Bhagwat puran skandh 4 chapter 23(भागवत पुराण चतुर्थः स्कन्धःत्रयोविंशोऽध्यायः राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन)


Bhagwat puran skandh 4 chapter 23(भागवत पुराण चतुर्थः स्कन्धःत्रयोविंशोऽध्यायः राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन)

 अथ त्रयोविंशोऽध्यायः राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन

संस्कृत श्लोक :-

मैत्रेय उवाच

दृष्ट्वाऽऽत्मानं प्रवयसमेकदा वैन्य आत्मवान् । आत्मना वर्धिताशेषस्वानुसर्गः प्रजापतिः ।।१जगतस्तस्थुषश्चापि वृत्तिदो धर्मभृत्सताम् । निष्पादितेश्वरादेशो यदर्थमिह जज्ञिवान् ।।२आत्मजेष्वात्मजां न्यस्य विरहाद्रुदतीमिव । प्रजासु विमनस्स्वेकः सदारोऽगात्तपोवनम् ।।३तत्राप्यदाभ्यनियमो वैखानससुसम्मते । आरब्ध उग्रतपसि यथा स्वविजये पुरा ।।४

हिंदी अनुवाद :-

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- इस प्रकार महामनस्वी प्रजापति पृथुके स्वयमेव अन्नादि तथा पुर-ग्रामादि सर्गकी व्यवस्था करके स्थावर-जंगम सभीकी आजीविकाका सुभीता कर दिया तथा साधुजनोचित धर्मोंका भी खूब पालन किया।

‘मेरी अवस्था कुछ ढल गयी है और जिसके लिये मैंने इस लोकमें जन्म लिया था, उस प्रजारक्षणरूप ईश्वराज्ञाका पालन भी हो चुका है; अतः अब मुझे अन्तिम पुरुषार्थ – मोक्षके लिये प्रयत्न करना चाहिये’ यह सोचकर उन्होंने अपने विरहमें रोती हुई अपनी पुत्रीरूपा पृथ्वीका भार पुत्रोंको सौंप दिया और सारी प्रजाको बिलखती छोड़कर वे अपनी पत्नीसहित अकेले ही तपोवनको चल दिये ।।१-३।।

वहाँ भी वे वानप्रस्थ आश्रमके नियमानुसार उसी प्रकार कठोर तपस्यामें लग गये, जैसे पहले गृहस्थाश्रममें अखण्ड व्रतपूर्वक पृथ्वीको विजय करनेमें लगे थे ! ।।४।।

संस्कृत श्लोक :-

कन्दमूलफलाहारः शुष्कपर्णाशनः क्वचित् । अब्भक्षः कतिचित्पक्षान् वायुभक्षस्ततः परम् ।।५ग्रीष्मे पंचतपा वीरो वर्षास्वासारषाण्मुनिः । आकण्ठमग्नः शिशिरे उदके स्थण्डिलेशयः ।।६तितिक्षुर्यतवाग्दान्त ऊध्र्वरता जितानिलः ।आरिराधयिषुः कृष्णमचरत्तप उत्तमम् ।।७तेन क्रमानुसिद्धेन ध्वस्तकर्मामलाशयः । प्राणायामैः संनिरुद्धषड्वर्गश्छिन्नबन्धनः ।।८सनत्कुमारो भगवान् यदाहाध्यात्मिकं परम् । योगं तेनैव पुरुषमभजत्पुरुषर्षभः ।।९भगवद्धर्मिणः साधोः श्रद्धया यततः सदा । भक्तिर्भगवति ब्रह्मण्यनन्यविषयाभवत् ।।१०तस्यानया भगवतः परिकर्मशुद्ध- सत्त्वात्मनस्तदनु संस्मरणानुपूर्त्या । ज्ञानं विरक्तिमदभून्निशितेन येन चिच्छेद संशयपदं निजजीवकोशम् ।।११छिन्नान्यधीरधिगतात्मगतिर्निरीह- स्तत्तत्यजेऽच्छिनदिदं वयुनेन येन । तावन्न योगगतिभिर्यतिरप्रमत्तो यावद्गदाग्रजकथासु रतिं न कुर्यात् ।।१२

कुछ दिन तो उन्होंने कन्द-मूल-फल खाकर बिताये, कुछ काल सूखे पत्ते खाकर रहे,फिर कुछ पखवाड़ोंतक जलपर ही रहे और इसके बाद केवल वायुसे ही निर्वाह करने लगे ।।५।।

वीरवर पृथु मुनिवृत्तिसे रहते थे। गर्मियोंमें उन्होंने पंचाग्नियोंका सेवन किया, वर्षाऋतुमें खुले मैदानमें रहकर अपने शरीरपर जलकी धाराएँ सहीं और जाड़ेमें गलेतक जलमें खड़े रहे। वे प्रतिदिन मिट्टीकी वेदीपर ही शयन करते थे ।। ६ ।।

उन्होंने शीतोष्णादि सब प्रकारके द्वन्द्वोंको सहा तथा वाणी और मनका संयम करके ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए प्राणोंको अपने अधीन किया। इस प्रकार श्रीकृष्णकी आराधना करनेके लिये उन्होंने उत्तम तप किया ।।७।।

इस क्रमसे उनकी तपस्या बहुत पुष्ट हो गयी और उसके प्रभावसे कर्ममल नष्ट हो जानेके कारण उनका चित्त सर्वथा शुद्ध हो गया। प्राणायामोंके द्वारा मन और इन्द्रियोंके निरुद्ध हो जानेसे उनका वासनाजनित बन्धन भी कट गया ।।८।।

तब, भगवान् सनत्कुमारने उन्हें जिस परमोत्कृष्ट अध्यात्मयोगकी शिक्षा दी थी, उसीके अनुसार राजा पृथु पुरुषोत्तम श्रीहरिकी आराधना करने लगे ।।९।।

इस तरह भगवत्परायण होकर श्रद्धापूर्वक सदाचारका पालन करते हुए निरन्तर साधन करनेसे परब्रह्म परमात्मामें उनकी अनन्यभक्ति हो गयी ।।१०।।

इस प्रकार भगवदुपासनासे अन्तःकरण शुद्ध-सात्त्विक हो जानेपर निरन्तर भगवच्चिन्तनके प्रभावसे प्राप्त हुई इस अनन्य भक्तिसे उन्हें वैराग्यसहित ज्ञानकी प्राप्ति हुई और फिर उस तीव्र ज्ञानके द्वारा उन्होंने जीवके उपाधिभूत अहंकारको नष्ट कर दिया, जो सब प्रकारके संशय-विपर्ययका आश्रय है ।।११।।

इसके पश्चात् देहात्मबुद्धिकी निवृत्ति और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्णकी अनुभूति होनेपर अन्य सब प्रकारकी सिद्धि आदिसे भी उदासीन हो जानेके कारण उन्होंने उस तत्त्वज्ञानके लिये भी प्रयत्न करना छोड़ दिया, जिसकी सहायतासे पहले अपने जीवकोशका नाश किया था, क्योंकि जबतक साधकको योगमार्गके द्वारा श्रीकृष्ण-कथामृतमें अनुराग नहीं होता, तबतक केवल योगसाधनासे उसका मोहजनित प्रमाद दूर नहीं होता – भ्रम नहीं मिटता ।।१२।।

संस्कृत श्लोक :-

एवं स वीरप्रवरः संयोज्यात्मानमात्मनि । ब्रह्मभूतो दृढं काले तत्याज स्वं कलेवरम् ।।१३सम्पीड्य पायुं पार्ष्णिभ्यां वायुमुत्सारयञ्छनैः । नाभ्यां कोष्ठेष्ववस्थाप्य हृदुरः कण्ठशीर्षणि ।।१४उत्सर्पयंस्तु तं मूर्ध्नि क्रमेणावेश्य निःस्पृहः । वायुं ‘वायौ क्षितौ कायं तेजस्तेजस्ययूयुजत् ।।१५खान्याकाशे द्रवं तोये यथास्थानं विभागशः । क्षितिमम्भसि तत्तेजस्यदो वायौ नभस्यमुम् ।।१६इन्द्रियेषु मनस्तानि तन्मात्रेषु यथोद्भवम् । भूतादिनामून्युत्कृष्य महत्यात्मनि सन्दधे ।।१७तं सर्वगुणविन्यासं जीवे मायामये न्यधात् । तं चानुशयमात्मस्थमसावनुशयी पुमान् । ज्ञानवैराग्यवीर्येण स्वरूपस्थोऽजहात्प्रभुः २ ।।१८अर्चिर्नाम महाराज्ञी तत्पत्न्यनुगता वनम् । सुकुमार्यतदर्हा च यत्पद्भ्यां स्पर्शनं भुवः ।।१९अतीव भर्तुव्रतधर्मनिष्ठया शुश्रूषया चारषदेहयात्रया ।नाविन्दतार्तिं परिकर्शितापि सा प्रेयस्करस्पर्शनमाननिर्वृतिः ।।२०

हिंदी अनुवाद :-

फिर जब अन्तकाल उपस्थित हुआ तो वीरवर पृथुने अपने चित्तको दृढ़तापूर्वक परमात्मामें स्थिर कर ब्रह्मभावमें स्थित हो अपना शरीर त्याग दिया ।।१३।।

उन्होंने एड़ीसे गुदाके द्वारको रोककर प्राणवायुको धीरे-धीरे मूलाधारसे ऊपरकी ओर उठाते हुए उसे क्रमशः नाभि, हृदय, वक्षःस्थल, कण्ठ और मस्तकमें स्थित किया ।।१४।।

फिर उसे और ऊपरकी ओर ले जाते हुए क्रमशः ब्रह्मरन्ध्रमें स्थिर किया। अब उन्हें किसी प्रकारके सांसारिक भोगोंकी लालसा नहीं रही। फिर यथास्थान विभाग करके प्राणवायुको समष्टि वायुमें, पार्थिव शरीरको पृथ्वीमें और शरीरके तेजको समष्टि तेजमें लीन कर दिया ।।१५।।

हृदयाकाशादि देहावच्छिन्न आकाशको महाकाशमें और शरीरगत रुधिरादि जलीय अंशको समष्टि जलमें लीन किया। इसी प्रकार फिर पृथ्वीको जलमें, जलको तेजमें, तेजको वायुमें और वायुको आकाशमें लीन किया ।।१६।।

तदनन्तर मनको [सविकल्प ज्ञानमें जिनके अधीन वह रहता है, उन] इन्द्रियोंमें, इन्द्रियोंको उनके कारणरूप तन्मात्राओंमें और सूक्ष्मभूतों (तन्मात्राओं) के कारण अहंकारके द्वारा आकाश, इन्द्रिय और तन्मात्राओंको उसी अहंकारमें लीन कर, अहंकारको महत्तत्त्वमें लीन किया ।।१७।।

फिर सम्पूर्ण गुणोंकी अभिव्यक्ति करनेवाले उस महत्तत्त्वको मायोपाधिक जीवमें स्थित किया। तदनन्तर उस मायारूप जीवकी उपाधिको भी उन्होंने ज्ञान और वैराग्यके प्रभावसे अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूपमें स्थित होकर त्याग दिया ।।१८।।

महाराज पृथुकी पत्नी महारानी अर्चि भी उनके साथ वनको गयी थीं। वे बड़ी सुकुमारी थीं, पैरोंसे भूमिका स्पर्श करनेयोग्य भी नहीं थीं ।।१९।।

फिर भी उन्होंने अपने स्वामीके व्रत और नियमादिका पालन करते हुए उनकी खूब सेवा की और मुनिवृत्तिके अनुसार कन्द-मूल आदिसे निर्वाह किया। इससे यद्यपि वे बहुत दुर्बल हो गयी थीं, तो भी प्रियतमके करस्पर्शसे सम्मानित होकर उसीमें आनन्द माननेके कारण उन्हें किसी प्रकार कष्ट नहीं होता था ।।२०।।

संस्कृत श्लोक :-

देहं विपन्नाखिलचेतनादिकं पत्युः पृथिव्या दयितस्य चात्मनः । आलक्ष्य किंचिच्च विलप्य सा सती चितामथारोपयदद्रिसानुनि ।।२१विधाय कृत्यं ह्रदिनीजलाप्लुता दत्त्वोदकं भर्तुरुदारकर्मणः । विलोक्यानुगतां साध्वीं पृथु वीरवरं पतिम् । तुष्टुवुर्वरदा देवैर्देवपत्न्यः सहस्रशः ।।२३ कुर्वत्यः कुसुमासारं तस्मिन्मन्दरसानुनि ।नत्वा दिविस्थांस्त्रिदशांस्त्रिः परीत्य विवेश वह्नि ध्यायती भर्तृपादौ ।। २२नदत्स्वमरतूर्येषु गृणन्ति स्म परस्परम् ।।२४

देव्य ऊचुः

अहो इयं वधूर्धन्या या चैव भूभुजां पतिम् । सर्वात्मना पतिं भेजे यज्ञेशं श्रीर्वधूरिव ।।२५ सैषा नूनं व्रजत्यूर्ध्वमनु वैन्यं पतिं सती । पश्यतास्मानतीत्यार्चिर्दुर्विभाव्येन कर्मणा ।।२६ तेषां दुरापं किं त्वन्यन्मर्त्यानां भगवत्पदम् । भुवि लोलायुषो ये वै नैष्कर्म्य साधयन्त्युत ।। २७ स वंचितो बतात्मधुक् कृच्छ्रेण महता भुवि । लब्ध्वापवर्यं मानुष्यं विषयेषु विषज्जते ।।२८

मैत्रेय उवाच

स्तुवतीष्वमरस्त्रीषु पतिलोकं गता वधूः । यंवा आत्मविदां धुर्यो वैन्यः प्रापाच्युताशयः२ ।।२९ इत्थंभूतानुभावोऽसौ पृथुः स भगवत्तमः । कीर्तितं तस्य चरितमुद्दामचरितस्य ते ।।३०

हिंदी अनुवाद :-

अब पृथ्वीके स्वामी और अपने प्रियतम महाराज पृथुकी देहको जीवनके चेतना आदि सभी धर्मोंसे रहित देख उस सतीने कुछ देर विलाप किया। फिर पर्वतके ऊपर चिता बनाकर उसे उस चितापर रख दिया ।। २१ ।।

इसके बाद उस समयके सारे कृत्य कर नदीके जलमें स्नान किया। अपने परम पराक्रमी पतिको जलांजलि दे आकाशस्थित देवताओंकी वन्दना की तथा तीन बार चिताकी परिक्रमा कर पतिदेवके चरणोंका ध्यान करती हुई अग्निमें प्रवेश कर गयी ।।२२।।

परमसाध्वी अर्चिको इस प्रकार अपने पति वीरवर पृथुका अनुगमन करते देख सहस्रों वरदायिनी देवियोंने अपने-अपने पतियोंके साथ उनकी स्तुति की ।।२३।।

वहाँ देवताओंके बाजे बजने लगे। उस समय उस मन्दराचलके शिखरपर वे देवांगनाएँ पुष्पोंकी वर्षा करती हुई आपसमें इस प्रकार कहने लगीं ।। २४।।

देवियोंने कहा- अहो ! यह स्त्री धन्य है! इसने अपने पति राजराजेश्वर पृथुकी मन-वाणी-शरीरसे ठीक उसी प्रकार सेवा की है, जैसे श्रीलक्ष्मीजी यज्ञेश्वर भगवान् विष्णुकी करती हैं ।।२५।।

अवश्य ही अपने अचिन्त्य कर्मके प्रभावसे यह सती हमें भी लाँघकर अपने पतिके साथ उच्चतर लोकोंको जा रही है ।। २६ ।।

इस लोकमें कुछ ही दिनोंका जीवन होनेपर भी जो लोग भगवान्‌के परमपदकी प्राप्ति करानेवाला आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उनके लिये संसारमें कौन पदार्थ दुर्लभ है ।। २७ ।।

अतः जो पुरुष बड़ी कठिनतासे भूलोकमें मोक्षका साधनस्वरूप मनुष्य-शरीर पाकर भी विषयोंमें आसक्त रहता है, वह निश्चय ही आत्मघाती है; हाय! हाय! वह ठगा गया ।।२८।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! जिस समय देवांगनाएँ इस प्रकार स्तुति कर रही थीं, भगवान्के जिस परमधामको आत्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवत्प्राण महाराज पृथु गये, महारानी अर्चि भी उसी पतिलोकको गयीं ।। २९ ।।

परमभागवत पृथुजी ऐसे ही प्रभावशाली थे। उनके चरित बड़े उदार हैं, मैंने तुम्हारे सामने उनका वर्णन किया ।।३०।।

संस्कृत श्लोक :-

य इदं सुमहत्पुण्यं श्रद्धयावहितः पठेत् । श्रावयेच्छृणुयाद्वापि स पृथोः पदवीमियात् ।।३१ ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चस्वी राजन्यो जगतीपतिः । वैश्यः पठन् विट्पतिः स्याच्छूद्रः सत्तमतामियात् ।।३२ त्रिःकृत्व इदमाकर्ण्य नरो नार्यथवाऽऽदृता । अप्रजः सुप्रजतमो निर्धनो धनवत्तमः ।।३३ अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खा भवति पण्डितः । इदं स्वस्त्ययनं पुंसाममंगल्यनिवारणम् ।।३४ धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्यं कलिमलापहम् । धर्मार्थकाममोक्षाणां सम्यक्सिद्धिमभीप्सुभिः । श्रद्धयैतदनुश्राव्यं चतुर्णां कारणं परम् ।।३५ विजयाभिमुखो राजा श्रुत्वैतदभियाति यान् । बलिं तस्मै हरन्त्यग्रे राजानः पृथवे यथा ।।३६ मुक्तान्यसंगो भगवत्यमलां भक्तिमुद्वहन् । वैन्यस्य चरितं पुण्यं शृणुयाच्छ्रावयेत्पठेत् ।।३७ वैचित्रवीर्याभिहितं महन्माहात्म्यसूचकम् । अस्मिन् कृतमतिर्मर्त्यः पार्थवीं गतिमाप्नुयात् ।। ३८ अनुदिनमिदमादरेण शृण्वन् पृथुचरितं प्रथयन् विमुक्तसंगः । भगवति भवसिन्धुपोतपादे स च निपुणां लभते रतिं मनुष्यः ।।३९

हिंदी अनुवाद :-

जो पुरुष इस परम पवित्र चरित्रको श्रद्धापूर्वक (निष्कामभावसे) एकाग्रचित्तसे पढ़ता, सुनता अथवा सुनाता है- वह भी महाराज पृथुके पद – भगवान्‌के परमधामको प्राप्त होता है ।।३१।।

इसका सकामभावसे पाठ करनेसे ब्राह्मण ब्रह्मतेज प्राप्त करता है, क्षत्रिय पृथ्वीपति हो जाता है, वैश्य व्यापारियोंमें प्रधान हो जाता है और शूद्रमें साधुता आ जाती है ।।३२।।

स्त्री हो अथवा पुरुष – जो कोई इसे आदरपूर्वक तीन बार सुनता है, वह सन्तानहीन हो तो पुत्रवान्, धनहीन हो तो महाधनी, कीर्तिहीन हो तो यशस्वी और मूर्ख हो तो पण्डित हो जाता है। यह चरित मनुष्यमात्रका कल्याण करनेवाला और अमंगलको दूर करनेवाला है ।।३३-३४।।

यह धन, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला और कलियुगके दोषोंका नाश करनेवाला है। यह धर्मादि चतुर्वर्गकी प्राप्तिमें भी बड़ा सहायक है; इसलिये जो लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको भलीभाँति सिद्ध करना चाहते हों, उन्हें इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करना चाहिये ।। ३५।।

जो राजा विजयके लिये प्रस्थान करते समय इसे सुनकर जाता है, उसके आगे आ-आकर राजालोग उसी प्रकार भेंटें रखते हैं जैसे पृथुके सामने रखते थे ।।३६।। मनुष्यको चाहिये कि अन्य सब प्रकारकी आसक्ति छोड़कर भगवान्में विशुद्ध निष्काम भक्ति-भाव रखते हुए महाराज पृथुके इस निर्मल चरितको सुने, सुनावे और पढ़े ।। ३७।।

विदुर जी ! मैंने भगवान्‌के माहात्म्यको प्रकट करनेवाला यह पवित्र चरित्र तुम्हें सुना दिया। इसमें प्रेम करनेवाला पुरुष महाराज पृथुकी-सी गति पाता है ।।३८ ।।

जो पुरुष इस पृथु-चरितका प्रतिदिन आदरपूर्वक निष्कामभावसे श्रवण और कीर्तन करता है; उसका जिनके चरण संसारसागरको पार करनेके लिये नौकाके समान हैं, उन श्रीहरिमें सुदृढ़ अनुराग हो जाता है ।। ३९।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्यायः ।।२३।।

१. प्रा० पा० – वायौ वायुं। २. प्रा० पा०- स्थो व्यधात्। ३. प्रा० पा०- कर्षितदेह०। १. प्रा० पा० – यो वा । २. प्रा० पा० – ताश्रयः। ३. प्रा० पा०- सोऽभवदुत्तमः ।

Leave a Comment

error: Content is protected !!