Bhagwat puran skandh 4 chapter 3( भागवत पुराण चतुर्थः स्कन्धःतृतीयोऽध्यायःसतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह करना)

Bhagwat puran skandh 4 chapter 3( भागवत पुराण चतुर्थः स्कन्धःतृतीयोऽध्यायः सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह करना)

अथ तृतीयोऽध्यायः

सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह करना

संस्कृत श्लोक :-

मैत्रेय उवाच

सदा विद्विषतोरेवं कालो वै ध्रियमाणयोः । जामातुः श्वशुरस्यापि सुमहानतिचक्रमे ।।१यदाभिषिक्तो दक्षस्तु ब्रह्मणा परमेष्ठिना । प्रजापतीनां सर्वेषामाधिपत्ये स्मयोऽभवत् ।।२इष्ट्वा स वाजपेयेन ब्रह्मिष्ठानभिभूय च । बृहस्पतिसवं नाम समारेभे क्रतूत्तमम् ।।३तस्मिन् ब्रह्मर्षयः सर्वे देवर्षिपितृदेवताः । आसन् कृतस्वस्त्ययनास्तत्पत्न्यश्च सभर्तृकाः ।।४

हिंदी अनुवाद :- 

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! इस प्रकार उन ससुर और दामादको आपसमें वैर- विरोध रखते हुए बहुत अधिक समय निकल गया ।।१।।

इसी समय ब्रह्माजीने दक्षको समस्त प्रजापतियोंका अधिपति बना दिया। इससे उसका गर्व और भी बढ़ गया ।। २ ।।

उसने भगवान् शंकर आदि ब्रह्मनिष्ठोंको यज्ञभाग न देकर उनका तिरस्कार करते हुए पहले तो वाजपेय-यज्ञ किया और फिर बृहस्पतिसव नामका महायज्ञ आरम्भ किया ।।३।।

उस यज्ञोत्सवमें सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पितर, देवता आदि अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ पधारे, उन सबने मिलकर वहाँ मांगलिक कार्य सम्पन्न किये और दक्षके द्वारा उन सबका स्वागत-सत्कार किया गया ।।४।।

संस्कृत श्लोक :-

तदुपश्रुत्य नभसि खेचराणां प्रजल्पताम् ।

सती दाक्षायणी देवी पितुर्यज्ञमहोत्सवम् ।।५

व्रजन्तीः सर्वतो दिग्भ्य उपदेववरस्त्रियः ।

विमानयानाः सप्रेष्ठा निष्ककण्ठीः सुवाससः ।।६

दृष्ट्वा स्वनिलयाभ्याशे लोलाक्षीर्मृष्टकुण्डलाः ।

पतिं भूतपतिं देवमौत्सुक्यादभ्यभाषत ।।७

सत्युवाच

प्रजापतेस्ते श्वशुरस्य साम्प्रतं निर्यापितो यज्ञमहोत्सवः किल ।

वचं च तत्राभिसराम वाम ते यद्यर्थितामी विबुधा व्रजन्ति हि ।।८ तस्मिन् भगिन्यो मम भर्तृभिः स्वकै- ध्रुवं गमिष्यन्ति सुहृद्दिदृक्षवः । अहं च तस्मिन् भवताभिकामये सहोपनीतं परिबर्हमर्हितुम् ।।९ तत्र स्वसृर्मे ननु भर्तृसम्मिता मातृष्वसृः क्लिन्नधियं च मातरम् । द्रक्ष्ये चिरोत्कण्ठमना महर्षिभि- रुन्नीयमानं च मृडाध्वरध्वजम् ।।१० त्वय्येतदाश्चर्यमजात्ममायया विनिर्मितं भाति गुणत्रयात्मकम् । तथाप्यहं योषिदतत्त्वविच्च ते दीना दिदृक्षे भव मे भवक्षितिम् ।।११ पश्य प्रयान्तीरभवान्ययोषितो- ऽप्यलंकृताः कान्तसखा वरूथशः । यासां व्रजद्भिः शितिकण्ठ मण्डितं नभो विमानैः कलहंसपाण्डुभिः ।।१२

हिंदी अनुवाद :- 

उस समय आकाशमार्गसे जाते हुए देवता आपसमें उस यज्ञकी चर्चा करते जाते थे। उनके मुखसे दक्षकुमारी सतीने अपने पिताके घर होनेवाले यज्ञकी बात सुन ली ।।५।।

उन्होंने देखा कि हमारे निवासस्थान कैलासके पाससे होकर सब ओरसे चंचल नेत्रोंवाली गन्धर्व और यक्षोंकी स्त्रियाँ चमकीले कुण्डल और हार पहने खूब सज-धजकर अपने-अपने पतियोंके साथ विमानोंपर बैठी उस यज्ञोत्सवमें जा रही हैं। इससे उन्हें भी बड़ी उत्सुकता हुई और उन्होंने अपने पति भगवान् भूतनाथसे कहा ।।६-७।।

सतीने कहा- वामदेव ! सुना है, इस समय आपके ससुर दक्षप्रजापतिके यहाँ बड़ा भारी यज्ञोत्सव हो रहा है। देखिये, ये सब देवता वहीं जा रहे हैं; यदि आपकी इच्छा हो तो हम भी चलें ।।८।।

इस समय अपने आत्मीयोंसे मिलनेके लिये मेरी बहिनें भी अपने-अपने पतियोंके सहित वहाँ अवश्य आयेंगी। मैं भी चाहती हूँ कि आपके साथ वहाँ जाकर माता-पिताके दिये हुए गहने, कपड़े आदि उपहार स्वीकार करूँ ।।९।।

वहाँ अपने पतियोंसे सम्मानित बहिनों, मौसियों और स्नेहार्द्रहृदया जननीको देखनेके लिये मेरा मन बहुत दिनोंसे उत्सुक है। कल्याणमय! इसके सिवा वहाँ महर्षियोंका रचा हुआ श्रेष्ठ यज्ञ भी देखनेको मिलेगा ।।१०।।

अजन्मा प्रभो! आप जगत्‌की उत्पत्तिके हेतु हैं। आपकी मायासे रचा हुआ यह परम आश्चर्यमय त्रिगुणात्मक जगत् आपहीमें भास रहा है। किंतु मैं तो स्त्रीस्वभाव होनेके कारण आपके तत्त्वसे अनभिज्ञ और बहुत दीन हूँ। इसलिये इस समय अपनी जन्मभूमि देखनेको बहुत उत्सुक हो रही हूँ ।।११।।

जन्मरहित नीलकण्ठ ! देखिये – इनमें कितनी ही स्त्रियाँ तो ऐसी हैं, जिनका दक्षसे कोई सम्बन्ध भी नहीं है। फिर भी वे अपने-अपने पतियोंके सहित खूब सज-धजकर झुंड-की-झुंड वहाँ जा रही हैं। वहाँ जानेवाली इन देवांगनाओंके राजहंसके समान श्वेत विमानोंसे आकाशमण्डल कैसा सुशोभित हो रहा है ।।१२।।

संस्कृत श्लोक :-

कथं सुतायाः पितृगेहकौतुकं निशम्य देहः सुरवर्य नेङ्गते । अनाहुता अप्यभियन्ति सौहृदं भर्तुर्गुरोर्देहकृतश्च केतनम् ।।१३ तन्मे प्रसीदेदममर्त्य वाञ्छितं कर्तुं भवान्कारुणिको बतार्हति । त्वयाऽऽत्मनोऽर्थेऽहमदभ्रचक्षुषा निरूपिता मानुगृहाण याचितः ।।१४

ऋषिरुवाच

एवं गिरित्रः प्रिययाभिभाषितः प्रत्यभ्यधत्त प्रहसन् सुहृत्प्रियः । संस्मारितो मर्मभिदः कुवागिषून् यानाह को विश्वसृजां समक्षतः ।।१५

श्रीभगवानुवाच

त्वयोदितं शोभनमेव शोभने अनाहुता अप्यभियन्ति बन्धुषु । ते यद्यनुत्पादितदोषदृष्टयो बलीयसानात्म्यमदेन मन्युना ।।१६ विद्यातपोवित्तवपुर्वयःकुलैः सतां गुणैः षड्भिरसत्तमेतरैः । स्मृतौ हतायां भृतमानदुर्दृशः स्तब्धा न पश्यन्ति हि धाम भूयसाम् ।। १७

नैतादृशानां स्वजनव्यपेक्षया

गृहान् प्रतीयादनवस्थितात्मनाम् । येऽभ्यागतान् वक्रधियाभिचक्षते आरोपितभूभिरमर्षणाक्षिभिः ।।१८

तथारिभिर्न व्यथते शिलीमुखैः शेतेऽर्दितांगो हृदयेन दूयता । स्वानां यथा वक्रधियां दुरुक्तिभि- र्दिवानिशं तप्यति मर्मताडितः ।।१९

हिंदी अनुवाद :- 

सुरश्रेष्ठ ! ऐसी अवस्थामें अपने पिताके यहाँ उत्सवका समाचार पाकर उसकी बेटीका शरीर उसमें सम्मिलित होनेके लिये क्यों न छटपटायेगा। पति, गुरु और माता-पिता आदि सुहृदोंके यहाँ तो बिना बुलाये भी जा सकते हैं ।।१३।।

अतः देव ! आप मुझपर प्रसन्न हों; आपको मेरी यह इच्छा अवश्य पूर्ण करनी चाहिये; आप बड़े करुणामय हैं, तभी तो परम ज्ञानी होकर भी आपने मुझे अपने आधे अंगमें स्थान दिया है। अब मेरी इस याचनापर ध्यान देकर मुझे अनुगृहीत कीजिये ।।१४।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- प्रिया सतीजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर अपने आत्मीयोंका प्रिय करनेवाले भगवान् शंकरको दक्षप्रजापतिके उन मर्मभेदी दुर्वचनरूप बाणोंका स्मरण हो आया, जो उन्होंने समस्त प्रजापतियोंके सामने कहे थे; तब वे हँसकर बोले ।।१५।।

भगवान् शंकरने कहा- सुन्दरि ! तुमने जो कहा कि अपने बन्धुजनके यहाँ बिना बुलाये भी जा सकते हैं, सो तो ठीक ही है; किंतु ऐसा तभी करना चाहिये, जब उनकी दृष्टि अतिशय प्रबल देहाभिमानसे उत्पन्न हुए मद और क्रोधके कारण द्वेष-दोषसे युक्त न हो गयी हो ।।१६।।

विद्या, तप, धन, सुदृढ़ शरीर, युवावस्था और उच्च कुल- ये छः सत्पुरुषोंके तो गुण हैं, परन्तु नीच पुरुषोंमें ये ही अवगुण हो जाते हैं; क्योंकि इनसे उनका अभिमान बढ़ जाता है और दृष्टि दोषयुक्त हो जाती है एवं विवेक-शक्ति नष्ट हो जाती है। इसी कारण वे महापुरुषोंका प्रभाव नहीं देख पाते ।।१७।।

इसीसे जो अपने यहाँ आये हुए पुरुषोंको कुटिल बुद्धिसे भौं चढ़ाकर रोषभरी दृष्टिसे देखते हैं, उन अव्यवस्थितचित्त लोगोंके यहाँ ‘ये हमारे बान्धव हैं’ ऐसा समझकर कभी नहीं जाना चाहिये ।।१८।।

देवि ! शत्रुओंके बाणोंसे बिंध जानेपर भी ऐसी व्यथा नहीं होती, जैसी अपने कुटिलबुद्धि स्वजनोंके कुटिल वचनोंसे होती है। क्योंकि बाणोंसे शरीर छिन्न-भिन्न हो जानेपर तो जैसे-तैसे निद्रा आ जाती है, किन्तु कुवाक्योंसे मर्मस्थान विद्ध हो जानेपर तो मनुष्य हृदयकी पीड़ासे दिन-रात बेचैन रहता है ।।१९।।

संस्कृत श्लोक :-

व्यक्तं त्वमुत्कृष्टगतेः प्रजापतेः प्रियाऽऽत्मजानामसि सुभ्रु सम्मता । अथापि मानं न पितुः प्रपत्स्यसे मदाश्रयात्कः परितप्यते यतः ।।२०पापच्यमानेन हृदाऽऽतुरेन्द्रियः समृद्धिभिः पूरुषबुद्धिसाक्षिणाम् । अकल्प एषामधिरोढुमंजसा पदं परं द्वेष्टि यथासुरा हरिम् ।।२१प्रत्युद्गमप्रश्रयणाभिवादनं विधीयते साधु मिथः सुमध्यमे । प्राज्ञैः परस्मै पुरुषाय चेतसा गुहाशयायैव न देहमानिने ।।२२सत्त्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितं यदीयते तत्र पुमानपावृतः । सत्त्वे च तस्मिन् भगवान् वासुदेवो ह्यधोक्षजो मे नमसा विधीयते ।।२३तत्ते निरीक्ष्यो न पितापि देहकृद् दक्षो मम द्विट् तदनुव्रताश्च ये । यो विश्वसृग्यज्ञगतं वरोरु मा- मनागसं दुर्वचसाकरोत्तिरः ।।२४यदि व्रजिष्यस्यतिहाय मद्वचो भद्रं भवत्या न ततो भविष्यति । सम्भावितस्य स्वजनात्पराभवो यदा स सद्यो मरणाय कल्पते ।। २५

हिंदी अनुवाद :- 

सुन्दरि ! अवश्य ही मैं यह जानता हूँ कि तुम परमोन्नतिको प्राप्त हुए दक्षप्रजापतिको अपनी कन्याओंमें सबसे अधिक प्रिय हो। तथापि मेरी आश्रिता होनेके कारण तुम्हें अपने पितासे मान नहीं मिलेगा; क्योंकि वे मुझसे बहुत जलते हैं ।। २० ।।

जीवकी चित्तवृत्तिके साक्षी अहंकारशून्य महापुरुषोंकी समृद्धिको देखकर जिसके हृदयमें सन्ताप और इन्द्रियोंमें व्यथा होती है, वह पुरुष उनके पदको तो सुगमतासे प्राप्त कर नहीं सकता; बस, दैत्यगण जैसे श्रीहरिसे द्वेष मानते हैं, वैसे ही उनसे कुढ़ता रहता है ।। २१ ।।

सुमध्यमे ! तुम कह सकती हो कि आपने प्रजापतियोंकी सभामें उनका आदर क्यों नहीं किया। सो ये सम्मुख जाना, नम्रता दिखाना, प्रणाम करना आदि क्रियाएँ जो लोकव्यवहारमें परस्पर की जाती हैं, तत्त्वज्ञानियोंके द्वारा बहुत अच्छे ढंगसे की जाती हैं। वे अन्तर्यामीरूपसे सबके अन्तःकरणोंमें स्थित परमपुरुष वासुदेवको ही प्रणामादि करते हैं; देहाभिमानी पुरुषको नहीं करते ।।२२।।

विशुद्ध अन्तःकरणका नाम ही ‘वसुदेव’ है, क्योंकि उसीमें भगवान् वासुदेवका अपरोक्ष अनुभव होता है। उस शुद्ध चित्तमें स्थित इन्द्रियातीत भगवान् वासुदेवको ही मैं नमस्कार किया करता हूँ ।। २३ ।।

इसीलिये प्रिये ! जिसने प्रजापतियोंके यज्ञमें, मेरेद्वारा कोई अपराध न होनेपर भी, मेरा कटुवाक्योंसे तिरस्कार किया था, वह दक्ष यद्यपि तुम्हारे शरीरको उत्पन्न करनेवाला पिता है, तो भी मेरा शत्रु होनेके कारण तुम्हें उसे अथवा उसके अनुयायियोंको देखनेका विचार भी नहीं करना चाहिये ।।२४।।

यदि तुम मेरी बात न मानकर वहाँ जाओगी, तो तुम्हारे लिये अच्छा न होगा; क्योंकि जब किसी प्रतिष्ठित व्यक्तिका अपने आत्मीयजनोंके द्वारा अपमान होता है, तब वह तत्काल उनकी मृत्युका कारण हो जाता है ।।२५।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे उमारुद्रसंवादे तृतीयोऽध्यायः ।।३।।

१. प्रा० पा० – यस्मि०। २. प्रा० पा० – त्वया।

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