Bhagwat puran skandh 4 chapter 28(भागवत पुराण चतुर्थः स्कन्धःअथाष्टाविंशोऽध्यायः पुरंजनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति और अविज्ञातके उपदेशसे उसका मुक्त होना)

Bhagwat puran skandh 4 chapter 28(भागवत पुराण चतुर्थःस्कन्धःअथाष्टाविंशोऽध्यायः पुरंजनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति और अविज्ञातके उपदेशसे उसका मुक्त होना)

अथाष्टाविंशोऽध्यायः पुरंजनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति और अविज्ञातके उपदेशसे उसका मुक्त होना

संस्कृत श्लोक :-

नारद उवाच

सैनिका भयनाम्नो ये बर्हिष्मन् दिष्टकारिणः । प्रज्वारकालकन्याभ्यां विचेरुरवनीमिमाम् ।।१त एकदा तु रभसा पुरंजनपुरीं नृप । रुरुधुर्भीमभोगाढ्यां जरत्पन्नगपालिताम् ।।२कालकन्यापि बुभुजे पुरंजनपुरं बलात् । ययाभिभूतः पुरुषः सद्यो निःसारतामियात् ।।३तयोपभुज्यमानां वै यवनाः सर्वतोदिशम् । द्वार्भिः प्रविश्य सुभृशं प्रार्दयन् सकलां पुरीम् ।।४तस्यां प्रपीड्यमानायामभिमानी पुरंजनः । अवापोरुविधांस्तापान् कुटुम्बी ममताकुलः ।।५कन्योपगुढो नष्टश्रीः कृपणो विषयात्मकः । नष्टप्रज्ञो हृतैश्वर्यो गन्धर्वयवनैर्बलात् ।।६विशीर्णां स्वपुरीं वीक्ष्य प्रतिकूलाननादृतान् । पुत्रान् पौत्रानुगामात्याञ्जायां च गतसौहृदाम् ।।७आत्मानं कन्यया ग्रस्तं पंचालानरिदूषितान् । दुरन्तचिन्तामापन्नो न लेभे तत्प्रतिक्रियाम् ।।८कामानभिलषन्दीनो यातयामांश्च कन्यया । विगतात्मगतिस्नेहः पुत्रदारांश्च लालयन् ।।९

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! फिर भय नामक यवनराजके आज्ञाकारी सैनिक प्रज्वार और कालकन्याके साथ इस पृथ्वीतलपर सर्वत्र विचरने लगे ।।१।।

एक बार उन्होंने बड़े वेगसे बूढ़े साँपसे सुरक्षित और संसारकी सब प्रकारकी सुख-सामग्रीसे सम्पन्न पुरंजनपुरीको घेर लिया ।।२।।

तब, जिसके चंगुलमें फँसकर पुरुष शीघ्र ही निःसार हो जाता है, वह कालकन्या बलात् उस पुरीकी प्रजाको भोगने लगी ।।३।।

उस समय वे यवन भी कालकन्याके द्वारा भोगी जाती हुई उस पुरीमें चारों ओरसे भिन्न-भिन्न द्वारोंसे घुसकर उसका विध्वंस करने लगे ।।४।।

पुरीके इस प्रकार पीड़ित किये जानेपर उसके स्वामित्वका अभिमान रखनेवाले तथा ममताग्रस्त, बहुकुटुम्बी राजा पुरंजनको भी नाना प्रकारके क्लेश सताने लगे ।।५।।

कालकन्याके आलिंगन करनेसे उसकी सारी श्री नष्ट हो गयी तथा अत्यन्त विषयासक्त होनेके कारण वह बहुत दीन हो गया, उसकी विवेकशक्ति नष्ट हो गयी। गन्धर्व और यवनोंने बलात् उसका सारा ऐश्वर्य लूट लिया ।।६।।

उसने देखा कि सारा नगर नष्ट-भ्रष्ट हो गया है; पुत्र, पौत्र, भृत्य और अमात्यवर्ग प्रतिकूल होकर अनादर करने लगे हैं; स्त्री स्नेहशून्य हो गयी है, मेरी देहको कालकन्याने वशमें कर रखा है और पांचालदेश शत्रुओंके हाथमें पड़कर भ्रष्ट हो गया है। यह सब देखकर राजा पुरंजन अपार चिन्तामें डूब गया और उसे उस विपत्तिसे छुटकारा पानेका कोई उपाय न दिखायी दिया ।। ७-८।।

कालकन्याने जिन्हें निःसार कर दिया था, उन्हीं भोगोंकी लालसासे वह दीन था। अपनी पारलौकिकी गति और बन्धुजनोंके स्नेहसे वंचित रहकर उसका चित्त केवल स्त्री और पुत्रके लालन-पालनमें ही लगा हुआ था ।।९।।

संस्कृत श्लोक :-

गन्धर्वयवनाक्रान्तां कालकन्योपमर्दिताम् ।हातुं प्रचक्रमे राजा’तां पुरीमनिकामतः ।।१०भयनाम्नोऽग्रजो भ्राता प्रज्वारः प्रत्युपस्थितः ।ददाह तां पुरीं कृत्स्नां भ्रातुः प्रियचिकीर्षया ।।११तस्यां सन्दह्यमानायां सपौरः सपरिच्छदः । कौटुम्बिकः कुटुम्बिन्या उपातप्यत सान्वयः ।।१२यवनोपरुद्धायतनो ग्रस्तायां कालकन्यया ।पुर्यां प्रज्वारसंसृष्टः पुरपालोऽन्वतप्यत ।।१३न शेके सोऽवितुं तत्र पुरुकृच्छ्रोरुवेपथुः । गन्तुमैच्छत्ततो वृक्षकोटरादिव सानलात् ।।१४शिथिलावयवो यर्हि गन्धर्वैर्हतपौरुषः । यवनैररिभी राजन्नुपरुद्धो रुरोद ह ।।१५दुहितृः पुत्रपौत्रांश्च जामिजामातृपार्षदान् । स्वत्वावशिष्टं यत्किञ्चिद् गृहकोशपरिच्छदम् ।।१६अहं ममेति स्वीकृत्य गृहेषु कुमतिगृही । दध्यौ प्रमदया दीनो विप्रयोग उपस्थिते ।।१७लोकान्तरं गतवति मय्यनाथा कुटुम्बिनी । वर्तिष्यते कथं त्वेषा बालकाननुशोचती ।।१८

हिंदी अनुवाद :-

ऐसी अवस्थामें उनसे बिछुड़नेकी इच्छा न होनेपर भी उसे उस पुरीको छोड़नेके लिये बाध्य होना पड़ा; क्योंकि उसे गन्धर्व और यवनोंने घेर रखा था तथा कालकन्याने कुचल दिया था ।।१०।।

इतनेमें ही यवनराज भयके बड़े भाई प्रज्वारने अपने भाईका प्रिय करनेके लिये उस सारी पुरीमें आग लगा दी ।।११।।

जब वह नगरी जलने लगी, तब पुरवासी, सेवकवृन्द, सन्तानवर्ग और कुटुम्बकी स्वामिनीके सहित कुटुम्बवत्सल पुरंजनको बड़ा दुःख

हुआ ।।१२।।

नगरको कालकन्याके हाथमें पड़ा देख उसकी रक्षा करनेवाले सर्पको भी बड़ी पीड़ा हुई, क्योंकि उसके निवासस्थानपर भी यवनोंने अधिकार कर लिया था और प्रज्वार उसपर भी आक्रमण कर रहा था ।।१३।।

जब उस नगरकी रक्षा करनेमें वह सर्वथा असमर्थ हो गया, तब जिस प्रकार जलते हुए वृक्षके कोटरमें रहनेवाला सर्प उससे निकल जाना चाहता है, उसी प्रकार उसने भी महान् कष्टसे काँपते हुए वहाँसे भागनेकी इच्छा की ।।१४।।

उसके अंग-प्रत्यंग ढीले पड़ गये थे तथा गन्धर्वांने उसकी सारी शक्ति नष्ट कर दी थी; अतः जब यवन शत्रुओंने उसे जाते देखकर रोक दिया, तब वह दुःखी होकर रोने लगा ।।१५।।

गृहासक्त पुरंजन देह-गेहादिमें मैं-मेरेपनका भाव रखनेसे अत्यन्त बुद्धिहीन हो गया था। स्त्रीके प्रेमपाशमें फँसकर वह बहुत दीन हो गया था। अब जब इनसे बिछुड़नेका समय उपस्थित हुआ, तब वह अपने पुत्री, पुत्र, पौत्र, पुत्रवधू, दामाद, नौकर और घर, खजाना तथा अन्यान्य जिन पदार्थोंमें उसकी ममताभर शेष थी (उनका भोग तो कभीका छूट गया था), उन सबके लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगा ।।१६-१७।।

‘हाय ! मेरी भार्या तो बहुत घर- गृहस्थीवाली है; जब मैं परलोकको चला जाऊँगा, तब यह असहाय होकर किस प्रकार अपना निर्वाह करेगी? इसे इन बाल-बच्चोंकी चिन्ता ही खा जायगी ।।१८।।

संस्कृत श्लोक :-

न मय्यनाशिते भुङ्क्ते नास्नाते स्नाति मत्परा । मयि रुष्टे सुसंत्रस्ता भर्त्सिते यतवाग्भयात् ।।१प्रबोधयति माविज्ञं व्युषिते शोककर्शिता । वत्र्मेतद् गृहमेधीयं वीरसूरपि नेष्यति ।।२०कथं नु दारका दीना दारकीर्वापरायणाः । वर्तिष्यन्ते मयि गते भिन्ननाव इवोदधौ ।।२१एवं कृपणया बुद्ध्या शोचन्तमतदर्हणम् । ग्रहीतुं कृतधीरेनं भयनामाभ्यपद्यत ।।२२पशुवद्यवनैरेष नीयमानः स्वकं क्षयम् । अन्वद्रवन्ननुपथाः शोचन्तो भृशमातुराः ।।२३पुरीं विहायोपगत उपरुद्धो भुजंगमः । यदा तमेवानु पुरी विशीर्णा प्रकृतिं गता ।।२४विकृष्यमाणः प्रसभं यवनेन बलीयसा । नाविन्दत्तमसाऽऽविष्टः सखायं सुहृदं पुरः ।।२५तं यज्ञपशवोऽनेन संज्ञप्ता येऽदयालुना । कुठारैश्चिच्छिदुः क्रुद्धाः स्मरन्तोऽमीवमस्य तत् ।।२६अनन्तपारे तमसि मग्नो नष्टस्मृतिः समाः । शाश्वतीरनुभूयार्तिं प्रमदासंगदूषितः ।।२७

हिंदी अनुवाद :-

यह मेरे भोजन किये बिना भोजन नहीं करती थी और स्नान किये बिना स्नान नहीं करती थी, सदा मेरी ही सेवामें तत्पर रहती थी। मैं कभी रूठ जाता था तो यह बड़ी भयभीत हो जाती थी और झिड़कने लगता तो डरके मारे चुप रह जाती थी ।।१९।।

मुझसे कोई भूल हो जाती तो यह मुझे सचेत कर देती थी। मुझमें इसका इतना अधिक स्नेह है कि यदि मैं कभी परदेश चला जाता था तो यह विरहव्यथासे सूखकर काँटा हो जाती थी। यों तो यह वीरमाता है, तो भी मेरे पीछे क्या यह गृहस्थाश्रमका व्यवहार चला सकेगी? ।।२०।।

मेरे चले जानेपर एकमात्र मेरे ही सहारे रहनेवाले ये पुत्र और पुत्री भी कैसे जीवन धारण करेंगे? ये तो बीच समुद्रमें नाव टूट जानेसे व्याकुल हुए यात्रियोंके समान बिलबिलाने लगेंगे’ ।।२१।।

यद्यपि ज्ञानदृष्टिसे उसे शोक करना उचित न था, फिर भी अज्ञानवश राजा पुरंजन इस प्रकार दीनबुद्धिसे अपने स्त्री-पुत्रादिके लिये शोकाकुल हो रहा था। इसी समय उसे पकड़नेके लिये वहाँ भय नामक यवनराज आ धमका ।। २२।।

जब यवनलोग उसे पशुके समान बाँधकर अपने स्थानको ले चले, तब उसके अनुचरगण अत्यन्त आतुर और शोकाकुल होकर उसके साथ हो लिये ।। २३ ।।

यवनोंद्वारा रोका हुआ सर्प भी उस पुरीको छोड़कर इन सबके साथ ही चल दिया। उसके जाते ही सारा नगर छिन्न-भिन्न होकर अपने कारणमें लीन हो गया ।।२४।।

इस प्रकार महाबली यवनराजके बलपूर्वक खींचनेपर भी राजा पुरंजनने अज्ञानवश अपने हितैषी एवं पुराने मित्र अविज्ञातका स्मरण नहीं किया ।।२५।।

उस निर्दय राजाने जिन यज्ञपशुओंकी बलि दी थी, वे उसकी दी हुई पीड़ाको याद करके उसे क्रोधपूर्वक कुठारोंसे काटने लगे ।।२६।।

वह वर्षोंतक विवेकहीन अवस्थामें अपार अन्धकारमें पड़ा निरन्तर कष्ट भोगता रहा। स्त्रीकी आसक्तिसे उसकी यह दुर्गति हुई थी ।। २७।।

संस्कृत श्लोक :-

तामेव मनसा गृह्णन् बभूव प्रमदोत्तमा । अनन्तरं विदर्भस्य राजसिंहस्य वेश्मनि ।। २८उपयेमे वीर्यपणां वैदर्भी मलयध्वजः । युधि निर्जित्य राजन्यान् पाण्ड्यः परपुरंजयः ।।२९तस्यां स जनयांचक्र आत्मजामसितेक्षणाम् । यवीयसः सप्त सुतान् सप्त द्रविडभूभृतः ।।३०एकैकस्याभवत्तेषां राजन्नर्बुदमर्बुदम् । भोक्ष्यते यद्वंशधरैर्मही मन्वन्तरं परम् ।।३१अगस्त्यः प्राग्दुहितरमुपयेमे धृतव्रताम् । यस्यां दृढच्युतो जात इध्मवाहात्मजो मुनिः ।।३२विभज्य तनयेभ्यः क्ष्मां राजर्षिर्मलयध्वजः । आरिराधयिषुः कृष्णं स जगाम कुलाचलम् ।।३३हित्वा गृहान् सुतान् भोगान् वैदर्भी मदिरेक्षणा । अन्वधावत पाण्ड्येशं ज्योत्स्नेव रजनीकरम् ।।३४तत्र चन्द्रवसा नाम ताम्रपर्णी वटोदका ।तत्पुण्यसलिलैर्नित्यमुभयत्रात्मनो मृजन् ।।३५कन्दाष्टिभिर्मूलफलैः पुष्पपर्णैस्तृणोदकैः । वर्तमानः शनैर्गात्रकर्शनं तप आस्थितः ।।३६शीतोष्णवातवर्षाणि क्षुत्पिपासे प्रियाप्रिये ।सुखदुःखे इति द्वन्द्वान्यजयत्समदर्शनः ।।३७तपसा विद्यया पक्वकषायो नियमैर्यमैः । युयुजे ब्रह्मण्यात्मानं विजिताक्षानिलाशयः ।।३८

हिंदी अनुवाद :-

अन्त समयमें भी पुरंजनको उसीका चिन्तन बना हुआ था। इसलिये दूसरे जन्ममें वह नृपश्रेष्ठ विदर्भराजके यहाँ सुन्दरी कन्या होकर उत्पन्न हुआ ।। २८।।

जब यह विदर्भनन्दिनी विवाहयोग्य हुई, तब विदर्भराजने घोषित कर दिया कि इसे सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी वीर ही ब्याह सकेगा। तब शत्रुओंके नगरोंको जीतनेवाले पाण्ड्यनरेश महाराज मलयध्वजने समरभूमिमें समस्त राजाओंको जीतकर उसके साथ विवाह किया ।। २९।।

उससे महाराज मलयध्वजने एक श्यामलोचना कन्या और उससे छोटे सात पुत्र उत्पन्न किये, जो आगे चलकर द्रविडदेशके सात राजा हुए ।।३०।।

राजन् ! फिर उनमेंसे प्रत्येक पुत्रके बहुत-बहुत पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके वंशधर इस पृथ्वीको मन्वन्तरके अन्ततक तथा उसके बाद भी भोगेंगे ।।३१।।

राजा मलयध्वजकी पहली पुत्री बड़ी व्रतशीला थी। उसके साथ अगस्त्य ऋषिका विवाह हुआ। उससे उनके दृढ़च्युत नामका पुत्र हुआ और दृढ़च्युतके इध्मवाह हुआ ।।३२।।

अन्तमें राजर्षि मलयध्वज पृथ्वीको पुत्रोंमें बाँटकर भगवान् श्रीकृष्णकी आराधना करनेकी इच्छासे मलय पर्वतपर चले गये ।। ३३ ।।

उस समय – चन्द्रिका जिस प्रकार चन्द्रदेवका अनुसरण करती है-उसी प्रकार मत्तलोचना वैदर्भीने अपने घर, पुत्र और समस्त भोगोंको तिलांजलि दे पाण्ड्यनरेशका अनुगमन किया ।। ३४।।

वहाँ चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी और वेटोदका नामकी तीन नदियाँ थीं। उनके पवित्र जलमें स्नान करके वे प्रतिदिन अपने शरीर और अन्तःकरणको निर्मल करते थे ।। ३५।।

वहाँ रहकर उन्होंने कन्द, बीज, मूल, फल, पुष्प, पत्ते, तृण और जलसे ही निर्वाह करते हुए बड़ा कठोर तप किया। इससे धीरे-धीरे उनका शरीर बहुत सूख गया ।। ३६।।

महाराज मलयध्वजने सर्वत्र समदृष्टि रखकर शीत-उष्ण, वर्षा- वायु, भूख-प्यास, प्रिय-अप्रिय और सुख-दुःखादि सभी द्वन्द्वोंको जीत लिया ।। ३७ ।।

तप और उपासनासे वासनाओंको निर्मूल कर तथा यम-नियमादिके द्वारा इन्द्रिय, प्राण और मनको वशमें करके वे आत्मामें ब्रह्मभावना करने लगे ।।३८।।

संस्कृत श्लोक :-

आस्ते स्थाणुरिवैकत्र दिव्यं वर्षशतं स्थिरः । वासुदेवे भगवति नान्यद्वेदोद्वहन् रतिम् ।।३९स व्यापकतयाऽऽत्मानं व्यतिरिक्ततयाऽऽत्मनि । विद्वान् स्वप्न इवामर्शसाक्षिणं विरराम ह ।।४०साक्षाद्भगवतोक्तेन गुरुणा हरिणा नृप । विशुद्धज्ञानदीपेन स्फुरता विश्वतोमुखम् ।।४१परे ब्रह्मणि चात्मानं परं ब्रह्म तथाऽऽत्मनि । वीक्षमाणो विहायेक्षामस्मादुपरराम हा ।।४२पतिं परमधर्मज्ञ वैदर्भी मलयध्वजम् । प्रेम्णा पर्यचरद्धित्वा भोगान् सा पतिदेवता ।।४३चीरवासा व्रतक्षामा वेणीभूतशिरोरुहा । बभावुप पतिं शान्ता शिखा शान्तमिवानलम् ।।४४अजानती प्रियतमं यदोपरतमंगना । सुस्थिरासनमासाद्य यथापूर्वमुपाचरत् ।।४५यदा नोपलभेताङ्ग्रावूष्माणं पत्युरर्चती । आसीत्संविग्नहृदया यूथभ्रष्टा मृगी यथा ।।४६आत्मानं शोचती दीनबन्धुं विक्लवाश्रुभिः । स्तनावासिच्य विपिने सुस्वरं प्ररुरोद सा ।।४७उत्तिष्ठोत्तिष्ठ राजर्षे इमामुदधिमेखलाम् । दस्युभ्यः क्षत्रबन्धुभ्यो बिभ्यतीं पातुमर्हसि ।।४८

हिंदी अनुवाद :-

इस प्रकार सौ दिव्य वर्षोंतक स्थाणुके समान निश्चलभावसे एक ही स्थानपर बैठे रहे। भगवान् वासुदेवमें सुदृढ़ प्रेम हो जानेके कारण इतने समयतक उन्हें शरीरादिका भी भान न हुआ ।। ३९।।

राजन् ! गुरुस्वरूप साक्षात् श्रीहरिके उपदेश किये हुए तथा अपने अन्तःकरणमें सब ओर स्फुरित होनेवाले विशुद्ध विज्ञानदीपकसे उन्होंने देखा कि अन्तःकरणकी वृत्तिका प्रकाशक आत्मा स्वप्नावस्थाकी भाँति देहादि समस्त उपाधियोंमें व्याप्त तथा उनसे पृथक् भी है। ऐसा अनुभव करके वे सब ओरसे उदासीन हो गये ।।४०-४१।।

फिर अपनी आत्माको परब्रह्ममें और परब्रह्मको आत्मामें अभिन्नरूपसे देखा और अन्तमें इस अभेद चिन्तनको भी त्यागकर सर्वथा शान्त हो गये ।।४२।।

राजन् ! इस समय पतिपरायणा वैदर्भी सब प्रकारके भोगोंको त्यागकर अपने परमधर्मज्ञ पति मलयध्वजकी सेवा बड़े प्रेमसे करती थी ।। ४३ ।।

वह चीर-वस्त्र धारण किये रहती, व्रत उपवासादिके कारण उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था और सिरके बाल आपसमें उलझ जानेके कारण उनमें लटें पड़ गयी थीं। उस समय अपने पतिदेवके पास वह अंगारभावको प्राप्त धूमरहित अग्निके समीप अग्निकी शान्त शिखाके समान सुशोभित हो रही थी ।।४४।।

उसके पति परलोकवासी हो चुके थे, पर चरणसेवा करते समय जब उसे अपने पतिके चरणोंमें गरमी बिलकुल नहीं मालूम हुई, तब तो वह झुंडसे बिछुड़ी हुई मृगीके समान चित्तमें अत्यन्त व्याकुल हो गयी ।। ४६।।

उस बीहड़ वनमें अपनेको अकेली और दीन अवस्थामें देखकर वह बड़ी शोकाकुल हुई और आँसुओंकी धारासे स्तनोंको भिगोती हुई बड़े जोर-जोरसे रोने लगी ।।४७।।

वह बोली, ‘राजर्षे! उठिये, उठिये; समुद्रसे घिरी हुई यह वसुन्धरा लुटेरों और अधार्मिक राजाओंसे भयभीत हो रही है, आप इसकी रक्षा कीजिये’ ।।४८।।

संस्कृत श्लोक :-

एवं विलपती बाला विपिनेऽनुगता पतिम् । पतिता पादयोर्भर्तु रुदत्यश्रूण्यवर्तयत् ।।४९ चितिं दारुमयीं चित्वा तस्यां पत्युः कलेवरम् । आदीप्य चानुमरणे विलपन्ती मनो दधे ।।५० तत्र पूर्वतरः कश्चित्सखा ब्राह्मण आत्मवान् । सान्त्वयन् वल्गुना साम्ना तामाह रुदतीं प्रभो ।।५१

ब्राह्मण उवाच

का त्वं कस्यासि को वायं शयानो यस्य शोचसि । जानासि किं सखायं मां येनाग्रे विचचर्थ ह ।।५२ अपि स्मरसि चात्मानमविज्ञातसखं सखे । हित्वा मां पदमन्विच्छन् भौमभोगरतो गतः ।।५३ हंसावहं च त्वं चार्य सखायौ मानसायनौ । अभूतामन्तरा वौकः सहस्रपरिवत्सरान् ।।५४ स त्वं विहाय मां बन्धो गतो ग्राम्यमतिर्महीम् । विचरन् पदमद्राक्षीः कयाचिन्निर्मितं स्त्रिया ।।५५ पंचारामं नवद्वारमेकपालं त्रिकोष्ठकम् । षट्कुलं पंचविपणं पंचप्रकृति स्त्रीधवम् ।।५६ पंचेन्द्रियार्था आरामा द्वारः प्राणा नव प्रभो । तेजोऽबन्नानि कोष्ठानि कुलमिन्द्रियसंग्रहः ।।५७ विपणस्तु क्रियाशक्तिर्भूतप्रकृतिरव्यया । शक्त्यधीशः पुमांस्त्वत्र प्रविष्टो नावबुध्यते ।।५८

पतिके साथ वनमें गयी हुई वह अबला इस प्रकार विलाप करती पतिके चरणोंमें गिर गयी और रो-रोकर आँसू बहाने लगी ।।४९।।

लकड़ियोंकी चिता बनाकर उसने उसपर पतिका शव रखा और अग्नि लगाकर विलाप करते-करते स्वयं सती होनेका निश्चय किया ।।५०।।

राजन् ! इसी समय उसका कोई पुराना मित्र एक आत्मज्ञानी ब्राह्मन वहाँ आया। उसने उस रोती हुई अबलाको मधुर वाणीसे समझाते हुए कहा ।।५१।।

ब्राह्मणने कहा-तू कौन है? किसकी पुत्री है? और जिसके लिये तू शोक कर रही है, वह यह सोया हुआ पुरुष कौन है? क्या तुम मुझे नहीं जानती? मैं वही तेरा मित्र हूँ, जिसके साथ तू पहले विचरा करती थी ।। ५२ ।।

सखे ! क्या तुम्हें अपनी याद आती है, किसी समय मैं तुम्हारा अविज्ञात नामका सखा था? तुम पृथ्वीके भोग भोगनेके लिये निवास स्थानकी खोजमें मुझे छोड़कर चले गये थे ।। ५३।।

आर्य! पहले मैं और तुम एक-दूसरेके मित्र एवं मानसनिवासी हंस थे। हम दोनों सहस्रों वर्षोंतक बिना किसी निवास स्थानके ही रहे थे ।।५४।।

किन्तु मित्र ! तुम विषयभोगोंकी इच्छासे मुझे छोड़कर यहाँ पृथ्वीपर चले आये ! यहाँ घूमते-घूमते तुमने एक स्त्रीका रचा हुआ स्थान देखा ।। ५५।।

उसमें पाँच बगीचे, नौ दरवाजे, एक द्वारपाल, तीन परकोटे, छः वैश्यकुल और पाँच बाजार थे। वह पाँच उपादान- कारणोंसे बना हुआ था और उसकी स्वामिनी एक स्त्री थी ।। ५६।।

महाराज ! इन्द्रियोंके पाँच विषय उसके बगीचे थे, नौ इन्द्रिय-छिद्र द्वार थे; तेज, जल और अन्न- तीन परकोटे थे; मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ -छः वैश्यकुल थे; क्रियाशक्तिरूप कर्मेन्द्रियाँ ही बाजार थीं; पाँच भूत ही उसके कभी क्षीण न होनेवाले उपादान कारण थे और बुद्धिशक्ति ही उसकी स्वामिनी थी। यह ऐसा नगर था, जिसमें प्रवेश करनेपर पुरुष ज्ञानशून्य हो जाता है- अपने स्वरूपको भूल जाता है ।।५७-५८।।

संस्कृत श्लोक :-

तस्मिंस्त्वं रामया स्पृष्टो रममाणोऽश्रुतस्मृतिः ।तत्संगादीदृशीं प्राप्तो दशां पापीयसीं प्रभो ।।५९न त्वं विदर्भदुहिता नायं वीरः सुहृत्तव ।न पतिस्त्वं पुरंजन्या रुद्धो नवमुखे यया ।।६०माया ह्येषा मया सृष्टा यत्पुमांसं स्त्रियं सतीम् ।मन्यसे नोभयं यद्वै हंसौ पश्यावयोर्गतिम् ।।६१अहं भवान्न चान्यस्त्वं त्वमेवाहं विचक्ष्व भोः ।न नौ पश्यन्ति कवयश्छिद्रं जातु मनागपि ।।६२यथा पुरुष आत्मानमेकमादर्शचक्षुषोः ।द्विधाभूतमवेक्षेत तथैवान्तरमावयोः ।।६३एवं स मानसो हंसो हंसेन प्रतिबोधितः ।स्वस्थस्तद्व्यभिचारेण नष्टामाप पुनः स्मृतिम् ।।६४बर्हिष्मन्नेतदध्यात्मं पारोक्ष्येण प्रदर्शितम् । यत्परोक्षप्रियो देवो भगवान् विश्वभावनः ।।६५

हिंदी अनुवाद :-

भाई! उस नगरमें उसकी स्वामिनीके फंदेमें पड़कर उसके साथ विहार करते-करते तुम भी अपने स्वरूपको भूल गये और उसीके संगसे तुम्हारी यह दुर्दशा हुई है ।।५९।।

देखो, तुम न तो विदर्भराजकी पुत्री ही हो और न यह वीर मलयध्वज तुम्हारा पति ही। जिसने तुम्हें नौ द्वारोंके नगरमें बंद किया था, उस पुरंजनीके पति भी तुम नहीं हो ।। ६०।।

तुम पहले जन्ममें अपनेको पुरुष समझते थे और अब सती स्त्री मानते हो – यह सब मेरी ही फैलायी हुई माया है। वास्तवमें तुम न पुरुष हो न स्त्री। हम दोनों तो हंस हैं; हमारा जो वास्तविक स्वरूप है, उसका अनुभव करो ।। ६१।।

मित्र ! जो मैं (ईश्वर) हूँ, वही तुम (जीव) हो। तुम मुझसे भिन्न नहीं हो और तुम विचारपूर्वक देखो, मैं भी वही हूँ जो तुम हो। ज्ञानी पुरुष हम दोनोंमें कभी थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं देखते ।। ६२।।

जैसे एक पुरुष अपने शरीरकी परछाईंको शीशेमें और किसी व्यक्तिके नेत्रमें भिन्न-भिन्न रूपसे देखता है वैसे ही एक ही आत्मा विद्या और अविद्याकी उपाधिके भेदसे अपनेको ईश्वर और जीवके रूपमें दो प्रकारसे देख रहा है ।। ६३।।

इस प्रकार जब हंस (ईश्वर) ने उसे सावधान किया, तब वह मानसरोवरका हंस (जीव) अपने स्वरूपमें स्थित हो गया और उसे अपने मित्रके विछोहसे भूला हुआ आत्मज्ञान फिर प्राप्त हो गया ।। ६४ ।।

प्राचीनबर्हि! मैंने तुम्हें परोक्षरूपसे यह आत्मज्ञानका दिग्दर्शन कराया है; क्योंकि जगत्कर्ता जगदीश्वरको परोक्ष वर्णन ही अधिक प्रिय है ।। ६५।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पुरंजनोपाख्यानेऽष्टाविंशोऽध्यायः ।।२८।।

१. प्रा० पा०- आवापो ०।

१. प्रा० पा०- राजन् तां पुरीमभिनिकामतः। २. प्रा० पा०- जामातृमित्रपार्षदान्। ३. प्रा० पा०-त्वेका।

१. प्रा० पा०-तु संत्र०। २. प्रा० पा०- रभिनेष्यति। ३. प्रा० पा०- मृते ।

१. प्रा० पा०- चिता। २. प्रा० पा०- किं जानासि । ३. प्रा० पा०- विचरेम हि। १. प्रा० पा०- ततः।

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