Bhagwat puran skandh 4 chapter 29(भागवत पुराण चतुर्थःस्कन्धःअथैकोनत्रिंशोऽध्यायः पुरंजनोपाख्यानका तात्पर्य)
अथैकोनत्रिंशोऽध्यायः पुरंजनोपाख्यानका तात्पर्य
संस्कृत श्लोक :-
प्राचीनबर्हिरुवाच
भगवंस्ते वचोऽस्माभिर्न सम्यगवगम्यते । कवयस्तद्विजानन्ति न वयं कर्ममोहिताः ।।१
नारद उवाच
पुरुषं पुरंजनं विद्याद्यद् व्यनक्त्यात्मनः पुरम् । एकद्वित्रिचतुष्पादं बहुपादमपादकम् ।।२योऽविज्ञाताहृतस्तस्य पुरुषस्य सखेश्वरः । यन्न विज्ञायते पुम्भिर्नामभिर्वा क्रियागुणैः ।।३यदा जिघृक्षन् पुरुषः कात्स्न्र्येन प्रकृतेर्गुणान् । नवद्वारं द्विहस्ताद्धिं तत्रामनुत साध्विति ।।४बुद्धिं तु प्रमदां विद्यान्ममाहमिति यत्कृतम् । यामधिष्ठाय देहेऽस्मिन् पुमान् भुक्तेऽक्षभिर्गुणान् ।।५सखाय इन्द्रियगणा ज्ञानं कर्म च यत्कृतम् । सख्यस्तवृत्तयः प्राणः पंचवृत्तिर्यथोरगः ।।६बृहद्बलं मनो विद्यादुभयेन्द्रियनायकम् । पंचालाः पंच विषया यन्मध्ये नवखं पुरम् ।।७अक्षिणी नासिके कर्णों मुखं शिश्नगुदाविति । द्वे द्वे द्वारौ बहिर्याति यस्तदिन्द्रियसंयुतः ।।८
हिंदी अनुवाद :-
राजा प्राचीनबर्हिने कहा- भगवन् ! मेरी समझमें आपके वचनोंका अभिप्राय पूरा-पूरा नहीं आ रहा है। विवेकी पुरुष ही इनका तात्पर्य समझ सकते हैं, हम कर्ममोहित जीव नहीं ।।१।।
श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! पुरंजन (नगरका निर्माता) जीव है – जो अपने लिये एक, दो, तीन, चार अथवा बहुत पैरोंवाला या बिना पैरोंका शरीररूप पुर तैयार कर लेता है ।।२।।
उस जीवका सखा जो अविज्ञात नामसे कहा गया है, वह ईश्वर है; क्योंकि किसी भी प्रकारके नाम, गुण अथवा कर्मोंसे जीवोंको उसका पता नहीं चलता ।।३।।
जीवने जब सुख-दुःखरूप सभी प्राकृत विषयोंको भोगनेकी इच्छा की तब उसने दूसरे शरीरोंकी अपेक्षा नौ द्वार, दो हाथ और दो पैरोंवाला मानव-देह ही पसंद किया ।।४।।
बुद्धि अथवा अविद्याको ही तुम पुरंजनी नामकी स्त्री जानो; इसीके कारण देह और इन्द्रिय आदिमें मैं-मेरेपनका भाव उत्पन्न होता है और पुरुष इसीका आश्रय लेकर शरीरमें इन्द्रियोंद्वारा विषयोंको भोगता है ।।५।।
दस इन्द्रियाँ ही उसके मित्र हैं, जिनसे कि सब प्रकारके ज्ञान और कर्म होते हैं। इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ ही उसकी सखियाँ और प्राण-अपान-व्यान-उदान-समानरूप पाँच वृत्तियोंवाला प्राणवायु ही नगरकी रक्षा करनेवाला पाँच फनका सर्प है ।।६।।
दोनों प्रकारकी इन्द्रियोंके नायक मनको ही ग्यारहवाँ महाबली योद्धा जानना चाहिये। शब्दादि पाँच विषय ही पांचालदेश हैं, जिसके बीचमें वह नौ द्वारोंवाला नगर बसा हुआ है ।।७।।
उस नगरमें जो एक-एक स्थानपर दो-दो द्वार बताये गये थे- वे दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और दो कर्णछिद्र हैं। इनके साथ मुख, लिंग और गुदा- ये तीन और मिलाकर कुल नौ द्वार हैं; इन्हींमें होकर वह जीव इन्द्रियोंके साथ बाह्य विषयोंमें जाता है ।।८।।
संस्कृत श्लोक :-
अक्षिणी नासिके आस्यमिति पंच पुरः कृताः । दक्षिणा दक्षिणः कर्ण उत्तरा चोत्तरः स्मृतः ।।९पश्चिमे इत्यधोद्वारौ गुदं शिश्नमिहोच्यते । खद्योताऽऽविर्मुखी चात्र नेत्रे एकत्र निर्मिते । रूपं विभ्राजितं ताभ्यां विचष्टे चक्षुषेश्वरः ।।१०नलिनी नालिनी नासे गन्धः सौरभ उच्यते । घ्राणोऽवधूतो मुख्यास्यं विपणो वाग्रसविद्रसः ।।११आपणो व्यवहारोऽत्र चित्रमन्धो बहूदनम् । पितृहूर्दक्षिणः कर्ण उत्तरो देवहूः स्मृतः ।।१२प्रवृत्तं च निवृत्तं च शास्त्रं पंचालसंज्ञितम् । पितृयानं देवयानं श्रोत्राच्छ्रुतधराव्रजेत् ।।१३आसुरी मेढ्रमर्वाग्द्वार्व्यवायो ग्रामिणां रतिः ।उपस्थो दुर्मदः प्रोक्तो निर्ऋतिर्गुद उच्यते ।।१४वैशसं नरकं पायुर्लुब्धकोऽन्धौ तु मे शृणु । हस्तपादौ पुमांस्ताभ्यां युक्तो याति करोति च ।।१५अन्तःपुरं च हृदयं विषूचिर्मन उच्यते । तत्र मोहं प्रसादं वा हर्ष प्राप्नोति तद्गुणैः ।।१६
हिंदी अनुवाद :-
इसमें दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और एक मुख-ये पाँच पूर्वके द्वार हैं; दाहिने कानको दक्षिणका और बायें कानको उत्तरका द्वार समझना चाहिये ।।९।।
गुदा और लिंग- ये नीचेके दो छिद्र पश्चिमके द्वार हैं। खद्योता और आविर्मुखी नामके जो दो द्वार एक स्थानपर बतलाये थे, वे नेत्रगोलक हैं तथा रूप विभ्राजित नामका देश है, जिसका इन द्वारोंसे जीव चक्षु-इन्द्रियकी सहायतासे अनुभव करता है। (चक्षु-इन्द्रियोंको ही पहले द्युमान् नामका सखा कहा गया है) ।।१०।।
दोनों नासाछिद्र ही नलिनी और नालिनी नामके द्वार हैं और नासिकाका विषय गन्ध ही सौरभ देश है तथा घ्राणेन्द्रिय अवधूत नामका मित्र है। मुख मुख्य नामका द्वार है। उसमें रहनेवाला वागिन्द्रिय विपण है और रसनेन्द्रिय रसविद् (रसज्ञ) नामका मित्र है ।।११।।
वाणीका व्यापार आपण है और तरह-तरहका अन्न बहूदन है तथा दाहिना कान पितृहू और बायाँ कान देवहू कहा गया है ।।१२।।
कर्मकाण्डरूप प्रवृत्तिमार्गका शास्त्र और उपासनाकाण्डरूप निवृत्तिमार्गका शास्त्र ही क्रमशः दक्षिण और उत्तर पांचाल देश हैं। इन्हें श्रवणेन्द्रियरूप श्रुतधरकी सहायतासे सुनकर जीव क्रमशः पितृयान और देवयान मार्गोंमें जाता है ।।१३।।
लिंग ही आसुरी नामका पश्चिमी द्वार है, स्त्रीप्रसंग ग्रामक नामका देश है और लिंगमें रहनेवाला उपस्थेन्द्रिय दुर्मद नामका मित्र है। गुदा निर्ऋति नामका पश्चिमी द्वार है ।।
१४।। नरक वैशस नामका देश है और गुदामें स्थित पायु-इन्द्रिय लुब्धक नामका मित्र है। इनके सिवा दो पुरुष अंधे बताये गये थे, उनका रहस्य भी सुनो। वे हाथ और पाँव हैं; इन्हींकी सहायतासे जीव क्रमशः सब काम करता और जहाँ-तहाँ जाता है ।।१५।।
हृदय अन्तःपुर है, उसमें रहनेवाला मन ही विषूचि (विषूचीन) नामका प्रधान सेवक है। जीव उस मनके सत्त्वादि गुणोंके कारण ही प्रसन्नता, हर्षरूप विकार अथवा मोहको प्राप्त होता है ।।१६।।
संस्कृत श्लोक :-
यथा यथा विक्रियते गुणाक्तो विकरोति वा । तथा तथोपद्रष्टाऽऽत्मा तवृत्तीरनुकार्यते ।।१७देहो रथस्त्विन्द्रियाश्वः संवत्सररयोऽगतिः । द्विकर्मचक्रस्त्रिगुणध्वजः पंचासुबन्धुरः ।।१८मनोरश्मिर्बुद्धिसूतो हृन्नीडो द्वन्द्वकूबरः ।पंचेन्द्रियार्थप्रक्षेपः सप्तधातुवरूथकः ।।१९आकूतिर्विक्रमो बाह्यो मृगतृष्णां प्रधावति । एकादशेन्द्रियचमूः पंचसूनाविनोदकृत् ।।२०संवत्सरश्चण्डवेगः कालो येनोपलक्षितः । तस्याहानीह गन्धर्वा गन्धों रात्रयः स्मृताः । हरन्त्यायुः परिक्रान्त्या षष्ट्युत्तरशतत्रयम् ।।२१कालकन्या जरा साक्षाल्लोकस्तां नाभिनन्दति । स्वसारं जगृहे मृत्युः क्षयाय यवनेश्वरः ।।२२आधयो व्याधयस्तस्य सैनिका यवनाश्चराः । भूतोपसर्गाशुरयः प्रज्वारो द्विविधो ज्वरः ।।२३
हिंदी अनुवाद :-
बुद्धि (राजमहिषी पुरंजनी) जिस-जिस प्रकार स्वप्नावस्थामें विकारको प्राप्त होती है और जाग्रत्-अवस्थामें इन्द्रियादिको विकृत करती है, उसके गुणोंसे लिप्त होकर आत्मा (जीव) भी उसी-उसी रूपमें उसकी वृत्तियोंका अनुकरण करनेको बाध्य होता है- यद्यपि वस्तुतः वह उनका निर्विकार साक्षीमात्र ही है ।।१७।।
शरीर ही रथ है। उसमें ज्ञानेन्द्रियरूप पाँच घोड़े जुते हुए हैं। देखनेमें संवत्सररूप कालके समान ही उसका अप्रतिहत वेग है, वास्तवमें वह गतिहीन है। पुण्य और पाप- ये दो प्रकारके कर्म ही उसके पहिये हैं, तीन गुण ध्वजा हैं, पाँच प्राण डोरियाँ हैं ।।१८।।
मन बागडोर है, बुद्धि सारथि है, हृदय बैठनेका स्थान है, सुख-दुःखादि द्वन्द्व जुए हैं, इन्द्रियोंके पाँच विषय उसमें रखे हुए आयुध हैं और त्वचा आदि सात धातुएँ उसके आवरण हैं ।।१९।।
पाँच कर्मेन्द्रियाँ उसकी पाँच प्रकारकी गति हैं। इस रथपर चढ़कर रथीरूप यह जीव मृगतृष्णाके समान मिथ्या विषयोंकी ओर दौड़ता है। ग्यारह इन्द्रियाँ उसकी सेना हैं तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा उन-उन इन्द्रियोंके विषयोंको अन्यायपूर्वक ग्रहण करना ही उसका शिकार खेलना है ।।२०।।
जिसके द्वारा कालका ज्ञान होता है, वह संवत्सर ही चण्डवेग नामक गन्धर्वराज है। उसके अधीन जो तीन सौ साठ गन्धर्व बताये गये थे, वे दिन हैं और तीन सौ साठ गन्धर्वियाँ रात्रि हैं। ये बारी-बारीसे चक्कर लगाते हुए मनुष्यकी आयुको हरते रहते हैं ।।२१।।
वृद्धावस्था ही साक्षात् कालकन्या है, उसे कोई भी पुरुष पसंद नहीं करता। तब मृत्युरूप यवनराजने लोकका संहार करनेके लिये उसे बहिन मानकर स्वीकार कर लिया ।। २२ ।।
आधि (मानसिक क्लेश) और व्याधि (रोगादि शारीरिक कष्ट) ही उस यवनराजके पैदल चलनेवाले सैनिक हैं तथा प्राणियोंको पीड़ा पहुँचाकर शीघ्र ही मृत्युके मुखमें ले जानेवाला शीत और उष्ण दो प्रकारका ज्वर ही प्रज्वार नामका उसका भाई है ।।२३।।
संस्कृत श्लोक :-
एवं बहुविधैर्दुःखैर्दैवभूतात्मसम्भवैः । क्लिश्यमानः शतं वर्षं देहे देही तमोवृतः ।।२४प्राणेन्द्रियमनोधर्मानात्मन्यध्यस्य निर्गुणः । शेते कामलवान्ध्यायन्ममाहमिति कर्मकृत् ।।२५यदाऽऽत्मानमविज्ञाय भगवन्तं परं गुरुम् । पुरुषस्तु विषज्जेत गुणेषु प्रकृतेः स्वदृक् ।।२६गुणाभिमानी स तदा कर्माणि कुरुतेऽवशः । शुक्लं कृष्णं लोहितं वा यथाकर्माभिजायते ।।२७शुक्लात्प्रकाशभूयिष्ठाँल्लोकानाप्नोति कर्हिचित् । दुःखोदर्कान् क्रियायासांस्तमःशोकोत्कटान् क्वचित् ।।२८क्वचित्पुमान् क्वचिच्च स्त्री क्वचिन्नोभयमन्धधीः । देवो मनुष्यस्तिर्यग्वा यथाकर्मगुणं भवः ।।२९क्षुत्परीतो यथा दीनः सारमेयो गृहं गृहम् । चरन् विन्दति यद्दिष्टं दण्डमोदनमेव वा ।।३०तथा कामाशयो जीव उच्चावचपथा भ्रमन् । उपर्यधो वा मध्ये वा याति दिष्टं प्रियाप्रियम् ।।३१दुःखेष्वेकतरेणापि दैवभूतात्महेतुषु । जीवस्य न व्यवच्छेदः स्याच्चेत्तत्तत्प्रतिक्रिया ।।३२
हिंदी अनुवाद :-
इस प्रकार यह देहाभिमानी जीव अज्ञानसे आच्छादित होकर अनेक प्रकारके आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक कष्ट भोगता हुआ सौ वर्षतक मनुष्यशरीरमें पड़ा रहता है ।।२४।।
वस्तुतः तो वह निर्गुण है, किन्तु प्राण, इन्द्रिय और मनके धर्मोंको अपनेमें आरोपित कर मैं-मेरेपनके अभिमानसे बँधकर क्षुद्र विषयोंका चिन्तन करता हुआ तरह-तरहके कर्म करता रहता है ।। २५।।
यह यद्यपि स्वयंप्रकाश है, तथापि जबतक सबके परमगुरु आत्मस्वरूप श्रीभगवान्के स्वरूपको नहीं जानता, तबतक प्रकृतिके गुणोंमें ही बँधा रहता है ।।२६।।
उन गुणोंका अभिमानी होनेसे वह विवश होकर सात्त्विक, राजस और तामस कर्म करता है तथा उन कर्मोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंमें जन्म लेता है ।। २७।।
वह कभी तो सात्त्विक कर्मोंके द्वारा प्रकाशबहुल स्वर्गादि लोक प्राप्त करता है, कभी राजसी कर्मोंके द्वारा दुःखमय रजोगुणी लोकोंमें जाता है- जहाँ उसे तरह-तरहके कर्मोंका क्लेश उठाना पड़ता है-और कभी तमोगुणी कर्मोंके द्वारा शोकबहुल तमोमयी योनियोंमें जन्म लेता है ।।२८।।
इस प्रकार अपने कर्म और गुणोंके अनुसार देवयोनि, मनुष्ययोनि अथवा पशु-पक्षीयोनिमें जन्म लेकर वह अज्ञानान्ध जीव कभी पुरुष, कभी स्त्री और कभी नपुंसक होता है ।।२९।।
जिस प्रकार बेचारा भूखसे व्याकुल कुत्ता दर-दर भटकता हुआ अपने प्रारब्धानुसार कहीं डंडा खाता है और कहीं भात खाता है, उसी प्रकार यह जीव चित्तमें नाना प्रकारकी वासनाओंको लेकर ऊँचे-नीचे मार्गसे ऊपर, नीचे अथवा मध्यके लोकोंमें भटकता हुआ अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगता रहता है ।।३०-३१।।
आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक-इन तीन प्रकारके दुःखोंमेंसे किसी भी एकसे जीवका सर्वथा छुटकारा नहीं हो सकता। यदि कभी वैसा जान पड़ता है तो वह केवल तात्कालिक निवृत्ति ही है ।। ३२ ।।
संस्कृत श्लोक :-
यथा हि पुरुषो भारं शिरसा गुरुमुद्वहन् । तं स्कन्धेन स आधत्ते तथा सर्वाः प्रतिक्रियाः ।।३३नैकान्ततः प्रतीकारः कर्मणां कर्म केवलम् । द्वयं ह्यविद्योपसृतं स्वप्न्ने स्वप्न इवानघ ।।३४अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते । मनसा लिंगरूपेण स्वप्ने विचरतो यथा ।।३५अथात्मनोऽर्थभूतस्य यतोऽनर्थपरम्परा । संसृतिस्तद्व्यवच्छेदो भक्त्या परमया गुरौ ।।३६वासुदेवे भगवति भक्तियोगः समाहितः । सध्रीचीनेन वैराग्यं ज्ञानं च जनयिष्यति ।।३७सोऽचिरादेव राजर्षे स्यादच्युतकथाश्रयः । शृण्वतः श्रद्दधानस्य नित्यदा स्यादधीयतः ।।३८यत्र भगवता राजन् साधवो विशदाशयाः । भगवद्गुणानुकथनश्रवणव्यग्रचेतसः ।।३९तस्मिन्महन्मुखरिता मधुभिच्चरित्र- पीयूषशेषसरितः परितः स्रवन्ति । ता ये पिबन्त्यवितृषो नृप गाढकर्णे- स्तान्न स्पृशन्त्यशनतृड्भयशोकमोहाः ।। ४०
हिंदी अनुवाद :-
वह ऐसी ही है जैसे कोई सिरपर भारी बोझा ढोकर ले जानेवाला पुरुष उसे कंधेपर रख ले। इसी तरह सभी प्रतिक्रिया (दुःखनिवृत्ति) जाननी चाहिये- यदि किसी उपायसे मनुष्य एक प्रकारके दुःखसे छुट्टी पाता है, तो दूसरा दुःख आकर उसके सिरपर सवार हो जाता है ।।३३।।
शुद्धहृदय नरेन्द्र ! जिस प्रकार स्वप्नमें होनेवाला स्वप्नान्तर उस स्वप्नसे सर्वथा छूटनेका उपाय नहीं है, उसी प्रकार कर्मफल-भोगसे सर्वथा छूटनेका उपाय केवल कर्म नहीं हो सकता; क्योंकि कर्म और कर्मफलभोग दोनों ही अविद्यायुक्त होते हैं ।। ३४।।
जिस प्रकार स्वप्नावस्थामें अपने मनोमय लिंगशरीरसे विचरनेवाले प्राणीको स्वप्नके पदार्थ न होनेपर भी भासते हैं, उसी प्रकार ये दृश्यपदार्थ वस्तुतः न होनेपर भी, जबतक अज्ञान-निद्रा नहीं टूटती, बने ही रहते हैं और जीवको जन्म-मरणरूप संसारसे मुक्ति नहीं मिलती। (अतः इनकी आत्यन्तिक निवृत्तिका उपाय एकमात्र आत्मज्ञान ही है) ।। ३५।।
राजन् ! जिस अविद्याके कारण परमार्थस्वरूप आत्माको यह जन्म-मरणरूप अनर्थपरम्परा प्राप्त हुई है, उसकी निवृत्ति गुरुस्वरूप श्रीहरिमें सुदृढ़ भक्ति होनेपर हो सकती है ।।३६।।
भगवान् वासुदेवमें एकाग्रतापूर्वक सम्यक् प्रकारसे किया हुआ भक्तिभाव ज्ञान और वैराग्यका आविर्भाव कर देता है ।। ३७।। राजर्षे! यह भक्तिभाव भगवान्की कथाओंके आश्रित रहता है। इसलिये जो श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रतिदिन सुनता या पढ़ता है, उसे बहुत शीघ्र इसकी प्राप्ति हो जाती है ।। ३८ ।।
राजन् ! जहाँ भगवद्गुणोंको कहने और सुननेमें तत्पर विशुद्धचित्त भक्तजन रहते हैं, उस साधु-समाजमें सब ओर महापुरुषोंके मुखसे निकले हुए श्रीमधुसूदनभगवान्के चरित्ररूप शुद्ध अमृतकी अनेकों नदियाँ बहती रहती हैं। जो लोग अतृप्त-चित्तसे श्रवणमें तत्पर अपने कर्णकुहरोंद्वारा उस अमृतका छककर पान करते हैं, उन्हें भूख-प्यास, भय, शोक और मोह आदि कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकते ।।३९-४०।।
संस्कृत श्लोक :-
एतैरुपद्रुतो नित्यं जीवलोकः स्वभावजैः । न करोति हरेर्नूनं कथामृतनिधौ रतिम् ।। ४१प्रजापतिपतिः साक्षाद्भगवान् गिरिशो मनुः । दक्षादयः प्रजाध्यक्षा नैष्ठिकाः सनकादयः ।।४२मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः । भृगुर्वसिष्ठ इत्येते मदन्ता ब्रह्मवादिनः ।।४३अद्यापि वाचस्पतयस्तपोविद्यासमाधिभिः ।पश्यन्तोऽपि न पश्यन्ति पश्यन्तं परमेश्वरम् ।।४४शब्दब्रह्मणि दुष्पारे चरन्त उरुविस्तरे । मन्त्रलिङ्गैर्व्यवच्छिन्नं भजन्तो न विदुः परम् ।।४५यदा यमनुगृह्णाति भगवानात्मभावितः । स जहाति मतिं लोके वेदे च परिनिष्ठिताम् ।।४६तस्मात्कर्मसु बर्हिष्मन्नज्ञानादर्थकाशिषु । मार्थदृष्टिं कृथाः श्रोत्रस्पर्शिष्वस्पृष्टवस्तुषु ।।४७स्वं लोकं न विदुस्ते वै यत्र देवो जनार्दनः । आहुर्धूम्रधियो वेदं सकर्मकमतद्विदः ।।४८आस्तीर्य दर्भेः प्रागग्रैः कात्स्न्र्येन क्षितिमण्डलम् । स्तब्धो बृहद्वधान्मानी कर्म नावैषि यत्परम् । तत्कर्म हरितोषं यत्सा विद्या तन्मतिर्यया ।।४९
हिंदी अनुवाद :-
हाय! स्वभावतः प्राप्त होनेवाले इन क्षुधा-पिपासादि विघ्नोंसे सदा घिरा हुआ जीव- समुदाय श्रीहरिके कथामृत-सिन्धुसे प्रेम नहीं करता ।।४१।।
साक्षात् प्रजापतियोंके पति ब्रह्माजी, भगवान् शंकर, स्वायम्भुव मनु, दक्षादि प्रजापतिगण, सनकादि नैष्ठिक ब्रह्मचारी, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ और मैं- ये जितने ब्रह्मवादी मुनिगण हैं, समस्त वाङ्मयके अधिपति होनेपर भी तप, उपासना और समाधिके द्वारा ढूँढ़- ढूँढ़कर हार गये, फिर भी उस सर्वसाक्षी परमेश्वरको आजतक न देख सके ।।४२-४४।।
वेद भी अत्यन्त विस्तृत हैं, उसका पार पाना हँसी-खेल नहीं है। अनेकों महानुभाव उसकी आलोचना करके मन्त्रोंमें बताये हुए वज्र-हस्तत्वादि गुणोंसे युक्त इन्द्रादि देवताओंके रूपमें, भिन्न-भिन्न कर्मोंके द्वारा, यद्यपि उस परमात्माका ही यजन करते हैं तथापि उसके स्वरूपको वे भी नहीं जानते ।।४५।।
हृदयमें बार-बार चिन्तन किये जानेपर भगवान् जिस समय जिस जीवपर कृपा करते हैं, उसी समय वह लौकिक व्यवहार एवं वैदिक कर्म-मार्गकी बद्धमूल आस्थासे छुट्टी पा जाता है ।।४६।।
बर्हिष्मन् ! तुम इन कर्मोंमें परमार्थबुद्धि मत करो। ये सुननेमें ही प्रिय जान पड़ते हैं, परमार्थका तो स्पर्श भी नहीं करते। ये जो परमार्थवत् दीख पड़ते हैं, इसमें केवल अज्ञान ही कारण है ।।४७।।
जो मलिनमति कर्मवादी लोग वेदको कर्मपरक बताते हैं, वे वास्तवमें उसका मर्म नहीं जानते। इसका कारण यही है कि वे अपने स्वरूपभूत लोक (आत्मतत्त्व)- को नहीं जानते, जहाँ साक्षात् श्रीजनार्दन भगवान् विराजमान हैं ।।४८।।
पूर्वकी ओर अग्रभागवाले कुशाओंसे सम्पूर्ण भूमण्डलको आच्छादित करके अनेकों पशुओंका वध करनेसे तुम बड़े कर्माभिमानी और उद्धत हो गये हो; किन्तु वास्तवमें तुम्हें कर्म या उपासना – किसीके भी रहस्यका पता नहीं है। वास्तवमें कर्म तो वही है, जिससे श्रीहरिको प्रसन्न किया जा सके और विद्या भी वही है, जिससे भगवान्में चित्त लगे ।।४९।।
संस्कृत श्लोक :-
हरिर्देहभृतामात्मा स्वयं प्रकृतिरीश्वरः । तत्पादमूलं शरणं यतः क्षेमो नृणामिह ।।५०स वै प्रियतमश्चात्मा यतो न भयमण्वपि । इति वेद स वै विद्वान् यो विद्वान् स गुरुर्हरिः ।।५१
नारद उवाच प्रश्न एवं हि संछिन्नो भवतः पुरुषर्षभ । अत्र मे वदतो गुह्यं निशामय सुनिश्चितम् ।।५२क्षुद्रचरं सुमनसां शरणे मिथित्वा रक्तं षडङ्घ्रिगणसामसु लुब्धकर्णम् । अग्रे वृकानसुतृपोऽविगणय्य यान्तं पृष्ठे मृगं मृगय लुब्धकबाणभिन्नम् ।।५३
[अस्यार्थः]
सुमनःसधर्मणां स्त्रीणां शरण आश्रमे पुष्पमधुगन्धवत्क्षुद्रतमं काम्यकर्मविपाकजं कामसुखलवं जैद्व्यौपस्थ्यादि विचिन्वन्तं मिथुनीभूय तदभिनिवेशितमनसं षडङ्घ्रिगण-सामगीतवदतिमनोहरवनितादिजनालापेष्वतितरा-मतिप्रलोभितकर्णमग्रे वृकयूथवदात्मन आयुर्हरतोऽहोरात्रान्तान् काललव-विशेषानविगणय्य गृहेषु विहरन्तं पृष्ठत एव परोक्षमनुप्रवृत्तो लुब्धकः कृतान्तोऽन्तः शरेण यमिह पराविध्यति तमिममात्मानमहो राजन् भिन्न-हृदयं द्रष्टुमर्हसीति ।।५४।।
हिंदी अनुवाद :-
श्रीहरि सम्पूर्ण देहधारियोंके आत्मा, नियामक और स्वतन्त्र कारण हैं; अतः उनके चरणतल ही मनुष्योंके एकमात्र आश्रय हैं और उन्हींसे संसारमें सबका कल्याण हो सकता है ।।५०।।
‘जिससे किसीको अणुमात्र भी भय नहीं होता, वही उसका प्रियतम आत्मा है’ ऐसा जो पुरुष जानता है, वही ज्ञानी है और जो ज्ञानी है, वही गुरु एवं साक्षात् श्रीहरि है ।।५१।।
श्रीनारदजी कहते हैं- पुरुषश्रेष्ठ ! यहाँतक जो कुछ कहा गया है, उससे तुम्हारे प्रश्नका उत्तर हो गया। अब मैं एक भलीभाँति निश्चित किया हुआ गुप्त साधन बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो ।। ५२ ।।
‘पुष्पवाटिकामें अपनी हरिनीके साथ विहार करता हुआ एक हरिन मस्त घूम रहा है, वह दूब आदि छोटे-छोटे अंकुरोंको चर रहा है। उसके कान भौंरोंके मधुर गुंजारमें लग रहे हैं। उसके सामने ही दूसरे जीवोंको मारकर अपना पेट पालनेवाले भेड़िये ताक लगाये खड़े हैं और पीछेसे शिकारी व्याधने बींधनेके लिये उसपर बाण छोड़ दिया है। परन्तु हरिन इतना बेसुध है कि उसे इसका कुछ भी पता नहीं है।’ एक बार इस हरिनकी दशापर विचार करो ।।५३।।
राजन् ! इस रूपकका आशय सुनो। यह मृतप्राय हरिन तुम्हीं हो, तुम अपनी दशापर विचार करो। पुष्पोंकी तरह ये स्त्रियाँ केवल देखनेमें सुन्दर हैं, इन स्त्रियोंके रहनेका घर ही पुष्पवाटिका है। इसमें रहकर तुम पुष्पोंके मधु और गन्धके समान क्षुद्र सकाम कर्मोंके फलरूप, जीभ और जननेन्द्रियको प्रिय लगनेवाले भोजन तथा स्त्रीसंग आदि तुच्छ भोगोंको ढूँढ़ रहे हो।
स्त्रियोंसे घिरे रहते हो और अपने मनको तुमने उन्हींमें फँसा रखा है। स्त्री-पुत्रोंका मधुर भाषण ही भौंरोंका मधुर गुंजार है, तुम्हारे कान उसीमें अत्यन्त आसक्त हो रहे हैं। सामने ही भेड़ियोंके झुंडके समान कालके अंश दिन और रात तुम्हारी आयुको हर रहे हैं, परन्तु तुम उनकी कुछ भी परवा न कर गृहस्थीके सुखोंमें मस्त हो रहे हो। तुम्हारे पीछे गुप-चुप लगा हुआ शिकारी काल अपने छिपे हुए बाणसे तुम्हारे हृदयको दूरसे ही बींध डालना चाहता है ।।५४।।
संस्कृत श्लोक :-
स त्वं विचक्ष्य मृगचेष्टितमात्मनोऽन्त- श्चित्तं नियच्छ हृदि कर्णधुनीं च चित्ते ।जांगनाश्रममसत्तमयूथगाथं प्रीणीहि हंसशरणं विरम क्रमेण ।।५५
राजोवाच
श्रुतमन्वीक्षितं ब्रह्मन् भगवान् यदभाषत । नैतज्जानन्त्युपाध्यायाः किं न ब्रूयुर्विदुर्यदि ।।५६संशयोऽत्र तु मे विप्र संछिन्नस्तत्कृतो महान् । ऋषयोऽपि हि मुह्यन्ति यत्र नेन्द्रियवृत्तयः ।।५७कर्माण्यारभते येन पुमानिह विहाय तम् । अमुत्रान्येन देहेन जुष्टानि स यदश्श्रुते ।।५८इति वेदविदां वादः श्रूयते तत्र तत्र ह । कर्म यत्क्रियते प्रोक्तं परोक्षं न प्रकाशते ।।५९
नारद उवाच
येनैवारभते कर्म तेनैवामुत्र तत्पुमान् । भुङ्क्ते ह्यव्यवधानेन लिंगेन मनसा स्वयम् ।।६०शयानमिममुत्सृज्य श्वसन्तं पुरुषो यथा । कर्मात्मन्याहितं भुङ्क्ते तादृशेनेतरेण वा ।।६१
हिंदी अनुवाद :-
इस प्रकार अपनेको मृगकी-सी स्थितिमें देखकर तुम अपने चित्तको हृदयके भीतर निरुद्ध करो और नदीकी भाँति प्रवाहित होनेवाली श्रवणेन्द्रियकी बाह्य वृत्तिको चित्तमें स्थापित करो (अन्तर्मुखी करो)। जहाँ कामी पुरुषोंकी चर्चा होती रहती है, उस गृहस्थाश्रमको छोड़कर परमहंसोंके आश्रय श्रीहरिको प्रसन्न करो और क्रमशः सभी विषयोंसे विरत हो जाओ ।। ५५।।
राजा प्राचीनबर्हिने कहा- भगवन् ! आपने कृपा करके मुझे जो उपदेश दिया, उसे मैंने सुना और उसपर विशेषरूपसे विचार भी किया। मुझे कर्मका उपदेश देनेवाले इन आचार्योंको निश्चय ही इसका ज्ञान नहीं है; यदि ये इस विषयको जानते तो मुझे इसका उपदेश क्यों न करते ।।५६।।
विप्रवर! मेरे उपाध्यायोंने आत्मतत्त्वके विषयमें मेरे हृदयमें जो महान् संशय खड़ा कर दिया था, उसे आपने पूरी तरहसे काट दिया। इस विषयमें इन्द्रियोंकी गति न होनेके कारण मन्त्रद्रष्टा ऋषियोंको भी मोह हो जाता है ।। ५७।।
वेदवादियोंका कथन जगह-जगह सुना जाता है कि ‘पुरुष इस लोकमें जिसके द्वारा कर्म करता है, उस स्थूलशरीरको यहीं छोड़कर परलोकमें कर्मोंसे ही बने हुए दूसरी देहसे उनका फल भोगता है। किन्तु यह बात कैसे हो सकती है?’ (क्योंकि उन कर्मोंका कर्ता स्थूलशरीर तो यहीं नष्ट हो जाता है।) इसके सिवा जो-जो कर्म यहाँ किये जाते हैं, वे तो दूसरे ही क्षणमें अदृश्य हो जाते हैं; वे परलोकमें फल देनेके लिये किस प्रकार पुनः प्रकट हो सकते हैं? ।।५८-५९।।
श्रीनारदजीने कहा-राजन् ! (स्थूल शरीर तो लिंगशरीरके अधीन है, अतः कर्मोंका उत्तरदायित्व उसीपर है) जिस मनःप्रधान लिंगशरीरकी सहायतासे मनुष्य कर्म करता है, वह तो मरनेके बाद भी उसके साथ रहता ही है; अतः वह परलोकमें अपरोक्षरूपसे स्वयं उसीके द्वारा उनका फल भोगता है ।। ६० ।।
स्वप्नावस्थामें मनुष्य इस जीवित शरीरका अभिमान तो छोड़ देता है, किन्तु इसीके समान अथवा इससे भिन्न प्रकारके पशु-पक्षी आदि शरीरसे वह मनमें संस्काररूपसे स्थित कर्मोंका फल भोगता रहता है ।। ६१।।
संस्कृत श्लोक :-
ममैते मनसा यद्यदसावहमिति ब्रुवन् । गृह्णीयात्तत्पुमान् राद्धं कर्म येन पुनर्भवः ।।६२यथानुमीयते चित्तमुभयैरिन्द्रियेहितैः । एवं प्राग्देहजं कर्म लक्ष्यते चित्तवृत्तिभिः ।।६३नानुभूतं क्व चानेन देहेनादृष्टमश्रुतम् । कदाचिदुपलभ्येत यद्रूपं यादृगात्मनि ।।६४तेनास्य तादृशं राजँल्लिंगिनो देहसम्भवम् । श्रद्धत्स्वाननुभूतोऽर्थो न मनः स्प्रष्टुमर्हति ।।६५मन एव मनुष्यस्य पूर्वरूपाणि शंसति । भविष्यतश्च भद्रं ते तथैव न भविष्यतः ।।६६अदृष्टमश्रुतं चात्र क्वचिन्मनसि दृश्यते । यथा तथानुमन्तव्यं देशकालक्रियाश्रयम् ।।६७सर्वे क्रमानुरोधेन मनसीन्द्रियगोचराः । आयान्ति वर्गशो यान्ति सर्वे समनसो जनाः ।।६८
हिंदी अनुवाद :-
इस मनके द्वारा जीव जिन स्त्री-पुत्रादिको ‘ये मेरे हैं’ और देहादिको ‘यह मैं हूँ’ ऐसा कहकर मानता है, उनके किये हुए पाप-पुण्यादिरूप कर्मोंको भी यह अपने ऊपर ले लेता है और उनके कारण इसे व्यर्थ ही फिर जन्म लेना पड़ता है ।। ६२ ।।
जिस प्रकार ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनोंकी चेष्टाओंसे उनके प्रेरक चित्तका अनुमान किया जाता है, उसी प्रकार चित्तकी भिन्न-भिन्न प्रकारकी वृत्तियोंसे पूर्वजन्मके कर्मोंका भी अनुमान होता है (अतः कर्म अदृष्टरूपसे फल देनेके लिये कालान्तरमें मौजूद रहते हैं) ।। ६३ ।।
कभी-कभी देखा जाता है कि जिस वस्तुका इस शरीरसे कभी अनुभव नहीं किया- जिसे न कभी देखा, न सुना ही- उसका स्वप्नमें, वह जैसी होती है, वैसा ही अनुभव हो जाता है ।।६४।।
राजन्! तुम निश्चय मानो कि लिंगदेहके अभिमानी जीवको उसका अनुभव पूर्वजन्ममें हो चुका है; क्योंकि जो वस्तु पहले अनुभव की हुई नहीं होती, उसकी मनमें वासना भी नहीं हो सकती ।।६५।।
राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो। मन ही मनुष्यके पूर्वरूपोंको तथा भावी शरीरादिको भी बता देता है और जिनका भावी जन्म होनेवाला नहीं होता, उन तत्त्व-वेत्ताओंकी विदेहमुक्तिका पता भी उनके मनसे ही लग जाता है ।। ६६।।
कभी-कभी स्वप्नमें देश, काल अथवा क्रियासम्बन्धी ऐसी बातें भी देखी जाती हैं, जो पहले कभी देखी या सुनी नहीं गयीं (जैसे पर्वतकी चोटीपर समुद्र, दिनमें तारे अथवा अपना सिर कटा दिखायी देना, इत्यादि)। इनके दीखनेमें निद्रादोषको ही कारण मानना चाहिये ।। ६७ ।।
मनके सामने इन्द्रियोंसे अनुभव होनेयोग्य पदार्थ ही भोगरूपमें बार-बार आते हैं और भोग समाप्त होनेपर चले जाते हैं; ऐसा कोई पदार्थ नहीं आता, जिसका इन्द्रियोंसे अनुभव ही न हो सके। इसका कारण यही है कि सब जीव मनसहित हैं ।। ६८ ।।
संस्कृत श्लोक :-
सत्त्वैकनिष्ठे मनसि भगवत्पार्श्ववर्तिनि । तमश्चन्द्रमसीवेदमुपरज्यावभासते ।। ६९नाहं ममेति भावोऽयं पुरुषे व्यवधीयते । यावद् बुद्धिमनोऽक्षार्थगुणव्यूहो ह्यनादिमान् ।।७०सुप्तिमूर्च्छापतापेषु प्राणायनविघाततः । नेहतेऽहमिति ज्ञानं मृत्युप्रज्वारयोरपि ।।७१गर्भे बाल्येऽप्यपौष्कल्यादेकादशविधं तदा । लिंगं न दृश्यते यूनः कुह्वां चन्द्रमसो यथा ।।७२अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते । ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ।। ७३एवं पंचविधं लिंगं त्रिवृत् षोडशविस्तृतम् । एष चेतनया युक्तो जीव इत्यभिधीयते ।।७४अनेन पुरुषो देहानुपादत्ते विमुंचति । हर्ष शोकं भयं दुःखं सुखं चानेन विन्दति ।।७५
हिंदी अनुवाद :-
साधारणतया तो सब पदार्थोंका क्रमशः ही भान होता है; किन्तु यदि किसी समय भगवच्चिन्तनमें लगा हुआ मन विशुद्ध सत्त्वमें स्थित हो जाय, तो उसमें भगवान्का संसर्ग होनेसे एक साथ समस्त विश्वका भी भान हो सकता है- जैसे राहु दृष्टिका विषय न होनेपर भी प्रकाशात्मक चन्द्रमाके संसर्गसे दीखने लगता है ।। ६९।।
राजन् ! जबतक गुणोंका परिणाम एवं बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शब्दादि विषयोंका संघात यह अनादि लिंगदेह बना हुआ है, तबतक जीवके अंदर स्थूलदेहके प्रति ‘मैं-मेरा’ इस भावका अभाव नहीं हो सकता ।।७०।।
सुषुप्ति, मूर्च्छा, अत्यन्त दुःख तथा मृत्यु और तीव्र ज्वरादिके समय भी इन्द्रियोंकी व्याकुलताके कारण ‘मैं’ और ‘मेरेपन’ की स्पष्ट प्रतीति नहीं होती; किन्तु उस समय भी उनका अभिमान तो बना ही रहता है ।। ७१ ।।
जिस प्रकार अमावास्याकी रात्रिमें चन्द्रमा रहते हुए भी दिखायी नहीं देता, उसी प्रकार युवावस्थामें स्पष्ट प्रतीत होनेवाला यह एकादश इन्द्रियविशिष्ट लिंगशरीर गर्भावस्था और बाल्यकालमें रहते हुए भी इन्द्रियोंका पूर्ण विकास न होनेके कारण प्रतीत नहीं होता ।। ७२ ।।
जिस प्रकार स्वप्नमें किसी वस्तुका अस्तित्व न होनेपर भी जागे बिना स्वप्नजनित अनर्थकी निवृत्ति नहीं होती-उसी प्रकार सांसारिक वस्तुएँ यद्यपि असत् हैं, तो भी अविद्यावश जीव उनका चिन्तन करता रहता है; इसलिये उसका जन्म-मरणरूप संसारसे छुटकारा नहीं हो पाता ।। ७३।।
इस प्रकार पंचतन्मात्राओंसे बना हुआ तथा सोलह तत्त्वोंके रूपमें विकसित यह त्रिगुणमय संघात ही लिंगशरीर है। यही चेतनाशक्तिसे युक्त होकर जीव कहा जाता है ।।७४।।
इसीके द्वारा पुरुष भिन्न-भिन्न देहोंको ग्रहण करता और त्यागता है तथा इसीसे उसे हर्ष, शोक, भय, दुःख और सुख आदिका अनुभव होता है ।। ७५।।
संस्कृत श्लोक :-
यथा तृणजलूकेयं नापयात्यपयाति च । न त्यजेन्द्रियमाणोऽपि प्राग्देहाभिमतिं जनः ।।७६यावदन्यं न विन्देत व्यवधानेन कर्मणाम् । मन एव मनुष्येन्द्र भूतानां भवभावनम् ।। ७७यदाक्षैश्चरितान् ध्यायन् कर्माण्याचिनुतेऽसकृत् । सति कर्मण्यविद्यायां बन्धः कर्मण्यनात्मनः ।।७८अतस्तदपवादार्थं भज सर्वात्मना हरिम् । पश्यंस्तदात्मकं विश्वं स्थित्युत्पत्त्यप्यया यतः ।।७९
मैत्रेय उवाच
भागवतमुख्यो भगवान्नारदो हंसयोर्गतिम् । प्रदर्थ्य ह्यमुमामन्त्र्य सिद्धलोकं ततोऽगमत् ।।८०प्राचीनबर्डी राजर्षिः प्रजासर्गाभिरक्षणे । आदिश्य पुत्रानगमत्तपसे कपिलाश्रमम् ।।८१तत्रैकाग्रमना वीरो गोविन्दचरणाम्बुजम् । विमुक्तसंगोऽनुभजन् भक्त्या तत्साम्यतामगात् ।।८२एतदध्यात्मपारोक्ष्यं गीतं देवर्षिणानघ ।यः श्रावयेद्यः शृणुयात्स लिंगेन विमुच्यते ।।८३एतन्मुकुन्दयशसा भुवनं पुनानं देवर्षिवर्यमुखनिःसृतमात्मशौचम् । यः कीर्त्यमानमधिगच्छति पारमेष्यं नास्मिन् भवे भ्रमति मुक्तसमस्तबन्धः ।।८४
हिंदी अनुवाद :-
जिस प्रकार जोंक, जबतक दूसरे तृणको नहीं पकड़ लेती, तबतक पहलेको नहीं छोड़ती-उसी प्रकार जीव मरणकाल उपस्थित होनेपर भी जबतक देहारम्भक कर्मोंकी समाप्ति होनेपर दूसरा शरीर प्राप्त नहीं कर लेता, तबतक पहले शरीरके अभिमानको नहीं छोड़ता। राजन् ! यह मनः प्रधान लिंगशरीर ही जीवके जन्मादिका कारण है ।।७६-७७।।
जीव जब इन्द्रियजनित भोगोंका चिन्तन करते हुए बार-बार उन्हींके लिये कर्म करता है, तब उन कर्मोंके होते रहनेसे अविद्यावश वह देहादिके कर्मोंमें बँध जाता है ।। ७८ ।।
अतएव उस कर्मबन्धनसे छुटकारा पानेके लिये सम्पूर्ण विश्वको भगवद्रूप देखते हुए सब प्रकार श्रीहरिका भजन करो। उन्हींसे इस विश्वकी उत्पत्ति और स्थिति होती है तथा उन्हींमें लय होता है ।। ७९ ।।
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! भक्त श्रेष्ठ श्रीनारदजीने राजा प्राचीनबर्हिको जीव और ईश्वरके स्वरूपका दिग्दर्शन कराया। फिर वे उनसे विदा लेकर सिद्धलोकको चले गये ।।८०।।
तब राजर्षि प्राचीनबर्हि भी प्रजापालनका भार अपने पुत्रोंको सौंपकर तपस्या करनेके लिये कपिलाश्रमको चले गये ।।८१।।
वहाँ उन वीरवरने समस्त विषयोंकी आसक्ति छोड़ एकाग्र मनसे भक्तिपूर्वक श्रीहरिके चरणकमलोंका चिन्तन करते हुए सारूप्यपद प्राप्त किया ।।८२।।
निष्पाप विदुरजी ! देवर्षि नारदके परोक्षरूपसे कहे हुए इस आत्मज्ञानको जो पुरुष सुनेगा या सुनायेगा, वह शीघ्र ही लिंगदेहके बन्धनसे छूट जायगा ।।८३।।
देवर्षि नारदके मुखसे निकला हुआ यह आत्मज्ञान भगवान् मुकुन्दके यशसे सम्बद्ध होनेके कारण त्रिलोकीको पवित्र करनेवाला, अन्तःकरणका शोधक तथा परमात्मपदको प्रकाशित करनेवाला है। जो पुरुष इसकी कथा सुनेगा, वह समस्त बन्धनोंसे मुक्त हो जायगा और फिर उसे इस संसार-चक्रमें नहीं भटकना पड़ेगा ।।८४।।
संस्कृत श्लोक :-
अध्यात्मपारोक्ष्यमिदं मयाधिगतमद्भुतम् ।
एवं स्त्रियाऽऽश्रमः पुंसश्छिन्नोऽमुत्र च संशयः ।।८५
हिंदी अनुवाद :-
विदुरजी ! गृहस्थाश्रमी पुरंजनके रूपकसे परोक्षरूपमें कहा हुआ यह अद्भुत आत्मज्ञान मैंने गुरुजीकी कृपासे प्राप्त किया था। इसका तात्पर्य समझ लेनेसे बुद्धियुक्त जीवका देहाभिमान निवृत्त हो जाता है तथा उसका ‘परलोकमें जीव किस प्रकार कर्मोंका फल भोगता है’ यह संशय भी मिट जाता है ।।८५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे विदुरमैत्रेयसंवादे प्राचीनबर्हिर्नारदसंवादो नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः ।।२९।।
१. प्रा० पा०- मिहोदिते। २. प्रा० पा०- विचक्षे।
१. प्रा० पा० – च यथा समभिजायते। २. प्रा० पा०- ल्लोकान् प्राप्नोति। ३. प्रा० पा०-कर्तृगुणं।
१. प्रा० पा०- रात्रादीन्कालविशेषान्विगणय्य। २. प्रा० पा० – पृष्ठतः परोक्षमनु । १. प्रा० पा०- बलाश्रयम्। २. प्रा० पा०- बहुशो । १. प्रा० पा० – वेह उप०। २. प्रा० पा०-तथा। ३. प्रा० पा० – देहमुपादत्ते। १. प्रा० पा० – तदपबाधार्थं। २. प्रा० पा०- नृपमा ०। * प्रा० पा०- नारदप्राचीन बर्हिः संवादेऽध्यात्मपारोक्षं नाम।