Bhagwat puran skandh 4 chapter 9(भागवत पुराण चतुर्थः स्कन्धःनवमोऽध्यायः ध्रुवका वर पाकर घर लौटना)
अथ नवमोऽध्यायः ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
संस्कृत श्लोक :-
मैत्रेय उवाच
त एवमुत्सन्नभया उरुक्रमे कृतावनामाः प्रययुस्त्रिविष्टपम् । सहस्रशीर्षापि ततो गरुत्मता मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः ।।१
स वै धिया योगविपाकतीव्रया हृत्पद्मकोशे स्फुरितं तडित्प्रभम् । तिरोहितं सहसैवोपलक्ष्य
बहिःस्थितं तदवस्थं ददर्श ।।२
तद्दर्शनेनागतसाध्वसः क्षिता- ववन्दताङ्गं विनमय्य दण्डवत् ।
दृग्भ्यां प्रपश्यन् प्रपिबन्निवार्भक- श्चम्बन्निवास्येन भुजैरिवाश्लिषन् ।।३
स तं विवक्षन्तमतद्विदं हरि- र्ज्ञात्वास्य सर्वस्य च हृद्यवस्थितः ।
कृतांजलिं ब्रह्ममयेन कम्बुना पस्पर्श बालं कृपया कपोले ।।४
स वै तदैव प्रतिपादितां गिरं दैवीं परिज्ञातपरात्मनिर्णयः ।
तं भक्तिभावोऽभ्यगृणादसत्वरं परिश्रुतोरुश्रवसं ध्रुवक्षितिः ।।५
ध्रुव उवाच
योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां संजीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना ।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन् प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ।।६
हिंदी अनुवाद :-
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! भगवान्के इस प्रकार आश्वासन देनेसे देवताओंका भय जाता रहा और वे उन्हें प्रणाम करके स्वर्गलोकको चले गये। तदनन्तर विराट्स्वरूप भगवान् गरुड़पर चढ़कर अपने भक्तको देखनेके लिये मधुवनमें आये ।।१।।
उस समय ध्रुवजी तीव्र योगाभ्याससे एकाग्र हुई बुद्धिके द्वारा भगवान्की बिजलीके समान देदीप्यमान जिस मूर्तिका अपने हृदयकमलमें ध्यान कर रहे थे, वह सहसा विलीन हो गयी। इससे घबराकर उन्होंने ज्यों ही नेत्र खोले कि भगवान्के उसी रूपको बाहर अपने सामने खड़ा देखा ।।२।।
प्रभुका दर्शन पाकर बालक ध्रुवको बड़ा कुतूहल हुआ, वे प्रेममें अधीर हो गये। उन्होंने पृथ्वीपर दण्डके समान लोटकर उन्हें प्रणाम किया। फिर वे इस प्रकार प्रेमभरी दृष्टिसे उनकी ओर देखने लगे मानो नेत्रोंसे उन्हें पी जायँगे, मुखसे चूम लेंगे और भुजाओंमें कस लेंगे ।।३।।
वे हाथ जोड़े प्रभुके सामने खड़े थे और उनकी स्तुति करना चाहते थे, परन्तु किस प्रकार करें यह नहीं जानते थे। सर्वान्तर्यामी हरि उनके मनकी बात जान गये; उन्होंने कृपापूर्वक अपने वेदमय शंखको उनके गालसे छुआ दिया ।।४।।
ध्रुवजी भविष्यमें अविचल पद प्राप्त करनेवाले थे। इस समय शंखका स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्यवाणी प्राप्त हो गयी और जीव तथा ब्रह्मके स्वरूपका भी निश्चय हो गया। वे अत्यन्त भक्तिभावसे धैर्यपूर्वक विश्वविख्यात कीर्तिमान् श्रीहरिकी स्तुति करने लगे ।।५।।
ध्रुवजीने कहा- प्रभो! आप सर्वशक्तिसम्पन्न हैं; आप ही मेरे अन्तःकरणमें प्रवेशकर अपने तेजसे मेरी इस सोयी हुई वाणीको सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणोंको भी चेतनता देते हैं। मैं आप अन्तर्यामी भगवान्को प्रणाम करता हूँ ।।६।।
संस्कृत श्लोक :-
एकस्त्वमेव भगवन्निदमात्मशक्त्या मायाख्ययोरुगुणया महदाद्यशेषम् । सृष्ट्वानुविश्य पुरुषस्तदसद्गुणेषु । नानेव दारुषु विभावसुवद्विभासि ।।७ त्वद्दत्तया वयुनयेदमचष्ट विश्वं सुप्तप्रबुद्ध इव नाथ भवत्प्रपन्नः । तस्यापवर्ग्यशरणं तव पादमूलं विस्मर्यते कृतविदा कथमार्तबन्धो ।।८
नूनं विमुष्टमतयस्तव मायया ते ये त्वां भवाप्ययविमोक्षणमन्यहेतोः ।
अर्चन्ति कल्पकतरुं कुणपोपभोग्य- मिच्छन्ति यत्स्पर्शजं निरयेऽपि नृणाम् ।।९
या निवृतिस्तनुभृतां तव पादपद्म- ध्यानाद्भवज्जनकथाश्रवणेन वा स्यात् । सा ब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत् किं त्वन्तकासिलुलितात्पततां विमानात् ।।१०
भक्तिं मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसंगो भूयादनन्त महताममलाशयानाम् । येनांजसोल्बणमुरुव्यसनं भवाब्धिं नेष्ये भवद्गुणकथामृतपानमत्तः ।।११
ते न स्मरन्त्यतितरां प्रियमीश मर्त्य ये चान्वदः सुतसुहृद्गृहवित्तदाराः । ये त्वब्जनाभ भवदीयपदारविन्द- सौगन्ध्यलुब्धहृदयेषु कृतप्रसंगाः ।।१२
हिंदी अनुवाद :-
भगवन्! आप एक ही हैं, परन्तु अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्तिसे इस महदादि सम्पूर्ण प्रपंचको रचकर अन्तर्यामीरूपसे उसमें प्रवेश कर जाते हैं और फिर इसके इन्द्रियादि असत् गुणोंमें उनके अधिष्ठातृ-देवताओंके रूपमें स्थित होकर अनेकरूप भासते हैं-ठीक वैसे ही जैसे तरह-तरहकी लकड़ियोंमें प्रकट हुई आग अपनी उपाधियोंके अनुसार भिन्न-भिन्न रूपोंमें भासती है ।।७।।
नाथ! सृष्टिके आरम्भमें ब्रह्माजीने भी आपकी शरण लेकर आपके दिये हुए ज्ञानके प्रभावसे ही इस जगत्को सोकर उठे हुए पुरुषके समान देखा था। दीनबन्धो ! उन्हीं आपके चरणतलका मुक्त पुरुष भी आश्रय लेते हैं, कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हें कैसे भूल सकता है? ।।८।।
प्रभो! इन शवतुल्य शरीरोंके द्वारा भोगा जानेवाला, इन्द्रिय और विषयोंके संसर्गसे उत्पन्न सुख तो मनुष्योंको नरकमें भी मिल सकता है। जो लोग इस विषयसुखके लिये लालायित रहते हैं और जो जन्म-मरणके बन्धनसे छुड़ा देनेवाले कल्पतरुस्वरूप आपकी उपासना भगवत्-प्राप्तिके सिवा किसी अन्य उद्देश्यसे करते हैं, उनकी बुद्धि अवश्य ही आपकी मायाके द्वारा ठगी गयी है ।।९।।
नाथ! आपके चरणकमलोंका ध्यान करनेसे और आपके भक्तोंके पवित्र चरित्र सुननेसे प्राणियोंको जो आनन्द प्राप्त होता है, वह निजानन्दस्वरूप ब्रह्ममें भी नहीं मिल सकता। फिर जिन्हें कालकी तलवार काटे डालती है उन स्वर्गीय विमानोंसे गिरनेवाले पुरुषोंको तो वह सुख मिल ही कैसे सकता है ।।१०।।
अनन्त परमात्मन् ! मुझे तो आप उन विशुद्धहृदय महात्मा भक्तोंका संग दीजिये, जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है; उनके संगमें मैं आपके गुणों और लीलाओंकी कथा- सुधाको पी-पीकर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही इस अनेक प्रकारके दुःखोंसे पूर्ण भयंकर संसारसागरके उस पार पहुँच जाऊँगा ।।११।।
कमलनाभ प्रभो! जिनका चित्त आपके चरणकमलकी सुगन्धमें लुभाया हुआ है, उन महानुभावोंका जो लोग संग करते हैं- वे अपने इस अत्यन्त प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र, मित्र, गृह और स्त्री आदिकी सुधि भी नहीं करते ।।१२।।
संस्कृत श्लोक :-
तिर्यङ्नगद्विजसरीसृपदेवदैत्य- मर्त्यादिभिः परिचितं सदसद्विशेषम् । रूपं स्थविष्ठमज ते महदाद्यनेकं नातः परं परम वेद्मि न यत्र वादः ।।१३
कल्पान्त’ एतदखिलं जठरेण गृह्णन् शेते पुमान् स्वदृगनन्तसखस्तदङ्के । यन्नाभिसिन्धुरुहकांचनलोकपद्म- गर्भे द्युमान् भगवते प्रणतोऽस्मि तस्मै ।।१४
त्वं नित्यमुक्तपरिशुद्धविबुद्ध आत्मा कूटस्थ आदिपुरुषो भगवांरूयधीशः । यद्बुद्ध्यवस्थितिमखण्डितया स्वदृष्ट्या द्रष्टा स्थितावधिमखो व्यतिरिक्त आस्से ।।१५
यस्मिन् विरुद्धगतयो ह्यनिशं पतन्ति विद्यादयो विविधशक्तय आनुपूर्व्यात् । तद्ब्रह्म विश्वभवमेकमनन्तमाद्य- मानन्दमात्रमविकारमहं प्रपद्ये ।।१६
सत्याऽऽशिषो हि भगवंस्तव पादपद्म- माशीस्तथानुभजतः पुरुषार्थमूर्तेः । अप्येवमर्य भगवान् परिपाति दीनान् वाश्रेव वत्सकमनुग्रहकातरोऽस्मान् ।।१७
अजन्मा परमेश्वर! मैं तो पशु, वृक्ष, पर्वत, पक्षी, सरीसृप (सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु),
हिंदी अनुवाद :-
देवता, दैत्य और मनुष्य आदिसे परिपूर्ण तथा महदादि अनेकों कारणोंसे सम्पादित आपके इस सदसदात्मक स्थूल विश्वरूपको ही जानता हूँ; इससे परे जो आपका परम स्वरूप है, जिसमें वाणीकी गति नहीं है, उसका मुझे पता नहीं है ।।१३।।
भगवन् ! कल्पका अन्त होनेपर योगनिद्रामें स्थित जो परमपुरुष इस सम्पूर्ण विश्वको अपने उदरमें लीन करके शेषजीके साथ उन्हींकी गोदमें शयन करते हैं तथा जिनके नाभि- समुद्रसे प्रकट हुए सर्वलोकमय सुवर्णवर्ण कमलसे परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, वे भगवान् आप ही हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।।१४।।
प्रभो! आप अपनी अखण्ड चिन्मयी दृष्टिसे बुद्धिकी सभी अवस्थाओंके साक्षी हैं तथा नित्यमुक्त शुद्धसत्त्वमय, सर्वज्ञ, परमात्मस्वरूप, निर्विकार, आदि-पुरुष, षडैश्वर्य-सम्पन्न एवं तीनों गुणोंके अधीश्वर हैं। आप जीवसे सर्वथा भिन्न हैं तथा संसारकी स्थितिके लिये यज्ञाधिष्ठाता विष्णुरूपसे विराजमान हैं ।।१५।।
आपसे ही विद्या-अविद्या आदि विरुद्ध गतियोंवाली अनेकों शक्तियाँ धारावाहिक रूपसे निरन्तर प्रकट होती रहती हैं। आप जगत्के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपकी शरण हूँ ।।१६।।
भगवन् ! आप परमानन्दमूर्ति हैं- जो लोग ऐसा समझकर निष्कामभावसे आपका निरन्तर भजन करते हैं, उनके लिये राज्यादि भोगोंकी अपेक्षा आपके चरणकमलोंकी प्राप्ति ही भजनका सच्चा फल है।
स्वामिन् ! यद्यपि बात ऐसी ही है, तो भी गौ जैसे अपने तुरंतके जन्में हुए बछड़ेको दूध पिलाती और व्याघ्रादिसे बचाती रहती है, उसी प्रकार आप भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये निरन्तर विकल रहनेके कारण हम-जैसे सकाम जीवोंकी भी कामना पूर्ण करके उनकी संसार-भयसे रक्षा करते रहते हैं ।।१७।।
संस्कृत श्लोक :-
मैत्रेय उवाच
अथाभिष्टुत एवं वै सत्संकल्पेन धीमता । भृत्यानुरक्तो भगवान् प्रतिनन्द्येदमब्रवीत् ।।१८
श्रीभगवानुवाच
वेदाहं ते व्यवसितं हृदि राजन्यबालक ।
तत्प्रयच्छामि भद्रं ते दुरापमपि सुव्रत ।।१९
नान्यैरधिष्ठितं भद्र यद्भाजिष्णु ध्रुवक्षिति ।
यत्र ग्रहर्क्षताराणां ज्योतिषां चक्रमाहितम् ।।२०
मेढ्यां गोचक्रवत्स्थास्नु परस्तात्कल्पवासिनाम् ।
धर्मोऽग्निः कश्यपः शुक्रो मुनयो ये वनौकसः ।
चरन्ति दक्षिणीकृत्य भ्रमन्तो यत्सतारकाः ।।२१
प्रस्थिते तु वनं पित्रा दत्त्वा गां धर्मसंश्रयः । षट्त्रिंशद्वर्षसाहस्रं रक्षिताव्याहतेन्द्रियः ।।२२
त्वद्भातर्युत्तमे नष्टे मृगयायां तु तन्मनाः । अन्वेषन्ती वनं माता दावाग्निं सा प्रवेक्ष्यति ।। २३
इष्ट्वा मां यज्ञहृदयं यज्ञैः पुष्कलदक्षिणैः । भुक्त्वा चेहाशिषः सत्या अन्ते मां संस्मरिष्यसि ।।२४
ततो गन्तासि मत्स्थानं सर्वलोकनमस्कृतम् । उपरिष्टादृषिभ्यस्त्वं यतो नावर्तते गतः ।।२५
हिंदी अनुवाद :-
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! जब शुभ संकल्पवाले मतिमान् ध्रुवजीने इस प्रकार स्तुति की तब भक्तवत्सल भगवान् उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे ।।१८।।
श्रीभगवान्ने कहा- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजकुमार ! मैं तेरे हृदयका संकल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पदका प्राप्त होना बहुत कठिन है, तो भी मैं तुझे वह देता हूँ। तेरा कल्याण हो ।।१९।।
भद्र ! जिस तेजोमय अविनाशी लोकको आजतक किसीने प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागणरूप ज्योतिश्चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है जिस प्रकार मेढीके* चारों ओर दैवरीके बैल घूमते रहते हैं। अवान्तर कल्पपर्यन्त रहनेवाले अन्य लोकोंका नाश हो जानेपर भी जो स्थिर रहता है तथा तारागणके सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ ।। २०-२१।।
यहाँ भी जब तेरे पिता तुझे राजसिंहासन देकर वनको चले जायँगे; तब तू छत्तीस हजार वर्षतक धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करेगा। तेरी इन्द्रियोंकी शक्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी ।।२२।।
आगे चलकर किसी समय तेरा भाई उत्तम शिकार खेलता हुआ मारा जायगा, तब उसकी माता सुरुचि पुत्र-प्रेममें पागल होकर उसे वनमें खोजती हुई दावानलमें प्रवेश कर जायगी ।।२३।।
यज्ञ मेरी प्रिय मूर्ति है, तू अनेकों बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञोंके द्वारा मेरा यजन करेगा तथा यहाँ उत्तम उत्तम भोग भोगकर अन्तमें मेरा ही स्मरण करेगा ।।२४।।
इससे तू अन्तमें सम्पूर्ण लोकोंके वन्दनीय और सप्तर्षियोंसे भी ऊपर मेरे निज धामको जायगा, जहाँ पहुँच जानेपर फिर संसारमें लौटकर नहीं आना होता है ।।२५।।
संस्कृत श्लोक :-
मैत्रेय उवाच
इत्यर्चितः स भगवानतिदिश्यात्मनः पदम् । बालस्य पश्यतो धाम स्वमगाद्गरुडध्वजः ।।२६
सोऽपि संकल्पजं विष्णोः पादसेवोपसादितम् । प्राप्य संकल्पनिर्वाणं नातिप्रीतोऽभ्यगात्पुरम् ।। २७
विदुर उवाच
सुदुर्लभं यत्परमं पदं हरे- र्मायाविनस्तच्चरणार्चनार्जितम् । लब्ध्वाप्यसिद्धार्थमिवैकजन्मना कथं स्वमात्मानममन्यतार्थवित् ।।२८
मैत्रेय उवाच
मातुः सपत्न्या वाग्बाणैर्हदि विद्धस्तु तान् स्मरन् । नैच्छन्मुक्तिपतेर्मुक्तिं तस्मात्तापमुपेयिवान् ।।२९
ध्रुव उवाच
समाधिना नैकभवेन यत्पदं विदुः सनन्दादय ऊर्ध्वरतसः । मासैरहं षड्भिरमुष्य पादयो- श्छायामुपेत्यापगतः पृथङ्मतिः ।।३०
अहो बत ममानात्म्यं मन्दभाग्यस्य पश्यत । भवच्छिदः पादमूलं गत्वायाचे यदन्तवत् ।।३१
मतिर्विदूषिता देवैः पतद्भिरसहिष्णुभिः । यो नारदवचस्तथ्यं नाग्राहिषमसत्तमः ।।३२
हिंदी अनुवाद :-
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- बालक ध्रुवसे इस प्रकार पूजित हो और उसे अपना पद प्रदानकर भगवान् श्रीगरुडध्वज उसके देखते-देखते अपने लोकको चले गये ।। २६ ।।
प्रभुकी चरणसेवासे संकल्पित वस्तु प्राप्त हो जानेके कारण यद्यपि ध्रुवजीका संकल्प तो निवृत्त हो गया, किन्तु उनका चित्त विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। फिर वे अपने नगरको लौट गये ।। २७।।
विदुरजीने पूछा- ब्रह्मन् ! मायापति श्रीहरिका परमपद तो अत्यन्त दुर्लभ है और मिलता भी उनके चरणकमलोंकी उपासनासे ही है। ध्रुवजी भी सारासारका पूर्ण विवेक रखते थे; फिर एक ही जन्ममें उस परमपदको पा लेनेपर भी उन्होंने अपनेको अकृतार्थ क्यों समझा? ।।२८।।
श्रीमैत्रेयजीने कहा- ध्रुवजीका हृदय अपनी सौतेली माताके वाग्बाणोंसे बिंध गया था तथा वर माँगनेके समय भी उन्हें उनका स्मरण बना हुआ था; इसीसे उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरिसे मुक्ति नहीं माँगी। अब जब भगवद्दर्शनसे वह मनोमालिन्य दूर हो गया तो उन्हें अपनी इस भूलके लिये पश्चात्ताप हुआ ।।२९।।
ध्रुवजी मन-ही-मन कहने लगे – अहो! सनकादि ऊध्र्वरता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन्हें समाधिद्वारा अनेकों जन्मोंमें प्राप्त कर पाते हैं, उन भगवच्चरणोंकी छायाको मैंने छः महीनेमें ही पा लिया, किन्तु चित्तमें दूसरी वासना रहनेके कारण मैं फिर उनसे दूर हो गया ।।३०।।
अहो ! मुझ मन्दभाग्यकी मूर्खता तो देखो, मैंने संसार-पाशको काटनेवाले प्रभुके पादपद्मोंमें पहुँचकर भी उनसे नाशवान् वस्तुकी ही याचना की! ।।३१।।
देवताओंको स्वर्गभोगके पश्चात् फिर नीचे गिरना होता है, इसलिये वे मेरी भगवत्प्राप्तिरूप उच्च स्थितिको सहन नहीं कर सके; अतः उन्होंने ही मेरी बुद्धिको नष्ट कर दिया। तभी तो मुझ दुष्टने नारदजीकी यथार्थ बात भी स्वीकार नहीं की ।। ३२ ।।
संस्कृत श्लोक :-
दैवीं मायामुपाश्रित्य प्रसुप्त इव भिन्नदृक् । तप्ये द्वितीयेऽप्यसति भ्रातृभ्रातृव्यहृद्रुजा ।।३३
मयैतत्प्रार्थितं व्यर्थं चिकित्सेव गतायुषि । प्रसाद्य जगदात्मानं तपसा दुष्प्रसादनम् । भवच्छिदमयाचेऽहं भवं भाग्यविवर्जितः ।।३४
स्वाराज्यं यच्छतो मौढ्यान्मानो मे भिक्षितो बत । ईश्वरात्क्षीणपुण्येन फलीकारानिवाधनः ।।३५
मैत्रेय उवाच
न वै मुकुन्दस्य पदारविन्दयो रजोजुषस्तात भवादृशा जनाः । वाञ्छन्ति तद्दास्यमृतेऽर्थमात्मनो यदृच्छया लब्धमनः समृद्धयः ।।३६
आकर्ष्यात्मजमायान्तं सम्परेत्य यथाऽऽगतम् ।
राजा न श्रद्दधे भद्रमभद्रस्य कुतो मम ।।३७
श्रद्धाय वाक्यं देवर्षेर्हर्षवेगेन धर्षितः । वार्ताहर्तुरतिप्रीतो हारं प्रादान्महाधनम् ।।३८
सदश्वं रथमारुह्य कार्तस्वरपरिष्कृतम् ।
ब्राह्मणैः कुलवृद्धैश्च पर्यस्तोऽमात्यबन्धुभिः ।।३९
हिंदी अनुवाद :-
यद्यपि संसारमें आत्माके सिवा दूसरा कोई भी नहीं है; तथापि सोया हुआ मनुष्य जैसे स्वप्नमें अपने ही कल्पना किये हुए व्याघ्रादिसे डरता है, उसी प्रकार मैंने भी भगवान्की मायासे मोहित होकर भाईको ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेषरूप हार्दिक रोगसे जलने लगा ।। ३३।।
जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है; उन्हीं विश्वात्मा श्रीहरिको तपस्या-द्वारा प्रसन्न करके मैंने जो कुछ माँगा है, वह सब व्यर्थ है; ठीक उसी तरह, जैसे गतायु पुरुषके लिये चिकित्सा व्यर्थ होती है। ओह! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार-बन्धनका नाश करनेवाले प्रभुसे मैंने संसार ही माँगा ।। ३४ ।।
मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ! जिस प्रकार कोई कँगला किसी चक्रवर्ती सम्राट्को प्रसन्न करके उससे तुषसहित चावलोंकी कनी माँगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्मानन्द प्रदान करनेवाले श्रीहरिसे मूर्खतावश व्यर्थका अभिमान बढ़ानेवाले उच्चपदादि ही माँगे हैं ।। ३५।।
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- तात! तुम्हारी तरह जो लोग श्रीमुकुन्दपादारविन्द-मकरन्दके ही मधुकर हैं- जो निरन्तर प्रभुकी चरण-रजका ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने-आप आयी हुई सभी परिस्थितियोंमें सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान्से उनकी सेवाके सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते ।। ३६ ।।
इधर जब राजा उत्तानपादने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो उन्हें इस बातपर वैसे ही विश्वास नहीं हुआ जैसे कोई किसीके यमलोकसे लौटनेकी बातपर विश्वास न करे। उन्होंने यह सोचा कि ‘मुझ अभागेका ऐसा भाग्य कहाँ’ ।। ३७।।
परन्तु फिर उन्हें देवर्षि नारदकी बात याद आ गयी। इससे उनका इस बातमें विश्वास हुआ और वे आनन्दके वेगसे अधीर हो उठे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह समाचार लानेवालेको एक बहुमूल्य हार दिया ।। ३८ ।।
राजा उत्तानपादने पुत्रका मुख देखनेके लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राह्मण, कुलके बड़े-बूढ़े, मन्त्री और बन्धुजनोंको साथ लिया तथा एक बढ़िया घोड़ोंवाले सुवर्णजटित रथपर सवार होकर वे झटपट नगरके बाहर आये। उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शंख, दुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेकों मांगलिक बाजे बजते जाते थे ।। ३९-४०।।
उनकी दोनों रानियाँ सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणोंसे बिभूषित हो राजकुमार उत्तमके साथ पालकियोंपर चढ़कर चल रही थीं ।।४१।।
ध्रुवजी उपवनके पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथसे उतर पड़े। पुत्रको देखनेके लिये वे बहुत दिनोंसे उत्कण्ठित हो रहे थे। उन्होंने झटपट आगे बढ़कर प्रेमातुर हो, लंबी-लंबी साँसें लेते हुए, ध्रुवको भुजाओंमें भर लिया। अब ये पहलेके ध्रुव नहीं थे, प्रभुके परमपुनीत पादपद्मोंका स्पर्श होनेसे इनके समस्त पाप-बन्धन कट गये थे ।।४२-४३।।
राजा उत्तानपादकी एक बहुत बड़ी कामना पूर्ण हो गयी। उन्होंने बार-बार पुत्रका सिर सूँघा और आनन्द तथा प्रेमके कारण निकलनेवाले ठंडे-ठंडे* आँसुओंसे उन्हें नहला दिया ।।४४।।
संस्कृत श्लोक :-
शङ्खदुन्दुभिनादेन ब्रह्मघोषेण वेणुभिः । निश्चक्राम पुरात्तूर्णमात्मजाभीक्षणोत्सुकः ।।४०सुनीतिः सुरुचिश्चास्य महिष्यौ रुक्मभूषिते । आरुह्य शिबिकां सार्धमुत्तमेनाभिजग्मतुः ।।४१ तं दृष्ट्वोपवनाभ्याश आयान्तं तरसा रथात् । अवरुह्य नृपस्तूर्णमासाद्य प्रेमविह्वलः ।।४२ परिरेभेऽङ्गजं दोर्थ्यां दीर्घोत्कण्ठमनाः श्वसन् । विष्वक्सेनाङ्घ्रिसंस्पर्शहताशेषाघबन्धनम् ।।४३ अथाजिघ्रन्मुहुर्मूर्ध्नि शीतैर्नयनवारिभिः । स्नापयामास तनयं जातोद्दाममनोरथः ।।४४ अभिवन्द्य पितुः पादावाशीर्भिश्चाभिमन्त्रितः ३ । ननाम मातरौ शीर्णा सत्कृतः सज्जनाग्रणीः ।।४५ सुरुचिस्तं समुत्थाप्य पादावनतमर्भकम् । परिष्वज्याह जीवेति बाष्पगद्गदया गिरा ।।४६ यस्य प्रसन्नो भगवान् गुणैर्मैत्र्यादिभिर्हरिः । तस्मै नमन्ति भूतानि निम्नमाप इव स्वयम् ।।४७ उत्तमश्च ध्रुवश्चोभावन्योन्यं प्रेमविह्वलौ । अंगसंगादुत्पुलकावस्रौघं मुहुरूहतुः ।।४८ सुनीतिरस्य जननी प्राणेभ्योऽपि प्रियं सुतम् । उपगुह्य जहावाधिं तदंगस्पर्शनिर्वृता ।।४९
हिंदी अनुवाद :-
तदनन्तर सज्जनोंमें अग्रगण्य ध्रुवजीने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर, कुशल-प्रश्नादिसे सम्मानित हो दोनों माताओंको प्रणाम किया ।।४५।।
छोटी माता सुरुचिने अपने चरणोंपर झुके हुए बालक ध्रुवको उठाकर हृदयसे लगा लिया और अश्रुगद्गद वाणीसे ‘चिरंजीवी रहो’ ऐसा आशीर्वाद दिया ।।४६ ।।
जिस प्रकार जल स्वयं ही नीचेकी ओर बहने लगता है-उसी प्रकार मैत्री आदि गुणोंके कारण जिसपर श्रीभगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं ।।४७।।
इधर उत्तम और ध्रुव दोनों ही प्रेमसे विह्वल होकर मिले। एक-दूसरेके अंगोंका स्पर्श पाकर उन दोनोंके ही शरीरमें रोमांच हो आया तथा नेत्रोंसे बार-बार आसुओंकी धारा बहने लगी ।।४८।।
ध्रुवकी माता सुनीति अपने प्राणोंसे भी प्यारे पुत्रको गले लगाकर सारा सन्ताप भूल गयी। उसके सुकुमार अंगोंके स्पर्शसे उसे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ ।।४९।।
संस्कृत श्लोक :-
पयः स्तनाभ्यां सुस्राव नेत्रजैः सलिलैः शिवैः । तदाभिषिच्यमानाभ्यां वीर वीरसुवो मुहुः ।।५०
तां शशंसुर्जना राज्ञीं दिष्ट्या ते पुत्र आर्तिहा । प्रतिलब्धश्चिरं नष्टो रक्षिता मण्डलं भुवः ।।५१
अभ्यर्चितस्त्वया नूनं भगवान् प्रणतार्तिहा । यदनुध्यायिनो धीरा मृत्युं जिग्युः सुदुर्जयम् ।।५२
लाल्यमानं जनैरेवं ध्रुवं सभ्रातरं नृपः । आरोप्य करिणीं हृष्टः स्तूयमानोऽविशत्पुरम् ।।५३
तत्र तत्रोपसंक्लृप्तैर्लसन्मकरतोरणैः । सवृन्दैः कदलीस्तम्भैः पूगपोतैश्च तद्विधैः ।।५४
चूतपल्लववासःस्रङ्मुक्तादामविलम्बिभिः । उपस्कृतं प्रतिद्वारमपां कुम्भैः सदीपकैः ।।५५
प्राकारैर्गोपुरागारैः शातकुम्भपरिच्छदैः । सर्वतोऽलंकृतं श्रीमद्विमानशिखरद्युभिः ।।५६
मृष्टचत्वररथ्याट्टमार्गं चन्दनचर्चितम् । लाजाक्षतैः पुष्पफलैस्तण्डुलैर्बलिभिर्युतम् ।।५७
ध्रुवाय पथि दृष्टाय तत्र तत्र पुरस्त्रियः । सिद्धार्थाक्षतदध्यम्बुदूर्वापुष्पफलानि च ।।५८
उपजहुः प्रयुंजाना वात्सल्यादाशिषः सतीः । शृण्वंस्तद्वल्गुगीतानि प्राविशद्भवनं पितुः ।।५९
हिंदी अनुवाद :-
वीरवर विदुरजी ! वीरमाता सुनीतिके स्तन उसके नेत्रोंसे झरते हुए मंगलमय आनन्दाश्रुओंसे भीग गये और उनसे बार-बार दूध बहने लगा ।।५०।।
उस समय पुरवासी लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे, ‘महारानीजी ! आपका लाल बहुत दिनोंसे खोया हुआ था; सौभाग्यवश अब वह लौट आया, यह हम सबका दुःख दूर करनेवाला है। बहुत दिनोंतक भूमण्डलकी रक्षा करेगा ।। ५१ ।।
आपने अवश्य ही शरणागतभयभंजन श्रीहरिकी उपासना की है। उनका निरन्तर ध्यान करनेवाले धीर पुरुष परम दुर्जय मृत्युको भी जीत लेते हैं’ ।।५२।।
विदुरजी ! इस प्रकार जब सभी लोग ध्रुवके प्रति अपना लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे, उसी समय उन्हें भाई उत्तमके सहित हथिनीपर चढ़ाकर महाराज उत्तानपादने बड़े हर्षके साथ राजधानीमें प्रवेश किया। उस समय सभी लोग उनके भाग्यकी बड़ाई कर रहे थे ।। ५३।।
नगरमें जहाँ-तहाँ मगरके आकारके सुन्दर दरवाजे बनाये गये थे तथा फल-फूलोंके गुच्छोंके सहित केलेके खम्भे और सुपारीके पौधे सजाये गये थे ।। ५४।।
द्वार-द्वारपर दीपकके सहित जलके कलश रखे हुए थे जो आमके पत्तों, वस्त्रों, पुष्पमालाओं तथा मोतीकी लड़ियोंसे सुसज्जित थे ।। ५५।।
जिन अनेकों परकोटों, फाटकों और महलोंसे नगरी सुशोभित थी, उन सबको सुवर्णकी सामग्रियोंसे सजाया गया था तथा उनके कँगूरे विमानोंके शिखरोंके समान चमक रहे थे ।। ५६ ।।
नगरके चौक, गलियों, अटारियों और सड़कोंको झाड़- बुहारकर उनपर चन्दनका छिड़काव किया गया था और जहाँ-तहाँ खील, चावल, पुष्प, फल, जौ एवं अन्य मांगलिक उपहार-सामग्रियाँ सजी रखी थीं ।। ५७।।
ध्रुवजी राजमार्गसे जा रहे थे। उस समय जहाँ-तहाँ नगरकी शीलवती सुन्दरियाँ उन्हें देखनेको एकत्र हो रही थीं। उन्होंने वात्सल्यभावसे अनेकों शुभाशीर्वाद देते हुए उनपर सफेद सरसों, अक्षत, दही, जल, दूर्वा, पुष्प और फलोंकी वर्षा की। इस प्रकार उनके मनोहर गीत सुनते हुए ध्रुवजीने अपने पिताके महलमें प्रवेश किया ।।५८-५९।।
संस्कृत श्लोक :-
महामणिव्रातमये स तस्मिन् भवनोत्तमे । लालितो नितरां पित्रा न्यवसद्दिवि देववत् ।।६० पयः फेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः । आसनानि महार्हाणि यत्र रौक्मा उपस्कराः ।।६१ यत्र स्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च । मणिप्रदीपा आभान्ति ललनारत्नसंयुताः ।।६२ उद्यानानि च रम्याणि विचित्रैरमरद्रुमैः । कूजद्विहंगमिथुनैर्गायन्मत्तमधुव्रतैः ।।६३ वाप्यो वैदूर्यसोपानाः पद्मोत्पलकुमुद्धतीः । हंसकारण्डवकुलैर्जुष्टाश्चक्राह्वसारसैः ।।६४ उत्तानपादो राजर्षिः प्रभावं तनयस्य तम् । श्रुत्वा दृष्ट्वाद्भुततमं प्रपेदे विस्मयं परम् ।।६५ वीक्ष्योढवयसं तं च प्रकृतीनां च सम्मतम् । अनुरक्तप्रजं राजा ध्रुवं चक्रे भुवः पतिम् ।।६६ आत्मानं च प्रवयसमाकलय्य विशाम्पतिः । वनं विरक्तः प्रातिष्ठद्विमृशन्नात्मनो गतिम् ।।६७
हिंदी अनुवाद :-
वह श्रेष्ठ भवन महामूल्य मणियोंकी लड़ियोंसे सुसज्जित था। उसमें अपने पिताजीके लाड़-प्यारका सुख भोगते हुए वे उसी प्रकार आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे स्वर्गमें देवतालोग रहते हैं ।। ६०।।
वहाँ दूधके फेनके समान सफेद और कोमल शय्याएँ, हाथी-दाँतके पलंग, सुनहरी कामदार परदे, बहुमूल्य आसन और बहुत-सा सोनेका सामान था ।।६१।।
उसकी स्फटिक और महामरकतमणि (पन्ने) की दीवारोंमें रत्नोंकी बनी हुई स्त्रीमूर्तियोंपर रखे हुए मणिमय दीपक जगमगा रहे थे ।। ६२।।
उस महलके चारों ओर अनेक जातिके दिव्य वृक्षोंसे सुशोभित उद्यान थे, जिनमें नर और मादा पक्षियोंका कलरव तथा मतवाले भौंरोंका गुंजार होता रहता था ।। ६३।।
उन बगीचोंमें वैदूर्यमणि (पुखराज) की सीढ़ियोंसे सुशोभित बावलियाँ थीं-जिनमें लाल, नीले और सफेद रंगके कमल खिले रहते थे तथा हंस, कारण्डव, चकवा एवं सारस आदि पक्षी क्रीडा करते रहते थे ।। ६४।।
राजर्षि उत्तानपादने अपने पुत्रके अति अद्भुत प्रभावकी बात देवर्षि नारदसे पहले ही सुन रखी थी; अब उसे प्रत्यक्ष वैसा ही देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ ।।६५।।
फिर यह देखकर कि अब ध्रुव तरुण अवस्थाको प्राप्त हो गये हैं, अमात्यवर्ग उन्हें आदरकी दृष्टिसे देखते हैं तथा प्रजाका भी उनपर अनुराग है, उन्होंने उन्हें निखिल भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया ।। ६६ ।।
और आप वृद्धावस्था आयी जानकर आत्मस्वरूपका चिन्तन करते हुए संसारसे विरक्त होकर वनको चल दिये ।। ६७।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवराज्याभिषेकवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ।।९।।
१. प्रा० पा०- स्थितिः।
१. प्रा० पा०- न्तरे तदखि०। २. प्रा० पा०- माद्य।
१. प्रा० पा०-तत्र। २. प्रा० पा०- स्थिति ।
* कटी हुई फसल धान-गेहूँ आदिको कुचलनेके लिये घुमाये जानेवाले बैल जिस खंभेमें बँधे रहते हैं, उसका नाम मेढी है।
१. प्रा० पा० – शान्तै०। २. प्रा० पा० – वाद्य। ३. प्रा० पा० – चानुम० ।
* आनन्द या प्रेमके कारण जो आँसू आते हैं वे ठंडे हुआ करते हैं और शोकके आँसू गरम होते हैं।