Bhagwat puran skandh 4 chapter 5(भागवत पुराण चतुर्थः स्कन्धःपञ्चमोऽध्यायः वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध)

Bhagwat puran skandh 4 chapter 5(भागवत पुराण चतुर्थः स्कन्धःपञ्चमोऽध्यायः वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध)

अथ पञ्चमोऽध्यायः वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध

संस्कृत श्लोक :-

मैत्रेय उवाच

भवो भवान्या निधनं प्रजापते- रसत्कृताया अवगम्य नारदात् । स्वपार्षदसैन्यं च तदध्वरर्भुभि- र्विद्रावितं क्रोधमपारमादधे ।।१क्रुद्धः सुदष्टोष्ठपुटः स धूर्जटि- जंटां तडिद्वह्निसटोग्ररोचिषम् ।उत्कृत्य रुद्रः सहसोत्थितो हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि ।।२ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं सहस्रबाहुर्घनरुक् त्रिसूर्यदृक् ।करालदंष्ट्रो ज्वलदग्निमूर्धजः कपालमाली विविधोद्यतायुधः ।।३

हिंदी अनुवाद :-

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- महादेवजीने जब देवर्षि नारदके मुखसे सुना कि अपने पिता दक्षसे अपमानित होनेके कारण देवी सतीने प्राण त्याग दिये हैं और उसकी यज्ञवेदीसे प्रकट हुए ऋभुओंने उनके पार्षदोंकी सेनाको मारकर भगा दिया है, तब उन्हें बड़ ही क्रोध हुआ ।।१।।

उन्होंने उग्र रूप धारण कर क्रोधके मारे होठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली-जो बिजली और आगकी लपटके समान दीप्त हो रही थी- और सहसा खड़े होकर बड़े गम्भीर अट्टहासके साथ उसे पृथ्वीपर पटक दिया ।।२।।

उससे तुरंत ही एक बड़ा भारी लंबा- चौड़ा पुरुष उत्पन्न हुआ। उसका शरीर इतना विशाल था कि वह स्वर्गको स्पर्श कर रहा था। उसके हजार भुजाएँ थीं।

मेघके समान श्यामवर्ण था, सूर्यके समान जलते हुए तीन नेत्र थे, विकराल दाढ़ें थीं और अग्निकी ज्वालाओंके समान लाल-लाल जटाएँ थीं। उसके गलेमें नरमुण्डोंकी माला थी और हाथोंमें तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र थे ।।३।।

संस्कृत श्लोक :-

तं किं करोमीति गृणन्तमाह बद्धाञ्जलिं भगवान् भूतनाथः ।दक्षं सयज्ञं जहि मद्भटानां त्वमग्रणी रुद्र भटांशको मे ।।४ आज्ञप्त एवं कुपितेन मन्युना स देवदेवं परिचक्रमे विभुम् ।मेने तदाऽऽत्मानमसंगरंहसा महीयसां तात सहः सहिष्णुम् ।।५अन्वीयमानः स तु रुद्रपार्षदै- भृशं नदद्भिर्व्यनदत्सुभैरवम् । उद्यम्य शूलं जगदन्तकान्तकं स प्राद्रवद् घोषणभूषणाङ्घ्रिः ।।६अथर्विजो यजमानः सदस्याःककुभ्युदीच्यां प्रसमीक्ष्य रेणुम् । तमः किमेतत्कुत एतद्रजोऽभू- दिति द्विजा द्विजपत्न्यश्च दध्युः ।।७वाता न वान्ति न हि सन्ति दस्यवः प्राचीनबर्हिर्जीवति होग्रदण्डः ।गावो न काल्यन्त इदं कुतो रजो लोकोऽधुना किं प्रलयाय कल्पते ।।८प्रसूतिमिश्राः स्त्रिय उद्विग्नचित्ता ऊचुर्विपाको वृजिनस्यैष तस्य ।यत्पश्यन्तीनां दुहितृणां प्रजेशः सुतां सतीमवदध्यावनागाम् ।।९यस्त्वन्तकाले व्युप्तजटाकलापः स्वशूलसूच्यर्पितदिग्गजेन्द्रः ।वितत्य नृत्यत्युदितास्त्रदोर्ध्वजा- नुच्चाट्टहासस्तनयित्नुभिन्नदिक् ।।१०

हिंदी अनुवाद :-

जब उसने हाथ जोड़कर पूछा, ‘भगवन्! मैं क्या करूँ?’ तो भगवान् भूतनाथने कहा – ‘वीर रुद्र! तू मेरा अंश है, इसलिये मेरे पार्षदोंका अधिनायक बनकर तू तुरंत ही जा और दक्ष तथा उसके यज्ञको नष्ट कर दे’ ।।४।।

प्यारे विदुरजी ! जब देवाधिदेव भगवान् शंकरने क्रोधमें भरकर ऐसी आज्ञा दी, तब वीरभद्र उनकी परिक्रमा करके चलनेको तैयार हो गये। उस समय उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि मेरे वेगका सामना करनेवाला संसारमें कोई नहीं है और मैं बड़े-से-बड़े वीरका भी वेग सहन कर सकता हूँ ।।५।।

वे भयंकर सिंहनाद करते हुए एक अति कराल त्रिशूल हाथमें लेकर दक्षके यज्ञमण्डपकी ओर दौड़े। उनका त्रिशूल संसार-संहारक मृत्युका भी संहार करनेमें समर्थ था। भगवान् रुद्रके और भी बहुत-से सेवक गर्जना करते हुए उनके पीछे होलिये। उस समय वीरभद्रके पैरोंके नूपुरादि आभूषण झनन-झनन बजते जाते थे ।।६।।

इधर यज्ञशालामें बैठे हुए ऋत्विज्, यजमान, सदस्य तथा अन्य ब्राह्मण और ब्राह्मणियोंने जब उत्तर दिशाकी ओर धूल उड़ती देखी, तब वे सोचने लगे- ‘अरे यह अँधेरा- सा कैसे होता आ रहा है? यह धूल कहाँसे छा गयी? ।।७।।

इस समय न तो आँधी ही चल रही है और न कहीं लुटेरे ही सुने जाते हैं; क्योंकि अपराधियोंको कठोर दण्ड देनेवाला राजा प्राचीनबर्हि अभी जीवित है। अभी गौओंके आनेका समय भी नहीं हुआ है। फिर यह धूल कहाँसे आयी? क्या इसी समय संसारका प्रलय तो नहीं होनेवाला है?’ ।।८।।

तब दक्षपत्नी प्रसूति एवं अन्य स्त्रियोंने व्याकुल होकर कहा- प्रजापति दक्षने अपनी सारी कन्याओंके सामने बेचारी निरपराधा सतीका तिरस्कार किया था; मालूम होता है यह उसी पापका फल है ।।९।।

(अथवा हो न हो यह संहारमूर्ति भगवान् रुद्रके अनादरका ही परिणाम है।) प्रलयकाल उपस्थित होनेपर जिस समय वे अपने जटाजूटको बिखेरकर तथा शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित अपनी भुजाओंको ध्वजाओंके समान फैलाकर ताण्डव नृत्य करते हैं, उस समय उनके त्रिशूलके फलोंसे दिग्गज बिंध जाते हैं तथा उनके मेघगर्जनके समान भयंकर अट्टहाससे दिशाएँ विदीर्ण हो जाती हैं ।।१०।।

उस समय उनका तेज असह्य होता है, वे अपनी भौंहें टेढ़ी करनेके कारण बड़े दुर्धर्ष जान पड़ते हैं और उनकी विकराल दाढ़ोंसे तारागण अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। उन क्रोधमें भरे हुए भगवान् शंकरको बार-बार कुपित करनेवाला पुरुष साक्षात् विधाता ही क्यों न हो-क्या कभी उसका कल्याण हो सकता है? ।।११।।

संस्कृत श्लोक :-

अमर्षयित्वा तमसह्यतेजसं मन्युप्लुतं दुर्विषहं भुकुट्या । करालदंष्ट्राभिरुदस्त भागणं स्यात्स्वस्ति किं कोपयतो विधातुः ।।११ बह्वेवमुद्विग्न दृशोच्यमाने जनेन दक्षस्य मुहुर्महात्मनः । उत्पेतुरुत्पाततमाः सहस्रशो भयावहा दिवि भूमौ च पर्यक् ।।१२ तावत्स रुद्रानुचरैर्मखो महान् नानायुधैर्वामनकैरुदायुधैः । पिङ्गैः पिशङ्गैर्मकरोदराननैः पर्याद्रवद्भिर्विदुरान्वरुध्यत ।।१३ केचिद्वभञ्जुः प्राग्वंशं पत्नीशालां तथापरे । सद आग्नीध्रशालां च तद्विहारं महानसम् ।।१४ रुरुजुर्यज्ञपात्राणि तथैकेऽग्नीननाशयन् ।कुण्डेष्वमूत्रयन् केचिद्विभिदुर्वेदिमेखलाः ।।१५अबाधन्त मुनीनन्य एके पत्नीरतर्जयन् ।अपरे जगृहुर्देवान् प्रत्यासन्नान् पलायितान् ।।१६ भृगुं बबन्ध मणिमान् वीरभद्रः प्रजापतिम् । चण्डीशः पूषणं देवं भगं नन्दीश्वरोऽग्रहीत् ।।१७

हिंदी अनुवाद :-

जो लोग महात्मा दक्षके यज्ञमें बैठे थे, वे भयके कारण एक-दूसरेकी ओर कातर दृष्टिसे निहारते हुए ऐसी ही तरह-तरहकी बातें कर रहे थे कि इतनेमें ही आकाश और पृथ्वीमें सब ओर सहस्रों भयंकर होने लगे ।।१२।।

विदुरजी ! इसी समय दौड़कर आये हुए रुद्रसेवकोंने उस महान् यज्ञमण्डपको सब ओरसे घेर लिया। वे सब तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। उनमें कोई बौने, कोई भूरे रंगके, कोई पीले और कोई मगरके समान पेट और मुखवाले थे ।।१३।।

उनमेंसे किन्हींने प्राग्वंश (यज्ञशालाके पूर्व और पश्चिमके खंभोंके बीचमें आड़े रखे हुए डंडे) को तोड़ डाला, किन्हींने यज्ञशालाके पश्चिमकी ओर स्थित पत्नीशालाको नष्ट कर दिया, किन्हींने यज्ञशालाके सामनेका सभामण्डप और मण्डपके आगे उत्तरकी ओर स्थित आग्नीध्रशालाको तोड़ दिया, किन्हींने यजमानगृह और पाकशालाको तहस-नहस कर डाला ।।१४।।

किन्हींने यज्ञके पात्र फोड़ दिये, किन्हींने अग्नियोंको बुझा दिया, किन्हींने यज्ञकुण्डोंमें पेशाब कर दिया और किन्हींने वेदीकी सीमाके सूत्रोंको तोड़ डाला ।।१५।।

कोई-कोई मुनियोंको तंग करने लगे, कोई स्त्रियोंको डराने-धमकाने लगे और किन्हींने अपने पास होकर भागते हुए देवताओंको पकड़ लिया ।।१६।। मणिमान्ने भृगु ऋषिको बाँध लिया, वीरभद्रने प्रजापति दक्षको कैद कर लिया तथा चण्डीशने पूषाको और नन्दीश्वरने भग देवताको पकड़ लिया ।।१७।।

संस्कृत श्लोक :-

सर्व एवर्विजो दृष्ट्वा सदस्याः सदिवौकसः । तैरर्धमानाः सुभृशं ग्रावभिर्नेकधाद्रवन् ।।१८जुह्वतः सुवहस्तस्य श्मश्रूणि भगवान् भवः । भृगोलुलुञ्चे सदसि योऽहसच्छ्मश्रु दर्शयन् ।।१९भगस्य नेत्रे भगवान् पातितस्य रुषा भुवि । उज्जहार सदःस्थोऽक्ष्णा यः शपन्तमसूसुचत् ।।२०पूष्णश्चापातयद्दन्तान् कालिंगस्य यथा बलः । शप्यमाने गरिमणि योऽहसद्दर्शयन्दतः ।।२१आक्रम्योरसि दक्षस्य शितधारेण हेतिना । छिन्दन्नपि तदुद्धर्तुं नाशक्नोत् त्र्यम्बकस्तदा ।।२२शस्त्रैरस्त्रान्वितैरेवमनिर्भिन्नत्वचं हरः । विस्मयं परमापन्नो दध्यौ पशुपतिश्चिरम् ।।२३दृष्ट्वा संज्ञपनं योगं पशूनां स पतिर्मखे । यजमानपशोः कस्य कायात्तेनाहरच्छिरः ।।२४साधुवादस्तदा तेषां कर्म तत्तस्य शंसताम् । भूतप्रेतपिशाचानामन्येषां तद्विपर्ययः ।।२५जुहावैतच्छिरस्तस्मिन्दक्षिणाग्नावमर्षितः । तद्देवयजनं दग्ध्वा प्रातिष्ठद् गुह्यकालयम् ।।२६

हिंदी अनुवाद :-

भगवान् शंकरके पार्षदोंकी यह भयंकर लीला देखकर तथा उनके कंकड़-पत्थरोंकी मारसे बहुत तंग आकर वहाँ जितने ऋत्विज, सदस्य और देवतालोग थे, सब-के-सब जहाँ-तहाँ भाग गये ।।१८।।

भृगुजी हाथमें सुवा लिये हवन कर रहे थे। वीरभद्रने इनकी दाढ़ी-मूँछनोच लीं; क्योंकि इन्होंने प्रजापतियोंकी सभामें मूँछें ऐंठते हुए महादेवजीका उपहास कियाथा ।।१९।।

उन्होंने क्रोधमें भरकर भगदेवताको पृथ्वीपर पटक दिया और उनकी आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष देवसभामें श्रीमहादेवजीको बुरा-भला कहते हुए शाप दे रहे थे,उस समय इन्होंने दक्षको सैन देकर उकसाया था ।।२०।।

इसके पश्चात् जैसे अनिरुद्धकेविवाहके समय बलरामजीने कलिंगराजके दाँत उखाड़े थे, उसी प्रकार उन्होंने पूषाके दाँततोड़ दिये; क्योंकि जब दक्षने महादेवजीको गालियाँ दी थीं, उस समय ये दाँत दिखाकर हँसेथे ।।२१।।

फिर वे दक्षकी छातीपर बैठकर एक तेज तलवारसे उसका सिर काटने लगे, परन्तु बहुत प्रयत्न करनेपर भी वे उस समय उसे धड़से अलग न कर सके ।।२२।।

जब किसी भी प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे दक्षकी त्वचा नहीं कटी, तब वीरभद्रको बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बहुत देरतक विचार करते रहे ।।२३।।

तब उन्होंने यज्ञमण्डपमें यज्ञपशुओंको जिस प्रकार मारा जाता था, उसे देखकर उसी प्रकार दक्षरूप उस यजमान पशुका सिर धड़से अलग कर दिया ।। २४।।

यह देखकर भूत, प्रेत और पिशाचादि तो उनके इस कर्मकी प्रशंसा करते हुए ‘वाह-वाह’ करने लगे और दक्षके दलवालोंमें हाहाकार मच गया ।। २५ ।।

वीरभद्रने अत्यन्त कुपित होकर दक्षके सिरको यज्ञकी दक्षिणाग्निमें डाल दिया और उस यज्ञशालामें आग लगाकर यज्ञको विध्वंस करके वे कैलासपर्वतको लौट गये ।।२६।।

इतिश्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे दक्षयज्ञविध्वंसो नाम पञ्चमोऽध्यायः ।।५।।

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