Bhagwat puran skandh 5 chapter 1( भागवत पुराण पञ्चमः स्कन्धः प्रथमोऽध्यायः प्रियव्रत-चरित्र)

 Bhagwat puran skandh 5 chapter 1(भागवत पुराण  पञ्चमः स्कन्धःप्रियव्रत-चरित्र)

!ॐ नमो भगवते वासुदेवाय!

!श्रीमद्भागवतमहापुराणम्!

संस्कृत श्लोक: –

 

राजोवाच

प्रियव्रतो भागवत आत्मारामः कथं मुने । गृहेऽरमत यन्मूलः कर्मबन्धः पराभवः ।।१न नूनं मुक्तसङ्गानां तादृशानां द्विजर्षभ । गृहेष्वभिनिवेशोऽयं पुंसां भवितुमर्हति ।।२महतां खलु विप्रर्षे उत्तमश्लोकपादयोः । छायानिर्वृतचित्तानां न कुटुम्बे स्पृहामतिः ।।३संशयोऽयं महान् ब्रह्मन्दारागारसुतादिषु । सक्तस्य यत्सिद्धिरभूत्कृष्णे च मतिरच्युता ।।४

श्रीशुक उवाच

बाढमुक्तं भगवत उत्तमश्लोकस्य श्रीमच्चरणारविन्दमकरन्दरस आवेशितचेतसो भागवतपरमहंसदयितकथां किञ्चिदन्तरायविहतां स्वां शिवतमां पदवीं न प्रायेण हिन्वन्ति ।।५।।

हिन्दी अनुवाद: –

 

राजा परीक्षित्ने पूछा- मुने ! महाराज प्रियव्रत तो बड़े भगवद्भक्त और आत्माराम थे। उनकी गृहस्थाश्रममें कैसे रुचि हुई, जिसमें फँसनेके कारण मनुष्यको अपने स्वरूपकी विस्मृति होती है और वह कर्मबन्धनमें बँध जाता है? ।।१।।

विप्रवर! निश्चय ही ऐसे निःसंग महापुरुषोंका इस प्रकार गृहस्थाश्रममें अभिनिवेश होना उचित नहीं है ।।२।।

इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं कि जिनका चित्त पुण्यकीर्ति श्रीहरिके चरणोंकी शीतल छायाका आश्रय लेकर शान्त हो गया है, उन महापुरुषोंकी कुटुम्बादिमें कभी आसक्ति नहीं हो सकती ।।३।।

ब्रह्मन् ! मुझे इस बातका बड़ा सन्देह है कि महाराज प्रियव्रतने स्त्री, घर और पुत्रादिमें आसक्त रहकर भी किस प्रकार सिद्धि प्राप्त कर ली और क्योंकर उनकी भगवान् श्रीकृष्णमें अविचल भक्ति हुई ।।४।।

श्रीशुकदेवजीने कहा- राजन् ! तुम्हारा कथन बहुत ठीक है। जिनका चित्त पवित्रकीर्ति श्रीहरिके परम मधुर चरणकमल-मकरन्दके रसमें सराबोर हो गया है,

वे किसी विघ्न-बाधाके कारण रुकावट आ जानेपर भी भगवद्भक्त परमहंसोंके प्रिय श्रीवासुदेव भगवान्‌के कथाश्रवणरूपी परम कल्याणमय मार्गको प्रायः छोड़ते नहीं ।।५।।

संस्कृत श्लोक: –

 

यर्हि वाव ह राजन् स राजपुत्रः प्रियव्रतः परमभागवतो नारदस्य चरणोपसेवयाञ्जसा-वगतपरमार्थसतत्त्वो ब्रह्मसत्रेण दीक्षिष्यमाणो- ऽवनितलपरिपालनायाम्नातप्रवरगुणगणैकान्त-भाजनतया स्वपित्रोपामन्त्रितो भगवति वासुदेव एवाव्यवधानसमाधियोगेन समावेशितसकल-कारकक्रियाकलापो तदप्रत्याम्नातव्यं नैवाभ्यनन्दद्यद्यपि पराभवमन्वीक्षमाणः ।।६।। तदधिकरण आत्मनोऽन्यस्मा-दसतोऽपि अथ ह भगवानादिदेव एतस्य गुण-विसर्गस्य परिबृंहणानुध्यानव्यवसितसकल- जगदभिप्राय आत्मयोनिरखिलनिगमनिजगण – परिवेष्टितः स्वभवनादवततार ।।७।। स तत्र तत्र गगनतल उडुपतिरिव विमानावलिभिरनुपथ-ममरपरिवृढरभिपूज्यमानः ७ पथि पथि च वरूथशः सिद्धगन्धर्वसाध्यचारणमुनिगणैरुपगीयमानो गन्धमादनद्रोणीमवभासयन्नुपससर्प ।।८।। तत्र ह वा एनं देवर्षिर्हसयानेन पितरं भगवन्तं हिरण्यगर्भमुपलभमानः पितापुत्राभ्यामवहिताञ्जलिरुपतस्थे ।।९।। सहसैवोत्थायार्हणेन सह

हिन्दी अनुवाद: –

 

राजन् ! राजकुमार प्रियव्रत बड़े भगवद्भक्त थे, श्रीनारदजीके चरणोंकी सेवा करनेसे उन्हें सहजमें ही परमार्थतत्त्वका बोध हो गया था।

वे ब्रह्मसत्रकी दीक्षा- निरन्तर ब्रह्माभ्यासमें जीवन बितानेका नियम लेनेवाले ही थे कि उसी समय उनके पिता स्वायम्भुव मनुने उन्हें पृथ्वीपालनके लिये शास्त्रमें बताये हुए सभी श्रेष्ठ गुणोंसे पूर्णतया सम्पन्न देख राज्यशासनके लिये आज्ञा दी।

किन्तु प्रियव्रत अखण्ड समाधियोगके द्वारा अपनी सारी इन्द्रियों और क्रियाओंको भगवान् वासुदेवके चरणोंमें ही समर्पण कर चुके थे।

अतः पिताकी आज्ञा किसी प्रकार उल्लंघन करनेयोग्य न होनेपर भी, यह सोचकर कि राज्याधिकार पाकर मेरा आत्मस्वरूप स्त्री-पुत्रादि असत् प्रपंचसे आच्छादित हो जायगा – राज्य और कुटुम्बकी चिन्तामें फँसकर मैं परमार्थतत्त्वको प्रायः भूल जाऊँगा, उन्होंने उसे स्वीकार न किया ।।६।।

आदिदेव स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माजीको निरन्तर इस गुणमय प्रपंचकी वृद्धिका ही विचार रहता है। वे सारे संसारके जीवोंका अभिप्राय जानते रहते हैं। जब उन्होंने प्रियव्रतकी ऐसी प्रवृत्ति देखी, तब वे मूर्तिमान् चारों वेद और मरीचि आदि पार्षदोंको साथ लिये अपने लोकसे उतरे ।।७।।

आकाशमें जहाँ-तहाँ विमानोंपर चढ़े हुए इन्द्रादि प्रधान-प्रधान देवताओंने उनका पूजन किया तथा मार्गमें टोलियाँ बाँधकर आये हुए सिद्ध, गन्धर्व, साध्य, चारण और मुनिजनने स्तवन किया। इस प्रकार जगह-जगह आदर-सम्मान पाते वे साक्षात् नक्षत्रनाथ चन्द्रमाके समान गन्धमादनकी घाटीको प्रकाशित करते हुए प्रियव्रतके पास पहुँचे ।।८।।

प्रियव्रतको आत्मविद्याका उपदेश देनेके लिये वहाँ नारदजी भी आये हुए थे। ब्रह्माजीके वहाँ पहुँचनेपर उनके वाहन हंसको देखकर देवर्षि नारद जान गये कि हमारे पिता भगवान् ब्रह्माजी पधारे हैं; अतः वे स्वायम्भुव मनु और प्रियव्रतके सहित तुरंत खड़े हो गये और सबने उनको हाथ जोड़कर प्रणाम किया ।।९।।

संस्कृत श्लोक: –

 

भगवानपि भारत तदुपनीतार्हणः सूक्तवाकेनातितरामुदितगुणगणावतारसुजयः प्रियव्रतमादिपुरुषस्तं सदयहासावलोक इति होवाच ।।१०।।

श्रीभगवानुवाच

निबोध तातेदमृतं ब्रवीमि मासूयितुं देवमर्हस्यप्रमेयम् । वयं भवस्ते तत एष महर्षि- र्वहाम सर्वे विवशा यस्य दिष्टम् ।।११

न तस्य कश्चित्तपसा विद्यया वा न योगवीर्येण मनीषया वा ।नैवार्थधर्मैः परतः स्वतो वा कृतं विहन्तुं तनुभृद्धिभूयात् ।।१२

भवाय नाशाय च कर्म कर्तुं शोकाय मोहाय सदा भयाय ।सुखाय दुःखाय च देहयोग- मव्यक्तदिष्टं जनताङ्ग धत्ते ।।१३यद्वाचि तन्त्यां गुणकर्मदामभिः सुदुस्तरैर्वत्स वयं सुयोजिताः ।सर्वे वहामो बलिमीश्वराय प्रोता नसीव द्विपदे चतुष्पदः ।।१४

ईशाभिसृष्टं ह्यवरुन्ध्महेऽङ्ग दुःखं सुखं वा गुणकर्मसङ्गात् ।आस्थाय तत्तद्यदयुक्त नाथ- श्चक्षुष्मतान्धा इव नीयमानाः ।।१५मुक्तोऽपि तावद्विभृयात्स्वदेह- मारब्धमश्नन्नभिमानशून्यः ।यथानुभूतं प्रतियातनिद्रः किं त्वन्यदेहाय गुणान्न वृते ।।१६

हिन्दी अनुवाद: –

 

परीक्षित् ! नारदजीने उनकी अनेक प्रकारसे पूजा की और सुमधुर वचनोंमें उनके गुण और अवतारकी उत्कृष्टताका वर्णन किया। तब आदिपुरुष भगवान् ब्रह्माजीने प्रियव्रतकी ओर मन्द मुसकानयुक्त दयादृष्टिसे देखते हुए इस प्रकार कहा ।।१०।।

श्रीब्रह्माजीने कहा- बेटा! मैं तुमसे सत्य सिद्धान्तकी बात कहता हूँ, ध्यान देकर सुनो। तुम्हें अप्रमेय श्रीहरिके प्रति किसी प्रकारकी दोषदृ‌ष्टि नहीं रखनी चाहिये। तुम्हीं क्या-हम, महादेवजी, तुम्हारे पिता स्वायम्भुव मनु और तुम्हारे गुरु ये महर्षि नारद भी विवश होकर उन्हींकी आज्ञाका पालन करते हैं ।। ११ ।।

उनके विधानको कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, योगबल या बुद्धिबलसे, न अर्थ या धर्मकी शक्तिसे और न स्वयं या किसी दूसरेकी सहायतासे ही टाल सकता है ।।१२।।

प्रियवर ! उसी अव्यक्त ईश्वरके दिये हुए शरीरको सब जीव जन्म, मरण, शोक, मोह, भय और सुख-दुःखका भोग करने तथा कर्म करनेके लिये सदा धारण करते हैं ।।१३।।

वत्स ! जिस प्रकार रस्सीसे नथा हुआ पशु मनुष्योंका बोझ ढोता है, उसी प्रकार परमात्माकी वेदवाणीरूप बड़ी रस्सीमें सत्त्वादि गुण, सात्त्विक आदि कर्म और उनके ब्राह्मणादि वाक्योंकी मजबूत डोरीसे जकड़े हुए हम सब लोग उन्हींके इच्छानुसार कर्ममें लगे रहते हैं और उसके द्वारा उनकी पूजा करते रहते हैं ।।१४।।

हमारे गुण और कर्मोंके अनुसार प्रभुने हमें जिस योनिमें डाल दिया है उसीको स्वीकार करके, वे जैसी व्यवस्था करते हैं उसीके अनुसार हम सुख या दुःख भोगते रहते हैं। हमें उनकी इच्छाका उसी प्रकार अनुसरण करना पड़ता है, जैसे किसी अंधेको आँखवाले पुरुषका ।।१५।।

मुक्त पुरुष भी प्रारब्धका भोग करता हुआ भगवान्‌की इच्छाके अनुसार अपने शरीरको धारण करता ही है; ठीक वैसे ही जैसे मनुष्यकी निद्रा टूट जानेपर भी स्वप्नमें अनुभव किये हुए पदार्थोंका स्मरण होता है।

इस अवस्थामें भी उसको अभिमान नहीं होता और विषयवासनाके जिन संस्कारोंके कारण दूसरा जन्म होता है, उन्हें वह स्वीकार नहीं करता ।।१६।।

संस्कृत श्लोक: –

 

भयं प्रमत्तस्य वनेष्वपि स्याद् यतः स आस्ते सहषट्सपत्नः ।जितेन्द्रियस्यात्मरतेर्बुधस्य गृहाश्रमः किं नु करोत्यवद्यम् ।।१७ यः षट् सपत्नान् विजिगीषमाणो गृहेषु निर्विश्य यतेत पूर्वम् । अत्येति दुर्गाश्रित ऊर्जितारीन् क्षीणेषु कामं विचरेद्विपश्चित् ।।१८ त्वं त्वब्जनाभा‌ङ्घ्रिसरोजकोश- दुर्गाश्रितो निर्जितषट्सपत्नः भुङ्क्ष्वह भोगान् पुरुषातिदिष्टान् । विमुक्तसङ्गः प्रकृतिं भजस्व ।।१९

श्रीशुक उवाच

इति समभिहितो महाभागवतो भगवतः त्रिभुवनगुरोरनुशासनमात्मनो लघुतयावनत-शिरोधरो बाढमिति सबहुमानमुवाह ।।२०।।भगवानपि मनुना यथावदुपकल्पितापचितिः प्रियव्रतनारदयोरविषममभिसमीक्षमाणयोरात्म-समवस्थानमवाङ्मनसं क्षयमव्यवहृतं प्रवर्तयन्नगमत् ।।२१।।मनुरपि परेणैवं प्रतिसन्धितमनोरथः आस्थाप्य सुरर्षिवरानुमतेनात्मजमखिलधरामण्डलस्थिति-गुप्तय स्वयमतिविषमविषय-विषजलाशयाशाया उपरराम ।। २२ ।।

हिन्दी अनुवाद: –

 

जो पुरुष इन्द्रियोंके वशीभूत है, वह वन-वनमें विचरण करता रहे तो भी उसे जन्म- मरणका भय बना ही रहता है; क्योंकि बिना जीते हुए मन और इन्द्रियरूपी उसके छः शत्रु कभी उसका पीछा नहीं छोड़ते। जो बुद्धिमान् पुरुष इन्द्रियोंको जीतकर अपनी आत्मामें ही रमण करता है, उसका गृहस्थाश्रम भी क्या बिगाड़ सकता है? ।।१७।।

जिसे इन छः शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा हो, वह पहले घरमें रहकर ही उनका अत्यन्त निरोध करते हुए उन्हें वशमें करनेका प्रयत्न करे। किलेमें सुरक्षित रहकर लड़नेवाला राजा अपने प्रबल शत्रुओंको भी जीत लेता है। फिर जब इन शत्रुओंका बल अत्यन्त क्षीण हो जाय, तब विद्वान् पुरुष इच्छानुसार विचर सकता है ।।१८।।

तुम यद्यपि श्रीकमलनाभ भगवान्‌के चरणकमलकी कलीरूप किलेके आश्रित रहकर इन छहों शत्रुओंको जीत चुके हो, तो भी पहले उन पुराणपुरुषके दिये हुए भोगोंको भोगो; इसके बाद निःसंग होकर अपने आत्मस्वरूपमें स्थित हो जाना ।।१९।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- जब त्रिलोकीके गुरु श्रीब्रह्माजीने इस प्रकार कहा, तो परमभागवत प्रियव्रतने छोटे होनेके कारण नम्रतासे सिर झुका लिया और ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर बड़े आदरपूर्वक उनका आदेश शिरोधार्य किया ।। २० ।।

तब स्वायम्भुव मनुने प्रसन्न होकर भगवान् ब्रह्माजीकी विधिवत् पूजा की। इसके पश्चात् वे मन और वाणीके अविषय, अपने आश्रय तथा सर्वव्यवहारातीत परब्रह्मका चिन्तन करते हुए अपने लोकको चले गये। इस समय प्रियव्रत और नारदजी सरल भावसे उनकी ओर देख रहे थे ।। २१ ।।

मनुजीने इस प्रकार ब्रह्माजीकी कृपासे अपना मनोरथ पूर्ण हो जानेपर देवर्षि नारदकी आज्ञासे प्रियव्रतको सम्पूर्ण भूमण्डलकी रक्षाका भार सौंप दिया और स्वयं विषयरूपी विषैले जलसे भरे हुए गृहस्थाश्रमरूपी दुस्तर जलाशयकी भोगेच्छासे निवृत्त हो गये ।।२२।।

संस्कृत श्लोक: –

 

इति ह वाव स जगतीपतिरीश्वरेच्छ्या-धिनिवेशित कर्माधिकारो ऽखिलजगद्बन्धध्वंसन-परानुभावस्य भगवत आदिपुरुषस्याङ्घ्रियुगला- नवरतध्यानानुभावेन परिरन्धितकषायाशयो ऽवदातोऽपि मानवर्धनो महतां महीतलम- नुशशास ।।२३।। अथ च दुहितरं प्रजापते-र्विश्वकर्मण उपयेमे बर्हिष्मतीं नाम तस्यामु ह वाव आत्मजानात्मसमानशीलगुणकर्मरूप-वीर्योदारान्दश भावयाम्बभूव कन्यां च यवीयसीमूर्जस्वतीं नाम ।।२४।।

आग्नीध्रध्मजिह्वयज्ञबाहुमहावीरहिरण्यरेतो-घृतपृष्ठसवनमेधातिथिवीतिहोत्रकवय इति सर्व एवाग्निनामानः ।। २५ ।। एतेषां कविर्महावीरः सवन इति त्रय आत्मविद्यायामर्भभावादारभ्य आसन्नूर्ध्वरेतसस्त कृतपरिचयाः पारमहंस्यमेवाश्रममभजन् ।। २६ ।। तस्मिन्नु ह वा उपशमशीलाः परमर्षयः सकलजीव- निकायावासस्य भगवतो वासुदेवस्य भीतानां शरणभूतस्य श्रीमच्चरणारविन्दाविरतस्मरणा-विगलितपरमभक्तियोगानुभावेन न्तहृदयाधिगते भगवति सर्वेषां परिभाविता- भूतानामात्म-भूते प्रत्यगात्मन्येवात्मनस्तादात्म्यमविशेषेण समीयुः ।।२७।। अन्यस्यामपि जायायां त्रयः पुत्रा आसन्नुत्तमस्तामसो रैवत इति मन्वन्तराधिपतयः ।।२८।।

हिन्दी अनुवाद: –

 

अब पृथ्वीपति महाराज प्रियव्रत भगवान्‌की इच्छासे राज्यशासनके कार्यमें नियुक्त हुए। जो सम्पूर्ण जगत्‌को बन्धनसे छुड़ानेमें अत्यन्त समर्थ हैं, उन आदिपुरुष श्रीभगवान्के चरणयुगलका निरन्तर ध्यान करते रहनेसे यद्यपि उनके रागादि सभी मल नष्ट हो चुके थे और उनका हृदय भी अत्यन्त शुद्ध था, तथापि बड़ोंका मान रखनेके लिये वे पृथ्वीका शासन करने लगे ।।२३।।

तदनन्तर उन्होंने प्रजापति विश्वकर्माकी पुत्री बर्हिष्मतीसे विवाह किया। उससे उनके दस पुत्र हुए। वे सब उन्हींके समान शीलवान्, गुणी, कर्मनिष्ठ, रूपवान् और पराक्रमी थे। उनसे छोटी ऊर्जस्वती नामकी एक कन्या भी हुई ।।२४।।

पुत्रोंके नाम आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र और कवि थे। ये सब नाम अग्निके भी हैं ।। २५।।

इनमें कवि, महावीर और सवन- ये तीन नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए। इन्होंने बाल्यावस्थासे आत्मविद्याका अभ्यास करते हुए अन्तमें संन्यासाश्रम ही स्वीकार किया ।। २६ ।।

इन निवृत्तिपरायण महर्षियोंने संन्यासाश्रममें ही रहते हुए समस्त जीवोंके अधिष्ठान और भवबन्धनसे डरे हुए लोगोंको आश्रय देनेवाले भगवान् वासुदेवके परम सुन्दर चरणारविन्दोंका निरन्तर चिन्तन किया।

उससे प्राप्त हुए अखण्ड एवं श्रेष्ठ भक्तियोगसे उनका अन्तःकरण सर्वथा शुद्ध हो गया और उसमें श्रीभगवान्‌का आविर्भाव हुआ। तब देहादि उपाधिकी निवृत्ति हो जानेसे उनकी आत्माकी सम्पूर्ण जीवोंके आत्मभूत प्रत्यगात्मामें एकीभावसे स्थिति हो गयी ।। २७।।

महाराज प्रियव्रतकी दूसरी भार्यासे उत्तम, तामस और रैवत- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नामवाले मन्वन्तरोंके अधिपति हुए ।। २८।।

संस्कृत श्लोक: –

 

एवमुपशमायनेषु स्वतनयेष्वथ जगतीपति-र्जगतीमर्बुदान्येकादश परिवत्सराणामव्याहता-खिलपुरुषकारसारसम्भृतदोर्दण्डयुगलापीडित- मौर्वीगुणस्तनितविरमितधर्मप्रतिपक्षो बर्हिष्मत्या- श्चानुदिनमेधमानप्रमोद प्रसरणयौषिण्यव्रीडा-प्रमुषितहासावलोकरुचिरक्ष्वेल्यादिभिः पराभूय-मानविवेक इवानवबुध्यमान इव महामना बुभुजे ।। २९।।

यावदवभासयति सुरगिरिमनुपरिक्रामन् भगवानादित्यो वसुधातलमर्धेनैव तपत्यर्धेनाव-च्छादयति तदा हि भगवदुपासनोपचिताति-पुरुषप्रभावस्तदनभिनन्दन् समजवेन रथेन ज्योतिर्मयेन रजनीमपि दिनं करिष्यामीति सप्तकृत्वस्तरणिमनुपर्यक्रामद् द्वितीय इव पतङ्गः ।। ३०।। ये वा उ ह तद्रथचरणनेमिकृत-परिखातास्ते सप्त’ सिन्धव आसन् यत एव कृताः सप्त भुवो द्वीपाः ।।३१।।

परिमाणं जम्बूप्लक्षशाल्मलिकुशक्रौञ्चशाकपुष्कर-संज्ञास्तेषां पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तर उत्तरो यथासंख्यं द्विगुणमानेन बहिः समन्तत उपक्लृप्ताः ।।३२।।

हिन्दी अनुवाद: –

 

इस प्रकार कवि आदि तीन पुत्रोंके निवृत्तिपरायण हो जानेपर राजा प्रियव्रतने ग्यारह अर्बुद वर्षोंतक पृथ्वीका शासन किया। जिस समय वे अपनी अखण्ड पुरुषार्थमयी और वीर्यशालिनी भुजाओंसे धनुषकी डोरी खींचकर टंकार करते थे, उस समय डरके मारे सभी धर्मद्रोही न जाने कहाँ छिप जाते थे।

प्राणप्रिया बर्हिष्मतीके दिन-दिन बढ़नेवाले आमोद- प्रमोद और अभ्युत्थानादि क्रीडाओंके कारण तथा उसके स्त्री-जनोचित हाव-भाव, लज्जासे संकुचित मन्दहास्य-युक्त चितवन और मनको भानेवाले विनोद आदिसे महामना प्रियव्रत विवेकहीन व्यक्तिकी भाँति आत्म-विस्मृतसे होकर सब भोगोंको भोगने लगे। किन्तु वास्तवमें ये उनमें आसक्त नहीं थे ।। २९।।

एक बार इन्होंने जब यह देखा कि भगवान् सूर्य सुमेरुकी परिक्रमा करते हुए लोकालोकपर्यन्त पृथ्वीके जितने भागको आलोकित करते हैं, उसमेंसे आधा ही प्रकाशमें रहता है और आधेमें अन्धकार छाया रहता है, तो उन्होंने इसे पसंद नहीं किया।

तब उन्होंने यह संकल्प लेकर कि ‘मैं रातको भी दिन बना दूंगा;’ सूर्यके समान ही वेगवान् एक ज्योतिर्मय रथपर चढ़कर द्वितीय सूर्यकी ही भाँति उनके पीछे-पीछे पृथ्वीकी सात परिक्रमाएँ कर डालीं।भगवान्की उपासनासे इनका अलौकिक प्रभाव बहुत बढ़ गया था ।। ३०।।

उस समय इनके रथके पहियोंसे जो लीकें बनीं, वे ही सात समुद्र हुए; उनसे पृथ्वीमें सात द्वीप हो गये ।। ३१।।

उनके नाम क्रमशः जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर द्वीप हैं। इनमेंसे पहले-पहलेकी अपेक्षा आगे-आगेके द्वीपका परिमाण दूना है और ये समुद्रके बाहरी भागमें पृथ्वीके चारों ओर फैले हुए हैं ।। ३२ ।।

संस्कृत श्लोक: –

 

क्षारोदेक्षुरसोदसुरोदघृतोदक्षीरोददधिमण्डोद-शुद्धोदाः सप्त जलधयः सप्त द्वीपपरिखा इवाभ्यन्तरद्वीपसमाना एकैकश्येन यथानुपूर्व सप्तस्वपि बहिर्दीपेषु पृथक्परित

उपकल्पितास्तेषु

पतिरनुव्रतानात्मजानाग्नीध्रध्मजिह्वयज्ञबाहु- हिरण्यरेतोघृतपृष्ठमेधातिथिवीतिहोत्रसंज्ञान् यथासंख्येन एकैकस्मिन् एकमेवाधिपतिं विदधे ।। ३३।। दुहितरं चोर्जस्वतीं नामोशनसे प्रायच्छद्यस्यामासीद् देवयानी नाम काव्यसुता ।। ३४ ।।

जम्ब्वादिषु

बर्हिष्मती-

स एवमपरिमितबलपराक्रम एकदा तु देवर्षि- चरणानुशयनानुपतितगुणविसर्गसंसर्गेणानिर्वृत-मिवात्मानं मन्यमान आत्मनिर्वेद इदमाह ।।३६।। अहो असाध्वनुष्ठितं यदभिनिवेशितोऽहमिन्द्रियै- रविद्यारचितविषमविषयान्धकूपे तद् अलम् अलम् अमुष्या वनिताया विनोदमृगं मां धिग्धिगिति गर्हयाञ्चकार ।। ३७।।

नैवंविधः पुरुषकार उरुक्रमस्य पुंसां तदङ्घ्रिरजसा जितषड्गुणानाम् ।

चित्रं विदूरविगतः सकृदाददीत यन्नामधेयमधुना स’ जहाति बन्धम् ।।३५

हिन्दी अनुवाद: –

 

सात समुद्र क्रमशः खारे जल, ईखके रस, मदिरा, घी, दूध, मट्ठे और मीठे जलसे भरे हुए हैं। ये सातों द्वीपोंकी खाइयोंके समान हैं और परिमाणमें अपने भीतरवाले द्वीपके बराबर हैं।

इनमेंसे एक-एक क्रमशः अलग-अलग सातों द्वीपोंको बाहरसे घेरकर स्थित हैं।* बर्हिष्मतीपति महाराज प्रियव्रतने अपने अनुगत पुत्र आग्नीध्र, इध्यजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि और वीतिहोत्रमेंसे क्रमशः एक-एकको उक्त जम्बू आदि द्वीपोंमेंसे एक- एकका राजा बनाया ।। ३३।।

उन्होंने अपनी कन्या ऊर्जस्वतीका विवाह शुक्राचार्यजीसे किया; उसीसे शुक्रकन्या देवयानीका जन्म हुआ ।। ३४।।

राजन् ! जिन्होंने भगवच्चरणारविन्दोंकी रजके प्रभावसे शरीरके भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु – इन छः गुणोंको अथवा मनके सहित छः इन्द्रियोंको जीत लिया है, उन भगवद्भक्तोंका ऐसा पुरुषार्थ होना कोई आश्वर्यकी बात नहीं है;

क्योंकि वर्णबहिष्कृत चाण्डाल आदि नीच योनिका पुरुष भी भगवान्के नामका केवल एक बार उच्चारण करनेसे तत्काल संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है ।।३५।।

इस प्रकार अतुलनीय बल-पराक्रमसे युक्त महाराज प्रियव्रत एक बार, अपनेको देवर्षि नारदके चरणोंकी शरणमें जाकर भी पुनः दैववश प्राप्त हुए प्रपंचमें फँस जानेसे अशान्त-सा देख, मन-ही-मन विरक्त होकर इस प्रकार कहने लगे ।। ३६ ।।

‘ओह! बड़ा बुरा हुआ ! मेरी विषयलोलुप इन्द्रियोंने मुझे इस अविद्याजनित विषम विषयरूप अन्धकूपमें गिरा दिया। बस ! बस ! बहुत हो लिया। हाय! मैं तो स्त्रीका क्रीडामृग ही बन गया! उसने मुझे बंदरकी भाँति नचाया! मुझे धिक्कार है! धिक्कार है!’ इस प्रकार उन्होंने अपनेको बहुत कुछ बुरा-भला कहा ।। ३७।।

संस्कृत श्लोक: –

 

परदेवताप्रसादाधिगतात्मप्रत्यवमर्शेनानुप्र-वृत्तेभ्यः पुत्रेभ्य इमां यथादायं विभज्य भुक्तभोगां च महिषीं मृतकमिव सह महाविभूतिमपहाय स्वयं निहितनिर्वेदो हृदि गृहीतहरिविहारानुभावो भगवतो नारदस्य पदवीं पुनरेवानुससार ।।३८ ।।

तस्य ह वा एते श्लोकाः –

प्रियव्रतकृतं कर्म को नु कुर्याद्विनेश्वरम् ।

यो नेमिनिम्नैरकरोच्छायां घ्नन् सप्त वारिधीन् ।। ३९

भूसंस्थानं कृतं येन सरि‌गिरिवनादिभिः ।

सीमा च भूतनिर्वृत्यै द्वीपे द्वीपे विभागशः ।।४०

भौमं दिव्यं मानुषं च महित्वं कर्मयोगजम् ।

यश्चक्रे निरयौपम्यं पुरुषानुजनप्रियः ।।४१

हिन्दी अनुवाद: –

 

परमाराध्य श्रीहरिकी कृपासे उनकी विवेकवृत्ति जाग्रत् हो गयी। उन्होंने यह सारी पृथ्वी

यथायोग्य अपने अनुगत पुत्रोंको बाँट दी और जिसके साथ उन्होंने तरह-तरहके भोग भोगे थे,

उस अपनी राजरानीको साम्राज्यलक्ष्मीके सहित मृतदेहके समान छोड़ दिया तथा हृदयमें

वैराग्य धारणकर भगवान्‌की लीलाओंका चिन्तन करते हुए उसके प्रभावसे श्रीनारदजीके

बतलाये हुए मार्गका पुनः अनुसरण करने लगे ।।३८।।

महाराज प्रियव्रतके विषयमें निम्नलिखित लोकोक्ति प्रसिद्ध है- ‘राजा प्रियव्रतने जो कर्म किये, उन्हें सर्वशक्तिमान् ईश्वरके सिवा और कौन कर सकता है?

उन्होंने रात्रिके अन्धकारको मिटानेका प्रयत्न करते हुए अपने रथके पहियोंसे बनी हुई लीकोंसे ही सात समुद्र बना दिये ।। ३९।।

प्राणियोंके सुभीतेके लिये (जिससे उनमें परस्पर झगड़ा न हो) द्वीपोंके द्वारा पृथ्वीके विभाग किये और प्रत्येक द्वीपमें अलग-अलग नदी, पर्वत और वन आदिसे उसकी सीमा निश्चित कर दी ।। ४० ।।

वे भगवद्भक्त नारदादिके प्रेमी भक्त थे। उन्होंने पाताल-लोकके, देवलोकके, मर्त्यलोकके तथा कर्म और योगकी शक्तिसे प्राप्त हुए ऐश्वर्यको भी नरकतुल्य समझा था’ ।।४१।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे प्रियव्रतविजये प्रथमोऽध्यायः ।।१।।

१. प्रा० पा०- निवासोऽयम्।

१. प्रा० पा०- परमात्मतत्त्वो। २. प्रा० पा०- प्रवरगुणैकान्त। ३. प्रा० पा०- न वाभ्यनन्दद्यदपि तदप्रत्याम्नातं । ४. प्रा० पा०- सर्गस्य बृंहणा। ५. प्रा० पा०- रखिलनिजगणपरिवेष्टितः । ६. प्रा० पा०-तत्र गगनतले। ७. प्रा० पा०- ममरपरिवृन्दैरभिपू०।

१. प्रा० पा०- प्रमोदमोद प्रसरण०। २. प्रा० पा० – यौषण्यव्रीडाप्रमोदित० । ३. प्रा० पा०-विवेको नावबुध्यमा०।४. प्रा० पा० – यदेवाभासयति। ५. प्रा० पा०- सप्त सप्त सिन्ध०। ६. प्रा० पा०- द्विगुणेन बहिः समन्ततः।

१. प्रा० पा०- द्वीपशिखाभ्यन्तरे द्वीप०। २. प्रा० पा०- एकैकस्येव । ३. प्रा० पा०- पृथक् परिधय उपकल्पिता०। ४. प्रा० पा० – तेषु बर्हिष्मतीपति०। ५. प्रा० पा० – वाह०। ६. प्रा० पा०- यथासंख्यकमेकैकस्मिन्नेकमेवाधि०। ७. प्रा० पा०- सुकृदाददीत। ८. प्रा० पा० – सहजातितत्त्वम् ।

* इनका क्रम इस प्रकार समझना चाहिये – पहले जम्बूद्वीप है, उसके चारों ओर क्षार समुद्र है। वह प्लक्षद्वीपसे घिरा हुआ है, उसके चारों ओर ईंखके रसका समुद्र है। उसे शाल्मलिद्वीप घेरे हुए है, उसके चारों ओर मदिराका समुद्र है। फिर कुशद्वीप है, वह घीके समुद्रसे घिरा हुआ है। उसके बाहर क्रौंचद्वीप है, उसके चारों ओर दूधका समुद्र है। फिर शाकद्वीप है, उसे मट्टेका समुद्र घेरे हुए है। उसके चारों ओर पुष्करद्वीप है, वह मीठे जलके समुद्रसे घिरा हुआ है।

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