसूक्ष्मः ।तस्मान्मनो लिङ्गमदो वदन्ति गुणागुणत्वस्य परावरस्य ।।७ गुणानुरक्तं व्यसनाय जन्तोः क्षेमाय नैर्गुण्यमथो मनः स्यात् ।यथा प्रदीपो घृतवर्तिमश्नन् शिखाः सधूमा भजति ह्यन्यदा स्वम् ।
पदं तथा गुणकर्मानुबद्धं वृत्तीर्मनः श्रयतेऽन्यत्र तत्त्वम् ।।८ एकादशासन्मनसो हि वृत्तय आकूतयः पञ्च धियोऽभिमानः । मात्राणि कर्माणि पुरं च तासां वदन्ति हैकादश वीर भूमीः ।।९ गन्धाकृतिस्पर्शरसश्रवांसि विसर्गरत्यर्त्यभिजल्पशिल्पाः । एकादशं स्वीकरणं ममेति शय्यामहं द्वादशमेक आहुः ।।१०
हिन्दी अनुवाद: –
जबतक मनुष्यका मन सत्त्व, रज अथवा तमोगुणके वशीभूत रहता है, तबतक वह बिना किसी अंकुशके उसकी ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियोंसे शुभाशुभ कर्म कराता रहता है ।।४।।
यह मन वासनामय, विषयासक्त, गुणोंसे प्रेरित, विकारी और भूत एवं इन्द्रियरूप सोलह कलाओंमें मुख्य है। यही भिन्न-भिन्न नामोंसे देवता और मनुष्यादिरूप धारण करके शरीररूप उपाधियोंके भेदसे जीवकी उत्तमता और अधमताका कारण होता है ।।५।।
यह मायामय मन संसारचक्रमें छलनेवाला है, यही अपनी देहके अभिमानी जीवसे मिलकर उसे कालक्रमसे प्राप्त हुए सुख-दुःख और इनसे व्यतिरिक्त मोहरूप अवश्यम्भावी फलोंकी अभिव्यक्ति करता है ।।६।।
जबतक यह मन रहता है, तभीतक जाग्रत और स्वप्नावस्थाका व्यवहार प्रकाशित होकर जीवका दृश्य बनता है। इसलिये पण्डितजन मनको ही त्रिगुणमय अधम संसारका और गुणातीत परमोत्कृष्ट मोक्षपदका कारण बताते हैं ।।७।।
विषयासक्त मन जीवको संसार-संकटमें डाल देता है, विषयहीन होनेपर वही उसे शान्तिमय मोक्षपद प्राप्त करा देता है।
जिस प्रकार घीसे भीगी हुई बत्तीको खानेवाले दीपकसे तो धुएँवाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है तब वह अपने कारण अग्नितत्त्वमें लीन हो जाता है-उसी प्रकार विषय और कर्मोंसे आसक्त हुआ मन तरह- तरहकी वृत्तियोंका आश्रय लिये रहता है और इनसे मुक्त होनेपर वह अपने तत्त्वमें लीन हो जाता है ।।८।।
वीरवर ! पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार- ये ग्यारह मनकी वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकारके कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर- ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं ।।९।।
गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द- ये पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके विषय हैं; मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार- ये पाँच कर्मेन्द्रियोंके विषय हैं तथा शरीरको ‘यह मेरा है’ इस प्रकार स्वीकार करना अहंकारका विषय है।
कुछ लोग अहंकारको मनकी बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीरको बारहवाँ विषय मानते हैं ।।१०।।
संस्कृत श्लोक: –
द्रव्यस्वभावाशयकर्मकालै- रेकादशामी मनसो विकाराः ।सहस्रशः शतशः कोटिशश्च क्षेत्रज्ञतो न मिथो न स्वतः स्युः ।।११
क्षेत्रज्ञ एता मनसो विभूती- र्जीवस्य मायारचितस्य नित्याः ।आविर्हिताः क्वापि तिरोहिताश्च शुद्धो विचष्टे ह्यविशुद्धकर्तुः ।।१२ क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुषः पुराणः साक्षात्स्वयंज्योतिरजः परेशः ।
नारायणो भगवान् वासुदेवः स्वमाययाऽऽत्मन्यवधीयमानः ।।१३
यथानिलः स्थावरजङ्गमाना- मात्मस्वरूपेण निविष्ट ईशेत् ।एवं परो भगवान् वासुदेवः क्षेत्रज्ञ आत्मेदमनुप्रविष्टः ।।१४न यावदेतां तनुभृन्नरेन्द्र विधूय मायां वयुनोदयेन ।
विमुक्तसङ्गो जितषट्सपत्नो वेदात्मतत्त्वं भ्रमतीह तावत् ।।१५
न यावदेतन्मन आत्मलिङ्गं संसारतापावपनं जनस्य ।यच्छोकमोहामयरागलोभ- वैरानुबन्धं ममतां विधत्ते ।।१६भ्रातृव्यमेनं तददभ्रवीर्य- मुपेक्षयाध्येधितमप्रमत्तः । गुरोहरेश्चरणोपासनास्त्रो जहि व्यलीकं स्वयमात्ममोषम् ।।१७
हिन्दी अनुवाद: –
ये मनकी ग्यारह वृत्तियाँ द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और कालके द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदोंमें परिणत हो जाती हैं।
किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्माकी सत्तासे ही है, स्वतः या परस्पर मिलकर नहीं है ।।११।।
ऐसा होनेपर भी मनसे क्षेत्रज्ञका कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो जीवकी ही मायानिर्मित उपाधि है।
यह प्रायः संसारबन्धनमें डालनेवाले अविशुद्ध कर्मोंमें ही प्रवृत्त रहता है।
इसकी उपर्युक्त वृत्तियाँ प्रवाहरूपसे नित्य ही रहती हैं; जाग्रत् और स्वप्नके समय वे प्रकट हो जाती हैं और सुषुप्तिमें छिप जाती हैं।
इन दोनों ही अवस्थाओंमें क्षेत्रज्ञ, जो विशुद्ध चिन्मात्र है, मनकी इन वृत्तियोंको साक्षीरूपसे देखता रहता है ।।१२।।
यह क्षेत्रज्ञ परमात्मा सर्वव्यापक, जगत्का आदिकारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयंप्रकाश,
अजन्मा, ब्रह्मादिका भी नियन्ता और अपने अधीन रहनेवाली मायाके द्वारा सबके
अन्तःकरणोंमें रहकर जीवोंको प्रेरित करनेवाला समस्त भूतोंका आश्रयरूप भगवान् वासुदेव है ।।१३।।
जिस प्रकार वायु सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणियोंमें प्राणरूपसे प्रविष्ट होकर उन्हें
प्रेरित करती है, उसी प्रकार वह परमेश्वर भगवान् वासुदेव सर्वसाक्षी आत्मस्वरूपसे इस सम्पूर्ण प्रपंचमें ओत-प्रोत है ।।१४।।
राजन् ! जबतक मनुष्य ज्ञानोदयके द्वारा इस मायाका तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम-क्रोधादि छः शत्रुओंको जीतकर
आत्मतत्त्वको नहीं जान लेता और जबतक वह आत्माके उपाधिरूप मनको संसार-दुःखका
क्षेत्र नहीं समझता, तबतक वह इस लोकमें यों ही भटकता रहता है, क्योंकि यह चित्त उसके
शोक, मोह, रोग, राग, लोभ और वैर आदिके संस्कार तथा ममताकी वृद्धि करता रहता है ।।१५-१६।।
यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारे उपेक्षा करनेसे इसकी शक्ति
और भी बढ़ गयी है। यह यद्यपि स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है, तथापि इसने तुम्हारे
आत्मस्वरूपको आच्छादित कर रखा है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरिके चरणोंकी उपासनाके अस्त्रसे इसे मार डालो ।।१७।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे ब्राह्मणरहूगणसंवादे एकादशोऽध्यायः ।।११।।
१. प्रा० पा०- नात्मविदां वरिष्ठः। २. प्रा० पा० – व्यवहारमेतं । ३. प्रा० पा०- गरीयसीरपि।