Bhagwat puran skandh 4 chapter 26(भागवत पुराण चतुर्थः स्कन्धःषड्विंशोऽध्यायः राजा पुरंजनका शिकार खेलने वनमें जाना और रानीका कुपित होना)

Bhagwat puran  skandh 4 chapter 26(भागवत पुराण चतुर्थः स्कन्धःषड्विंशोऽध्यायः राजा पुरंजनका शिकार खेलने वनमें जाना और रानीका कुपित होना)

अथ षड्विंशोऽध्यायः राजा पुरंजनका शिकार खेलने वनमें जाना और रानीका कुपित होना

संस्कृत श्लोक :-

नारद उवाच

स एकदा महेष्वासो रथं पञ्चाश्वमाशुगम् । द्वीषं द्विचक्रमेकाक्षं त्रिवेणुं पञ्चबन्धुरम् ।।१एकरश्म्येकदमनमेकनीडं द्विकूबरम् । पञ्चप्रहरणं सप्तवरूथं पञ्चविक्रमम् ।।२हैमोपस्करमारुह्य स्वर्णवर्माक्षयेषुधिः । एकादशचमूनाथः पञ्चप्रस्थमगाद्वनम् ।।३चचार मृगयां तत्र दृप्त आत्तेषुकार्मुकः । विहाय जायामतदर्हा मृगव्यसनलालसः ।।४आसुरीं वृत्तिमाश्रित्य घोरात्मा निरनुग्रहः । न्यहनन्निशितैर्बाणैर्वनेषु वनगोचरान् ।।५तीर्थेषु प्रतिदृष्टेषु राजा मेध्यान् पशून् वने । यावदर्थमलं लुब्धो हन्यादिति नियम्यते ।।६य एवं कर्म नियतं विद्वान् कुर्वीत मानवः । कर्मणा तेन राजेन्द्र ज्ञानेन न स लिप्यते ।।७अन्यथा कर्म कुर्वाणो मानारूढो निबध्यते । गुणप्रवाहपतितो नष्टप्रज्ञो व्रजत्यधः ।।८तत्र निर्भिन्नगात्राणां चित्रवाजैः शिलीमुखैः । विप्लवोऽभूद्दुःखितानां दुःसहः करुणात्मनाम् ।।९

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन राजा पुरंजन अपना विशाल धनुष, सोनेका कवच और अक्षय तरकस धारणकर अपने ग्यारहवें सेनापतिके साथ पाँच घोड़ोंके शीघ्रगामी रथमें बैठकर पंचप्रस्थ नामके वनमें गया। उस रथमें दो ईषादण्ड (बंब), दो पहिये, एक धुरी, तीन ध्वजदण्ड, पाँच डोरियाँ, एक लगाम, एक सारथि, एक बैठनेका स्थान, दो जुए, पाँच आयुध और सात आवरण थे। वह पाँच प्रकारकी चालोंसे चलता था तथा उसका साज-बाज सब सुनहरा था ।।१-३।।

यद्यपि राजाके लिये अपनी प्रियाको क्षणभर भी छोड़ना कठिन था, किन्तु उस दिन उसे शिकारका ऐसा शौक लगा कि उसकी भी परवा न कर वह बड़े गर्वसे धनुष-बाण चढ़ाकर आखेट करने लगा ।।४।।

इस समय आसुरीवृत्ति बढ़ जानेसे उसका चित्त बड़ा कठोर और दयाशून्य हो गया था, इससे उसने अपने तीखे बाणोंसे बहुत-से निर्दोष जंगली जानवरोंका वध कर डाला ।।५।।

जिसकी मांसमें अत्यन्त आसक्ति हो, वह राजा केवल शास्त्रप्रदर्शित कर्मोंके लिये वनमें जाकर आवश्यकतानुसार अनिषिद्ध पशुओंका वध करे; व्यर्थ पशुहिंसा न करे। शास्त्र इस प्रकार उच्छृंखल प्रवृत्तिको नियन्त्रित करता है ।।६।।

राजन्! जो विद्वान् इस प्रकार शास्त्रनियत कर्मोंका आचरण करता है, वह उस कर्मानुष्ठानसे प्राप्त हुए ज्ञानके कारणभूत कर्मोंसे लिप्त नहीं होता ।।७।।

नहीं तो, मनमाना कर्म करनेसे मनुष्य अभिमानके वशीभूत होकर कर्मोंमें बँध जाता है तथा गुण-प्रवाहरूप संसारचक्रमें पड़कर विवेक-बुद्धिके नष्ट हो जानेसे अधम योनियोंमें जन्म लेता है ।।८।।

पुरंजनके तरह-तरहके पंखोंवाले बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर अनेकों जीव बड़े कष्टके साथ प्राण त्यागने लगे। उसका वह निर्दयतापूर्ण जीव-संहार देखकर सभी दयालु पुरुष बहुत दुःखी हुए। वे इसे सह नहीं सके ।।९।।

संस्कृत श्लोक :-

शशान् वराहान् महिषान् गवयान् रुरुशल्यकान् । मेध्यानन्यांश्च विविधान् विनिघ्नन् श्रममध्यगात् ।।१०ततः क्षुत्तृट्परिश्रान्तो निवृत्तो गृहमेयिवान् । कृतस्नानोचिताहारः संविवेश गतक्लमः ।।११आत्मानमर्हयांचक्रे धूपालेपस्रगादिभिः । साध्वलङ्कृतसर्वांगो महिष्यामादधे मनः ।।१२तृप्तो हृष्टः सुदृप्तश्च कन्दर्पाकृष्टमानसः । न व्यचष्ट वरारोहां गृहिणीं गृहमेधिनीम् ।।१३अन्तःपुरस्त्रियोऽपृच्छद्विमना इव वेदिषत् । अपि वः कुशलं रामाः सेश्वरीणां यथा पुरा ।।१४न तथैतर्हि रोचन्ते गृहेषु गृहसम्पदः । यदि न स्याद् गृहे माता पत्नी वा पतिदेवता ।व्यंगे रथ इव प्राज्ञः को नामासीत दीनवत् ।।१५क्व वर्तते सा ललना मज्जन्तं व्यसनार्णवे । या मामुद्धरते प्रज्ञां दीपयन्ती पदे पदे ।।१६

रामा ऊचुः

नरनाथ न जानीमस्त्वत्प्रिया यद्वयवस्यति । भूतले निरवस्तारे शयानां पश्य शत्रुहन् ।।१७

नारद उवाच

पुरंजनः स्वमहिषीं निरीक्ष्यावधुतां भुवि । तत्संगोन्मथितज्ञानो वैक्लव्यं परमं ययौ ।।१८सान्त्वयन् श्लक्ष्णया वाचा हृदयेन विदूयता । प्रेयस्याः स्नेहसंरम्भलिंगमात्मनि नाभ्यगात् ।।१९

हिंदी अनुवाद :-

इस प्रकार वहाँ खरगोश, सूअर, भैंसे, नीलगाय, कृष्णमृग, साही तथा और भी बहुत-से मेध्य पशुओंका वध करते-करते राजा पुरंजन बहुत थक गया ।।१०।।

तब वह भूख-प्याससे अत्यन्त शिथिल हो वनसे लौटकर राजमहलमें आया। वहाँ उसने यथायोग्य रीतिसे स्नान और भोजनसे निवृत्त हो, कुछ विश्राम करके थकान दूर की ।।११।।

फिर गन्ध, चन्दन और माला आदिसे सुसज्जित हो सब अंगोंमें सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने। तब उसे अपनी प्रियाकी याद आयी ।।१२।।

वह भोजनादिसे तृप्त, हृदयमें आनन्दित, मदसे उन्मत्त और कामसे व्यथित होकर अपनी सुन्दरी भार्याको ढूँढ़ने लगा; किन्तु उसे वह कहीं भी दिखायी न दी ।।१३।।

प्राचीनबर्हि ! तब उसने चित्तमें कुछ उदास होकर अन्तःपुरकी स्त्रियोंसे पूछा, ‘सुन्दरियो ! अपनी स्वामिनीके सहित तुम सब पहलेकी ही तरह कुशलसे हो न? ।।१४।।

क्या कारण है आज इस घरकी सम्पत्ति पहले जैसी सुहावनी नहीं जान पड़ती? घरमें माता अथवा पतिपरायणा भार्या न हो, तो वह घर बिना पहियेके रथके समान हो जाता है; फिर उसमें कौन बुद्धिमान् दीन पुरुषोंके समान रहना पसंद करेगा ।।१५।।

अतः बताओ, वह सुन्दरी कहाँ है, जो दुःख-समुद्रमें डूबनेपर मेरी विवेक-बुद्धिको पद-पदपर जाग्रत् करके मुझे उस संकटसे उबार लेती है?’ ।।१६।।

स्त्रियोंने कहा- नरनाथ! मालूम नहीं आज आपकी प्रियाने क्या ठानी है। शत्रुदमन ! देखिये, वे बिना बिछौनेके पृथ्वीपर ही पड़ी हुई हैं ।।१७।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उस स्त्रीके संगसे राजा पुरंजनका विवेक नष्ट हो चुका था; इसलिये अपनी रानीको पृथ्वीपर अस्त-व्यस्त अवस्थामें पड़ी देखकर वह अत्यन्त व्याकुल हो गया ।।१८।।

उसने दुःखित हृदयसे उसे मधुर वचनोंद्वारा बहुत कुछ समझाया, किन्तु उसे अपनी प्रेयसीके अंदर अपने प्रति प्रणय-कोपका कोई चिह्न नहीं दिखायी दिया ।।१९।।

संस्कृत श्लोक :-

अनुनिन्येऽथ शनकैर्वीरोऽनुनयकोविदः । पस्पर्श पादयुगलमाह चोत्संगलालिताम् ।।२०

पुरंजन उवाच

नूनं त्वकृतपुण्यास्ते भृत्या येष्वीश्वराः शुभे । कृतागस्स्वात्मसात्कृत्वा शिक्षादण्डं न युंजते ।।२१ परमोऽनुग्रहो दण्डो भृत्येषु प्रभुणार्पितः । बालोन वेद तत्तन्वि बन्धुकृत्यममर्षणः ।।२२ सा त्वं मुखं सुदति सुभ्रवनुरागभार- व्रीडाविलम्बविलसद्धसितावलोकम् । नीलालकालिभिरुपस्कृतमुन्नसं नः स्वानां प्रदर्शय मनस्विनि वल्गुवाक्यम् ।।२३ तस्मिन्दधे दममहं तव वीरपत्नि योऽन्यत्र भूसुरकुलात्कृतकिल्बिषस्तम् । पश्ये न वीतभयमुन्मुदितं त्रिलोक्या- मन्यत्र वै मुररिपोरितरत्र दासात् ।।२४ वक्त्रं न ते वितिलकं मलिनं विहर्षं संरम्भभीममविमृष्टमपेतरागम् । पश्ये स्तनावपि शुचोपहतौ सुजातौ बिम्बाधरं विगतकुङ्कुमपङ्करागम् ।।२५ तन्मे प्रसीद सुहृदः कृतकिल्बिषस्य स्वैरं गतस्य मृगयां व्यसनातुरस्य । का देवरं वशगतं कुसुमास्त्रवेग- विस्रस्त पौंस्नमुशती न भजेत कृत्ये ।।२६

हिंदी अनुवाद :-

वह मनानेमें भी बहुत कुशल था, इसलिये अब पुरंजनने उसे धीरे-धीरे मनाना आरम्भ किया। उसने पहले उसके चरण छूए और फिर गोदमें बिठाकर बड़े प्यारसे कहने लगा ।।२०।।

पुरंजन बोला-सुन्दरि ! वे सेवक तो निश्चय ही बड़े अभागे हैं, जिनके अपराध करनेपर स्वामी उन्हें अपना समझकर शिक्षाके लिये उचित दण्ड नहीं देते ।।२१।।

सेवकको दिया हुआ स्वामीका दण्ड तो उसपर बड़ा अनुग्रह ही होता है। जो मूर्ख हैं, उन्हींको क्रोधके कारण अपने हितकारी स्वामीके किये हुए उस उपकारका पता नहीं चलता ।।२२।।

सुन्दर दन्तावली और मनोहर भौंहोंसे शोभा पानेवाली मनस्विनि ! अब यह क्रोध दूर करो और एक बार मुझे अपना समझकर प्रणय-भार तथा लज्जासे झुका हुआ एवं मधुर मुसकानमयी चितवनसे सुशोभित अपना मनोहर मुखड़ा दिखाओ। अहो ! भ्रमरपंक्तिके समान नीली अलकावली, उन्नत नासिका और सुमधुर वाणीके कारण तुम्हारा वह मुखारविन्द कैसा मनोमोहक जान पड़ता है ।। २३ ।।

वीरपत्नि ! यदि किसी दूसरेने तुम्हारा कोई अपराध किया हो तो उसे बताओ; यदि वह अपराधी ब्राह्मणकुलका नहीं है, तो मैं उसे अभी दण्ड देता हूँ। मुझे तो भगवान्‌के भक्तोंको छोड़कर त्रिलोकीमें अथवा उससे बाहर ऐसा कोई नहीं दिखायी देता जो तुम्हारा अपराध करके निर्भय और आनन्दपूर्वक रह सके ।। २४।।

प्रिये ! मैंने आजतक तुम्हारा मुख कभी तिलकहीन, उदास, मुरझाया हुआ, क्रोधके कारण डरावना, कान्तिहीन और स्नेहशून्य नहीं देखा; और न कभी तुम्हारे सुन्दर स्तनोंको ही शोकाश्रुओंसे भीगा तथा बिम्बाफलसदृश अधरोंको स्निग्ध केसरकी लालीसे रहित देखा है ।। २५।।

मैं व्यसनवश तुमसे बिना पूछे शिकार खेलने चला गया, इसलिये अवश्य अपराधी हूँ। फिर भी अपना समझकर तुम मुझपर प्रसन्न हो जाओ; कामदेवके विषम बाणोंसे अधीर होकर जो सर्वदा अपने अधीन रहता है, उस अपने प्रिय पतिको उचित कार्यके लिये भला कौन कामिनी स्वीकार नहीं करती ।। २६ ।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पुरंजनोपाख्याने षड्विंशोऽध्यायः ।।२६।।

Leave a Comment

error: Content is protected !!