Bhagwat puran skandh 4 chapter 31( भागवत पुराण चतुर्थ स्कन्ध: अथैकत्रिंशोऽध्यायः प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश और उनका परमपद-लाभ)
संस्कृत श्लोक: –
मैत्रेय उवाच
तत उत्पन्नविज्ञाना आश्वधोक्षजभाषितम् । स्मरन्त आत्मजे भार्यां विसृज्य प्राव्रजन् गृहात् ।।१दीक्षिता ब्रह्मसत्रेण सर्वभूतात्ममेधसा । प्रतीच्यां दिशि वेलायां सिद्धोऽभूद्यत्र जाजलिः ।।२
तान्निर्जितप्राणमनोवचोदृशो जितासनान् शान्तसमानविग्रहान् ।परेऽमले ब्रह्मणि योजितात्मनः सुरासुरेड्यो ददृशे स्म नारदः ।।३तमागतं त उत्थाय प्रणिपत्याभिनन्द्य च । पूजयित्वा यथादेशं सुखासीनमथाब्रुवन् ।।४
प्रचेतस ऊचुः
स्वागतं ते सुरर्षेऽद्य दिष्टया नो दर्शनं गतः । तव चङ्क्रमणं ब्रह्मन्नभयाय यथा रवेः ।।५यदादिष्टं भगवता शिवेनाधोक्षजेन च । तद् गृहेषु प्रसक्तानां प्रायशः क्षपितं प्रभो ।।६तन्नः प्रद्योतयाध्यात्मज्ञानं तत्त्वार्थदर्शनम् । येनांजसा तरिष्यामो दुस्तरं भवसागरम् ।।७
हिन्दी अनुवाद: –
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! दस लाख वर्ष बीत जानेपर जब प्रचेताओंको विवेक हुआ, तब उन्हें भगवान्के वाक्योंकी याद आयी और वे अपनी भार्या मारिषाको पुत्रके पास छोड़कर तुरंत घरसे निकल पड़े ।।१।।
वे पश्चिम दिशामें समुद्रके तटपर- जहाँ जाजलि मुनिने सिद्धि प्राप्त की थी-जा पहुँचे और जिससे ‘समस्त भूतोंमें एक ही आत्मतत्त्व विराजमान है’ ऐसा ज्ञान होता है, उस आत्मविचाररूप ब्रह्मसत्रका संकल्प करके बैठ गये ।।२।।
उन्होंने प्राण, मन, वाणी और दृष्टिको वशमें किया तथा शरीरको निश्चेष्ट, स्थिर और सीधा रखते हुए आसनको जीतकर चित्तको विशुद्ध परब्रह्ममें लीन कर दिया। ऐसी स्थितिमें उन्हें देवता और असुर दोनोंके ही वन्दनीय श्रीनारदजीने देखा ।।३।।
नारदजीको आया देख प्रचेतागण खड़े हो गये और प्रणाम करके आदर-सत्कारपूर्वक देश-कालानुसार उनकी विधिवत् पूजा की। जब नारदजी सुखपूर्वक बैठ गये, तब वे कहने लगे ।।४।।
प्रचेताओंने कहा- देवर्षे ! आपका स्वागत है, आज बड़े भाग्यसे हमें आपका दर्शन हुआ। ब्रह्मन् ! सूर्यके समान आपका घूमना-फिरना भी ज्ञानालोकसे समस्त जीवोंको अभय- दान देनेके लिये ही होता है ।।५।।
प्रभो! भगवान् शंकर और श्रीविष्णुभगवान्ने हमें जो उपदेश दिया था, उसे गृहस्थीमें आसक्त रहनेके कारण हमलोग प्रायः भूल गये हैं ।। ६ ।।
अतः आप हमारे हृदयोंमें उस परमार्थतत्त्वका साक्षात्कार करानेवाले अध्यात्मज्ञानको फिर प्रकाशित कर दीजिये, जिससे हम सुगमतासे ही इस दुस्तर संसार-सागरसे पार हो जायँ ।।७।।
संस्कृत श्लोक: –
मैत्रेय उवाच
इति प्रचेतसां पृष्टो भगवान्नारदो मुनिः ।भगवत्युत्तमश्लोक आविष्टात्माब्रवीन्नृपान् ।।८
नारद उवाच
तज्जन्म तानि कर्माणि तदायुस्तन्मनो वचः ।नृणां येनेह विश्वात्मा सेव्यते हरिरीश्वरः ।।९किं जन्मभिस्त्रिभिर्वेह शौक्लसावित्रयाज्ञिकैः ३ ।कर्मभिर्वा त्रयीप्रोक्तैः पुंसोऽपि विबुधायुषा ।।१०श्रुतेन तपसा वा किं वचोभिश्चित्तवृत्तिभिः ।बुद्ध्या वा किं निपुणया बलेनेन्द्रियराधसा ।।११किं वा योगेन सांख्येन न्यासस्वाध्याययोरपि । किं वा श्रेयोभिरन्यैश्च न यत्रात्मप्रदो हरिः ।।१२
श्रेयसामपि सर्वेषामात्मा ह्यवधिरर्थतः । सर्वेषामपि भूतानां हरिरात्माऽऽत्मदः प्रियः ।।१३यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः । प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ।।१४यथैव सूर्यात्प्रभवन्ति वारः पुनश्च तस्मिन् प्रविशन्ति काले । भूतानि भूमौ स्थिरजंगमानि तथा हरावेव गुणप्रवाहः ।।१५
हिन्दी अनुवाद: –
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- भगवन्मय श्रीनारदजीका चित्त सर्वदा भगवान् श्रीकृष्णमें ही लगा रहता है। वे प्रचेताओंके इस प्रकार पूछनेपर उनसे कहने लगे ।।८।।
श्रीनारदजीने कहा- राजाओ ! इस लोकमें मनुष्यका वही जन्म, वही कर्म, वही आयु, वही मन और वही वाणी सफल है, जिसके द्वारा सर्वात्मा सर्वेश्वर श्रीहरिका सेवन किया जाता है ।।९।।
जिनके द्वारा अपने स्वरूपका साक्षात्कार करानेवाले श्रीहरिको प्राप्त न किया जाय, उन माता-पिताकी पवित्रतासे, यज्ञोपवीत-संस्कारसे एवं यज्ञदीक्षासे प्राप्त होनेवाले उन तीन प्रकारके श्रेष्ठ जन्मोंसे, वेदोक्त कर्मोंसे, देवताओंके समान दीर्घ आयुसे, शास्त्रज्ञानसे, तपसे, वाणीकी चतुराईसे,
अनेक प्रकारकी बातें याद रखनेकी शक्तिसे, तीव्र बुद्धिसे, बलसे, इन्द्रियोंकी पटुतासे, योगसे, सांख्य (आत्मानात्मविवेक) से, संन्यास और वेदाध्ययनसे तथा व्रत-वैराग्यादि अन्य कल्याण-साधनोंसे भी पुरुषका क्या लाभ है? ।।१०-१२।।
वास्तवमें समस्त कल्याणोंकी अवधि आत्मा ही है और आत्मज्ञान प्रदान करनेवाले श्रीहरि ही सम्पूर्ण प्राणियोंकी प्रिय आत्मा हैं ।।१३।।
जिस प्रकार वृक्षकी जड़ सींचनेसे उसके तना, शाखा, उपशाखा आदि सभीका पोषण हो जाता है और जैसे भोजनद्वारा प्राणोंको तृप्त करनेसे समस्त इन्द्रियाँ पुष्ट होती हैं, उसी प्रकार श्रीभगवान्की पूजा ही सबकी पूजा है ।।१४।।
जिस प्रकार वर्षाकालमें जल सूर्यके तापसे उत्पन्न होता है और ग्रीष्म ऋतुमें उसीकी किरणोंमें पुनः प्रवेश कर जाता है तथा जैसे समस्त चराचर भूत पृथ्वीसे उत्पन्न होते हैं और फिर उसीमें मिल जाते हैं, उसी प्रकार चेतना-चेतनात्मक यह समस्त प्रपंच श्रीहरिसे ही उत्पन्न होता है और उन्हींमें लीन हो जाता है ।।१५।।
संस्कृत श्लोक: –
एतत्पदं तज्जगदात्मनः परं सकृद्विभातं सवितुर्यथा प्रभा । यथासवो जाग्रति सुप्तशक्तयो द्रव्यक्रियाज्ञानभिदाभ्रमात्ययः ।।१६यथा नभस्यभ्रतमः प्रकाशा भवन्ति भूपा न भवन्त्यनुक्रमात् ।एवं परे ब्रह्मणि शक्तयस्त्वमू रजस्तमः सत्त्वमिति प्रवाहः ।।१७
तेनैकमात्मानमशेषदेहिनां कालं प्रधानं पुरुषं परेशम् । स्वतेजसा ध्वस्तगुणप्रवाह- मात्मैकभावेन भजध्वमद्धा ।।१८
दयया सर्वभूतेषु सन्तुष्ट्या येन केन वा । सर्वेन्द्रियोपशान्त्या च तुष्यत्याशु जनार्दनः ।।१९अपहतसकलैषणामलात्म- न्यविरतमेधितभावनोपहूतः ।निजजनवशगत्वमात्मनोऽय- न्न सरति छिद्रवदक्षरः सतां हि ।।२०
हिन्दी अनुवाद: –
यह विश्वात्मा श्रीभगवान्का वह शास्त्रप्रसिद्ध सर्वोपाधिरहित स्वरूप ही है। जैसे सूर्यकी प्रभा उससे भिन्न नहीं होती, उसी प्रकार कभी-कभी गन्धर्व-नगरके समान स्फुरित होनेवाला यह जगत् भगवान्से भिन्न नहीं है; तथा जैसे जाग्रत् अवस्थामें इन्द्रियाँ क्रियाशील रहती हैं किन्तु सुषुप्तिमें उनकी शक्तियाँ लीन हो जाती हैं,
उसी प्रकार यह जगत् सर्गकालमें भगवान्से प्रकट हो जाता है और कल्पान्त होनेपर उन्हींमें लीन हो जाता है। स्वरूपतः तो भगवान्में द्रव्य, क्रिया और ज्ञानरूपी त्रिविध अहंकारके कार्योंकी तथा उनके निमित्तसे होनेवाले भेदभ्रमकी सत्ता है ही नहीं ।। १६
।। नृपतिगण ! जैसे बादल, अन्धकार और प्रकाश-ये क्रमशः आकाशसे प्रकट होते हैं और उसीमें लीन हो जाते हैं; किन्तु आकाश इनसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार ये सत्त्व, रज, और तमोमयी शक्तियाँ कभी परब्रह्मसे उत्पन्न होती हैं और कभी उसीमें लीन हो जाती हैं।
इसी प्रकार इनका प्रवाह चलता रहता है; किन्तु इससे आकाशके समान असंग परमात्मामें कोई विकार नहीं होता ।।१७।।
अतः तुम ब्रह्मादि समस्त लोकपालोंके भी अधीश्वर श्रीहरिको अपनेसे अभिन्न मानते हुए भजो; क्योंकि वे ही समस्त देहधारियोंके एकमात्र आत्मा हैं। वे ही जगत्के निमित्तकारण काल, उपादानकारण प्रधान और नियन्ता पुरुषोत्तम हैं तथा अपनी कालशक्तिसे वे ही इस गुणोंके प्रवाहरूप प्रपंचका संहार कर देते हैं ।।१८।।
वे भक्तवत्सल भगवान् समस्त जीवोंपर दया करनेसे, जो कुछ मिल जाय उसीमें सन्तुष्ट रहनेसे तथा समस्त इन्द्रियोंको विषयोंसे निवृत्त करके शान्त करनेसे शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं ।।१९।।
पुत्रैषणा आदि सब प्रकारकी वासनाओंके निकल जानेसे जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, उन संतोंके हृदयमें उनके निरन्तर बढ़ते हुए चिन्तनसे खिंचकर अविनाशी श्रीहरि आ जाते हैं और अपनी भक्ताधीनताको चरितार्थ करते हुए हृदयाकाशकी भाँति वहाँसे हटते नहीं ।। २० ।।
संस्कृत श्लोक: –
न भजति कुमनीषिणां स इज्यां हरिरधनात्मधनप्रियो रसज्ञः । श्रुतधनकुलकर्मणां मदैर्ये विदधति पापमकिंचनेषु सत्सु ।।२१श्रियमनुचरतीं तदर्थिनश्च द्विपदपतीन् विबुधांश्च यत्स्वपूर्णः २ । न भजति निजभृत्यवर्गतन्त्रः कथममुमुद्धिसृजेत्पुमान् कृतज्ञः ।।२२
मैत्रेय उवाच
इति प्रचेतसो राजन्नन्याश्च भगवत्कथाः । श्रावयित्वा ब्रह्मलोकं ययौ स्वायम्भुवो मुनिः ।।२३
तेऽपि तन्मुखनिर्यातं यशो लोकमलापहम् । हरेर्निशम्य तत्पादं ध्यायन्तस्तद्गतिं ययुः ।।२४
एतत्तेऽभिहितं क्षत्तर्यन्मां त्वं परिपृष्टवान् ।
प्रचेतसां नारदस्य संवादं हरिकीर्तनम् ।। २५
श्रीशुक उवाच
य एष उत्तानपदो मानवस्यानुवर्णितः ।
वंशः प्रियव्रतस्यापि निबोध नृपसत्तम ।।२६
यो नारदादात्मविद्यामधिगम्य पुनर्महीम् । भुक्त्वा विभज्य पुत्रेभ्य ऐश्वरं समगात्पदम् ।।२७
हिन्दी अनुवाद: –
भगवान् तो अपनेको (भगवान्को) ही सर्वस्व माननेवाले निर्धन पुरुषोंपर ही प्रेम करते हैं; क्योंकि वे परम रसज्ञ है- उन अकिंचनोंकी अनन्याश्रया अहैतुकी भक्तिमें कितना माधुर्य होता है, इसे प्रभु अच्छी तरह जानते हैं।
जो लोग अपने शास्त्रज्ञान, धन, कुल और कर्मोंके मदसे उन्मत्त होकर, ऐसे निष्किंचन साधुजनोंका तिरस्कार करते हैं, उन दुर्बुद्धियोंकी पूजा तो प्रभु स्वीकार ही नहीं करते ।।२१।।
भगवान् स्वरूपानन्दसे ही परिपूर्ण हैं, उन्हें निरन्तर अपनी सेवामें रहनेवाली लक्ष्मीजी तथा उनकी इच्छा करनेवाले नरपति और देवताओंकी भी कोई परवा नहीं है। इतनेपर भी वे अपने भक्तोंके तो अधीन ही रहते हैं। अहो! ऐसे करुणा-सागर श्रीहरिको कोई भी कृतज्ञ पुरुष थोड़ी देरके लिये भी कैसे छोड़ सकता है? ।।२२।।
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! भगवान् नारदने प्रचेताओंको इस उपदेशके साथ-साथ और भी बहुत-सी भगवत्सम्बन्धी बातें सुनायीं। इसके पश्चात् वे ब्रह्मलोकको चले गये ।।२३।।
प्रचेतागण भी उनके मुखसे सम्पूर्ण जगत्के पापरूपी मलको दूर करनेवाले भगवच्चरित्र सुनकर भगवान्के चरणकमलोंका ही चिन्तन करने लगे और अन्तमें भगवद्धामको प्राप्त हुए ।। २४।।
इस प्रकार आपने जो मुझसे श्रीनारदजी और प्रचेताओंके भगवत्कथासम्बन्धी संवादके विषयमें पूछा था, वह मैंने आपको सुना दिया ।। २५।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- राजन् ! यहाँतक स्वायम्भुव मनुके पुत्र उत्तानपादके वंशका वर्णन हुआ, अब प्रियव्रतके वंशका विवरण भी सुनो ।। २६ ।।
राजा प्रियव्रतने श्रीनारदजीसे आत्मज्ञानका उपदेश पाकर भी राज्यभोग किया था तथा अन्तमें इस सम्पूर्ण पृथ्वीको अपने पुत्रोंमें बाँटकर वे भगवान्के परमधामको प्राप्त हुए थे ।। २७।।
संस्कृत श्लोक: –
इमां तु कौषारविणोपवर्णितां क्षत्ता निशम्याजितवादसत्कथाम् ।प्रवृद्धभावोऽश्रुकलाकुलो मुने- र्दधार मूर्ध्वा चरणं हृदा हरेः ।।२८
विदुर उवाच
सोऽयमद्य महायोगिन् भवता करुणात्मना । दर्शितस्तमसः पारो यत्राकिञ्चनगो हरिः ।। २९
श्रीशुक उवाच
इत्यानम्य तमामन्त्र्य विदुरो गजसाह्वयम् ।स्वानां दिदृक्षुः प्रययौ ज्ञातीनां निर्वृताशयः ।।३०एतद्यः शृणुयाद्राजन् राज्ञां हर्यर्पितात्मनाम् । आयुर्धनं यशः स्वस्ति गतिमैश्वर्यमाप्नुयात् ।।३१
हिन्दी अनुवाद: –
राजन् ! इधर श्रीमैत्रेयजीके मुखसे यह भगवद्-गुणानुवादयुक्त पवित्र कथा सुनकर
विदुरजी प्रेममग्न हो गये, भक्तिभावका उद्रेक होनेसे उनके नेत्रोंसे पवित्र आँसुओंकी धारा
बहने लगी तथा उन्होंने हृदयमें भगवच्चरणोंका स्मरण करते हुए अपना मस्तक मुनिवर मैत्रेयजीके चरणोंपर रख दिया ।। २८ ।।
विदुरजी कहने लगे- महायोगिन् ! आप बड़े ही करुणामय हैं। आज आपने मुझे अज्ञानान्धकारके उस पार पहुँचा दिया है, जहाँ अकिंचनोंके सर्वस्व श्रीहरि विराजते हैं ।। २९।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- मैत्रेयजीको उपर्युक्त कृतज्ञता सूचक वचन कहकर तथा प्रणाम कर विदुरजीने उनसे आज्ञा ली और फिर शान्तचित्त होकर अपने बन्धुजनोंसे मिलनेके लिये वे हस्तिनापुर चले गये ।। ३० ।।
राजन् ! जो पुरुष भगवान्के शरणागत परमभागवत राजाओंका यह पवित्र चरित्र सुनेगा, उसे दीर्घ आयु, धन, सुयश, क्षेम, सद्गति और ऐश्वर्यकी प्राप्ति होगी ।। ३१।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्रयां पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे प्रचेतसोपाख्यानं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ।।३१।।
१. प्रा० पा०-भिवाद्य च। २. प्रा० पा०- प्रायो नः। ३. प्रा० पा०- ध्यात्मं ज्ञानं।
१. प्रा० पा०-येन हि। २. प्रा० पा०- भिस्त्रिभिर्वेदैः। ३. प्रा० पा०- शुक्लसा०। ४. प्रा० पा०- रोधसा। ५. प्रा० पा०- रात्मपदः प्रि०।
१. प्रा० पा०-मनुसरतस्तदर्थि०। २. प्रा० पा० – यत्सुपूर्णः। ३. प्रा० पा०- नृप सम्मतम्।
१. प्रा० पा०- भावाश्रु०।
।। इति चतुर्थः स्कन्धः समाप्तः ।।
।। हरिः ॐ तत्सत् ।।